खोदरा देख उसे सहसा कीड़े याद आने लगे थे। कीड़े...बिलबिलाते सफ़ेद कीड़े । लगता है जैसे सफ़ेद चावल के दाने सहसा जीवित हो उठे हों । खोदरा-जो अपन...
खोदरा देख उसे सहसा कीड़े याद आने लगे थे। कीड़े...बिलबिलाते सफ़ेद कीड़े। लगता है जैसे सफ़ेद चावल के दाने सहसा जीवित हो उठे हों।
खोदरा-जो अपने तीव्र जल प्रवाह से जमीन को खोद दे। शायद खोदने की उसकी इसी क्षमता के कारण ही लोग इसे खोदरा कहने लगे होंगे। पत्रकार इसे भले ही अख़बार में बयड़ी नदी अर्थात् पहाड़ियों से निकलने वाली नदी लिखते रहें, लोग तो खोदरा ही कहते हैं।
वह बरसों बाद गाँव आया था।
जनवरी की शाम थी। वह इधर खोदरे की तरफ घूमने चला आया था। इस बहाने खोदरे से जुड़ी बचपन की यादों को ताजा करने का लालच भी जुड़ा था। यूँ तो कई बार गाँव छोड़ने के बाद गाँव आया है, लेकिन खोदरे की तरफ बरसों बाद उसका आना हुआ था।
खोदरे की ओर जाने वाला रास्ता बेहद तंग हो चुका था। पहले इधर से बैलगाड़ियाँ भी आराम से गुजर जाती थीं। लेकिन अब पैदल चलना भी मुश्किल हो रहा है। गाँव के इस पूर्वी भाग की आबादी पश्चिमी भाग की अपेक्षा बहुत बढ़ गई है। टापरियों की बाढ़ सी आ गई है। लगता है जैसे एक टापरी दूसरी टापरी पर सवार होने की कोशिश कर रही हो। जमीन कम पड़ने लगी है। इसलिए कई टापरियों ने खोदरे से जुड़ी खोदरी पर भी कब्ज़ा कर लिया है। खोदरी लुप्तप्राय सी हो गई है।
खोदरी पार करते ही दाहिनी ओर झीरा पड़ता है। झीरा तो अब भी था लेकिन ऐसे जैसे कोई बूढ़ा अपने अंतिम दिन गिन रहा हो। उसके जीवन से अच्छे दिन निकल गए थे । नीम का पेड़ भी बूढ़ा हो चुका है। झीरा जब भी कल्पना में उभरता है तो नीम अपने-आप उसके साथ ही चला आता है। झीरे को नीम से अलगाया नहीं जा सकता। झीरे और नीम की जुगलबंदी थी। तब नीम की आधी से अधिक छाँव झीरे पर रहती थी। नीम की निम्बोरियाँ झीरे में टपकती रहती थीं। बाल्टी से जब पानी निकाला जाता था तो उसमें असंख्य निम्बोरियाँ तैरती मिलती थीं। झीरे के पानी में भी निम्बोरियों की गंध और कसैला स्वाद उतर आता था।
नीम को देखते ही उसे पीत्या की याद हो आई। गाँव के प्रसिद्ध दारूड़ियों में से एक था पीत्या। लोग उसे पीत्या नाम से कम छटाँगसिंग के नाम से अधिक जानते थे। उसकी छोटी सी चाय-सेंव-चिवड़े की दुकान थी। भजिये और सेंव हाथ से बनाकर बेचा करता था। दारू उसकी प्राणाधार थी। आगे-पीछे रोकने-टोकने वाला कोई था नहीं। फक्कड़ अखाड़ा। दारू के लिए भी उसे दूर नहीं जाना पड़ता था। पास ही कलाली थी। कलाली चलाती थी कमली और उसकी बेटी। साथ ही किराना का सामान भी वहाँ मिलता था। वह केवल सामान ही नहीं बेचती, गल्ला भी खरीदती-बेचती थी। कुछ लोग तो बताते हैं कि पैसे के लिए तो वह अपना शरीर भी बेच देती थी । कमली के यहाँ जो चीज नहीं मिलती, वह गाँव में फिर कहीं नहीं मिलती थी। यह पक्का था।
