प्रबन्ध-शास्त्र में निर्णय करने या निर्णय लेने की क्षमता को बहुत महत्त्व दिया जाता है। सही समय पर और जहाँ तक हो सके अच्छे से अच्छा निर्णय ...
प्रबन्ध-शास्त्र में निर्णय करने या निर्णय लेने की क्षमता को बहुत महत्त्व दिया जाता है। सही समय पर और जहाँ तक हो सके अच्छे से अच्छा निर्णय लेना अच्छे नेता और कुशल प्रशासक का बेहतरीन गुण माना जाता है। बचपन में एक दोहा पढ़ते थे- काल करे सो आज करे, आज करे सो अब। पल में परलय आयगी, बहुरि करेगा कब? इस दोहे का संदेश ही यही है कि जो करना है, जल्दी करो, समय रहते करो। किन्तु जो लोग निर्णय ही नहीं कर पाते, किंकर्तव्य-विमूढ़ता की स्थिति में चले जाते हैं, वे कुछ भी कार्य नहीं कर सकते। कोई भी काम करने के लिए तत्संबंधी निर्णय और टाइमिंग बहुत ज़रूरी है। क्रिकेट, हॉकी, शूटिंग, फुटबॉल आदि सभी खेलों में टाइमिंग का बहुत महत्त्व है। सही समय पर लगाया गया सटीक शॉट आपको विजयश्री दिला सकता है। टाइमिंग गड़बड़ाने पर हार भी निश्चित है। जो नेता और प्रशासक सही समय पर सही निर्णय लेने में अक्षम होते हैं, उनके अनुयायी और अधीनस्थ उन्हें अयोग्य मानते हैं। ऐसे लोगों के साथ काम करने में सहकर्मियों व अधीनस्थों को बहुत तकलीफ़ होती है।
व्यवसाय और वाणिज्य के क्षेत्र में समय पर लिया गया सही निर्णय, समय पर उठाया गया सही कदम व्यावसायिक प्रगति के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज जो पण्य, वस्तु या सम्पत्ति हम खरीद रहे हैं, भविष्य में उसका दाम बढ़ेगा या गिरेगा, उसके व्यापार में हमें लाभ होगा या हानि, यह आकलन करके हम उस पण्य या सम्पत्ति में निवेश करते हैं। इसी प्रकार अपने सहकर्मियों और अधीनस्थ कर्मचारियों, कंपनी के कार्यपालकों और जिम्मेदार पदों पर नियुक्तियाँ करते समय यदि हम सही निर्णय करते हैं तो हमें अपने कार्य-क्षेत्र का विस्तार और कंपनी को लाभार्जन कराने, उसे प्रगति-पथ पर लाने में मदद मिलती है। किन्तु ऐसे मौके पर किए गए गलत निर्णय से हमें कितना भारी नुकसान हो सकता है, इसके नमूने हम प्रायः देखते-सुनते रहते हैं।
सरकारी कर्मचारियों, बैंक अधिकारियों आदि के वेतन-वृद्धि सम्बन्धी निर्णयों में भी यही स्थिति देखने में आती है। ये वेतन-वृद्धि आगामी दस या पाँच वर्ष के लिए होती है। किन्तु अकसर हम देखते हैं कि वृद्धि की बातचीत को किसी परिणाम तक पहुंचने में ही चार-पाँच वर्ष का समय व्यतीत हो जाता है। जो वेतन पाँच वर्ष पहले बढ़ जाना चाहिए था, वह बढ़ते-बढ़ते इतना समय बीत जाता है कि बढ़ी हुई रकम की क्रय-शक्ति, मुद्रा-स्फीति के कारण कम हो जाती है। जो वस्तु हम पाँच वर्ष पहले अपेक्षाकृत काफी कम दाम पर खरीद सकते थे, वही अब दुगने-तिगुने दाम पर बिक रही होती है। कल्पना कीजिए कि जो फ्लैट आज तीस लाख में मिल रहा है, वह पाँच वर्ष बाद कितने में मिलेगा। इसलिए यदि नियत समय पर बढ़ा हुआ वेतन मिल जाए तो हम सम्पत्ति का क्रय अपेक्षाकृत कम दाम पर कर पाएँगे। प्रबन्ध-तन्त्र समय पर निर्णय नहीं कर पाया, किन्तु उसका खामियाजा कर्मचारी वर्ग भुगतता है। मज़े की बात तो यह है कि इतने समय तक वेतन की बढी हुई रकम को रोक रखने के एवज में कोई ब्याज भी नहीं मिलता।
