हम भारत के लोग ( डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री पूर्व सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार, 138, एम् आई जी, पल्लवपुरम फेज़ ...
हम भारत के लोग
( डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
पूर्व सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार,
138, एम् आई जी, पल्लवपुरम फेज़ - 2, मेरठ 250 110 )
e-mail : agnihotriravindra@yahoo.com
“ Languages do not kill languages ; speakers do.” Salikoko Mufwene
दृश्य 1
बात लगभग चार दशक पुरानी है। भोपाल में मौलाना आजाद कालेज ऑफ़ टेक्नोलोजी (एम ए सी टी) की स्थापना हुई ही थी और भोपाल में ही रहने वाला मेरा भांजा वहीँ से इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहा था । छुट्टियों में मेरे पास जयपुर आया। बाज़ार से सामान लाने और दौड़ - भाग के काम करने में उसकी विशेष रुचि थी। अतः मेरी पत्नी ने बाज़ार से सब्जी - फल आदि लाने के लिए उससे कहा। उसने कागज़ - पेन उठाया और बोला, हाँ मामी जी, बोलिए, क्या - क्या लाना है । पत्नी बोल रही थीं - आलू, मटर, फूलगोभी, धनिया, सेव, केला -------- वह लिखता जा रहा था । जब वह लिख चुका तो मैंने उससे वह कागज़ माँगा । उसने कागज़ पर रोमन में लिखा था - aaloo , matar , gobhi , dhania , ........ ……मैंने झिड़कते हुए कहा ,' वीरेन्द्र , यह क्या है ? यह कौन सी भाषा है ? क्या ये अंग्रेजी के शब्द हैं जो तुमने अंग्रेजी की रोमन लिपि में लिखे हैं ? अगर तुम इनके अंग्रेजी नाम लिखते तो मैं यह मान लेता कि तुम अंग्रेजी शब्दों का अभ्यास कर रहे हो ; पर ये नाम हिंदी के और लिपि अंग्रेजी की ? आधा तीतर आधा बटेर ! ‘
वह मुस्कराते हुए बोला, बस मामा जी, ऐसे ही लिख लिए । मैंने उसे आगे से ध्यान रखने की नसीहत दे डाली ।
दृश्य 2
लगभग चार दशक पुरानी एक और घटना भी याद आ रही है । भारतीय स्टेट बैंक के केन्द्रीय कार्यालय , मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष के रूप में काम करते हुए तरह - तरह के मित्र बने । उन्हीं में एक वरिष्ठ अधिकारी थे - श्री गुप्ता, जो मूल निवासी इलाहाबाद के थे, पर उस समय मुंबई में थे । बाद में उनका स्थानान्तरण लखनऊ हो गया । हंसते हुए बोले, ससुराल जा रहा हूँ । पता चला, लखनऊ में उनकी ससुराल है । कुछ समय बाद बैंक के ही काम से मेरा लखनऊ जाना हुआ तो उनसे भी भेंट हुई । उन्होंने अत्यंत आग्रहपूर्वक घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया । उनके घर जाने का यह मेरा पहला अवसर था । घर पहुंचा ही था कि उनकी 12 - 13 वर्ष की बेटी पानी लेकर कमरे में आई । मित्र ने उसे मेरा परिचय देते हुए कहा , बेटा, यह डाक्टर अग्निहोत्री हैं, यू नो, व्हेन वी वर इन बॉम्बे ........ इसके बाद गुप्ता जी ने उसे सारा परिचय अंग्रेजी में दिया। बेटी बड़े आदरपूर्वक मुझसे बात करने लगी। वह एक कान्वेंट स्कूल में नवीं कक्षा की छात्रा थी । मैं हिंदी में बोल रहा था, पर वह लगभग सारे समय अंग्रेजी में ही बोलती रही। स्कूल की मैगेजीन में उसकी कुछ रचनाएं छपी थीं। उसने वे दिखाईं । मैंने उनकी प्रशंसा करते हुए पूछा , क्या हिंदी में भी कुछ लिखती हो ? उसने मना किया । मैंने जब उससे यह पूछा कि कोर्स की किताबों के अलावा भी तुम कुछ पढ़ती हो, तो उसने अंग्रेजी की ही कुछ पुस्तकों / मैगजीनों के नाम बताए। मैंने पूछा धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता, मुक्ता आदि भी पढ़ती हो ? उसने मुस्कराकर धीरे से सिर हिलाकर मना कर दिया । मैंने फिर पूछा , हिंदी की मैगेजीन तुम्हारे स्कूल में आती तो होंगी ? उसने फिर न की मुद्रा में सिर हिला दिया। " और घर पर ? " मेरे इस प्रश्न के उत्तर में गुप्ता जी बोल पड़े " असल में वाइफ को अंग्रेजी ही पसंद है । सो घर पर अंग्रेजी की ही मैगेजीन लेते हैं । "