कमली पीत्या की हमउम्र थी। वह कमली की दुकान पर सुबह छटाँकभर दारू पीता था, लेकिन देर तक ऐसा हंगामा करता मानो पूरी बोतल ही पी गया हो। कमली की ही माँ-बहन एक कर देता था। एक ही गाली वह कई बार दुहराता रहता था । कमली भी उसे जी भर कोसती थी । लेकिन शाम ढलते ही वह फिर कलाली में पहुँच जाता था। उससे ऐसे घुल-मिलकर बातें करता जैसे सुबह कुछ हुआ ही नहीं। फिर छटाँकभर दारू पीता। दारू के थोड़ा चढ़ते ही फिर कमली की माँ-बहन एक करने लगता। छटाँकभर पीना और पूरी बोतल का नशा बताना उसका नित्य का नियम बन गया था। यही कारण है कि गाँव वालों से उसे छटाँगसिंग जैसा सार्थक नाम मिला था।
वह दारू का इतना आदी हो गया था कि चौबीसों घंटे नशे में धुत्त रहता। दारू वह उतरने ही नहीं देता था। धीरे-धीरे उसकी आँतें और लीवर गल गए थे। उसका शरीर तक दारू से गंधाने लगा था। उसकी गोरी चमड़ी सफेद हो गई थी। उसे कोढ़ फूट गई थी। चेहरा विकृत गया था। उँगलियाँ गलने लगी थीं । लोग उसके हाथ के बने भजिये, चाय और सेंव से परहेज करने लगे थे। दुकान बंद होने के कगार पर आ गई। फिर बंद ही हो गई थी । जब कोढ़ का प्रकोप ज्यादा हो गया तो लोग उसे चारपाई सहित झीरे पर इसी नीम के नीचे छोड़ गए थे मरने के लिए। झीरा और पीत्या दोनों ही एक साथ मर रहे थे। झीरे की झीरें सूख रही थीं और पीत्या का जीवन जल भी।
अंत समय में पीत्या के शरीर में कीड़े पड़ गए थे। वह दर्द से छटपटाता रहता था। कीड़े उसे जिन्दा खा रहे थे। वह दर्द से कराहता हुआ ढसल-ढसल रोता था। सहायता के लिए पुकारता रहता था । उसके हाथ के बने सेंव-भजिये लोग चटखारे ले-लेकर खाते थे लेकिन अब उसके पास कोई फ़टकता भी नहीं था। वह ऊँची जाति का होकर भी अछूत था। आखिर पीत्या इसी नीम तले रोता-छटपटाता मर गया था। नीम पीत्या की पीर का प्रत्यक्षदर्शी था।
उसे बालू दादा ने बताया था कि उनसे पीत्या की यह दुर्दशा देखी नहीं जाती थी । वे हिम्मत करके बदबू को झेलते हुए भी उसके घावों में से कीड़े निकालते थे। पता नहीं इसमें कितना सच है और कितना झूठ। लेकिन यह सच था कि गाँव में बालू दादा की एक साफ-सुथरी छवि थी। उन्हें ईमानदार,जागरूक और सेवाभावी आदमी माना जाता था, जिसका फायदा उन्हें बाद में मिला भी। लोगों ने उन्हें सरपंच चुना। वर्तमान में बालू दादा ही गाँव के सरपंच हैं। पहले भी वे हमेशा साफ और सफेद कमीज-पजामा पहना करते थे, आज भी उनका पहनावा वही है। उन्हें सफ़ेद के अलावा और कभी किसी दूसरे रंग के कपड़ों में देखा ही नहीं गया। बालू दादा भील हैं । आम भीलों की तरह उनका रंग काला जरूर है लेकिन शरीर दुबला-पतला नहीं है। गोल चेहरा, घुँघराले बाल और भरा हुआ बदन है उनका।
जब झीरा जिन्दा था, यहाँ खूब चहल-पहल रहती थी। इसका पानी पीने योग्य तो नहीं था लेकिन नहाने, कपड़े धोने, ढोरों की प्यास बुझाने जैसे कामों के लिए सहज उपलब्ध और उपयोगी था।
