मानव का जीवन ही कहानी है डॉ. जगदीश लछाणी कहानी उतनी ही प्राचीन है, जितना मानव ! मानव का जीवन ही कहानी है। मानव में जब चेतना उत्पन्न हुई,...
मानव का जीवन ही कहानी है
डॉ. जगदीश लछाणी
कहानी उतनी ही प्राचीन है, जितना मानव ! मानव का जीवन ही कहानी है। मानव में जब चेतना उत्पन्न हुई, उसका चिंतन प्रारंभ हो गया। और फिर चिंतन करते-करते, उसने प्रश्नों के उत्तर भी स्वयं ही देने प्रारंभ कर दिये। यह विस्तृत जगत इन प्रश्नों से निकल हमारे चारों ओर फैल गया है। मानव मन में जानने की इच्छा भी है, तो अपनी बात कहने की भावना भी। इस सुनने-कहने की प्रवृत्ति ने कहानी को जन्म दिया है। कहानी सुनना और सुनाना मानव की स्वाभाविक एवं स्थाई प्रवृत्ति है। कहानी का रूप सदैव ही गतिशील रहा है। वह विस्तृत, विकसित एवं परिवर्तित होता रहता है। कविता को छोड़, सिंधी गद्य का सबसे सबल विधा कहानी है। सिंधी कहानी भारत विभाजनोपरान्त पर्याप्त विकसित हुई है। नये-नये प्रयोगों एवं रचनात्मक परिपक्वता के कारण, सिन्धी कहानी भारत की अन्य भाषाओं के सम्मुख खड़े रहने में समर्थ है।
इस संग्रह में अलग-अलग एवं सूरतहाल में लिखी अट्ठारह प्रसिद्ध कहानियाँ हैं। इन कहानियों की पठनीयता हमें सिन्ध के साहित्य, भाषा, शैली और सौंदर्य से जोड़ती है। प्रथम कहानी है सुगन आहूजा की माई-बाप। सुगन आहूजा प्रगतिवादी साहित्यकार थे। उनकी कहानियों की संख्या अधिक नहीं है। 20वीं शताब्दी के पाँचवें दशक के दरम्यान प्रकाशित उनकी कहानियों ने लेखक को पाठक के क़रीब ला दिया। उन्होंने अपनी कहानियों में चारित्रिक प्रवृत्तियों एवं व्यक्तिगत स्थितियों का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उनकी कहानियाँ कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से सिन्धी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। माई-बाप कहानी में ग़रीबी का हृदय विदारक चित्र है। सरकार माई-बाप है लेकिन वह दिलासा देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करती। पचास वर्षों के बाद भी गाँवों की स्थिति वही की वही है। यह कहानी हमें मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘कफ़न’ का स्मरण दिलाती है।
‘संगीता’ के संपादक आनंद टहलरामाणी के आधा दर्जन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। वे प्रगतिवादी दौर के कहानीकार थे। बदनाम बस्ती उनकी बहुचर्चित चरित्रप्रधान कहानी है। इस कहानी की नायिका रेशमा बदनाम बस्ती में रहती है जहाँ लोग कीड़े-मकौड़ों का जीवन व्यतीत करते हैं। यहाँ स्त्री की इज्जत भी और चीज़ों की भाँति बिकाऊ है। लेकिन रेशमा अपनी अल्हड़ जवानी की रक्षा हेतु चंडी का रूप धारण कर लेती है... ‘बदमाश, साला हरामखोर, सूअर की औलाद! अगर फिर किसी औरत की तरफ़ आँख उठाकर देखा भी, तो इस बत्ती से मुँह का दूसरा बाजू भी जला दूँगी।’
