कहानी संग्रह - अपने ही घर में / टूटी हुई ज़ंजीरें : कृष्ण खटवाणी

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कहानी संग्रह - अपने ही घर में / टूटी हुई ज़ंजीरें कृष्ण खटवाणी सखी, मैं रोई, खूब रोई, इतना रोई कि मेरे आँसू ही सूख गए, सिर्फ़ गालों पर...

कहानी संग्रह - अपने ही घर में /

टूटी हुई ज़ंजीरें

कृष्ण खटवाणी

सखी,

मैं रोई, खूब रोई, इतना रोई कि मेरे आँसू ही सूख गए, सिर्फ़ गालों पर एक जलन बाकी रह गई। अचानक मेरे मन में एक चिंगारी भड़की और मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर आई। बाहर पहुँचकर मैंने अपनी पूरी ताकत के साथ कहा - ‘मुझे मंजूर नहीं, मुझे मंजूर नहीं यह रिश्ता।’

मेरे तन के हर एक अंग ने महसूस किया जैसे सब खिड़कियाँ और दरवाज़े हिल रहे हों और वहाँ बैठे सब लोग आँखें फाड़े मेरी ओर देख रहे थे।

मेरी टांगें मुझे संभाल पाने में असमर्थ रहीं और मैं भागती हुई अंदर पहुँची और खाट पर खुद को फेंक दिया। मैंने सिसकियाँ भरते हुए सुना, तो जाना सारे घर में कोलाहल मच गया था। आए मेहमान उठ खड़े हुए, मेरे बाबा उनकी मिन्नतें करने लगे, पर मेरे लफ़्ज़ जैसे तीर थे, जिन्होंने एकत्रित हुई फौज में तहलका मचा दिया था।

वे जाने क्या-क्या बकने लगे, बाबा की मिन्नतें किसी काम न आई आखिर वे बड़बड़ाते घर के बाहर निकल गए। तूफान थम गया। घर में दो पल पहले जो शोर था वह अब खामोशी में बदल गया। बाबा कमरे के किनारे आकर बोले - ‘छोरी, इससे तो जन्म लेते ही मर जाती। कर्ज़ लेकर तुम्हें इसलिये पढ़ाया कि एक दिन तुम इस तरह हमारी इज़्जत मिट्टी में मिला दो और अपनी भी नैया डुबा दो। अब कौन-सा खानदानी लड़का तुम्हारा हाथ थामकर समाज के आगे गर्दन ऊँची करके खड़ा हो पाएगा?’

मेरा हृदय छिन्न-भिन्न होने लगा। बाबा गुस्से में क्या कुछ नहीं बोले और मैं तकिये में मुँह छिपाकर रोती रही, रोती रही। सखी, मैं रोई, खूब रोई, तुम्हें शायद अब तक यह तजुर्बा न हुआ हो कि हम औरतों का इस समाज में कौन-सा स्थान है और कैसा सम्मान है ? हम खिलौनें हैं, खिलौनें - जिनको इन्सान अपने मन बहलाव के लिये हंसाता है, और अपनी ही खुशी के लिये रुलाता भी है। सखी, क्या तुम जानना चाहोगी कि उस दिन हमारे घर में कौन-सा तमाशा हुआ ? मुम्बई से कई औरतें और मर्द सज धज कर इस कैम्प में मुझे पसंद करने और मेरे बाबा के साथ दहेज का सौदा करने आए। उनके बीच वह इन्सान भी था जिसको मेरे रिश्तेदारों ने मेरा जीवन साथी बनाने के लिये चुना था।

सुबह से तैयारियाँ हुई थी। हमारे रसोईघर में, जहाँ कभी एक समय पर एक भाजी से ज़्यादा कभी कोई दूसरी चीज़ नहीं बनी, वहाँ उस दिन अलग-अलग किस्मों के भोजन बनने लगे। सूखे और ताज़े फलों से प्लेटें भरी पड़ी थीं। बिस्कुट के पैकेट भी खुले पड़े थे।

और मुझे पसंद करने के पश्चात् उन्होंने बाबा से पूछा - ‘आप इस बेटी को दहेज में क्या देंगे ?’

