हिंदी में हाइकु (७) विचार तत्व / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

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जापानी हाइकुकारों की मुख्य प्रेरणा आध्यात्मिक थी. बौद्ध धर्म की महायान शाखा पर आधारित ज़ेन (zen) संप्रदाय ने जापान के जीवन के प्रत्येक क्षेत...

जापानी हाइकुकारों की मुख्य प्रेरणा आध्यात्मिक थी. बौद्ध धर्म की महायान शाखा पर आधारित ज़ेन (zen) संप्रदाय ने जापान के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया. स्थापत्य, चित्रकला, दस्तकारी, उद्यान निर्माण आदि, सभी कला-कर्मों में ज़ेन चिंतन का प्रभाव देखा जा सकता है. यहां की हाइकु रचनाएं भी यदि ज़ेन-दर्शन की वाहक रहीं हैं तो

इसमें आश्चर्य की बात नहीं है. हाइकु में भाव की एकाग्रता, ज़ेन दर्शन की ही देन है. जापानी भाषा के प्रसिद्ध विद्वान और हिंदी में हाइकु काव्य के प्रणेता, डॉ. सत्यभूषण वर्मा का कथन है कि ज़ेन अनेक रूपों में हाइकु रचनाओं में प्रतिबिम्बित हुआ है. अनेक प्रसिद्ध हाइकु ज़ेन-सूक्तियों के छायानुवाद हैं. दुःख, आवेग, हर्ष, शोकादि से निर्लिप्त होकर ज़ेन साधक जीवन की हर स्थिति को निरपेक्ष भाव से स्वीकार करता है. हाइकु कवि भी वस्तु जगत और जीव जगत के कार्य-व्यापारों का यथावत चित्रण, बिना किसी टिप्पणी या अलंकार के, करता है. कथ्य और शिल्प की सादगी, अभिव्यक्ति की सहजता, शब्दों की मितव्ययिता और चराचर जगत के प्रति सहानुभूति ज़ेन दृष्टि की ही देन है.

भारत में भी अधिकतर हिंदी कवियों ने अपनी दार्शनिक दृष्टि और जीवन-पद्धति को हाइकु रचनाओं में अभिव्यक्ति दी है और यह स्वाभाविक है क्योंकि भारत का पूरा परिवेश ही दार्शनिक विचारों से व्याप्त है. इस संदर्भ में हाल ही में प्रकाशित रमेश कुमार त्रिपाठी, सूर्य देव पाठक पराग और भास्कर तेलंग के हाइकु संकलन, क्रमशः – ‘मन के सहचर’, ‘वामन पग’, और ‘मन बंजारा’, विशेष उल्लेखनीय हैं. सुधा गुप्ता में यद्यपि मूलतः प्रकृति चित्रण हुआ है, लेकिन व्यक्त रूप से अपनी दार्शनिक दूरी को बनाए रखने के बावजूद, उनके संग्रह, ‘धूप से गपशप,’ में कुछ बहतरीन हाइकु ऐसे भी हैं जो उनकी दार्शनिक अभिरुचि को उद्घाटित किए बिना नहीं रहते.

डॉ. रमेश कुमार त्रिपाठी हिंदी के एक वरिष्ठ हाइकुकार हैं. वे दर्शनशास्त्र के आचार्य हैं. दार्शनिक दृष्टि से वस्तुओं घटनाओं को देखने का उन्हें अभ्यास है. मानव स्वभाव को उन्होंने बहुत निकट से देखा-परखा है. भारतीय दर्शन में अहं-नाश की जो बात कही गई है, वह उनके लिए कोई निरर्थक बकवास नहीं है. त्रिपाठी जी अच्छी तरह जानते हैं कि

नस नस में/

बहता रहता है/

रक्त अहं का

अहं धुरी है/

जीवन का पहिया/

घूमे जिसपर

लेकिन यह अहं ही मनुष्य को ले भी डूबता है. हम परमार्थ की बड़ी-बड़ी बातें न भी करें, पर प्रतिदिन के जीवन व्यापार में भी अहं सबसे बड़ा बाधक है. यहां भी,

हुआ करता/

ठसक से स्खलित/

आचार शिष्ठ

मनुष्य एक विचित्र प्राणी है. वह जहां एक ओर, दया और करुणा से ओतप्रोत है वही दूसरी ओर, वह कभी-कभी अत्यंत कठोर भी हो जाता है. पल्लव सा, पर्वत सा आदिम मानव मन में अनंत कामनाएं और अतृप्त इच्छाएं समाहित हैं. वह संसार की हर वस्तु को अपनी कामनाओं की पूर्ति के माध्यम के रूप में देखता है

देखूं संसार/

चाह की ऐनक से/

दृष्टा, भ्रष्ट हूं

फिर भी उसकी असीमित इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं. यह अतृप्ति व्यक्ति को कुंठित करने के लिए पर्याप्त है. लेकिन त्रिपाठी जी निराश नहीं होते. ज़िंदगी के अंधकार में कभी-कभी आशा की किरण उन्हें दिख ही जाती है.

छूट पड़ते/

जीवन तमस में/

अनार आशा

भास्कर तेलंग कई वर्षों से कविता-कर्म कर रहे हैं. वे भी प्राध्यापक रहे हैं.राजनीति

के छात्र होते हुए भी दार्शनिक जिज्ञासा उनमें भी कम नहीं रही है. उनका हाइकु संग्रह, ;मन बंजारा’, अपने शीर्षक से ही चितनशील वृत्ति का परिचय देता है. यह मानते हुए भी कि आज का सारा का सारा सामाजिक व्यापार झूठ और धोखे पर चल रहा है, उनके मन में एक सहज विश्वास दृढ़ता से घर किए हुए है कि असत्य कभी विजयी नहीं हो सकता,

बुझता नहीं/

असत्य की आंधी से/

सत्य का दीप.