गर्मी के दिनों में तेज धूप से बचने के लिए पानी और छाँव की बहुत जरूरत होती है। झीरा और नीम दोनों ही जरूरतें पूरी करता था। गाँव के लोग यहाँ नहाते रहते थे। बच्चे इसमें ऊपर से कूद-कूद कर नहाते रहते थे। दोपहर को औरतें यहाँ कपड़े कूटती रहती थी। झीरे से लगा हलाव था जिसमें ढोरों के पीने के लिए पानी भरा रहता था। किसान यहाँ अपने ढोरों को पानी पिलाने आते थे । अब सारा वैभव ख़त्म हो चुका है। पानी की झीरें सूख चुकी हैं। झीरा अब एक मरा हुआ कुआँ है। वह एक बड़े से कूड़ेदान में बदल चुका है । ज़माने भर की गन्दगी और कचरा इसमें डाला जा रहा है।
खोदरी के दाहिनी ओर गोठान थी। जहाँ ढोर इकठ्ठा होते थे। अब वह गोठान भी गोठान कम, गोठान का छल अधिक लग रही थी। गोठान के बीच उदाबाबा का लगाया गया बरगद बहुत संकुचित होकर ऐसे खड़ा है, जैसे वह अपने बरगद होने पर ही शर्मिंदा हो। परिस्थितियाँ उसे अधिक फैलने की इजाजत ही नहीं दे रही थी। उसका आधार ही खिसक गया था।
गोठान खोदरे के किनारे लगी थी। किनारा हर साल पानी के तेज बहाव में कटता रहा था। दूसरी ओर गोठान के नीचे की पीली मिट्टी को लोग लीपने के लिए खोद-खोद कर ले जाते थे। जिससे बरगद की जड़ें मिट्टी से बाहर आ गई थीं। खोदरे में आने वाली बाढ़ भी गोठान को हर साल काटती रही थी। जो बरगद पहले गोठान के बीचोंबीच था, अब खोदरे के किनारे आ लगा है और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता सा प्रतीत हो रहा है।
वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जा रहा था। बदबू के भभके उसके नथुनों में घुसते जा रहे थे।
उसका बचपन और किशोरावस्था इसी गाँव में गुजरे थे। घर में शौचालय नहीं था। वैसे भी शौचालय के बारे में तब कोई सोचता भी नहीं था। सबको बाहर जाने की आदत थी। दूसरा कोई विकल्प ही न था। शौच के लिए इसी खोदरे की शरण लेनी पड़ती थी। खासकर ठण्ड और बारिश में जब मौसम खुला होता, तब इधर का रूख करना अच्छा लगता था। खुली हवा के साथ गुनगुनी धूप का आनंद भी मिल जाता था। दूसरों की तरह वह भी लठ्ठे की चड्डी खिसका कर बैठ जाता था। इधर पेट खाली होता जाता और उधर निगाह दूर-पास के मल के ढेरों पर टिकी रहती थी। कहीं कोई ढेर गुम्बदाकार, कोई कुंडलाकार तो कोई गुल्ली के आकार का। अक्सर मल के ढेरों पर सफेद कीड़ों का बिलबिलाता हुजूम दिखाई देता था जो मल को निपटाने में जुटा रहता था। आसपास विभिन्न कालावधि के मल के ढेर और कुंडल पड़े रहते थे। पुराने मल पर अधिक बड़े, अधिक सफेद और अधिक पुष्ट कीड़े दिखाई देते थे। जबकि ताजा मल पर छोटे, कमजोर और पीले कीड़े नजर आते थे। उसे अचरज होता था कि कैसे एक प्राणी का मल दूसरे प्राणी का भोजन बन जाता है ! वे मल भोजी कीड़े बहुत उजले और साफ-सुथरे दिखाई देते थे। हालाँकि उनके पेट में तो मल ही भरा रहता।
