कहानी संग्रह - अपने ही घर में / मैं पत्थर नहीं बनना चाहती : लखमी खिलाणी

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कहानी संग्रह - अपने ही घर में / मैं पत्थर नहीं बनना चाहती लखमी खिलाणी ‘पापा ! आपको दिल का दौरा पड़ा, एम्बुलेंस में नर्सिंग होम ले जाया ग...

कहानी संग्रह - अपने ही घर में /

मैं पत्थर नहीं बनना चाहती

लखमी खिलाणी

‘पापा ! आपको दिल का दौरा पड़ा, एम्बुलेंस में नर्सिंग होम ले जाया गया, तीन-चार दिन इन्टेंन्सिव केअर यूनिट में रखा। किसी ने मुझे फोन भी नहीं किया।’

ये तो उस दिन मुम्बई से आए चाचा मोतीराम अचानक न्यू मार्केट में मिल गए। शिकवा करते हुए कहा - ‘ये क्या विमला ! भाऊ को इतनी तकलीफ थी, दूसरे शहरों से कहाँ-कहाँ से लोग उन्हें देखने नर्सिंग होम में आए। एक तुम ही अपने शहर में रहते हुए भी नज़र नहीं आई। मुझे लगा उसकी आँखें तुझे ही ढूँढ़ रही थीं। वे बात नहीं कर पा रहे थे, पर उनके होंठ तेरा ही नाम उच्चारते नज़र आए।’

आपकी बीमारी का सुनकर मेरी जो हालत हुई, क्या बताऊँ ? उसी व्याकुलता में चाचा मोतीराम से आपके बारे में पूछा था। आप अभी कैसे हैं ? कौन से नर्सिंग होम में हैं ? क्या मैं आपसे अभी, इस वक़्त मिल सकती हूँ ?

मैं उस दिन शाम को पाँच बजे नर्सिंग होम पहुँची। मुख्य द्वार पर ही बड़े भाई श्याम मिल गए। मैंने उन्हें उलाहना देते हुए कहा - ‘क्यों भैया, तुमने मुझे पापा की बीमारी की खबर भी नहीं दी ?’

श्याम ने रूखे अंदाज़ में जवाब दिया - ‘डैडी को लेकर हम पहले ही इतने परेशान थे... निर्मला ने ज़रूर तुम्हें फोन किया होगा, पर आजकल फोन की जो हालत है...!’

उस वक़्त मम्मी जी भाभी निर्मला का हाथ पकड़कर अन्दर आ रही थी। शायद वे भी अभी ही घर से कार में आए थे। मैंने दौड़कर मम्मी को पुचकारते हुए पूछा- ‘ममी अभी पापा की तबीयत कैसी है ?’

‘अभी तो बेहतर है बेटे ! पर इस बीमारी का क्या भरोसा ?’ मम्मी ने कहा।

‘कौन-सा डाक्टर पापा का इलाज कर रहा है ? कहो तो मैं डा. इब्राहीम को बुला लाऊँ। वह शहर का बेहतरीन हार्ट स्पेशलिस्ट है।’

‘नहीं, ज़रूरत नहीं है। डा. बॅनर्जी भी नामी डाक्टर हैं। अभी डैडी की तबीयत में काफ़ी सुधार है। बस डाक्टर ने किसी भी विजिटर को भीतर जाकर उनसे मिलने की सख़्त मनाही की है’ श्याम ने कहा।

‘मैं सिर्फ़ एक मिनट के लिये उन्हें देख आऊँगी ! मैं कमरे में भीतर भी नहीं जाऊँगी, मुझे यह विजिटर्स कार्ड दे दो।’

मैंने श्याम से अनुरोध किया। इस नर्सिंग होम में बिना पास के भीतर जाने ही नहीं दिया जाता। पर श्याम भी जैसे अड़ गया - ‘मैं किसी भी हालत में किसी को भी अन्दर जाने नहीं दूँगा। हमें डैडी की जान प्यारी है। देख नहीं रही हो हम सब खुद बाहर खड़े हैं ?’