टूटी हुई जंजीरें के रचनाकार कृष्ण खटवाणी सिन्धी साहित्य के एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आज भी स्त्री का समाज में अनेक जिल्लतों से गुज़रना पड़ता है, यह इस कहानी का मूल स्वर है। लोग आज भी रूढ़िगत परम्पराओं में जकड़े हुए हैं। लेकिन आज की स्त्री जागरूक है और समाज की ये रूढ़िगत दीवारें टूटती हुई नज़र आती हैं। मैं पत्थर नहीं बनना चाहती के कहानीकार लखमी खिलाणी सिन्धी के एक बहुमुखी साहित्यकार हैं। आज का इन्सान स्वार्थी हो गया है। वह भावनात्मक सम्बन्ध को भी गलत समझने की भूल कर बैठता है। लेकिन इस कहानी की नायिका निर्मला पत्थर नहीं बनना चाहती। ‘विरोधाभास’ आत्म कथात्मक शैली में लिखी रीटा शहाणी की एक प्रसिद्ध कहानी है। रीटा ने साहित्य की प्रायः समस्त विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है। जीवन का विरोधाभास देखिए - सदा बीमार रहने वाली नायिका तो जीवित रहती है लेकिन उसका जवां मर्द, सेहत का मसीहा प्राण गँवा बैठता है। किसी भी सेहत के उपकरण का इस्तेमाल अत्यधिक सावधानी से करना चाहिए, यही इस कहानी में संदेश पाया है। गुनो सामताणी की खंडहर कहानी प्रथम बार ‘कूँज’ के 1968 के आज़ादी अंक में ‘कहानी और मैं...’ के कथ्य से प्रकाशित हुई थी। इस कहानी में शंकर और हेमा अपने ‘भूत’ को दुहराते हैं। समय के कर्कश यथार्थ ने, शंकर को खंडहर में परिवर्तित कर दिया है। हेमा के अथक प्रयास भी शंकर को भूत से वर्तमान में लाने में सफल नहीं होते। कहानी का अभिप्राय प्रेम से सम्बन्धित है। समाज के कठोर यथार्थ से व्यक्ति प्रेम से वंचित हो, अपनी असलियत खो बैठता है। ‘खंडहर’ कहानी में दस्तावेज़ का प्रतीक पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ जाता है।
सिन्धी कहानी में मोहन कल्पना का बड़ा योगदान है। भारत विभाजन के बाद मोहन कल्पना सिन्धी कहानी में एक बड़े हस्ताक्षर होकर उभरे हैं। उनकी कहानियाँ प्रगतिवादी पृष्ठभूमि से आरंभ होकर वैयक्तिक सामाजिक धरातल को छूती हुई धीरे-धीरे आत्मनिष्ठ एवं आत्म केंद्रित होती गई हैं। झलक कहानी में मानवीय विवशता का सजीव एवं हृदयग्राही चित्रण है। यह कहानी प्रगतिवादी धारा से प्रभावित है, हालाँकि यह एक भावपूर्ण प्रेम कहानी है। यह कहानी हमारे सम्मुख प्रेम एवं दरिद्बता की तड़पाने वाली तस्वीर प्रस्तुत करती है। एक बेरोज़गार विवशप्रेमी, अपनी प्रेयसी की तुच्छ इच्छा भी पूर्ण करने में असमर्थ है। इस कहानी में नायक की अपेक्षा नायिका का चरित्र अधिक प्रभावशाली है। कहानी का अंत अत्यंत ही भव्य, नाटकीय एवं अप्रत्याशित है, लेकिन उसे आश्चर्यजनक रूप से स्वाभाविक एवं कलात्मक स्तर प्रदान किया गया है। जिसमें प्रेमिका, प्रेमी से माँगी हुई चीज़ ‘पान’ के बदले कैंप के शरणार्थी बालक से खरीदे बिस्कुट प्राप्त होने पर कहती है, ‘तुमने मुझे इस बिस्कुट के रूप में जो दिया है, वह राजा हरिश्चंद्ब ने ऋषि विश्वामित्र को भी नहीं दिया था।’ ‘स्टील की थाली’ के कहानीकार हरी हिमथाणी पुरानी पीढ़ी के सशक्त कथाकार हैं। उनका कथा साहित्य प्रायः रोमानवी अहसासों से परिपूर्ण है। लेकिन यह कहानी जीवन की एक साधारण घटना को लेकर मज़ाकिया स्वर में लिखी गई है। लाल पुष्प भारत विभाजन के बाद उत्पन्न दूसरी युवापीढ़ी के एक बड़े हस्ताक्षर होकर उभरे हैं। उन्होंने कथानक को लेकर कहानी में अनेक प्रयोग करके कहानी को नया संस्कार प्रदान किया है। रिक्तता ही रिक्तता कहानी अपनी विषयगत नवीनता एवं कलात्मक परिपक्वता के दर्शन कराती है। यह कहानी अपने नये कलेवर के कारण कदाचित नयी कहानी की प्रदर्शनी में भी सरलता से चलाई जा सकती है। यह हमारे आसपास के क्रमरहित एवं अव्यवस्थित स्थितियों की कहानी हैं।