उसे उन दिनों के कुछ दृश्य याद आने लगे। एक दृश्य में उसे देखता है कि खोदरे में बैठा वह मल त्याग रहा है। दूर या कुछ पास में कोई और भी मल त्याग रहा है। अपने-आप में ध्यानस्थ। अपने-आप में गुम। आसपास से असम्पृक्त। मल त्याग के बाद उसी खोदरे के पानी से वह हाथ धो रहा है। फिर घर आकर उसने अच्छे पानी से हाथ धोये हैं।
उसे यूँ खुले में मल त्यागना बहुत ख़राब लगता था। खोदरे से लगा घिस्या पंडित का खेत था। खेत में जब कोई काम चलता तो खेत में कोई न कोई रहता ही था। ऐसे में बेशर्म होकर बैठना ही होता या दबाव को रोके रखना पड़ता था। वह सोचता रहा है कि ऐसी स्थितियों में लड़कियों और महिलाओं की क्या हालत होती होगी। वे कैसे निपटती होंगी! कई औरतें तो बेचारी एकांत न मिलने के कारण पानी ढोल कर ही चली जाती थीं या घाघरे से आड़ बना मल त्याग लेती थीं।
खोदरे में सुबह-सुबह कुछ अधिक ही भीड़ होती थी। उसने खोदरे में एक-दो स्थान ऐसे नियत कर रखे थे, जहाँ अधिक आड़ होती और इत्मीनान से निपटा जा सकता था। लेकिन जब वे स्थान खाली नहीं मिलते तो कोई और स्थान ढूँढना पड़ता था। तब दबाव बढ़ता जाता था और झुंझलाहट भी।
उसने देखा, खोदरे पर बने स्टॉप डेम की पाल पर गू के घिनौने रेले बने हैं। लगता था जैसे मोमबत्ती के बुझने के बाद नीचे की ओर बहते मोम के रेले जम गए हों। वहाँ मक्खियाँ भिनक रही थीं। तेज बदबू उठ रही थी। इस पाल पर उन अनाम हगने वालों पर उसे क्रोध आया। क्या यही जगह बची थी हगने के लिए ! उसे उबकाई आने लगी।
डेम में पानी से ज्यादा लिलपी [काई] जमी थी। लगता था पानी ने शर्मिंदा हो काई से अपना मुँह ढँक लिया हो। वह इतना गन्दा था कि किसी को मुँह दिखाने के काबिल न था। खेतों में सिंचाई के लिए पानी को खींचने के लिए ढेरों मोटर पम्पों के असंख्य पाइप अन्दर डूबे थे। जैसे उनमें पानी खींचने की जबरदस्त होड़ लगी हो। आसपास खूब बबूल और झाड़ियाँ बेतरतीब उगी हुई थीं। इन झाड़ियों में प्लास्टिक की रंग-बिरंगी पन्नियाँ-थैलियाँ उलझी-अटकी हुई थीं। कहीं-कहीं दारू की फैंकी गई प्लास्टिक की खाली बोतलें लुढ़की हुई दिखाई दे रही थीं। खोदरे का सारा पानी डेम ने रोक रखा था मानो बैल के मुँह पर मुसका बाँध दिया गया हो। आगे खोदरा सूखा था जिसमें रेत ही रेत थी और बीच-बीच में इक्का-दुक्का कँटीले पौधे और गू के कई ढेर।
उसे याद आया कि उनका यह गाँव निर्मल गाँव घोषित हो चुका है। वह मन ही मन हँसा। कागज पर निर्मल और हकीकत में मल ही मल।
खोदरे से जुड़े कई दृश्य आज भी उसकी स्मृति से जुड़े है। उसे फिर याद आया एक और दृश्य। उस दृश्य में वह और उसका छोटा भाई खोदरे में नहा और कपड़े धो रहे हैं। खोदरे में घुटने-घुटने तक कल-कल साफ पानी बह रहा है। छोटा भाई सनलाइट साबुन को कमीज पर खूब रगड़ रहा है। मैल निकालने में उनकी रुचि कम है। उन्हें झाग बनाने में खूब मजा आ रहा है। दोनों झाग से खेल रहे हैं। बड़े-बड़े बुलबुले बन रहे हैं और फूट रहे हैं। उसी समय कनु माँ भी वहाँ कोरे पानी से नहा रही हैं। कनु माँ याने बालू दादा की