भास्कर तेलंग के लिए जीवन एक पहेली है और उन्होंने इसे कई तरह से सुलझाने का प्रयत्न किया है पर अभी तक किसी निर्णायक बिन्दु पर पहुंच नहीं पाए हैं. उनके लिए ‘पहुंचना’ इतना महत्वपूर्ण भी नहीं है, जितना कि वांछित दिशा में ‘प्रस्थान’ करना है.

इसीलिए वे जीवन को कभी प्रतीक्षा, कभी तपस्या, कभी सौगात और कभी तलाश के रूप में देखते हैं. वे स्वयं ही प्रश्न करते हैं कि जीवन क्या है और स्वयं ही उत्तर भी देते हैं, -

जीवन क्या है/

अनंत सुख हेतु/

एक प्रतीक्षा

जीवन क्या है/

वरदान पाने की/

एक तपस्या

जीवन क्या है/

सुख और दुःख की/

एक सौगात

जीवन क्या है/

धार के थपेड़ों में/

एक किनारा

जीवन क्या है/

गुमनाम रास्ते की/

एक तलाश

जीवन दया है/

संघर्ष मंथन से/

उपजा रत्न

भारतीय मनीषा सदा से ही विचारशील रही है. यहां का दर्शन इतना आकर्षक है कि लोग उसकी बारीकियों में न जाकर उसके व्यावहारिक पक्ष को अपनी स्मृति में संजोए हुए हैं. भगवत्-गीता का निष्काम कर्म तो मानों भारत की मिट्टी में ही घुल-मिल गया है. और यह अनासक्त कर्म बिना समत्व-भाव के असम्भव है. इसी समत्व-योग को जैन दर्शन ने भी स्वीकार किया है और गांधी की निष्ठा भी समभाव में रही है. सूर्यदेव पाठक हिंदी के एक महत्वपूर्ण हाइकुकार हैं. वे राम के उपासक हैं और भारतीय चिंतन की समभाव निष्ठा के क़ायल हैं. वे कहते हैं, -

दुःख-सुख में/

समभाव रखे जो/

राम वही है

हमारा दर्शन अंधकार को मिटाकर प्रकाश का आह्वान करता है. बेशक प्रकाश के लिए आग ज़रूरी है, लेकिन जब यही आग चराग़ में जलती है तो वह जलाती नहीं, केवल प्रकाश की वाहक होती है,

जले चराग़/

प्रकाश करे पर/

लगे न आग

निष्कम्प शिखा/

जलते दीपक की/

रश्मि बिखेरे

भारत में यद्यपि पुरुषार्थ की बात कही गई है और पुरुषार्थों में एक अर्थ-पुरुषार्थ भी है, किंतु अर्थ कभी अपने आप में जीवन का साध्य नहीं रहा. यह हमेशा धर्म के अनुशासन में साधन पुरुषार्थ है. धनार्जन केवल साधन रूप में ही स्वीकृत किया जा सकता है. निश्चय ही वे लोग ग़लत हैं जो सोचते हैं कि धन-दौलत बेकार है,

फूलों में कांटे/

व्यवसाय में घाटे/

क्या डर जाएं!

पर ध्यान में यह भी रखना ज़रूरी है कि, -धन-दौलत/

साधन हैं जीने के/

साध्य नहीं हैं!

सुधागुप्ता जानबूझकर चिंतन और विचार में उलझना नहीं चाहतीं लेकिन उनकी रचनाएं अनजाने ही उनकी सुप्त दार्शनिक अभिरुचि की चुगली करने से बाज़ नहीं आतीं. हमारे समाज में मानवी सम्बंध आज टूट रहे हैं, सम्बंधों की इस टूटन ने डॉ. गुप्ता को कहीं गहरे तक व्यथित किया है और उनकी यह व्यथा, उदासी, टीस, बेबसी उनकी रचनाओं में, कभी पीछे के दरवाज़े से तो कभी सामने से, धड़ल्ले से घुस आती है –

बैठी है प्यास/

पपड़ाए होठों पर/

धरना दिए

कहीं न सुनीं/

मन ही मन रही/

आई बिदाई

न कोई कमी/

न होगी उदासी ही/

मेरे जाने से

जैसे-जैसे आयु का अहसास होने लगता है, एक प्रकार का वैराग्य घर कर जाता है. जो भी सजाकर, जुटाकर, सहेजकर रखा, उसी सबके छूट जाने का भय भी अंदर ही अंदर सालता है –

क्या साथ लूं/

यह वह सब तो/

छूटा जाता है,

इसीलिए सारी अतृप्तइच्छाएं और कामनाओं को परे खिसकाकर अकुंठ भाव से कवियित्री स्वयं को तसल्ली देती है,

एक दूकान/

दुनिया के मेले में/

सजी न सजी

पांव फैला के/

लम्बी तान सोऊंगी/

फुरसत से

यह मृत्यु बोध ही अंततः कवि को एक दार्शनिक दृष्टि देता है और अनागत के भय से उसे मुक्त करता है.

 

संदर्भ-

1,- रमेशकुमार त्रिपाठी, मन के सहचर, इलाहाबाद,2003.

2,- सूर्य्देव पाठक, वामन पग, गोरखपुर, 2002.

3,-भास्कर तेलंग, मन बंजारा, होशंगाबाद, 2002

4,- सुधा गुप्ता, धूप से गपशप, मेरठ, 2002

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रचनाकार: हिंदी में हाइकु (७) विचार तत्व / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
हिंदी में हाइकु (७) विचार तत्व / डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
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