मेरे बाबा की आवाज़ उस वक़्त लरज़ने लगी थी। उसने बेबसी में सर पर से टोपी उतारकर अपनी ग़रीबी का रोना रोया।

लड़के वालों ने नफ़रत से कहा - ‘यह रोना तो सभी लड़की वाले रोते हैं, तुम सीधी बात कहो। लड़का बी.ए. पास है और पौने दो सौ रुपए उसकी पगार है।’

तीन हज़ार से सौदा शुरू होकर पाँच तक पहुँचा और अभी इस बात पर सुलह होनी थी कि वे कपड़े कितने, मिठाई, पापड़ कितने और आए मेहमानों को शादी का शगुन कितना देंगे। मैं अंदर कमरे में बैठी सब सुन रही थी। मुझे अपने मायके की हर हालत का ज्ञान है। मुझे अहसास हुआ कि बाबा इतने लोगों के होते हुए, अपनी इज़्जत की खातिर सब माँगे मान तो गए पर कल से घर में कलह शुरू हो जाएगी। बाबा और अम्मा आँसू बहाएँगे। अब सिर्फ़ एक रास्ता था। बाबा अपनी आफिस के प्राविडेंट फंड से और इन्शोरेन्स से कर्ज़ लेकर भरपाई कर सकते थे। लेकिन ऐसा करने से मेरे छोटे भाइयों और बहनों का भविष्य अंधेरे में गर्क हो जाएगा और उनकी मासूम बेबस आँखें देखकर कहतीं - ‘तुम एक को पार उतारने के लिए हम सब को डुबो रहे हो।’ और उस वक़्त न जाने कहाँ से मुझमें हिम्मत आई और मैंने दौड़कर हर मर्यादा की चौखट को पार करते हुए बाहर कमरे में पहुँचकर कहा - ‘मुझे कबूल नहीं है, मुझे यह रिश्ता कबूल नहीं है।’

सखी, उसके बाद मैंने नहीं रोया, मेरे माँ-बाप ने नहीं सोचा कि मैंने क्या सोचकर यह क़दम उठाया था। वे सिर्फ़ यही सोच रहे थे कि उनकी इज़्जत की पगड़ी को दाग़ लगा है और मुझे एक ऐसी कलंकिनी समझ रहे थे जिसका हाथ कोई भी सभ्य पुरुष पत्नी के रूप में नहीं थामेगा।

और दूसरे दिन मैं अपनी पुरानी टीचर के पास गई और रुंधे हुए गले से मुझे नौकरी दिलाने के लिये मदद माँगी।

सखी, मुझे नौकरी मिली है, सवा सौ रुपये महीना ! उसमें से अपने लिये पच्चीस रुपये रखकर, मैं सौ रुपये माँ के हाथ में देती हूँ। वह कुछ पल खुश दिखाई पड़ती है और फिर एक काली परछाईं उसके चहरे पर छा जाती है।

तुम्हारी बहन...

सखी,

तुमसे एक सवाल पूछूँ ? हमें यह नाम ‘अबला’ किसने दिया है ? वह कौन-सी पहली माँ थी जिसने बेटी को जन्म देते ही गूँगे आँसू बहाए थे ? और वह कौन-सा पहला मर्द था, जिसने औरत को वेश्यालय में ले जाकर कहा कि तुम मदरें के लिये ऐशो-इशरत का सामान हो ?

मैं सोच रही हूँ कि क्या वह जमाना दूर है जब औरत मर्द के सामने खड़ी होकर कहेगी - ‘हमें आपकी मेहरबानियाँ नहीं, अपने हक़ चाहिये। हम आपके पैसों पर नहीं पलते पर अपनी मेहनत के कारण जीवित हैं।’

सखी, ऐसे ही ख़्याल मुझे आए थे, जब मैंने सुना कि जिस लड़के को मैंने नापसंद किया था, उसने और उसके रिश्तेदारों ने यह फैलाना शुरू किया कि मैं बदचलन हूँ और मेरे कुछ लड़कों के साथ सम्बंध हैं। आस पड़ोस में यह अफ़वाह यों फैली है कि मेरी सहेलियों की माँए भी मुझे देखकर मुँह मोड़ लेने लगीं हैं।

मैं रोऊँ या हँसू ? पर मैं न हँस पा रही हूँ और न रो सकती हूँ। जन्मों से घिसीपिटी रस्मों की वजह से औरत के अंदर तक हीन भावना घर कर गई है, इसलिये कभी तन्हाइयों में रोकर मन हलका कर लेती हूँ। मैं जब औरों के चेहरों पर अपने लिये नफ़रत का भाव देखती हूँ तो मेरे अंदर एक आग भड़क उठती है। दिल में आता है कि रसोईघर से गीली राख लेकर अपनी उन बहनों से कहूँ - ‘हाँ, ये अपने चेहरे पर मल लो, पाउडर और क्रीम से यह राख बेहतर है, कम से कम आदमी तुम्हारे सौंदर्य पर मोहित होकर अपने पैसों की बाँसुरी पर तुम्हें नाच तो नहीं नचाएगा।’

उस दिन एक अजीब बात हुई। वही लड़का, जिसे मैंने ठुकराया था और जो मुझे बदनाम किये फिर रहा था, मुझे रास्ते में मिल गया। वह शायद दफ़्तर से लौट रहा था और मैं भी दफ़्तर से घर जा रही थी। कितने दिनों की अंदर दबी हुई आग भड़क उठी। मैंने उसके सामने जाकर कहा - ‘तुम पहचानते हो मुझे ?’

