हिन्दी में जापानी हाइकु छंद खूब लोकप्रिय हुआ. इसकी लोकप्रियता से हाइकु परिवार के अन्य छंदों की खोज भी आरम्भ हुई. चोका इसी परिवार का एक सदस्...
हिन्दी में जापानी हाइकु छंद खूब लोकप्रिय हुआ. इसकी लोकप्रियता से हाइकु परिवार के अन्य छंदों की खोज भी आरम्भ हुई. चोका इसी परिवार का एक सदस्य है. इसका शिल्प भी वर्ण-क्रमानुसार है. बताया गया है कि ५-७-५-७ वर्णक्रम में लिखे गए चोका में कई चरण हो सकते है. बस, अंतिम दो चरणों में ७-७ अक्षर होते हैं.
मनोज सोनकर ने अपने चोका संग्रह का नाम ‘चोका-चमन’ रखा है. इस गुलशन में से मैंने धृष्टतापूर्वक कुछ ‘हाइकु’ चुरा लिए है. ये सारे हाइकु मुझे चोकाओं के अंतर्गत सहज ही ‘प्राप्त’ हो गए हैं. ये अपने आप में पूर्ण हाइकु हैं- ५-७-५ वर्ण क्रम में. इनका कथ्य कसा हुआ है और उसमें विविधता है. उनके स्वर में व्यंग्य है, कटाक्ष है. दु:ख-दर्द है, पीड़ा है. खट्टी-मीठी स्मृतियाँ हैं, खुशियाँ हैं. जलन है, कसक है. गरज कि वे सभी भाव हैं जो एक सामान्य आदमी अपनी ज़िंदगी में जीता है. वैसे भी, जैसा कि मनोज सोनकर स्वयं ही स्वीकार करते हैं, उन्हें कथ्य के साथ किसी किस्म की शर्त मंजूर नहीं है. जो भी उनकी संवेदनाओं से जुड़ जाता है, उनकी कविताओं में उभर आता है. इनमें अपनी भीतरी और बाहरी सामाजिक दुनिया के साथ साथ प्रकृति भी प्रवेश पा गयी है और इससे काव्य में विविधता आ गई है. एकरसता टूटी है. मनोज सोनकर कमोबेश अपनी रचनाओं में सम्पूर्ण जीवन की झांकी प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं.
आप ध्यान दें. हर चोका के आरम्भ में आपको एक हाइकु तो मिल ही जाएगा. वैसे तो सोनकर जी के सभी चोकाओं में हास्य-व्यंग्य की एक अंतर्धारा प्रवाहित रहती है लेकिन उनकी पहली ही रचना एक ऐसे हाइकु से आरम्भ होती है जिसमें बताया गया है कि दर्द अपना शिकार तुरंत पहचान लेता है. – ‘दर्द; अहेरी / निशाना तो अचूक / करे न देरी’. (पृष्ठ, ११) आज भला कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो दर्द का शिकार न हुआ हो ! आपने जहां कोई गफलत की कि दर्द ने आपको जकड़ लिया. यह दर्द परिस्थिति के अनुसार किसी भी प्रकार का हो सकता है. यह शारीरिक भी हो सकता है और मानसिक भी. वैयक्तिक भी हो सकता है और सामाजिक भी. मनोज सोनकर ऐसे दु:ख-दर्दों को हंसते हंसते वाणी दे जाते है.
आदमी एक सामाजिक प्राणी है. समाज के बिना उसकी गति नहीं है. लेकिन यही समाज उसके मानासिक तनाव का कारण भी बनता है. कभी साहब डांटता है तो कभी बड़े दहेज़ की मांग के दबाव में व्यक्ति को तनाव झेलना पड़ता है. आप कहीं जाइए तनाव खडा पाएंगे और तो और प्रेम भी तो आसानी से नहीं किया जा सकता! उसकी भी शर्तें कोई कम तो नहीं हैं -
‘तनाव आए
खटास खूब बढ़ा
जोर दिखाए’ * (तनाव,13)
शर्तें तो कड़ी
प्रेम डगर बीच
आ हुई खडीं * (शर्तें,१५)
तरक्की भागी
जूनियर चमका
योग्यता त्यागी * (टूटन, 20)
आज पारिस्थितिक परिवर्तन इतनी तेज़ी से हो रहे है कि अपना ही गाँव पहचान में नहीं आता. वहां न आत्मीयता रही है न ही वृक्षों की छाया. लेकिन गाँव की याद अपने वश में नहीं रहती. एक तरह की विवशता है जो बार बार मन को वहीं ले जाती है –
यादें तो बाग़ी
तोड़ धरें लगाम
फिरें वे भागी....
गाँव में जाएं
दुआरे नही नीम
चिडचिड़ाएं (यादें, १४)
इंसान की भी अजीब फितरत है. वह दु:खी इसलिए होता है की उसका पड़ोसी सुखी क्यों है? किसी को ऊंची कुरसी मिल गयी तो किसी को कोई पदक मिल गया. लीजिए, बन गया दु:ख और जलन का कारण. कितना ही आप उससे छुटकारा पाना चाहें जलन जाती नहीं. –
जलन जागी
भगाया उसे खूब
वह न भागी...