‘देखो, समझदार बनो। मैं वादा करती हूँ कि मैं भीतर नहीं जाऊँगी। पर्दे के पीछे से ही उनका दर्शन करके लौट आऊँगी।’

पर निर्दयी श्याम ने एक न सुनी। भाभी निर्मला खामोश बुत की तरह खड़ी रही। मम्मी ने बेटे की हिमायत करते हुए कहा - ‘विमला तुम ज़िद क्यों करती हो, दो तीन दिन की तो बात है। तेरे बाबा जल्द ही ठीक होकर घर आ जाएँगे। फिर ज़रूर उनके साथ बैठकर पहले जैसी घंटों भर बातें करना। वैसे भी अपने बेटी-बेटियों से उनका मोह तुझमें ज़्यादा है।’

उस दिन मैं निराश ही लौट आई !

दूसरे दिन भी मैं निराश ही लौट आई !!

तीसरे दिन भी मैं निराश ही लौट आई !!!

श्याम, निर्मला और मम्मी आपके कमरे के बाहर मेरा रास्ता रोककर खड़े रहे। उन्हें कितना मनाने की कोशिश की, पर उन्होंने मेरी एक न सुनी। एक तरफ़ चाचा मोतीराम कह गए कि आप मुझसे मिलने के लिये आतुर हैं, मुझसे कोई ज़रूरी बात करने को व्याकुल, दूसरी तरफ़ श्याम भाई कहते थे कि आप मुझसे नाराज़ हो और मुझसे मिलना नहीं चाहते। मुझे देखकर आपके ब्लड प्रेशर बढ़ जाने की संभावना ज़्यादा है।

नहीं पापा नहीं ! मैंने आपको बेहद चाहा है। मैं आपका बुरा कैसे चाहूँगी ? मैं सिर्फ़ एक बार आपको देखना चाहती हूँ, आपकी सेवा करना चाहती हूँ। एक बार पहले भी जब आपको टाईफाइड हुआ था, मैंने रात दिन आपके सिरहाने बैठकर, आपकी पेशानी पर ठंडी गीली पट्टियाँ बदलती रही थी। ठीक होने के बाद आपने मेरा हाथ सर पर रखकर कहा था - ‘विमला तुम मेरी धर्म की बेटी नहीं, पिछले जन्म की मेरी माँ हो।’

‘पर पापा आज श्याम, निर्मला और मम्मी मुझे गैर क्यों समझ रहे हैं। अब तक तो मैं आपके घर की सदस्या बनकर रही हूँ। आपके मुझपर इतने एहसान हैं, उन्हे मैं कैसे भुला सकती हूँ? अरुण तो अचानक मुझे वैधव्य का दुख देकर खुद चलता बना। उस वक़्त आप अगर मेरे सर पर अपना हाथ न रखते तो न जाने मेरी क्या हालत हुई होती। आपने ही भाग-दौड़ करके मुझे अरुण वाली फर्म में नौकरी दिलाई। इन्श्योरेन्स के पैसे वसूल करके दिये। बच्चों को अच्छे स्कूल में दाख़िला लेकर दिया। जब कभी मुझपर कोई विपत्ति आई, मैं दौड़ती हुई आपकी शरण में आई, फिर वह मकान मालिक की धमकी हो या बास की बुरी नज़र ! एक विधवा का अपने बच्चों के साथ अकेले जीवन काटना कितना दुश्वार है, इस बात का अहसास मुझे बखूबी होने लगा था।

आपसे जुड़े हुए बाप-बेटी के पवित्र रिश्ते को भी लोगों ने शक की निगाह से देखा। खुद श्याम भैया, निर्मला भाभी और मम्मी को भी आपका मेरे यहाँ आकर घंटों तक बैठना और अपने दिल की बातें मेरे साथ करना नागवार गुज़रा। आज का इन्सान सही अथरें में कितना तन्हा होता जा रहा है, वह अपने छोटे बड़े दर्द अपने भीतर ही भीतर जब्त करता रहता है। कोई एक खुशनसीब होगा जिसे भरोसेमंद दोस्ती का कंधा मिल जाता है, जिसपर वह अपना सिर टिकाए, रोए, अपने आपको बाँटकर हल्का महसूस करे। हम दोनों यक़ीनन ऐसे खुशनसीब लोगों में से थे जिनको सीने में समाए दुख-सुख बाँटने के लिये मन चाहा आधार मिल गया था। फिर भी कम ज़हनी लोगों की मनोवृत्ति स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबंध से ऊपर उभरकर, भावनात्मक संबंध की कल्पना कर पाने में असमर्थ रही है।