इलाहाबाद , लखनऊ से सम्बन्ध रखने वाले उत्तर प्रदेश के एक संपन्न परिवार में हिंदी की यह स्थिति देख कर मेरा मन विषाद से भर गया । मैं वहां भोजन करने गया था । भोजन तो किया, पर अत्यंत प्रेम से, वास्तव में अत्यंत प्रेम और आग्रह से खिलाए हुए उस स्वादिष्ट भोजन का भरपूर आनंद नहीं ले सका क्योंकि मन कहीं और खो गया था ।
दृश्य 3
संसदीय राजभाषा समिति ऐसी समिति है जिसके ' आतंक ' के बल पर ही केन्द्रीय सरकार से संबंधित कार्यालयों में हिंदी का कुछ ' प्रवेश ' हो सका है । समिति विभिन्न कार्यालयों में जाती है और इस बात पर जोर देती है कि हिंदी का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाए । जहाँ केवल हिंदी का प्रयोग संभव न हो वहां हिंदी - अंग्रेजी दोनों भाषाओं का एक साथ प्रयोग किया जाए । केवल अंग्रेजी का प्रयोग देखते ही माननीय सदस्यों की भवें तन जाती हैं और जिह्वा पर उतर आती है ' संसदीय - सरस्वती ' (यह उस सरस्वती से भिन्न है जिसकी सामान्य व्यक्ति उपासना करता है ) । नई संसद के गठन के साथ समिति के सदस्य भी बदलते रहते हैं । इंदिरा जी तब प्रधानमंत्री थीं जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि घर में तो सामान्यतया हिंदी का प्रयोग करती ही थीं, सरकार के कामों में भी हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहित करना चाहती थीं । जिस समिति की चर्चा कर रहा हूँ, उसकी एक सदस्य मेरे मित्र की पत्नी थीं। हिन्दीभाषी क्षेत्र के निवासी मेरे वे मित्र हिंदी के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे और इसी कारण उन्हें एक राजनीतिक दल ने महत्वपूर्ण स्थान दे दिया था । उनके देहांत के बाद उनकी पत्नी को राज्य सभा का सदस्य भी बना दिया । भारतीय स्टेट बैंक के एक प्रशिक्षण संस्थान का निरीक्षण करते हुए उन्होंने वहां तैयार किए गए प्रशिक्षण साहित्य की एक प्रति अपने लिए माँगी , पर उसके भारी - भरकम वज़न को देखते हुए यह इच्छा व्यक्त की कि इसे उनके घर के पते पर डाक से भिजवा दिया जाए । मैंने उनसे घर का पता माँगा तो उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड मुझे दिया । वह केवल अंग्रेजी में था। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने कहा, " आपका कार्ड केवल अंग्रेजी में ? यह तो आँखों को चुभ रहा है । " पर उनका उत्तर तो दिल को भी चुभने लगा । वे बोलीं, " अरे, वह क्या है कि बेटे ने छपवा दिया । अब ऐसा है न कि घर में तो अंग्रेजी ही चलती है । "
मैं अवाक रह गया । जो समिति सरकारी कार्यालयों में हिंदी को प्रतिष्ठित करने के लिए यहाँ - वहां दौड़ रही है , उसके सदस्य के घर में अंग्रेजी ही चलती है , और यह घर उस साहित्यकार का ही घर है जिसे और जिसकी पत्नी को यानी जिसके परिवार को हिंदी के कारण ही यह सम्मान मिला है ! दुखवा मैं कासे कहूँ ...........