ईश्वर चंद्र नई पीढ़ी के कहानीकारों में एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। ईश्वर चन्द्र ने अपनी कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन की अविस्मरणीय झाँकियाँ बहुत ही सादगी एव यथार्थगत ढंग से प्रस्तुत की हैं। मध्य वर्ग के लोगों की विवशताएँ, परिस्थितियों से जूझना, जटिलताएँ एवं यातनामय जीवन का अत्यंत ही गंभीरता से विश्लेषण प्रस्तुत किया है। कहानी ‘अपने ही घर में’ इसका एक सशक्त उदाहरण है।
आधुनिक सिन्धी कहानी का प्रारम्भ भारत विभाजन से पूर्व सन 1930 ई. के आसपास अमरलाल हिंगोराणी, मिर्जा नादर बेग, एवं आसानन्द मामतोरा की सम्मिलित कहानियों से जाना जा सकता है। उन तीनों की कहानियाँ आधुनिक कहानी के क़रीब क़रीब है। अमरलाल हिंगोराणी की यथार्थ पर आधारित कहानियों के एवज उन्हें कहानियों का जनक माना जाता है। ‘अदो अब्दुलरहमान’ उनकी बहुचर्चित कहानी है। उन्होने मानववृतियों एवं मानव भावनाओं को आधार बनाकर कहानियाँ लिखी। ‘बुड्ढीअ जी बाझ’ (क़दीम की कृपा) भी उनकी ऐसी ही कहानी है। पोपटी हीरानंदाणी, सिंधी नारी समाज की एक बेधड़क लेखिका थी जो अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का शऊर रखती थी। ‘अब तो वह कुछ भी नहीं’ कहानी में उन्होंने बड़ी प्रबलता के साथ नारी मन की प्रताड़ना को उद्घाटित किया है। जहां उम्र के ढलते हुए पड़ाव पर आकर नारी खुद को लुटा हुआ पाती है। डा. मोतीलाल जोतवाणी, एक कहानीकार, उपन्यासकार, व समालोचक रहे। अपनी कहानी ‘लेन-देन’ में स्पष्ट रूप से कार्यकायों व दफ़्तरों में ऊपर से नीचे तक सियासतदानी के फैले हुए जाल की पेचकश दर्शायी है। स्पष्ट है कि इस महाजाल से चाहकर भी कोई बच नहीं पाता शायद इसलिए कि मानव अपनी ही चाहतों का कैदी बन गया है। ‘थकी हुई मुस्कान’ हरिकान्त जेठवाणी की अनुपम कहानी है। भूली बिसरी यादों की संकरी गली से मानव मन कितना भी पीछा छुड़ाना चाहे, नामुमकिन है। कभी न कभी, कहीं न कहीं, ज़िंदगी के किसी मोड़ पर मिलने पर पुराने नाते फिर से माज़ी को दोहराने पर विवश हो जाते हैं। कहानी की किरदार ‘छाया’ पुलिस आफिसर की बेटी, खुद एक अध्यापिका, कैंसर के मर्ज़ से पीड़ित है- उसे मिलने आए पुराने दोस्त से पिता कह उठाते हैंः ‘‘दर्द उभरता है तो जैसे सौ- सौ बिच्छू एक ही वक़्त डंक मारने लगते है।’’ दिल और दर्द का एक अनोखा संगम, अनुभूति से अभिव्यक्ति तक का सफ़र तय करता हुआ हमारे दिल को छू पाने में सक्षम है। तीर्थ चांदवाणी की कहानी ‘मुक्ति’ में दो दोस्तों के बीच का संवाद है- देनदार और लेनदार का नाता है। लेनदार का वक़्त-बेवक़्त देनदार के घर उसकी हाज़िरी व गैर-हाज़िरी में आना, उसकी सुंदर पत्नी से बतियाना उसे कितना खलता है, एक नए प्रयोगात्मक ढंग से लिखी यह कहानी संवादों द्वारा अपने विचारों व मनोभावों का दस्तावेज़ है। बंसी खूबचंदाणी की कहानी ‘बकिट-लिस्ट’, आज के समसामयिक दौर की कहानी है जो इसी नाम की फिल्म के आधार पर लिखी गई है। एक नया प्रयोग, एक नया गणित का फार्मूला विद्यमान है-‘‘अगर हम अपनी इच्छाएँ बढ़ाएँगे और वे पूरी नहीं होंगी, तो हमारी खुशी की मात्रा घटेगी।’’ कहानी सोचने पर मजबूर करती है और एक नए सिरे से खुद से परिचित कराती है। खिमन मूलाणी, एक गज़ल-गू शायर, एक सशक्त अनुवादक और कहानीकार है। उनकी कहानी ‘प्रतीक्षा’ में विभाजन के बाद का दर्द आहें भरता है। यह हर एक सिन्धी प्रतिनिधि का दर्द है, कसक है और वतन की मिट्टी से दूर रहने वाले मन के रिसते जख़्मों की दास्तान है। शाह साहब के कलामों की गूंज, सर-ज़मीन के दीदार की ललक, सिंधु नदी में जलमय होने की तमन्ना अब भी निर्वासित हुईं दिलों में बरकरार है, प्यास अब भी बाक़ी है।
जुलूस इन्दिरा वासाणी की एक अनूठी कहानी है जिसमें परिवार में सियासत का मिश्रित स्वाद है। एक कमरे वाले घर में रहने वाले बाबा और सभी सदस्य ‘लाओ और खाओ’ वाले हिसाब में जीते हुए भी संतुष्ट है, दुखों के जीवन की सुन्दरता मानने वाले इन्सान आशावादी होते हैं और इस विश्वास के साथ जीते हैं कि इन्सान की एक सी अवस्था नहीं रहती।
अचानक बाबा की मौत उसी सुबह हो जाती है जब ताऊजी को झंडे की सलामी के लिये जाना था। ताऊजी बाबा की मौत की खबर मंत्री महोदय को देते हुए उन्हें ‘जुलूस’ में शामिल होने का आग्रह करते हैं। लोगों की भीड़, फोटोग्राफ़र, वीडियो-कैसेट और ‘मंत्री महोदय की जय’, ‘बाबाजी अमर रहे’ के नारों के बीच शव यात्रा शुरू हुई। अलग-अलग सोच, कथानक, पात्र एवं घटनाओं का एक कोलाज है यह कहानी।
इन कहानियों की अनुवादिका देवी नागरानी सिन्धी, हिंदी एवं अंग्रेजी की सशक्त लेखिका हैं। इसके पहले भी उनके चार अनूदित कहानी-संग्रह आ चुके है.‘‘और मैं बड़ी हो गई’’, ‘‘सिन्धी कहानियाँ’’, ‘‘पंद्रह सिन्धी कहानियाँ’’, ‘‘सरहदों की कहानियाँ’’ और अब आपके सामने है ‘अपने ही घर में...’, इस संग्रह की सभी कहानियों में मानव मन की पेचकश व कश्मकश झलकती है, और अपने आस-पास के परिदृश्य से हमें जोड़ती है। सभी कहानियों का चयन लेखिका ने आज के समय के काल-चक्र के अनुसार किया है। अनुवाद कार्य आसान नहीं है, लेकिन देवी नागरानी ने इस दुरूह कार्य को अपनी मेहनत और लगन से अंजाम दिया है। उनकी चुनी हुई कहानियाँ समस्त सिन्धी समाज की नए और पुराने संस्कारों एवं सभ्यता की एक तस्वीर पेश करती है। इस अनुवाद के माध्यम से सिन्धी साहित्य को हिन्दी की सरिता में समोहित करने के इस सफ़ल प्रयास के लिए उन्हें मेरी दिली मुबारकबाद एवं शुभकामनाएँ।
जगदीश लछाणी
पताः जी 2, राजीव अपार्टमेंट, गोल मैदान,
उल्हासनगर 421001
फोनः 09423087336
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सिन्धी कहानियों का हिन्दी अनुवाद...