माँ। कनु माँ ने देखा कि वे झाग से खेल रहे हैं तो वे झाग उठा-उठा कर अपने बालों में उड़ेलने लगीं। वे झाग को व्यर्थ जाने नहीं देना चाह रहीं हैं । आज-उसे लग रहा है कि वे अपने शरीर पर कहीं सफेद कीड़े तो नहीं उड़ेल रही थीं। तो दूसरे ही पल लगता है कि नहीं वे झाग ही उड़ेल रही थीं। इधर झाग बनाया जा रहा था और उधर कनु माँ उसे बदन पर मलती जा रही थीं । वे इतने आनंद विभोर हो नहा रही थीं, जितना आनंद सौन्दर्य साबुन से नहाने वाली फ़िल्मी सुंदरियों ने भी अनुभव नहीं किया होगा। कनु माँ के शरीर ने कभी साबुन का स्पर्श भी नहीं किया होगा। लेकिन उस दिन वे साबुन के झाग से नहाने का सुख उठा रही थीं।
कनु माँ के चेहरे पर हमेशा बाल सुलभ मुस्कान रहती थी। वे अक्सर लोगों से हँसी-मजाक करती रहतीं थीं। हालाँकि उनका चेहरा झुर्रियों से भरा था। मुख पोपला हो चुका था। छाती की एक-एक पसली गिनी जा सकती थी। वे बकरियाँ चराया करती थीं। उनका घाघरा, लुगड़ा और पोलका अक्सर मैले-कुचैले रहते थे। छठे-चौमासे ही उनकी धुलाई होती होगी।
गाँव में अभी तक जितने भी सरपंच हुए हैं, उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी ही नहीं, बढ़िया हो गई है। शायद उन्हें सरपंची के जरिए जादू की कोई छड़ी मिल गई थी। उनके बड़े-बड़े दुमंजिले मकान बन गए थे। मोटर साइकिलें आ गई थीं। बालू दादा ने भी देखते ही देखते सर्व-सुविधा युक्त तीन मंजिला मकान खड़ा कर लिया है। हर कमरे के साथ लेट-बाथ अटैच, एलईडी, गैस चूल्हा, वाशिंग मशीन, फ्रीज़ सब। घर के सामने बुलेरो खड़ी रहने लगी है। कुआँ पक्का बन गया है। एक खेत और खरीद लिया है। खेत में सिंचाई के लिए ड्रिप लाइन डाल ली है। उन्होंने कभी पीत्या के शरीर से कीड़े निकाले थे। लेकिन अब शायद खुद एक कीड़े में बदल गए हैं। राजनीति ने उनकी कायापलट कर दी थी। अब वे सरकारी कागज पर बालूसिंह डाबर हैं। गाँव में लोग उन्हें आदर से बालू दादा या बालू सरपंच कहने लगे हैं।
लेकिन कनु माँ के नसीब में यह सुख नहीं था। वह तो कब की गुजर चुकी थीं। मुँह अँधेरे शौच के लिए बाहर गई थीं। साँप पर पाँव पड़ गया। साँप ने तुरंत उसे डस लिया और इस तरह कनु माँ की जीवन लीला समाप्त हो गई थी।
गाँव का खोदरे के किनारे वाला यह पूर्वी हिस्सा गाँव का तलछट है। यहाँ अधिकतर भील-मानकर रहते हैं-छोटी-छोटी टापरियों में। इस भील अवार में नंगे-अधनंगे, मैले-कुचले कपड़ों में लिपटे गंदे बच्चों की फ़ौज धमाचौकड़ी करती नजर आती। जगह-जगह बकरियों की मींगनियाँ और मुर्गियों की हगार बिखरी रहती। छोटे बच्चे टापरियों के आसपास ही हगते नजर आते। मुर्गियाँ और उसके ढेर सारे चूजे चीं-चीं करते गू को छितराते-चुगते नजर आते। कोई मुर्गी पानी के लिए इधर-उधर लुढ़के लोटे और गिलास में मुँह डालती रहती। कहीं कोई मुर्गी खुले मटके के मुँह पर चढ़कर अपनी हगार ही पानी में डाल जाती। हर तरफ चीजें बिखरीं और अस्त-व्यस्त। हर तरफ भन-भन करती मक्खियाँ-मच्छर।