दृश्य 4
संविधान को हम अपने लोकतंत्र का वेद / गीता / बाइबिल मानते हैं। उसके अनुच्छेद 343 में लिखा है " संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। " पर इसके लिए जो प्रतीक्षा अवधि (15 वर्ष) तय की गई थी उसे राजभाषा अधिनियम ने अनिश्चित काल में बदल दिया। परिणाम सामने है। राजभाषा के रूप में हिंदी को स्थापित करने के जो प्रयास प्रारम्भ में किए गए थे उन्हें धता बताते हुए अब उसे चुपके से राष्ट्रीय परिदृश्य से विस्थापित कर दिया गया है। आज अपने हिंदी विरोध के लिए बदनाम तमिलनाडु में ही नहीं, हिंदी को " राष्ट्रभाषा " की संज्ञा देने वाले बंगाल से लेकर पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात सहित देश के किसी भी कोने में चले जाइए, विभिन्न सरकारी / गैर-सरकारी कामों के लिए अनिवार्य वोटर आई डी कार्ड, राशनकार्ड , पैनकार्ड, आधार कार्ड, राष्ट्रीय मार्गों पर दूरी / दिशा बताने वाले संकेतक आदि सब में स्थानीय भाषा के साथ आपको " विश्व भाषा " तो मिल जाएगी, पर " राष्ट्रभाषा " का कोई नामोनिशान नहीं मिलेगा । जिस महाराष्ट्र में हिंदी को बाकायदा द्वितीय राजभाषा बनाया गया है, वहां एक विधायक के हिंदी में शपथ लेने पर जो व्यवहार हुआ, वह हम सबने देखा। दूरदर्शन ने 24 घंटों में से थोड़ी सी देर ( केवल 30 मिनट ) हिंदी में राष्ट्रीय समाचार पूरे देश में प्रसारित करने की जो कोशिश कभी की थी, उसका हश्र जब भी याद आता है तो निगाहें नीची हो जाती हैं, सिर शर्म से झुक जाता है। मन राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की नई परिभाषाएँ ढूँढने लगता है।
दृश्य 5
हाल ही में लगभग एक वर्ष मैं आस्ट्रेलिया में रहा । प्रवासी भारतीय यहाँ काफी संख्या में हैं और भारत के लगभग हर राज्य से हैं । अगर आंकड़ों की बात की जाए तो डेढ़ लाख से भी अधिक हैं ( इसमें वे लोग शामिल नहीं हैं जो अध्ययन करने या घूमने आए हैं )। प्रायः सभी सुशिक्षित और प्रतिष्ठित हैं। कुछ नौकरी कर रहे हैं तो कुछ व्यवसाय कर रहे हैं। अनेक भारतीय लोग परस्पर संपर्क बनाए रखने और आस्ट्रेलियाई समाज में " अपनी पहचान " बनाए रखने की दृष्टि से पत्रिकाएं भी निकाल रहे हैं जो इंटरनेट पर भी उपलब्ध हैं और मुद्रित भी की जाती हैं जिनमें से कुछ तो 15 - 20 हज़ार से भी अधिक संख्या में छापी जाती हैं। ये पत्रिकाएं बेची नहीं जातीं, मुफ्त बांटी जाती हैं। विभिन्न संपर्क स्थलों ( जैसे, इंडियन स्टोर) पर रखी रहती हैं। मैं मेलबर्न के निकट था। अतः मेलबर्न से निकलने वाली लगभग पंद्रह पत्रिकाओं में जब मैंने यह जानने का प्रयास किया कि वे किस भाषा में निकलती हैं तो पाया कि चार - पांच पंजाबी, गुजराती , तेलेगु , मलयालम भाषा की पत्रिकाओं को छोड़ सभी अंग्रेजी में हैं। केवल दो पत्रिकाएँ ऐसी मिलीं जो हैं तो अंग्रेजी में ही, पर एक पत्रिका में छोटा - सा खंड हिंदी में भी है , और दूसरी में हिंदी एवं पंजाबी में छोटे -छोटे खंड हैं। अन्य किसी पत्रिका का हिंदी से कोई सरोकार नहीं, फिर चाहे वह पंजाबी, गुजराती या तेलेगु की ही पत्रिका क्यों न हो ; बल्कि एक पत्रिका तो ऐसी मिली जिसके दो भाषाओं में अलग - अलग संस्करण निकल रहे हैं, पर भाषाएँ हैं - गुजराती और अंग्रेजी । यानी दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता कि विदेशों में भी हम या तो पंजाबी - गुजराती आदि हैं या फिर अंग्रेजी - भाषी ' इंडियन ' । स्पष्ट है कि " भारतीय " यहाँ भी नहीं है। हमारी इस मानसिकता की एक परिणति यह भी हुई कि यहाँ की सरकार ने विदेशों से आए लोगों को उनकी ही भाषा में आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराने की जो प्रमुख व्यवस्था लगभग पंद्रह भाषाओं में की हुई है और जिसका वह तरह - तरह से विज्ञापन भी करती है, उसमें चीन की दो भाषाएँ (केंटोनीज और मंदारिन) हैं (चीन के प्रवासियों की संख्या भी यहाँ लगभग दो लाख है ) , और योरूप की क्रोशियन, पोलिश, मेसिडोनियन जैसी कई ऐसी भाषाएँ भी हैं जहाँ के लगभग 50 हज़ार या उससे भी काफ़ी कम लोग यहाँ रहते हैं ; पर डेढ़ लाख से अधिक भारतीयों की कोई भाषा नहीं है। हो भी क्यों, क्योंकि यहाँ तो कोई " भारतीय " है ही नहीं। जो हैं वे "इंडियन " हैं, उनकी भाषा अब अंग्रेजी ही है । वे स्वयं " अपनी " भाषाओँ को भूल चुके हैं, तो विदेशी उन " विस्मृत " भाषाओँ की याद क्यों करें ?