चाचा मोतीराम आपकी ख़ैरखबर लेने के लिये मुम्बई से लौट आया है। यह सुनते ही मैं दौड़कर उनके पास गई - ‘चाचा ! श्याम भैया और वे सब मुझे पापा से मिलने नहीं देते। आप तो कह रहे थे कि पापा मुझे देखने को तड़प रहे हैं।’

‘यह तुम क्या कह रही हो ?’ मेरी बात सुनकर चाचा मोतीराम हैरत में पड़ गए। ‘तुम्हें भाऊ से मिलने नहीं दे रहे हैं ? यह तो सरासर अन्याय है। सारे जहान को पता है कि भाऊ का तुझसे खास स्नेह रहा है। मरने वाले की आखिरी इच्छा दोस्त क्या दुश्मन भी पूरा करने को तत्पर रहता है ...।’

कुछ देर सोचने पर चाचा अचानक मेरी तरफ़ निरन्तर देखते हुए बोले - ‘सच कहो, कहीं तुमने रुपये पैसे उनके पास अमानत के तौर पर तो नहीं रखे हैं ?’

चाचा की बात सुनकर मैं सुन्न-सी हो गई। इस तरफ़ तो मेरा ध्यान ही नहीं गया था। अपने जीवन की तमाम जमा पूँजी, अपने बच्चों का भविष्य तो मैंने इनके पास ही गिरवी रख छोड़ा था। अगर वह रक़म मुझे वापस न मिली तो फिर समझो कि मेरा सर्वनाश तय है।

‘पापा ! आपने ही तो सलाह दी थी कि अरुण की इन्श्योरेन्स से मिला पैसा और उसकी बचत की रक़म सब श्याम के पास ब्याज पर रख दो। हर महीने तुम्हें चार-पाँच हज़ार घर बैठे मिलते रहेंगे। उससे तेरे बच्चों की बेहतर परवरिश होगी। तुम्हारी रक़म को कोई जोखिम नहीं है, इस बात का ज़ामिन मैं हूँ !

‘नहीं पापा नहीं ! मुझ बेसहारा विधवा औरत की अमानत में ख़्यानत आप कभी नहीं करेंगे। मुझे कभी भी धोखा नहीं दोगे। मेरा आपमें पूरा भरोसा है।

मैं चाचा से कहती हूँ - ‘नहीं चाचा, यह बात हो ही नहीं सकती। यह सच है कि मैंने पापा की सलाह पर श्याम भैया के पास पैसा ब्याज पर रखा है। पर श्याम भैया के पास रुपयों की क्या कमी है। उनके पास तो अपनी करोड़ों की दौलत है, ज़मीन-जायदाद, मोटर-गाड़ियाँ...।’

‘तुम बहुत ही भोली औरत हो। रुपये पैसों की कमी हमेशा साहूकारों को ही महसूस होती है। उनकी लालच का कुआँ कभी भी नहीं भरता।’

चाचा की बात सुनकर मेरे बदन में बिजली की लहर दौड़ जाती है।

‘पर चाचा ! मेरे पास पक्की रसीद है।’

मुझे यों डूबता हुआ देखकर चाचा को मुझपर रहम आता है, कहता है - ‘उठो विमला, अब देर मत करो। डा. बॅनर्जी से कहकर मैं तुम्हें मुलाक़ात वाले समय से पहले ही उसके पास ले चलता हूँ। इन्होंने तुम्हारे साथ सरासर अन्याय किया है।’

