स्त्री सदैव ही पुरुष की सहचरी, अर्द्धांगिनी और प्रेरणा रही है. सबसे बढकर तो वह जन्म- दात्री है. वह जीवन प्रदान ही नह...
स्त्री सदैव ही पुरुष की सहचरी, अर्द्धांगिनी और प्रेरणा रही है. सबसे बढकर तो वह जन्म- दात्री है. वह जीवन प्रदान ही नहीं करती, उसे जीने योग्य भी बनाती है. वह
माता भगनी
जीवन सहचरी
सखी दुहिता
(सुधा गुप्ता)
सभी कुछ है. सामाजिक रिश्तों के ताने-बाने उसी के इर्द-गिर्द बुने गए हैं. हम स्त्री के बिना समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते. किंतु इतना सब होते हुए भी स्त्री समाज में सदैव उपेक्षित और तिरस्कृत रही है. उसपर घोर अत्याचार हुए हैं और आज भी हो रहे हैं. उसकी निंदा में कभी कमी नहीं आई. यहां तक कि संतों तक ने उसे नहीं छोड़ा. वे निर्बैरी कहे गए हैं किंतु नारी के प्रति अपना बैर सार्वजनिक करने में उन्होंने कोताही नहीं बरती. उसे नरक का द्वार बताया गया, प्रताडना का अधिकारी कहा गया. उसे नागिन से भी अधिक ज़हरीला, उफान में आई नदी से भी अधिक भयंकर और कलेजा निकाल कर खा जाने वाली जंगली बिल्ली तक कहा गया. वह कुलटा और राक्षसी बताई गई.
हमारी संस्कृति की यह विशेषता रही है कि जहां वह एक ओर स्त्री की कड़ी से कड़ी भर्त्सना करती है, वहीं साथ ही उसे देवी का दर्जा भी प्रदान करती है. वह दश-भुजाओं वाली आदि शक्ति है, कल्याणी, महाशक्ति है. प्रजा और वागीश है, चिन्मयी है. स्त्री के प्रति यह द्विधापूर्ण सोच, यह द्वैधवृत्ति कोई नई बात नहीं है. वस्तुतः हमने नारी को या तो देवी के रूप में प्रतिष्ठित किया है या फिर एक राक्षसी के रूप में उसे धिक्कारा है और इसीलिए सर्व साधारण के मानस में नारी एक रहस्यमय पहेली बनकर रह गई है.
आज स्त्री-विमर्श के इस युग में नारी को शायद पहली बार एक मानवी के रूप में देखने की कोशिश की गई है. एक राक्षसी या देवी के रूप में उसका अवमूल्यन या अधि-
मूल्यन किए जाने से जानबूझकर बचा गया है. आज हम जानते हैं कि स्त्री को यदि स्वस्थ वातावरण दिया जाए तो वह उन सभी सद्गुणों से सम्पन्न हो सकती है जो हम उसमें देखना चाहते हैं, लेकिन कलुषित परिवेश उसे गर्त में गिरा भी सकता है.
आज की सबसे बड़ी आवश्यकता स्त्री में आत्मविश्वास पैदा करने की है. सदियों से अपने ऊपर अत्याचारों को सहते हुए वह टूट चुकी है. वह अपने को एक अबला और पूरी तरह से पुरुष पर आश्रित एक वस्तु के रूप में देखती है. स्वयं ही अपने को कोसती है, और ख़ुद की ही दुश्मन बन बैठी है. नारी में आत्मसम्मान जगाने के लिए सर्वप्रथम तो समाज में स्त्री की सही दशा क्या है, इसे समझना ज़रूरी है ताकि उसे सही दिशा मिल सके. अन्य साहित्यकारों की तरह इस बात को महिला हाइकुकारों ने भी अच्छी तरह समझा है.