उषा राजे सक्सेना
बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी, गजलकार, गीतकार, कहानीकार देवी नागरानी न केवल हिंदी जगत में अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए सम्मानित है बल्कि सिन्धी-अरबी के साथ हिंदी एवं उर्दू जगत भी उनके रचनात्मक कार्यों से गौरवान्वित है। देवी नागरानी एक ऐसी अनुवादक है जिन्होंने पहले रूमी, ख़लील जिब्रान, टैगोर और कई अँग्रेजी के लेखकों और कवियों को सिन्धी और हिंदी के पाठकों से परिचित कराया और अब वे समकालीन (बीसवीं और इक्कीसवीं सदी) हिंदी और सिन्धी लेखकों को एक बड़े पैमाने पर अनुवादित कर हिंदी और सिन्धी भाषा साहित्य को समृद्ध कर रही हैं।
देवी जी ने चुनिंदा सिन्धी कहानियों का हिंदी में अनुवाद कर हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के साथ-साथ अपने शब्दसागर के द्वारा हिंदी के पाठकों को सिन्धी सोच, सभ्यता और संस्कृति का अनुभव संसार दिया है। उन्होंने हिंदी एवं अन्य भाषाओं से सिन्धी में अनुवाद कर सिन्धी भाषा के पाठकों का ज्ञानवर्धन करने के साथ साहित्य के माध्यम से उन्हें अन्य संस्कृतियों को जानने और समझने का अवसर भी दिया है। अनुवाद करते हुए नागरानी जी ऐसी सहज और सरल भाषा का प्रयोग करतीं है जो हर वर्ग के पाठक को पसंद आ जाए। वे पाठकों तक पहुँचने के लिए मात्र अनुवाद ही नहीं करती आवश्यकता अनुसार ट्रांसलिटेरेशन और इंटरप्रेटेशन का सहारा भी लेती हैं जिसकी आज के भूमंडलीकरण और उदारीकरण वाले परिवेश में जगह बनाने के लिए एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करने की ज़रूरत है। यह कहने में मुझे कत्तई संकोच नहीं है कि आज का पाठक भाषाओं के इस संक्रमण काल में अपनी भाषा से इतर शब्दों को एक बड़ी संख्या में आत्मसात कर चुका है। बरसों-बरस अमरीका में निवास करने के कारण देवी जी, भाषा की इस विडम्बना को गहराई से समझती हैं अतः वे गंगा-जमुनी भाषा के साथ सरस्वती का मेल भी भाषाओं के माध्यम से पाठकों को कराती हैं।
देवी नागरानी के पास एक कहानीकार की दृष्टि है। वे स्वयं एक सबल कहानीकार है। अतः उनके द्वारा किए गए अनुवाद में भावनात्मक गहराई है। वे मानती है कि सिन्ध में बड़े और विशिष्ट कवि हुए है जिनका अनुवाद उन्होंने हिंदी में किया है पर सिन्ध में कई अच्छे कहानीकार भी हुए है। वे उन्हें मात्र सिन्ध तक सीमित नहीं रहने देना चाहती है। अनुवाद के माध्यम से वे उन्हें हिंदी जगत में लाना चाहती हैं। इस संग्रह में उन्होंने अट्ठारह कथाकारों की अट्ठारह कहानियों को संकलित किया है जो विषय वस्तु के कारण अपने समय की लोकप्रिय कहानियाँ रही हैं। इनमें से कुछ कहानियाँ देश और काल का अतिक्रमण कर कालजयी होने की संभावना रखती हैं जिनका अनुवाद अँग्रेजी में भी होना चाहिए क्योंकि उन्हें और वृहद पाठक वर्ग तक पहुँचना चाहिए। गुनो सामताणी की कहानी ‘खंडहर’, आनंद टहलरामाणी की ‘बदनाम बस्ती’, लखमी खिलाणी की ‘मैं पत्थर नहीं बनना चाहती’, डॉ. मोतीलाल की ‘लेन-देन’ बंसी खूबचंदाणी की ‘बकिट-लिस्ट’, खिमन मूलाणी की ‘प्रतीक्षा’, हरी हिमथाणी की ‘स्टील की थाली’ अपनी विशिष्ट कथावस्तु और विषय के निर्वाह तथा शैली के कारण प्रभावशाली हैं। मैं देवी जी की आभारी हूँ कि उन्होंने इस संकलन के द्वारा सिन्ध के लोगों के संघर्ष, जद्दोजहद, दर्द और मारक स्थितियों से रू-ब-रू होने का मुझे अवसर दिया।