‘भाऊ आँखें खोलो, देखो आपसे कौन मिलने आया है ?’ चाचा आपको जगाने का प्रयास करते हैं।

‘पापा, मैं हूँ आपकी बेटी विमला।’ मैं दौड़कर आपका हाथ पकड़ती हूँ। आपकी छाती पर सर रखकर रोना चाहती थी। पर मौके की नज़ाकत देखते हुए अपने आप पर क़ाबू रखती रही।

आप आँखें खोलकर लगातार मेरी ओर देख रहे हैं, उनमें शिकायत है, उलाहना है- ‘इतने दिन तुम कहाँ थीं ? तुमने मेरी कोई ख़ैर-खबर ही नहीं ली।’ आपके हाथ की पकड़ मज़बूत होती जा रही है।

‘पापा ! मैं आपको कैसे बताऊँ कि इन्होंने मुझे आपसे मिलने ही नहीं दिया, मुझ पर बंदिश लगा दी। अब आप ठीक हो जाएँ, मैं आपको अपने घर ले चलूँगी, आपकी सेवा करूँगी।’

‘नहीं, पापा नहीं ! मैं आपसे नाराज़ नहीं हूँ, आप तो हमारे खैर-ख़्वाह रहे हैं, हमेशा हमारा भला चाहा है। मुझे इसमें कोई भी शक नहीं है।

पापा, आपकी आँखों से आँसू लुढ़ककर गालों को गीला करते हुए बह रहे हैं। लगता है आपकी जबान तालू को लग गई है। आप कुछ कहना चाहते हैं, पर कोशिश के बावजूद शब्द आपका साथ नहीं दे पा रहे हैं। सिर्फ़ आपके हाथ की पकड़ मज़बूत और मज़बूत होती जा रही है।

मैं सब कुछ समझ रही हूँ पापा ! आप मजबूर हैं, मेरे लिये कुछ न कर पाने का आपको बेहद अफ़सोस है। खुद को गुनहगार महसूस कर रहे हैं आप। आपने अपने बेटे पर विश्वास किया, अपने इर्द-गिर्द के सभी सगे-संबंधियों पर विश्वास किया। पर आज की यह दुनिया विश्वास के क़ाबिल नहीं रही है, वह अपनी पाक निष्ठा खो चुकी है, भावनाओं से वंचित होकर पत्थर बन चुकी है।

पर मैं पत्थर बनना नहीं चाहती पापा, मेरे असली माता-पिता तो मेरे जन्म के बाद ही एक हादसे में गुज़र गए। उसके बाद आपमें ही मैंने अपने माँ-बाप को पाया। मैं अपना वह विश्वास खोना नहीं चाहती, अपने सीने से लगाकर उसे संजोना चाहती हूँ। इस विश्वास के खोते ही मैं खुद को भी खो बैठूँगी !

आपकी आँखें मुँद गई हैं, चेहरा शांत हो गया है, हाथ की पकड़ ढीली होने लगी है। शायद आप इस घड़ी का ही इन्तज़ार कर रहे थे। ना पापा ना ! आपको मुझसे माफ़ी की तलब करने की कोई ज़रूरत नहीं। अब मैं इस दुनिया को कुछ-कुछ समझने लगी हूँ। यह कितनी मक्कार, फरेबी, खुदमतलबी बनकर अपना चेहरा गँवाकर बेमतलब बन गई है।

श्याम भैया कमरे में आते ही मुझे देखकर कितना शोर मचा रहे हैं - ‘तुम्हें अन्दर आने किसने दिया ? निकलो, बाहर निकलो !’

मुझे इस पत्थर पर दया आ रही है। पापा मैं आपसे इजाज़त ले रही हूँ। विश्वास कीजिये, आपका दिया हुआ प्यार, स्नेह, विश्वास मेरी अनमोल पूँजी बनकर रहेगी, और उसे कोई भी मुझसे न छीन सकेगा, न लूट सकेगा।

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कहानी संग्रह - अपने ही घर में / मैं पत्थर नहीं बनना चाहती : लखमी खिलाणी
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