ये दृश्य अपनी भाषा के प्रति हम भारत के लोगों की, विशेष रूप से हिंदी - भाषियों की मानसिकता के प्रतीक मात्र हैं , पूरा परिदृश्य नहीं । ये बता रहे हैं कि ' भाषा ' और ' लिपि ' दोनों ही स्तरों पर हिंदी हमारे निजी जीवन से धीरे - धीरे किस प्रकार गायब होती जा रही है । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ने वाली पुरानी पीढ़ी के जीवन में “ अपनी भाषा “ के लिए जो स्थान शेष रह गया था, अब स्वतंत्र भारत में " अंग्रेजी माध्यम " से पढ़ने वाली पीढ़ी में वह भी नहीं बचा है । तभी तो घर में बच्चों को हम अब ' सब्जी – फल ' नहीं, Vegetables - Fruits खिलाते हैं, ' आम, अंगूर, केला ' नहीं, Mango, Grapes , Banana देते हैं, ' चावल परोसते ' नहीं, Rice serve करते हैं । इसी मानसिकता के कारण हिंदी हमारे सामाजिक जीवन से भी हटती जा रही है । किसी हिन्दीभाषी के विवाह के निमंत्रण पत्र देखिए या तथाकथित हिन्दीभाषी प्रदेश के किसी भी शहर की आवासीय कालोनी या बाज़ार में चले जाइए । निमंत्रणपत्र, घर के बाहर लगे नामपट या दुकान के बोर्ड अगर हिंदी में दिखाई देंगे तो वे आपको अपवाद जैसे ही लगेंगे क्योंकि प्रमुखता तो अंग्रेजी की ही मिलेगी ; और अब जो नए बाज़ार बने हैं - " मॉल ", वहां तो हिंदी का जैसे प्रवेश ही वर्जित है। उनके सारे बोर्ड और वहां बिकने वाली चीज़ों के नाम सब अंग्रेजी में होते हैं । हम खरीदते हैं लौकी, करेला, आंवला ; वह अंग्रेजी में रसीद देता है ' Bottle Gourd , Bitter Gourd , Indian Gooseberry । हिंदी का कोई सिनेमा देखिए या टी. वी. पर “ निजी “ चैनलों के विभिन्न हिंदी कार्यक्रम देखिए । सिनेमा / सीरियल / कार्यक्रम हिंदी का है, पर पात्रों के नामों का, कार्यक्रम बनाने में सहयोगियों के नामों का परिचय आदि हिंदी में पाने की तो आप कल्पना कर ही नहीं सकते। हिंदी फिल्मों के पुरस्कार वितरण समारोह में पुरस्कार देने और लेने वाले दोनों ही अपनी अंग्रेजी सुनाकर अपने को भी धन्य करते हैं और हमें भी ।
संविधान के प्रावधानों का पालन सरकार नहीं कर रही है, यह शिकायत तो हम हमेशा करते हैं, पर शिकायत करने के अलावा भी क्या हम कुछ कर रहे हैं ? कभी यह भी विचार किया है कि यह संविधान है किसके लिए ? संविधान के प्रारंभ में दी " उद्देशिका " ( Preamble) पढ़ी है जहाँ कहा गया है, " हम भारत के लोग ......... आत्मार्पित करते हैं । " इसी संविधान के दिए अधिकार से सरकार हम ही तो चुनते हैं। प्रतिनिधियों को चुनते समय भी क्या हमें कभी अपनी शिकायत याद आती है ?