सुगन आहूजा की कहानी ‘माई बाप’ पढ़ते वात्सल्य के स्वरूप का एक अनोखा दर्शन हुआ। जगदीश लछाणी जी ने इन कहानियों का इतना सुंदर और यथार्थवादी विश्लेषण किया है कि आगे और कुछ लिखने को नहीं रह जाता है। मैं लछाणी जी से पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि देवी नागरानी ने इन सिन्धी कहानियों का हिंदी अनुवाद कर एक बहुत ही संधिपूर्ण कार्य किया है। देखा जाए तो कई माइनों में यह पुस्तक सिन्धी एवं हिंदी भाषा के लिए एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
देवी जी ने मात्र सिन्धी की बहुचर्चित और महत्वपूर्ण कहानियों का ही चयन इस संग्रह में नहीं किया है उन्होंने कुछ ऐसी साधारण कहानियों का भी चयन किया है जो पढ़ने के बाद पाठक को सोचने के लिए मजबूर करती हैं। ये चयनित कहानियाँ अपने भावबोध, परिवेश, सरोकार और शैली के माध्यम से यह अहसास करा देती हैं कि ये कहानियाँ विभिन्न काल खण्डों में लिखी गईं रोचक और मर्मस्पर्शी, हृदयविदारक यथार्थ में पोषित कहानियाँ है। देवी नागरानी जी वास्तव में इस चयन के लिए साधुवाद की पात्र हैं। मुझे पूरी आशा है कि हिंदी जगत में सिन्धी भाषा से अनुवादित इन कहानियों का भरपूर स्वागत होगा।
शुभकामनाओं सहित
उषा राजे सक्सेना
सह-संपादक- पुरवाई, लंदन
अध्यक्ष- ग्रेट ब्रिटेन हिंदी लेखक संघ
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भाषा की सीमाओं से निकली
रचनाओं की महक
डॉ. रमाकांत शर्मा
दुनिया भर में बोली और समझी जाने वाली असंख्य भाषाओं की बात करने से पहले मुझे इस बात का ख्याल आता है कि मैं तो भारत की अधिसंख्य भाषाएं भी नहीं जानता, सिंधी भी उसमें शामिल है। देवी नागरानी द्वारा अनूदित और संपादित सिंधी कहानियों का यह संकलन पढ़ कर मुझे लगा है कि मैं जिन असंख्य भाषाओं को नहीं जानता उनमें रचित अकूत श्रेष्ठ साहित्य से वंचित रहने के लिए अभिशप्त रहता आया हूँ। युगों से न जाने कितनी ही भाषाओं में साहित्य रचा जा रहा है, पर उसका एक बहुत छोटा सा अंश अनुवाद के माध्यम से उभर कर सामने आ पाता है और न जाने कितनी ही रचनाएँ सिर्फ संबंधित भाषाओं की बगियों में ही अपनी खुशबू बिखेर कर तृप्त हो लेती हैं। जब भी ये रचनाएँ भाषा की सीमाओं से निकल कर अपने पंख फैलाती हैं तो अपने साथ एक पूरा संसार लेकर बाहर निकलती हैं, जिनमें उस भाषा की अपनी महक तो होती ही है, सामाजिक ताने-बाने और उससे जुड़ी जिंदगी का अनुभूत सत्य भी अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौजूद होता है। रचनाओं का यह विनिमय अन्य भाषा-भाषियों को इस सत्य का आभास कराता है कि भाषा अलग हो सकती है, पर संवेदनाओं की छुअन हर व्यक्ति को आंदोलित करती है, उसे झकझोरती है और बहुत कुछ सोचने-समझने को बाध्य करती है। क्या यह अहसास मात्र ही पूरी मानवता को जोड़ने के लिए काफी नहीं है?
