वास्तविक खुशी और प्रसन्नता के कारणों पर कनाडा में एक शोध हुआ। उसके अनुसार धन की अधिकता से ही व्यक्ति प्रसन्नता महसूस नहीं करता है। बल्कि लो...
वास्तविक खुशी और प्रसन्नता के कारणों पर कनाडा में एक शोध हुआ। उसके अनुसार धन की अधिकता से ही व्यक्ति प्रसन्नता महसूस नहीं करता है। बल्कि लोग अपना धन दूसरों पर खर्च कर ज्यादा प्रसन्न महसूस करते हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का कहना है कि चाहे खर्च की गई रकम छोटी ही क्यों न हो, व्यक्ति को प्रसन्न बनाती है। शोध में वे कर्मचारी ज्यादा खुश पाए गए जो बोनस की सारी रकम खुद पर खर्च करने के बजाय कुछ रकम दूसरों पर भी खर्च करते हैं। शोध दल की मुखिया प्रोफेसर एलिजाबेथ डन कहती हैं- इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि कौन कितना कमाता है, लेकिन लोगों ने दूसरों के लिए कुछ खर्च करने के बाद अपने भीतर ज्यादा खुशी महसूस किया।
सचमुच कई तरह से खुशियां देती है यह जिंदगी। वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के अनुसार, 'जीने के केवल दो ही तरीके हैं। पहला यह मानना कि कोई चमत्कार नहीं होता है और दूसरा कि हर वस्तु एक चमत्कार है।' खुशी एवं मुस्कान भी जीवन का एक बड़ा चमत्कार ही है, जो जीवन को एक सार्थक दिशा प्रदत्त करता है। हर मनुष्य चाहता है कि वह सदा मुस्कुराता रहे और मुस्कुराहट ही उसकी पहचान हो। क्योंकि एक खूबसूरत चेहरे से मुस्कुराता चेहरा अधिक मायने रखता है, लेकिन इसके लिए आंतरिक खुशी जरूरी है। जीवन में जितनी खुशी का महत्व है, उतना ही यह महत्वपूर्ण है कि वह खुशी हम कहां से और कैसे हासिल करते हैं। खुश रहने की अनिवार्य शर्त ये है कि आप खुशियां बांटें। खुशियां बांटने से बढ़ती हैं और दुख बांटने से घटता हैं। यही वह दर्शन है जो हमें स्व से पर-कल्याण यानी परोपकारी बनने की ओर अग्रसर करता है। जीवन के चौराहे पर खड़े होकर यह सोचने को विवश करता है कि सबके लिये जीने का क्या सुख है?
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह सबके बीच रहता है, अतः समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य भी होते हैं। सबसे बड़ा कर्तव्य है एक-दूसरे के सुख-दुःख में शामिल होना एवं यथाशक्ति सहायता करना। बड़े-बड़े संतों ने इसकी अलग-अलग प्रकार से व्याख्या की है। संत तो परोपकारी होते ही हैं। तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में श्रीराम के मुख से वर्णित परोपकार के महत्व का उल्लेख किया है-
परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।
अर्थात् परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाने के समान कोई अधर्म नहीं। संसार में वे ही सुकृत मनुष्य हैं जो दूसरों के हित के लिए अपना सुख छोड़ देते हैं।
एक चीनी कहावत- पुष्प इकट्ठा करने वाले हाथ में कुछ सुगंध हमेशा रह जाती है। जो लोग दूसरों की जिंदगी रोशन करते हैं, उनकी जिंदगी खुद रोशन हो जाती है। हंसमुख, विनोदप्रिय, विश्वासी लोग प्रत्येक जगह अपना मार्ग बना ही लेते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं खुशी का कोई निश्चित मापदंड नहीं होता। एक मां बच्चे को स्नान कराने पर खुश होती है, छोटे बच्चे मिट्टी के घर बनाकर, उन्हें ढहाकर और पानी में कागज की नाव चलाकर खुश होते हैं। इसी तरह विद्यार्थी परीक्षा में अव्वल आने पर उत्साहित हो सकता है। सड़क पर पड़े सिसकते व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाना हो या भूखें-प्यासे-बीमार की आहों को कम करना, अन्याय और शोषण से प्रताड़ित की सहायता करना हो या सर्दी से ठिठुरते व्यक्ति को कम्बल ओढ़ाना, किन्हीं को नेत्र ज्योति देने का सुख है या जीवन और मृत्यु से जूझ रहे व्यक्ति के लिये रक्तदान करना-ये जीवन के वे सुख है जो इंसान को भीतर तक खुशियों से सराबोर कर देते हैं।
