अक्सर जब हम देश में समान शिक्षा प्रणाली की बात करते हैं तो मौजूदा शिक्षा प्रणाली पर ढे़र सारे प्रश्न खड़े कर देते हैं। यूँ तो 1968 की राष्ट्र...
अक्सर जब हम देश में समान शिक्षा प्रणाली की बात करते हैं तो मौजूदा शिक्षा प्रणाली पर ढे़र सारे प्रश्न खड़े कर देते हैं। यूँ तो 1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति आजादी के बाद के इतिहास में एक अहम कदम थी। जिसका उद्देश्य राष्ट्र की प्रगति को बढ़ाना तथा सामान्य नागरिकता व संस्कृति और राष्ट्रीय एकता की भावना को सुदृढ़ बनाना था। उसमें शिक्षा प्रणाली के सर्वांगीण पुनर्निर्माण तथा हर स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता को ऊँचा उठाना इसका मूल उद्देश्य था। किन्तु यह भी कटु सत्य है कि आजादी के बाद की 1968 की शिक्षा नीति के अधिकांश सुझाव और उद्देश्य कार्यरूप में परिणत नहीं हो सके। अर्थात् उस नीति के मूल उद्देश्य धरातल पर नहीं उतर सके। जिसके कारण भी कई हो सकते हैं। पर मौजूदा दौर में देश की सियासत ने शिक्षा को एक दुराहे पर ला खड़ा कर दिया है।
मौजूदा दौर में शिक्षा प्रणाली में सुधार के तौर तरीकों पर गौर किया जाय तो निश्चित ही मौजूदा दौर की शिक्षा प्रणाली सियासत के रंगो में रंगी हुई दिखाई देती है। क्यों कि भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें काम कर रहीं हैं। जिनकी विचारधारा भी अपने-अपने हिसाब से ही है। तो जाहिर है कि ये सरकारें अपने राज्य में अपने दल की विचारधारा को मासूम बच्चों पर थोपने में लगी हुईं हैं। इन्हें ना तो देश के इतिहास से ही कुछ लेना देना है और ना ही देश के उन महापुरूषों से ही कुछ लेना देना है जिन्होंने देश को अपने खून पसीने से सींचकर स्वावलंबी बनाया है। और ना ही इन्हें आजादी के बाद की 1968 और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सिद्धांतों और उद्देश्यों से ही कुछ लेना देना है।
हालांकि राज्य सरकारों के सिलेबस की तुलना में केन्द्रीय शिक्षा प्रणाली को राज्य सरकारें भी ज्यादा बेहतर समझती हैं। और समझें भी क्यों ना क्योंकि शिक्षा वह धन है जिसे कोई हमसे या हमारे बच्चों से बांट नहीं सकता। पर सियासत के रंग शिक्षा की मूल भावना में समाहित करने में भी ये राज्य सरकारें पीछे नहीं हैं। बहरहाल आजादी के बाद से ही देश में समय-समय पर शिक्षा प्रणाली में सुधार होते आये हैं इन सुधारों में चाहे सियासत का रंग मिला हो या फिर ये सुधार समय की मांग हों दोनों ही स्थिति में इसका असर सीधे हमारे बच्चों पर पड़ा है। मसलन स्कूल के सिलेबस में समय के अनुसार बदलाव करना गलत भी नहीं है, लेकिन अगर बदलाव कोरी सियासत की वजह से हो, तो इस पर सवाल उठना भी लाजिमी हैं।
अभी हाल में राजस्थान सरकार ने सामाजिक विज्ञान की कक्षा 8 की किताब से देश के प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से संबंधित हिस्से को हटा दिया गया है। ऐसे में सूबे की बीजेपी सरकार पर विरोधी पार्टियों की नाराजगी जायज है। बात राजस्थान पर खत्म नहीं होती इससे पहले गुजरात में हिंदी भाषा की किताब में भारत माता, देशभक्ति और भारतीय संस्कृति पर जोर दिया गया है। जाहिर ये सब ऐसे वक्त में हुआ जब देश में एक विशेष दल की विचारधारा को समाज के बुद्धिजीवी वर्ग पर थोपा जा रहा हो। तो हम मान ले देश की शिक्षा व्यवस्था पूर्ण रूप से सियासत के रंग में रंग चुकी है।
सरकारों के बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के नारे मात्र दिखावा बन चुके है। इससे पहले भी दिल्ली के एक निजी स्कूल रेयान इंटरनेशनल स्कूल में अधिकारिक रूप से छात्रों पर किसी पार्टी विशेष का सदस्य बनने के लिए दवाब डालने का आरोप लग चुका है। तब कहा जा सकता है कि देश में समान शिक्षा लागू करने की बात पर ध्यान कम ही दिया जा रहा है स्कूल में मासूम बच्चों को किसी पार्टी विशेष से जोड़कर आखिर हम संदेश क्या देना चाहते है। एक तरफ अविभाजित आंध्रप्रदेश की बात की जाय तो पूरे प्रदेश में समान शिक्षा का स्वरूप देखने को मिलता था पर जब अब आंधप्रदेश के विभाजन के बाद तेलंगाना राज्य के विषय की बात आती है तो इसी आंध्रप्रदेश में शिक्षा मंत्री श्रीनिवासराव के अनुसार ‘‘जब तेलंगाना अपने स्कूलों के पाठ्यक्रम में आंध्रप्रेदश का जिक्र नहीं कर रहा है, तो हम क्यों अपने पाठ्यक्रम में तेलंगाना का जिक्र करें’’ जिससे साफ हो जाता है कि कहीं ना कहीं दोनों राज्यों में समान शिक्षा प्रणाली लागू होने में सियासत की आड़े आ रही है।