उसके चेहरे का रंग उड़ गया। मैंने दूसरा सवाल किया - ‘और तुम्हें किसने बताया कि मैं बदचलन हूँ ?’

उसका चेहरा उतर गया, गुनाह का पर्दा जो फाश हुआ। पर शायद सब गुनहगार कायर भी होते हैं। उसने खुद को सँभालते हुए कहा - ‘किसी ने भी नहीं कहा, तुम्हें किसने बताया ?’

मैंने अपने गुस्से में बेकाबू होते हुए कहा - ‘और तुम लोगों से कहते फिरते हो कि मैं बदलचलन हूँ और मेरा कुछ लड़कों के साथ सम्बंध है।’

मैंने देखा वह काँप उठा था। झूठ का सहारा लेते हुए कहने लगा- ‘किसने कहा, मैंने तो किसी से भी कुछ नहीं कहा।’

उसकी झूठी सफाई सुनकर मेरी हिम्मत बढ़ी, और उसकी नेकटाई को पकड़ कर उसकी ओर देखते हुए ललकारा - ‘खबरदार जो आगे से फिर झूठ बोला।’

लोगों की भीड़ जमा होने में कोई देर नहीं लगी, इस बात का अहसास गुस्से ने मुझे होने न दिया। उस भीड़ में मेरे दफ़्तर के कुछ काम करने वाले भी थे। मैंने उसे छोड़ दिया और मुँह लटकाए स्टेशन की ओर भागी।

दूसरे दिन जब में दफ़्तर जाने के लिये तैयारी कर रही थी तो बाबा कमरे में आए और कहा - ‘बस, अब दफ़्तर में जाने की ज़रूरत नहीं है, बहुत दिन मनमानियाँ कर लीं।’

मैंने हैरत से बाबा की ओर देखा, वह गुस्से में कहते जा रहे थे - ‘एक बार हमारी खिल्ली उड़ाकर तुम्हें चौन नहीं आया जो अब बीच रास्ते खड़े होकर तमाशा रचाया। तुम्हारी अक़्ल कहाँ गुम हो गई है, जो औरत जात होकर मर्दों से उलझ रही हो? कैसी मनहूस घड़ी में तुमने जनम लिया जो हमें बाहर मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं छोड़ा है।’

मैंने कहा - ‘पर बाबा !’

बाबा ने गुस्से में मुझे काटते हुए कहा - ‘बाबा, बाबा की रट अब छोड़ो, नहीं तो यह जबान कटवा दूँगा।’

मैं बुत बनकर कितनी देर बाबा की तरफ़ देखती रही और फिर धीरे से जाने के लिए क़दम उठाया। बाबा ने कहा - ‘अब दफ़्तर जाने की ज़रूरत नहीं। इस्तीफा लिखकर दो तो मैं देकर आऊँगा।’

पर मैंने भी उन्हें सुना-अनसुना किया और दफ़्तर चली आई। लोकल ट्रेन में सारा समय घुटन के आँसू पीती रही, पर मेरे क़दम दफ़्तर की ओर बढ़ते रहे।

सखी, ये कौन-सी समाज की टूटी-फूटी ज़ंजीरें हैं जिसमें हमारे रिश्ते-नाते बंधे हुए हैं। दस-दस पैसे खरचने के लिए बाबा को दो-तीन बार सोचते हैं और अम्मा, जब से मुझे याद है, तब से चिंता में घुलती रही है। और आज बाबा झूठी शान रखने के लिए कह रहे थे ‘इस्तीफा लिखकर दो, मैं देकर आऊँगा’ और मैं बार-बार रोकर खुद से पूछती रहती हूँ - ‘औरत के लिये इज़्जत भरी ज़िन्दगी कौन-सी है ?’

प्यार में

तुम्हारी बहन......

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कहानी संग्रह - अपने ही घर में / टूटी हुई ज़ंजीरें : कृष्ण खटवाणी
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