. टुकड़खोर
पाया ऊंची कुरसी
दिखाया जोर (जलन, १८)
मनोज जी का एक चोका है. शीर्षक है, ‘मोना’. यह एक ऐसी भारतीय लड़की की कथा है जिसे हर चीज़, वह चाहे वस्तुएं हों, संस्कृति या भाषा ही क्यों न हो, विदेशी ही पसंद है. इस चोके से मैनें तीन हाइकु चुराए है,
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी..
. आज़ादी प्यारी
शादी तो बंधन
रहें कुंवारी...
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए (मोना, ३३)
ज़बरदस्त कटाक्ष है. वस्तुत: मनोज सोनकर अनिवार्यत: एक गंभीर हास्य-व्यंग्य के रचनाकार है. उनका मुख्य स्वर व्यंग्यात्मक-हास्य है. इसीलिए उनकी भाषा भी कभी कभी बड़ी अटपटी हो उठती है. अनस्वार और ट-वर्ग के शब्दों का अधिकाधिक प्रयोग वे करते है. – दंगा, फंदा, छोड़ा, तोड़ा. गुंडा, डांटा, चांटा, चढ़ा, मढा, फूटा, कलूटा, ठाठ, जैसे शब्द उनकी रचनाओं में भरे पड़े हैं. ऐसे टेंढे-मेंढे शब्द सामाज की कोंणीय (जो सीधी-सच्ची न हो) बनावट को सामने लाने में मदद करते हैं और हलकी हंसी भी होठों पर बरबस ले आते हैं. वस्तुत: उनकी भाषा साधारण होते हुए भी विशिष्ट है और उनके विचार भी काफी कुछ अपरम्परागत है.
वे साधु-संतों की खूब मज़ाक उड़ाते हैं. –
आँख तो लाल
रंग ज़रा गेहूँआ
खिचडी बाल...
शैतान बड़ा
साधू बना फिरता
साजिश जड़ा (जीभ-वीर, ३८)
राम है बड़ा
हाथ उसके लम्बे
सर्वत्र खडा (राम दास, ३५)
तमाम ‘झटकधारी’ लोंगों की उन्होंने अच्छी खबर ली है. –
झटकधारी
मुस्कराते मिलें
चाल बहुत भारी .
.. मौक़ा परख
आलाप मीठे भरें
कभी न हारें (झटकधारी, ३७)
आँख थी काली
चमकधारी खूब
सुरमा पाली...
बरखा भाए
खुशुबू के शौकीन
इत्र लगाए (वे,३७)
नक़ल मारे
श्रेणी प्रथम पाए
शेखी बघारे (टेढ़ी खीर, २५)
बोल तो मीठे
होंगे न हम जुदा
ढिढोरा पीटे (सनकी,२४)
निर्मम बड़ा
डटा रहे द्वारे
विविध रंगी (गिरगिट, २२)
इसी तरह कभी कभी प्रत्यक्ष न होकर पशु-पक्षियों के बहाने भी मनोज सोनकर झटकधारी लोगों का खूब तमाशा बनाते हैं.
भइसें बैठें
पीठ पर उनकी
कौवे अइठें (संगम,४५)
कहीं भी बैंठें
कबूतर चंचल
बहुत ऐठें..
. बातूनी बड़े
गुटुरगूं करते
छज्जे पे अड़े (कलाकार, ५२)
मनोज सोनकर केवल सामाजिक विसंगितियों पर ही कटाक्ष नहीं करते, वे कभी कभी प्रकृति के भी बहुत सुन्दर भाव-चित्र खींचते है, लेकिन उनमें भी थोड़ा हास्य का पुट ज़रूर रहता है. कुछ उदाहरण देखिए –
बरखा आई
सागर तो बौराया
दारू पिलाई.. .
बैठी किनारे
बढ़ उसे घसीटा
नाव डुबाया (शेर, ५६)
पहाड़ बड़ा
तगड़ा पहलवान
शान से खड़ा...
बरखा आए
बड़ी हरी चादर
उसे ओढ़ाए (पहलवान,५९)
सरदी हारी
चांप धरी गरमी
भागी बेचारी..
. पानी न बचे
साजिश तो गहरी
बैरिन रचे (तपन, ६३)
विकास की कुछ विसंगतियां भी दृष्टव्य हैं –
शहर बड़ा
छल कपट ज्यादा
हिस्से में पडा...
महल बड़े
तोड़ तोड़ झोंपड़ी
अकडे खड़े (चुम्बक, ६९)
ज़मीन खाया
बाज़ार तो खतरा
वन चबाया
गाँव उजाड़
गोदाम खूब भरा
जुर्म बढाया (भक्षक,७०)
मनोज सोनकर की रचनाएं हाइकु-परिवार में रची-बसी हैं. उनकी कवितायेँ तरल न होकर अपने समय के अनुरूप खुरदरी हैं इसीलिए उसकी सही तस्बीर खींच पाती हैं. सामाजिक विरोधाभासों, वैषम्य और विसंगतियों का वे कुशल अंकन करती हैं. वे अपनी बात बिम्बों और संकेतों से कहते हैं.
( रचनाकार से क्षमायाचना के साथ निवेदन करूंगा की मैंने ‘चोकाओं’ में से हाइकु तलाश कर उन्हीं को केंद्र में रखा है.) – सुरेन्द्र वर्मा
-डा. सुरेन्द्र वर्मा !०, एच आई जी, १, सर्कुलर रोड इलाहाबाद -२११००१
मो, ९६२१२२२७७८ ब्लॉग –surendraverma389@.blogspot.in
ईमेल – surendraverma389@gmail.com
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