तो हम कह सकते है कि कहीं ना कहीं राजनीतिक दल भी समान शिक्षा प्रणाली को लागू नहीं होने दे रहे हैं। तब कहा जा सकता है कि सियासत के मोहरों ने शिक्षा व्यवस्था को भी पूरी तरह से सियासत के रंग में रंग दिया है। दूसरी तरफ हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भी कह चुके हैं कि ‘‘हरियाणा के स्कूल नए सत्र से अपने पाठ्यक्रम में श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों को शामिल किया जायेगा। अच्छी बात है कि हरियाणा के स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ पढ़ाये जाने की घोषणा कर चुके हैं अकेले हरियाणा के मुख्यमंत्री ही नहीं है जो स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता को राज्य के स्कूलों में पढ़ाने पर जोर दे रहे हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी सरकार की ओर से मुंबई के सभी म्यूनिसिपल स्कूलों में श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाने पर जोर दे रहे हैं।
राजस्थान में भी 48 हजार सरकारी और निजी स्कूलों में सूर्य नमस्कार और योग शिक्षा को अनिवार्य किया गया है। इसी प्रकार मध्यप्रदेश सरकार भी कह चुकी है कि राज्य के सभी स्कूलों में सूर्य नमस्कार सिखाया और कराया जाय। ऐसे ही गुजरात सरकार ने अहमदाबाद के 450 म्यूनिसिपल स्कूलों में बसंत पंचमी के दिन सरस्वती वंदना अनिवार्य रूप से कराने के आदेश दिए गए हैं। जिससे जाहिर है कि देश में सब अपने-अपने राजनीतिक गुणा-भाग के अनुसार शिक्षा प्रणाली में आये दिन सुधार करने की घोषणा किए जा रहे हैं। पर देश में समान शिक्षा प्रणाली की बात करने कोई भी राजनीतिक दल आगे नहीं आ रहा है।
अभी हाल ही में मुंबई के एक शक्स ने भरी अदालत में गीता की कसम खाने से यह कहकर इंकार कर दिया कि ‘‘मैं नास्तिक हूं और गीता की कसम नहीं खा सकता हूं मैं भारत के संविधान को मानता हूं और भारत के संविधान की ही कसम खाऊंगा।’’ तब खट्टर सहित गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान के मुख्यमंत्रियों और उस शख्स के बयान ने निश्चित ही देश में नई बहस छेड़ दी है। एक तरफ स्कूली पाठ्यक्रमों में देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को हटा दिया गया है तो दूसरी तरफ श्रीमद्भगवद्गीता सहित सूर्य नमस्कार, योगशिक्षा को अनिवार्य किया गया है। तब देश के इतिहास और संविधान सहित पूरे देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू होने की नीति पर सियासत चुप क्यों है? हम मानते हैं कि शिक्षा के स्वरूप को वक्त की मांग पर बदलना आवश्यक हो गया है पर मासूम बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का स्वरूप इतना भी नहीं बदलना चाहिए कि उसमें सियासत के रंगों की महक आने लगे। यही कारण है कि देश में समान शिक्षा प्रणाली लागू करने की उठती आवाजें भी अब थककर चुप हो कर यह मान चुकी है कि देश की शिक्षा व्यवस्था पर सियासत का रंग पूरी तरह से चढ़ चुका है।
भले ही भारत में 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना संवैधानिक प्रतिबद्धता है, जिसके अनुसार देश की संसद ने वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया है। जिसमें 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार हो गई है। वहीं दूसरी तरफ भारत में आधारभूत, बुनियादी, व्यावसायिक शिक्षा की गुणवत्ता फिलहाल एक चिंता का विषय बनती जा रही है। हमारा देश आर्थिक और तकनीकी लिहाज से उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां से हम अब तक के संचित साधनों को इस्तेमाल करते हुए समाज के हर वर्ण को फायदा पहुंचाने का भले ही प्रयास कर रहे हों पर देश में समान शिक्षा प्रणाली ही उस लक्ष्य तक पहुंचने का प्रमुख साधन होगी।
अनिल कुमार पारा,
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