स्त्री की स्थित बहुत कुछ एक क़ैदी के समान है जो चारों ओर से दीवारों से घिरा
हुआ है. उसका, जैसा कि विद्याबिंदु सिंह कहती है,
मन बंधक
मर्यादा की धूनी में
सुलग रहा –
उसे लगता है कि
गिरने वाली
दीवाल के सहारे
उसका घर (राज कुमारी राज)
है, कि उसने मानों विवाह करके, अपनी मांग में सिंदूर भरके, अपनी सारी उम्र ही गिरबी रख दी है,
सिदूर भरा
लिखा रहननामा
जीवन भर (उर्मिला कौल)
नर और नारी का रिश्ता जो एक दूसरे के लिए बना है, अत्यंत इकतरफा हो गया है. आज कई ऐसे दम्पति मिल जाएंगे जो
एक छत के
नीचे रहे फिर भी
अजनबी से-
(राज कुमारी राज)
ऐसे में क्या किया जाए, नारी मन अनमना हो उठता है,
ऊबने लगा
पिंजरे में क़ैदी है
मन सुगना- (शैल रस्तोगी)
नारी स्वभाव से ही कोमलहृदय होती है. लेकिन इस कोमल हृदय स्त्री को यह आवश्यक नहीं कि परिवेश भी उसे उसके स्वभाव के अनुसार ही मिले. वस्तुतः नारी की कोमलता और दया को उसकी दुर्बलता समझकर उसका शोषण करने से मनुष्य बाज़ नहीं आता और तब नारी की स्थिति बड़ी विडम्बनापूर्ण हो जाती है,
दिल आईना
बस्तियां पत्थर की
कहां जाइए (राज कुमारी राज)
स्त्री पुरुष का सहज सम्बंध इसीलिए गड़बड़ाने लगा है. पुरुष उसपर हावी हो गया है और नारी उसके अत्याचार की पात्र ही नहीं भागीदार भी बन गई है. कैसा दुर्भाग्य है,
अबला हारी
अग्नि परीक्षा सहे
बेचारी नारी
और तुर्रा यह है कि
नर की नहीं
नारी की ही होती है
अग्नि परीक्षा (सुधा गुप्ता)
मन पे फोले
पावों में छाले, तपी
रेत पे चलूं (उर्मिला कौल)
एक दूजे के सहयोगी होने के बजाय स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े दिखाई देते हैं,
नारी सती है
सता रहा है नर
यही अंतर
नारी के लिए तो,
ऊंचे पहाड़
गहरे समुद्र हैं
नाम ज़िंदगी- (शैल रस्तोगी)
मोमबत्ती सी
पिघलती काया रे
मेरा जीवन (उर्मिला कौल)
छलनी मन
थकाहारा बदन
नारी जीवन (विद्या बिंदु सिंह)
ऐसी स्थिति से निबटने के लिए कई उपाय प्रस्तुत किए गए हैं. उनमें से एक है, अपनी स्थिति को स्वीकार कर लो और इस विश्वास से जिओ कि कोई न कोई समाधान मिल ही जाएगा,
लहर पर
छोड़ दो अपने को
बनेगी नाव (सुधा गुप्ता)
लेकिन इस तरह की परिस्थितियों से समर्पण कर देना कम से कम पुरुषार्थ तो नहीं है. कोशिश तो करनी ही चाहिए कि नारी अपनी कारा से मुक्त हो सके. यदि कोई साथ नहीं देता तो अकेले ही आगे बढ कर कोई न कोई क़दम उठना ही पड़ेगा, क्योंकि-
आगे जो बढे
वे अकेले ही चले
गए न छले- (सुधा गुप्ता)
बेशक, नारी में यदि इस प्रकार का आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान विकसित हो जाए तो यक़ीनन,
राई भी कभी
पर्वत झुका देती है
अगर ठाने - (राजकुमारी राज)
यह निर्विवाद है कि स्त्री की दशा सुधारने के लिए कोई देवता अवतरित नहीं होगा. यह काम उसे ख़ुद ही करना है,
ज़मीं से दर्द
मिटाएंगे हम ही
परिदे नहीं - (राजकुमारी)
इसीलिए कहा गया है कि -
राह कठिन
या कांटे ही कांटे हों
रुकमा मत - (मिथलेश कुमारी दीक्षित)
स्त्री विमर्श में यह आत्मविश्वास का स्वर स्वागत योग्य है. नारी को सहनशील कहकर उस पर पुरुष अत्याचारों का बोझ अभी तक लादा गया है और नारी इसे अपनी नियति मान कर, मौन रहकर स्वीकार करती आई है. किंतु अब आ गया है,
नया प्रभात
नारी के पग बढे
युग की साथ – (राज कुमारी पाठक)
डा. सुरेन्द्र वर्मा
१० एच आई जी १, सर्कुलर रोड,
इलाहाबाद २११००१
मो. ९६२२१००१
ब्लॉग – surendraverma389.blogspot.in
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