ईसा, मोहम्मद साहब, गुरु नानकदेव, बुद्ध, कबीर, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह, आचार्य तुलसी और हजारों-हजार महापुरुषों ने हमें जीवन में खुश, नेक एवं नीतिवान होने का संदेश दिया है। इनका समूचा जीवन मानवजाति को बेहतर अवस्था में पहुंचाने की कोशिश में गुजरा। इनमें से किसी की परिस्थितियां अनुकूल नहीं थी। हर किसी ने मुश्किलों से जूझकर उन्हें अपने अनुकूल बनाया और जन-जन में खुशियां बांटी। ईसा ने अपने हत्यारों के लिए भी प्रभु से प्रार्थना की कि प्रभु इन्हें क्षमा करना, इन्हें नहीं पता कि ये क्या कर रहे हैं। ऐसा कर उन्होंने परार्थ-चेतना यानी परोपकार का संदेश दिया। बुद्ध ने शिष्य आनंद को 'आधा गिलास पानी भरा है' कहकर हर स्थिति में खुशी बटोरने का संदेश दिया। मोहम्मद साहब ने भेदभाव रहित मानव समाज का संदेश बांटा। तभी तो कालिदास ने कहा है कि सज्जनों का लेना भी देने के लिए ही होता है, जैसे कि बादलों का।
परोपकार को अपने जीवन में स्थान दीजिए, जरूरी नहीं है कि इसमें धन ही खर्च हो। बस मन को उदार बनाइए। आपके आसपास अनेकों लोग रहते हैं। हर व्यक्ति दुःख-सुख के चक्र में फंसा हुआ है। आप उनके दुःख-सुख में सम्मिलित होइए। यथाशक्ति मदद कीजिए।
परोपकार एक महान कार्य है। सबसे बड़ा पुण्य है। पहले बड़े-बड़े दानी हुआ करते थे जो यथास्थान धर्मशालाएं बनवाते थे। ग्रीष्मकाल में प्यासे पथिकों के लए प्याऊं की व्यवस्था करते थे। यह व्यवस्था आज भी प्रचलित है। योग्य गुरुओं की देखरेख में पाठशालाएं खोली जाती थीं। जिनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। लेकिन, अब सब व्यवसाय बन गया है, फिर भी परोपकारी कहां चुकते हैं?
जीवन केवल भोग-विलास एवं ऐश्वर्य के लिए ही नहीं है। यदि ऐसा है तो यह जीवन का अधःपतन है। आप अपनी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हुए यदि परोपकार करेंगे तभी जीवन सार्थक होगा। अपनी आत्मा को पवित्र बनाकर निर्मल बुद्धि के द्वारा जग हिताय कार्य करना ही सफल जीवन है। इतिहास ऐसे महान् एवं परोपकारी महापुरुषों के उदाहरणों से समृद्ध है, जिन्होंने परोपकार के लिये अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को दांव पर लगा दिया। देवासुर संग्राम में अस्त्र बनाने के लिए महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की अस्थियों का दान कर दिया। जटायु ने सीता की रक्षा के लिए रावण से युद्ध करते हुए अपने प्राण की आहुति दे दी। पावन गंगा को धरती पर उतारने के लिए शिव ने पहले उसे अपनी जटाओं में धारण किया, फिर गंगा का वेग कम करते हुए उसे धरती की ओर प्रवाहित कर दिया। यदि वे गंगा के वेग को कम न करते तो संभव था कि धरती उस वेग को सहन न कर पाती और पृथ्वी के प्राणी एक महान लाभ से वंचित रह जाते। शिव तो समुद्र-मंथन से निकले हुए विष को अपने कंठ में धारण कर नीलकंठ बन गए। ये सब उदाहरण महान परोपकार के हैं। इन आदर्शों को सामने रखकर हम कुछ परहित कर्म तो कर ही सकते हैं। हमें बस इतनी शुद्ध बुद्धि तो अवश्य ही रखनी चाहिए कि केवल अपने लिए न जीएं। कुछ दूसरों के हित के लिए भी कदम उठाएं। क्योंकि परोपकार से मिलने वाली प्रसन्नता तो एक चंदन है, जो दूसरे के माथे पर लगाइए तो आपकी अंगुलियां अपने आप महक उठेगी।
ललित गर्ग
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