मैं यह सोचने के लिए बाध्य हूं कि अगर अनुवाद-कला का अस्तित्व नहीं होता तो अन्य भाषाओं में रचित साहित्य अनचीन्हा और अबूझा ही रह जाता। सच में, इस कला को नमन करने का मन करता है। यह कला भाषाओं की दीवारें तोड़ कर पूरे विश्व को एकसाथ लाने के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया पवित्र प्रसाद है। अनुवाद के माध्यम से हम संबंधित भाषा-भाषियों के साहित्य से और उस साहित्य के माध्यम से उनके जीवन, उनकी संस्कृति, उनकी सभ्यता और जीवन-मूल्यों से स्वयं को जोड़कर देखने में समर्थ हो जाते हैं।
अनुवाद एक महीन काम है। दोनों भाषाओं पर महारत के साथ-साथ रचना के मर्म को समझना और फिर उसे लक्ष्य भाषा में ढालना कोई मजाक काम नहीं है। अनुवाद फूहड़ भी हो सकता है, जो पाठक में अरुचि जगाता है और श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रचना को मामूली और असंप्रेषित स्तर पर ला खड़ा कर देता है। यहीं अनुवादक की भूमिका महत्वपूर्ण हो उठती है। कहा जाता है कि जो अनुवाद, अनुवाद न लगे और मूल रचना का आनंद दे, वही सर्वश्रेष्ठ अनुवाद होता है। इस महीन काम को निभा पाने में देवी नागरानी जी पूरी तरह सफल रही हैं। सिन्धी और हिन्दी भाषा पर उनकी मजबूत पकड़ ने इस काम को आसान बना दिया है। वे स्वयं एक संवेदनशील रचनाकार हैं। उनकी शायरी, कविताएं और गद्य विधा में रचित रचनाएं पाठकों और श्रोताओं के भीतर तक उतरती रही हैं। अनेक भाषाओं की जानकार होने के कारण भी वे अन्य भाषाओं में रचित साहित्य से स्वयं को जोड़ती रही हैं। यही कारण है कि प्रस्तुत संग्रह में शामिल सभी कहानियों की आत्मा उनके अनुवाद में समा सी गई है। अनुवाद के माध्यम से वे हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सिन्धी कहानियों से हिन्दी के पाठकों को परिचित कराती रही हैं। यह संग्रह भी उसकी एक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसके लिए हिंदी का पाठक वर्ग सदैव उनका ऋणी रहेगा।
बधाई और शुभकामनाओं सहित,
डॉ. रमाकांत शर्मा
402-श्रीरामनिवास, टट्टा निवासी हाउसिंग सोसायटी,
पेस्तम सागर रोड नं. 3, चेम्बूर,
मुंबई-400089
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अनुवाद भाषा की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है
देवी नागरानी
भाषा समाज का सत्य, साहित्य का शिवम और संस्कृति का सुंदरम दर्शाती है. किसी भी भाषा में लिखा गया साहित्य उस भाषा की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक होता है। जब एक भाषा से दूसरी भाषा में एक लेखक दूसरे लेखक की सोच, कथानक व कलात्मक अभिव्यक्ति को साकार स्वरूप देकर दूसरी भाषा में उतारकर उन्हें क्षमतापूर्ण यथार्थ के क़रीब ले आता है तो उसे अनुवाद कहा जाता है। अनुवाद दो भाषाओं के बीच सांस्कृतिक वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम है जिसकी एक विशेष महत्वता और स्वीकार्यता है। यह एक ऐसा पुल है जो अंतरप्रांतीय और विदेश की भाषाओं को अनुवाद के माध्यम से विभिन्न स्वरूपों, संस्कारों और जीवन शैलियों से परिचित करवाता है।