कमली की टापरी अब दुमंजिला मकान में बदल गई है। पीत्या की दुकान और जमीन पर कमली का कब्ज़ा हो चुका है। उसके पास अब ढेर सारी खेती-बाड़ी है। अब उसकी एक बस चल रही है और एक कलाली भी। लेकिन आधुनिक ढंग से। अब वहाँ कोई पीत्या जैसी चिल्ला-चोट करने की हिम्मत नहीं कर पाता।
अन्दर गाँव में तो कई दुमंजिला-तिमंजिला बड़े-बड़े मकान हैं लेकिन इस भील अवार में अभी सीमेंट-कांक्रीट के वैसे केवल दो ही मकान बने हैं, एक कमली का और दूसरा बालू सरपंच का। ये मकान आसपास की टापरियों से मेल नहीं खा रहे हैं । इनके आसपास गारे की दीवारों वाली और कवेलू की छतों की टापरियों का बड़ा सा गुच्छा है। सभी गरीब खेत में मजदूरी करने, बड़े किसानों के यहाँ वरसूद बनकर जीविका चलाने वाले। एक-एक टापरी में आठ-आठ, दस-दस सदस्य एक साथ बिलबिलाते कीड़ों की तरह रहते हुए। अवार में पहले की ही तरह दिन-रात आपस में गाली-गलौच और मारपीट चलती रहती है। जनसंख्या के साथ हर चीज बढ़ रही है। पेड़ों के नीचे जुआ चलता रहता। महुए की गंध उड़ती रहती।
उसे याद आया। जून में वह अपने एक अमीर रिश्तेदार के बेटे की शादी में गया था। उसका राजनीति में भरपूर दखल है। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था, उसका वह रिश्तेदार राजनीति में होने से अमीर है या अमीर होने से राजनीति में है। बहरहाल उसकी अमीरी का सम्बन्ध कहीं न कहीं राजनीति से जरूर था।
पंगत चल रही थी। तभी सफ़ेद कार से विधायकजी और उनके साथी उतरे थे। उनके आते ही पता नहीं कहाँ-कहाँ से कार्यकर्ता और नेतागण उसके चारों तरफ इकठ्ठा हो गए, एक निश्चित दूरी और सौजन्य बरतते हुए। कोई उनके चरण छू रहा था। कोई हाथ मिला रहा था। विधायकजी झकाझक सफेद कुरता-पजामा पहने थे। उससे मिलने वाले भी सभी सफेद कपड़ों में दिखाई दे रहे थे। केवल गन-मेन ही खाकी वर्दी में था। लगता था कि बहुत सारी सफेदी और उजलापन एक जगह इकट्ठा हो गया हो। सफेदी और उजलेपन का एक संकुल बन गया हो जैसे। कहीं वे सफ़ेद कीड़े तो नहीं थे।उसे बेतरह सफ़ेद कीड़े याद आने लगे।
यदि ऊँचाई से देखना संभव हो तो यह गाँव धरती पर उभरे गू के एक वृत्ताकार ढेर जैसा दिखाई देगा। ऊँची, सफेद, उजली बिल्डिंगें गू में पनपते कीड़ों की तरह नजर आएगी।
खोदरे से बदबू के भभके निरंतर उठ रहे हैं। लगता था खोदरा एक खुले शौचालय में बदल गया है। जैसे उसके शरीर पर भी पीत्या की तरह कोढ़ फूट गई हो। उसका पूरा शरीर फसफसा गया है। लगता है पूरा खोदरा ही मल और बिलबिलाते कीड़ों से भर गया हो। असहनीय सड़ांध उठ रही है।
वह नाक बंदकर खोदरे से जल्दी-जल्दी वापस लौट रहा था। अँधेरा बढ़ता जा रहा था और गू से पाँवों के लथपथ होने का डर भी।
-193 राधारमण कॉलोनी,
मनावर, जिला-धार [म.प्र.] पिन-454446
मोब.09893010439
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