सही समय पर निर्णय का महत्त्व एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए कि किसी भवन में आग लगी है। वहाँ रहनेवाले लोग यदि तुरन्त निर्णय न लेकर, असमंजस की स्थिति में वहीँ कायम रहें, अनिर्णय के कारण न आग बुझाएँ, न वहाँ से भागें तो क्या होगा? ज़ाहिर सी बात है कि आग बढ़ती जाएगी और भवन की ज्वलनशील सामग्री के साथ-साथ वे स्वयं भी जल मरेंगे। निजी जीवन में निर्णय लेने के बहुत-से क्षण आते हैं, किन्तु हम अपनी अयोग्यता और अक्षमता के कारण निर्णय नहीं ले पाते और निर्णय का अऩुकूल समय हाथ से निकल जाने पर पछताते हैं।
हमने देखा है कि कई माता-पिता अपने युवा बेटों-बेटियों का समय पर विवाह नहीं कर पाते। जब वे खुद सक्षम होते हैं और अपने निर्णयों को कार्यरूप में परिणत करने की सामर्थ्य उनके भीतर विद्यमान होती है, तब वे अनिर्णय के कारण प्रस्तर-प्रतिमा बने रहते हैं। धीरे-धीरे वे शारीरिक और बौद्धिक रूप से कमज़ोर होते जाते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति भी पहले जैसी नहीं रहती। साथ ही, युवा बच्चे भी अधेड़ होने लगते हैं। माता-पिता और खुद अपने अनिर्णय के शिकार ये युवा उम्र के उस मोड़ पर पहुँच चुके होते हैं, जहाँ निर्णय लेने या न लेने का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। अब वे कोई भी निर्णय लें, कोई फर्क नहीं पड़ता। इस परिस्थिति की जिम्मेदारी किसकी है? निर्णय लेने में अक्षमता की, चाहे वह अक्षमता किसी की भी क्यों न हो।
प्रबंधन की एक कहावत है- प्लैन यौर वर्क, एंड वर्क-आउट यौर प्लैन्स। अपने काम की योजना बनाइए और योजना को कार्य-रूप में परिणत कीजिए। हमने देखा है कि अधिक बुद्धिमान व्यक्ति योजनाएँ तो बहुत सारी बना डालता है। वह तरह-तरह के कुलाबे मिलाता है, तरह-तरह की बातें सोचता है, किन्तु जब योजनाओं पर अमल करने का समय आता है, तो वह टाँय-टाँस फिस्स हो जाता है। तब उसे किन्तु-परन्तु की व्याधि लग जाती है। यदि ऐसा हुआ तो क्या होगा, यदि वैसा हुआ तो क्या होगा, यदि यह नहीं हुआ तो, यदि वह हो गया तो? इसी उधेड़-बुन में वह कुछ भी नहीं कर पाता। दिनकर ने ऐसे ही लोगों के लिए कहा था- एक दिन कहने लगा मुझसे गगन का चाँद। आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें खुद ही बनाता है वो अपनी, और फिर उनमें उलझ, जगता न सोता है।
सरकारी नौकरियों में निर्णयशीलता का अभाव बड़ी आम बात है। जिसे निर्णय लेने का अधिकार है, वह निर्णय लेने से और उसके विषय में कागज पर टीप दर्ज़ करने से बचता है। उसे डर लगा रहता है कि कहीं निर्णय विपरीत पड़ गया तो लेने के देने पड़ जाएँगे। इसलिए बेहतरी इसी में है कि निर्णय लो ही मत। बस किसी तरह अपने दिन काटो, तनख्वाह जेब में डालो और घर जाओ। कोई-कोई कर्मचारी-अधिकारी जब ऊपर से चढ़ावा-पुजापा पाते हैं तो ऐसे-ऐसे निर्णय ले डालते हैं कि बाद में सीबीआई और पुलिस की जाँच-पड़ताल का जवाब देते नहीं बनता।