हिंदुस्तान की प्राकृतिक भाषाओं की जननी जैसे संस्कृत मानी जाती है, उसी तरह सिन्धी भाषा भी संस्कृत की बेटी है जो संस्कृत के धातुओं की बुनियाद पर टिकी है। सिन्धी भाषा में दुनियाँ की सभी भाषाओं के उच्चार और आवाज़ मिश्रित है। उच्चार के मामले में सिन्धी न सिर्फ़ अरबी, फारसी, और उर्दू से ज़्यादा तकनीकी है, पर आज की और भाषाओं से भी ज़्यादा वसीह है। किसी भी मुल्क या कौम की भाषाओं के गुज़रे हुए या वर्तमान ज़माने के अदीबों का संकलित लेखन यक़ीनन साहित्य को समृद्ध करता है, और यही साहित्य जब अनुवाद के रूप में पाठकों के सामने आता है तो सच मानिए, तब यह साहित्य उस प्रांत, नगर, शहर, देश, विदेश जातियों का, उनके वर्ग, जीवन शैली, रीतियों-रिवाजों का परिचायक बन जाता है। हक़ीक़त में अदीबों का अदब ही उस कौम की जीवन शैली व संस्कारों का सम्पूर्ण प्रतीक है जो सत्य की शिला पर तराशा हुआ स्वरूप बनकर सामने आता है।
प्रीतम हम तुम एक हैं, दिखते हैं ये दोय
मन से मन को तोलिए, कभी न दो मन होय
जब से सृष्टि की रचना हुई है तब से अनुवाद होता आ रहा है। एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना विज्ञान तो है ही, साथ में कला भी है, जहां शिल्प के हुनर के ज़रिये उसमें मन चाहा सौंदर्य समावेश करके उसे मूल कृति के बहुत ही क़रीब लाया जाता है। बावजूद इसके अनुवाद की भी अपनी परम्पराएँ है, परीधियां है लक्ष्मण रेखा की तरह! एक तो अनुवाद में मूल लेखक की शैली, उसके विचारों की एक विशिष्ट बुनावट और कसावट होती है। जब उस रचना का भाषांतर होता है तो उसकी मौलिकता क़ायम रखने का प्रयास आवश्यकता बन जाती है। दोनों भाषाओं पर सम्पूर्ण ज्ञान व दक्षता हो- जिस भाषा से अनुवाद कर रहा है, और जिस भाषा में कर रहा है, दोनों भाषाओं पर उसका समान अधिकार होना अनिवार्य है। जब अनुवादक शब्दों के चक्रव्यूह को भेदकर कागज़ पर उतारी सूक्ष्म लकीरों में तराशी भावनाओं की ज़मीन को छू लेता है, तब विचारोपरांत अपनी भाषा में उस जज़्बे को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है तो कई बार यूं भी होता है कि अनुवाद कभी मूल से कम, कई एक बार उससे भी बेहतर, अपने आप में एक संतुलित सौंदर्य लिए हुए होता है।
अनुवाद किया हुआ साहित्य पाठक को अनुवाद नहीं बल्कि स्वाभाविक लगे, यही अनुवाद की मौलिकता है, और अनुवाद किये गए साहित्य के सही बिम्ब अंकित करने में ही अनुवादक की सार्थकता होती है। इसी दिशा में मेरे पहले प्रयास के अनुरूप सिन्धी अरबी लिपि से हिन्दी में अनुदित कहानियों के संग्रह ‘‘और मैं बड़ी हो गई’’, ‘सिन्धी कहानियाँ’, ‘पंद्रह सिन्धी कहानियाँ’ ‘सरहदों की कहानियाँ’ आपके सामने आए हैं। उसी सूत्र की एक और कड़ी ‘‘अपने ही घर में’’ अब आपके हाथों में है। भाव और भाषा में संतुलित तालमेल बनाए रखने के इस जटिल सफ़र में मैं अनुभूति से अभिव्यक्ति तक पहुँचने की कश्मकश में कहाँ तक क़दम आगे बढ़ा पाई हूँ, यह फैसला मैं आप सुधी पाठकों पर छोड़ रही हूँ।
श्री जगदीश लछाणी जी, उषा राजे सक्सेना और डॉ. रमाकांत शर्मा जी की आभारी हूँ जो अपने समय से समय निकाल कर मेरी कहानियों के अनुवाद का चयन किया और अपने अभिमत से मुझे प्रोत्साहन दिया। उन्होंने इस संग्रह में अपने भाव अभिव्यक्त करके मेरे हौसलों को परवाज़ बख़्शी है।
मैं विकल्प प्रकाशन के निदेशक श्री पवन श्रीवास्तव की तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ जो इस कहानी संग्रह को निर्धारित समय पर आपके हाथों में सौंपा है। इस संग्रह में सभी रचनाकारों की कहानियाँ उनकी अनुमति के साथ शामिल हैं।
आपकी अपनी
देवी नागरानी
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