समाज - भाषावैज्ञानिकों की चेतावनी :
समाज - भाषावैज्ञानिकों का कहना है कि कोई भी भाषा निरंतर उपयोग के द्वारा ही किसी समाज में जीवित रहती है और तभी वह सामाजिक प्रयोग एवं शिक्षा के द्वारा आगामी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है ; पर यदि किसी भाषा के प्रयोगकर्ता उस भाषा का प्रयोग करना बंद कर देते हैं तो वह ' मर ' जाती है । शिकागो यूनिवर्सिटी के भाषावैज्ञानिक सलिकोको मुफ्वेने ( Salikoko Mufwene ) के शब्दों में तो इसे कुछ ऐसा ही समझिए जैसे किसी समाज के सदस्य संतान को जन्म देना ही बंद कर दें और कालान्तर में वह समाज नष्ट हो जाए , " Languages do not kill languages; speakers do. A language is transmitted and maintained in a community through continuous use. Languages die when their speakers give them up. It is like having a population whose members refuse to produce offspring."
आज अनेक भाषाओं की इस दुर्दशा के लिए उन्होंने यूरोपीय देशों के विगत चार सौ वर्षों के उपनिवेश-वाद को ज़िम्मेदार बताया है, " How do populations find themselves in such predicaments? For the past 400 years, European colonization has been the main culprit. " ( Languages don't kill languages; speakers do University of Chicago Magazine, December 2000) .
क्या संयोग है कि जिन यूरोपीय लोगों ने उपनिवेश बनाए और वहां अपनी भाषा की श्रेष्ठता का मायाजाल फैलाया, अब उन्हीं के वंशज समाज-भाषावैज्ञानिक के रूप में उसकी वास्तविकता , और उसके कारण उत्पन्न हो रहे खतरों के प्रति विश्व को सावधान कर रहे हैं । कोपनहागन बिज़नेस स्कूल के डॉ. राबर्ट फिलिप्सन ( Dr Robert Phillipson ) ने अंग्रेजी के सन्दर्भ में विशेष चर्चा अपनी अनेक पुस्तकों में, विशेष रूप से " Linguistic Imperialism " (Oxford University Press, 1992) नामक पुस्तक के अध्याय 2 और 3 में विस्तार की है। साथ ही, उपनिवेश समाप्त हो जाने के बाद उस मायाजाल को सुरक्षा कवच प्रदान करने में ब्रिटिश काउन्सिल, अंतर-राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, अंग्रेजी भाषा के स्कूल, विभिन्न अमरीकी संगठन आदि जो भूमिका निभा रहे हैं, वह भी एक पृथक अध्याय में स्पष्ट की है । इतना ही नहीं, अंग्रेजी पढ़ाने की विधियों को लेकर जो ' मिथक ' विकसित किए गए हैं, ( जैसे, 1. अंग्रेजी को अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ाना चाहिए, 2. अंग्रेजी पढ़ाने वाला शिक्षक अंग्रेजी भाषी होना चाहिए, 3. अंग्रेजी पढ़ना जितनी जल्दी शुरू किया जाएगा, परिणाम उतने अच्छे आएंगे, 4. अंग्रेजी जितनी अधिक पढ़ाई जाएगी, परिणाम उतने ही अच्छे होंगे, 5. यदि अंग्रेजी के अध्ययन के साथ दूसरी भाषाएँ भी पढ़ाई जाएंगी, तो अंग्रेजी का स्तर गिरेगा आदि) उनकी भी उन्होंने गहन परीक्षा की है और उन्हें ' भ्रम ' सिद्ध किया है। पर हम लोगों की दृष्टि तो इस मायाजाल की चकाचौंध में इतनी चौंधिया गई है कि हम इसके पार कुछ देख ही नहीं पा रहे हैं । परिणाम यह है कि हमारी भाषाएँ उस मृत्यु की ओर बढ़ती जा रही हैं जिसकी चर्चा समाज भाषा - वैज्ञानिक कर रहे हैं ।