निर्णय का क्षण वास्तव में बड़ा ही कठिन होता है, जबकि अनिर्णय सभी को सुखद लगता है। भौतिकी में इसी को इनर्शिया की स्थिति कहते हैं। इनर्शिया किसी भी पिण्ड को गति में आने से रोकता है। एक बार निर्णय हो जाए और उसे कार्यरूप में परिणत करने लग जाएं तो इनर्शिया की स्थिति समाप्त हो जाती है और पिण्ड आगे बढ़ चलता है। हम प्रायः खुद कोई निर्णय नहीं ले पाते, किन्तु कोई दूसरा व्यक्ति निर्णय ले ले तो उसके पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तब हम खुद को निर्णय के परिणाम से स्वयं को अलग कर लेते हैं और निर्णय लेने वाले के रूप में हमारे पास एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिसे हम सुविधा-पूर्वक निर्णय के दुष्परिणाम का जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। निर्णय सुखद होने की गारंटी हो तो हर कोई निर्णय ले ले, किन्तु निर्णय लेने के खराब परिणाम निकलेंगे, उसके क्रियान्वयन में तमाम दुश्वारियाँ पेश आएँगी, यह डर ही हमें निर्णय लेने नहीं देता। हमने तो ऐसे लोग भी देखे हैं जो अपने बनियान, जाँघिए और चप्पल तक नहीं खरीद पाते, क्योंकि उन्हें निर्णय लेने में डर लगता है। लड़के लड़कियाँ बरसों दोस्ती और प्यार किए जाते हैं, किन्तु शादी का निर्णय माँ पर छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ जिम्मेदारी में बँधना होगा और बात बिगड़ गई तो उसके लिए वे खुद उत्तरदायी ठहराए जाएँगे।
हमारे प्रधानमंत्री माननीय मोदी महोदय के नेतृत्व में आज देश में तमाम तरह की योजनाएँ चलाई गई हैं। इन सभी के मूल में कहीं न कहीं यह धारणा है कि भारत का युवा निर्णय लेगा और अपना खुद का उद्यम या व्यवसाय लगाएगा। उस व्यवसाय के लिए वह किसी बैंक या वित्तीय संस्था के पास जाएगा, जो उस उद्यमी अथवा व्यवसायी को ऋण देने के लिए तैयार बैठा है। बैंकों को इसके लिए लक्ष्य दिए गए हैं। सच्चाई यह है कि ऐसे भावी उधारकर्ता ने निर्णय लेना सीखा ही नहीं है। निर्णय लेने में जो आधारभूत जोखिम विद्यमान है, उसे वहन करने की हिम्मत ही ऐसे युवा में नहीं पैदा हुई है। इसलिए वह कोई उद्यम या व्यवसाय लगाएगा, इसकी संभावना ही बहुत कम है। और लगा भी ले तो बैंक से उधार लेकर लगाएगा, इसकी संभावना तो और भी कम है। उधार ले भी ले तो लौटा पाएगा, इसमें भी शंका है। इसलिए हर योजना के साथ एक गारंटी योजना भी नत्थी है, कि चलो तुम नहीं लौटा पाओगे तो थोड़ा-सा ब्याज अधिक देकर गारंटी योजना की छतरी तले आ जाओ। इतना टिटिम्मा! कौन पड़े इस झंझट में। इसलिए आज देश का पढ़ा-लिखा युवा सबसे पहले नौकरी और वह भी सरकारी नौकरी की ओर भागता है। क्यों? क्योंकि वहाँ निर्णय लेने के लिए कोई आपको बाध्य नहीं करता। निर्णय मत लो, चुपचाप महीने दर महीने पगार लेते जाओ। निर्णय लेनेवाले और लोग हैं, आप तो केवल नौकर बने रहो। बचपन में हम सुनते थे- ख़ादिम से मक़दूम बन जाओगे। कैसे बनेंगे मक़दूम? मक़दूम का प्राथमिक गुण है निर्णय करना। और आपको उससे ग़ुरेज़ है। तो आप ख़िदमत ही करते रहिए, मालिक बनने की कूवत आप में नहीं।