समाज-भाषावैज्ञानिकों ने यह भी स्पष्ट किया है कि भाषा के ' मरने ' की यह प्रक्रिया इतनी धीमी होती है कि जल्दी पकड़ में नहीं आती । वास्तविकता यह है कि प्रयोगकर्ता स्वेच्छया अपनी भाषा का प्रयोग करना बंद नहीं करते, उन्हें ऐसा प्रायः विवशता में इसलिए करना पड़ता है क्योंकि दूसरी भाषा से उन्हें कुछ व्यावहारिक - भौतिक लाभ मिलते हैं । जैसे, किसी बड़े समाज के साथ समन्वय करना, कोई अच्छी नौकरी या व्यवसाय पाना, सामाजिक - आर्थिक उन्नति के अवसर मिलना आदि । कभी - कभी वे कतिपय सामान्य कामों के लिए अपनी पैतृक भाषा को भी बचाए रखते हैं , पर विशिष्ट कामों के लिए अधिक लाभ देने वाली भाषा का ही प्रयोग करते हैं । इस स्थिति में इनकी पैतृक भाषा के मरने की प्रक्रिया कुछ धीमी अवश्य हो जाती है , पर अन्दर ही अन्दर वह उसी प्रकार कमज़ोर होती चली जाती है जैसे किसी को क्षय रोग ( टी. बी ) हो जाए और उसका स्वास्थ्य धीरे -धीरे कमज़ोर होता जाए ।
समाज-भाषावैज्ञानिकों का कहना है कि किसी भी भाषा के विकास और पुष्टि के लिए दो बातें अत्यंत आवश्यक हैं । सबसे पहली तो यह कि उसके प्रयोग का उत्तरदायित्व नई पीढ़ी संभाले ; और दूसरी यह कि उसका प्रयोग केवल कविता, कहानी आदि के पारंपरिक कामों के लिए नहीं, निरंतर नए- नए कामों के लिए किया जाए, ज्ञान - विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के लिए किया जाए, एवं व्यापार - वाणिज्य जैसी गतिविधियों के लिए किया जाए। यदि ऐसा नहीं किया जाता और केवल पुरानी पीढ़ी के लोग ही अपने कतिपय पारम्परिक कार्यों के लिए उस भाषा का प्रयोग करते हैं तो ज्यों - ज्यों यह पुरानी पीढ़ी समाप्त होती जाती है, वह भाषा भी ' मरती ' जाती है ( द्रष्टव्य : Andrew Dalby : Language in Danger ; The Loss of Linguistic Diversity and the Threat to Our Future ; Columbia University ; 2002 ) ।
यूनेस्को की विशेषज्ञ समिति ने भी इस खतरे के प्रति सावधान करते हुए प्रतिवर्ष 21 फरवरी का दिन Mother Language Day ( मातृभाषा दिवस ) के रूप में मनाने का विश्व से अनुरोध लगभग डेढ़ दशक पहले 1999 में किया था । क्या अब यह सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है कि Valentine Day , Friend 's Day , Mother 's Day , Father 's Day आदि मनाने के पीछे दीवाने बने हमारे देश के लोगों ने ' Mother Language Day ' किस प्रकार मनाया ? या सर्वेक्षण के परिणाम पूर्वज्ञात हैं ?
यह तो निश्चित बात है कि यदि हम अपनी भाषा का प्रयोग नहीं कर रहे तो हिंदी की गौरव गाथा के प्रशस्ति - गान, संविधान के प्रावधान, महामहिम राष्ट्रपति के आदेश, संसद के संकल्प , अधिनियम - नियम, संसदीय राजभाषा समिति के दौरे और उसकी रिपोर्टें, सरकार के अनुदेश - निदेश-- कोई हमारी भाषा को बचा नहीं सकते । भाषा-वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि आज विश्व में जो लगभग छह हज़ार भाषाएँ बोली जा रही हैं, कुछ ही समय बाद उनमें से छह सौ भाषाएँ ही बच पाएंगी और इस शताब्दी के समाप्त होते - होते दो सौ भाषाएं भी ' जीवित ' रह जाएँ तो बड़ी बात होगी क्योंकि आज इनमें से केवल 4% भाषाओं का व्यवहार विश्व के लगभग 96% लोग करने लगे हैं ( David Crystal , Language Death , Cambridge University Press , 2000 ) ।
ऊपर वर्णित घटनाओं की , और समाज-भाषा वैज्ञानिकों की चेतावनी की चर्चा के बाद क्या आपको विश्वास है कि हिंदी को कोई खतरा नहीं है ? आपके उत्तर और उसके अनुरूप आपके व्यवहार पर ही हिंदी का भविष्य निर्भर करता है।
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डा.रवीन्द्र अग्नि होत्री का आलेख आंखें खोलने वाला है। हमें अब अपनी मातृ भाषा और हिन्दी के प्रति सचेत हो जाना चाहिए अन्यथा इसे खो देने मे समय नहीं लगेगा। सुरेन्द्र वर्मा
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