निर्णय करनेवाला निर्णय करने में सक्षम कब होता है? जब वह अपने किए के परिणाम भोगने की हिम्मत जुटा ले। यानी निर्णय करने में जोखिम निहित है। इसीलिए दुनिया में जितने बड़े-बड़े नेता और प्रशासक हुए हैं, वे निर्णय लेने में माहिर रहे हैं। उनमें गज़ब की निर्णय-क्षमता थी। जब ये निर्णय उल्टे पड़े तो उन्होंने उसका खामियाजा भी भोगा। महात्मा गाँधी ने राजनीति में आने का निर्णय किया, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने निर्णय किया कि अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में नहीं पढ़ाएँगे। लिहाजा, उनके बच्चे वैसी शिक्षा नहीं पा सके, जो दुनियावी मायनों में बच्चों के विकास के लिए ज़रूरी होती है। राजनीति ने उनका सारा समय ले लिया, जिसके चलते उनके कुछ पुत्रगण उपेक्षित हो गए और शराबखोरी का शिकार बन गए। इस निर्णय को वे वापस नहीं ले पाए। खामियाजा भुगता। किन्तु असहयोग आन्दोलन के हिंसक हो जाने पर उसे उन्होंने वापस ले लिया। आन्दोलनकर्ता अंग्रेजों के दमन-चक्र से बच गए और राष्ट्रीय आन्दोलन जारी रह सका। बाद में देश को इस निर्णय का लाभ मिला। देश आज़ाद हुआ।
गलत निर्णयों को लक्ष्य करता हुआ उर्दू का एक शेर है- लमहों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पाई। लेकिन इसके उलट देखें तो? किसी खास लमहे, किसी शुभ मुहूर्त में किए गए अच्छे निर्णय या अच्छे कार्य का सद्परिणाम भी तो सदियों तक मिलता रहता है! निर्णय के परिणाम अच्छे हैं या बुरे, यह तो समय बताता है, किन्तु इसी डर से कोई निर्णय ही न करे, यह तो कोई अच्छी बात नहीं। अगर हमें खुद-मुख्तार होना है, अपने आस-पास के लोगों, अपने पर आश्रित लोगों के जीवन-क्रम को आगे बढ़ाना है, अपनी संस्था के प्रति दायित्व को निभाना है, तो निर्णय करने से बचना असंभव है। सोच-समझकर निर्णय करें। सोचने-समझने में जोखिम का आकलन भी शामिल है। किन्तु वह तथ्याधारित और युक्ति-संगत होना चाहिए। निर्णय-प्रक्रिया में ढेर सारा सोच-विचार कई बार हमारे पैरों में बेड़ी डाल देता है, इसलिए अपने निर्णय के प्रति थोड़ा जज्बाती होना भी ज़रूरी है। कई बार तकनीकी दृष्टि से कमज़ोर बल्लेबाज भी अपने जज्बे और जोश के दम पर छक्के-चौके जड़ता हुआ, शतक ठोक देता है और उसकी टीम जीत जाती है। बड़े-बड़े नेता खुद तो जज्बाती होते ही हैं, अपने अनुयायियों को उससे भी अधिक जज्बाती बना देते हैं। इसीलिए लोग उनके पीछे मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं।
निर्णय ले लिया तो उससे सद्परिणाम हासिल करने के लिए प्राण-पण से जुट जाना भी ज़रूरी है। इसी को आजकल ओनरशिप कहते हैं। जज्बे और ओनरशिप के बिना कोई काम नहीं हो सकता। निर्णयों का क्रियान्वयन तो कतई नहीं। जो फैसला मेरा है, उसे मैं पूरे मनोयोग से, तन-मन-धन से जुटकर क्रियान्वित करूँगा। और कोई शक नहीं कि ऐसे फैसले का परिणाम भी ठीक ही निकलेगा। यदि ऐसा न होता तो दुनिया में इतने सारे आविष्कार न हुए होते। सारा खेल तो निर्णय लेने का और उसे पूरे दिल से अपनाने का है।
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