विजय वर्मा स्वागत-समारोह में बच्चें बेहोश होते रहें और मंच पर मंत्रीजी बेसुध हो सोते रहें। जम्हूरियत उनके लिए सौगात बनकर आई आम-जन...
विजय वर्मा
स्वागत-समारोह में बच्चें बेहोश होते रहें
और मंच पर मंत्रीजी बेसुध हो सोते रहें।
जम्हूरियत उनके लिए सौगात बनकर आई
आम-जन जम्हूरियत में ता-उम्र रोते रहे।
तर्जे-हुकूमत ने तो हमें हैफज़दा कर दिया
हमें रौशनी की चाह थी ,वे तारीकी बोते रहे।
आवाम पापनाशिनी गंगा बन बहती रही
बेशर्म वे मुसलसल पाप अपना धोते रहे।
इस गुलदस्ते के फूलों का करूं भी मैं क्या
रंग रहा बरकरार ,पर खुशबु ये खोते रहे ।
आज भी राजशाही बदस्तूर जारी है यहाँ
सिंहासन पर बाप,उनके बेटे फिर पोते रहे।
सांस लेने के लिए भी इंतज़ार है आदेश का
खुद अपनी लाश अपने कन्धों पर ढोते रहे।
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
vijayvermavijay560@gmail.com
0000000000000000
संदीप शर्मा ‘नीरव’
पुरुष ! परुष मत बन ।
परिजन हितजन वैरिजन ,
होगा मन बर्बस उन्मन ,
पथ पर विकल होंगे चरण,
उर में शम कर धारण ,
पुरुष ! परुष मत बन ।
आदित्य दे न चाहे तपन ,
चंद्र आलोकित न करे भुवन ,
तमस में हो रहा गमन ,
आत्म-ज्योति का अंश बन ,
पुरुष ! पुरुष मत बन ।
पथ पर आगे निर्जन वन ,
भाव-युद्ध होता सघन
अंतर्द्वंद्व बढ़ता दिनों-दिन
सूर नहीं, शूर बन ,
पुरुष ! परुष मत बन ।
स्वच्छ दिखे असित दर्पण ,
उत्कृष्ट हो जीवन – मरण ,
अगम आगम को कर धारण ,
पुरुष ! परुष मत बन ।
गेय का ज्ञेय बन ,
अर्घ्य का पुहुप बन ,
बढे उद्यम करने चरण ,
पुरुष ! परुष मत बन ।
संदीप शर्मा ‘नीरव’ 2015 TONK
000000000000000000
दिनेश कुमार 'डीजे'
1. वोटों वाला प्यार कब तक?
मुंतज़िर करे इंतज़ार कब तक?
ये वोटों वाला प्यार कब तक?
कर्ज में डूबा किसान सोचता है,
मेरे घर आएगी बहार कब तक?
रस्सी से लटके साथी न जगेंगे,
पर जागेगी सरकार कब तक?
गरीबों के अरमाँ ही मिट रहे,
पर मिटेगा भ्रष्टाचार कब तक?
दलित घर में खानेवाले नेताजी,
ये दिखावे का प्रचार कब तक?
नेता तो बहुमत पार कर बैठे,
जनता का बेड़ा पार कब तक?
मजहब, वोट, जाति बंटवारा,
ये देश का बंटाधार कब तक?
2. मुश्किलों में हंसना
जिंदगी ग़म दे जब साम्प्रदायिक झगड़ों की तरह,
तो नजरिया बदलना पड़ता है कपड़ों की तरह।
सियासी दौर में उम्मीद तू भी जिन्दा रख,
तू भी शायद मुद्दा बने गाय-बछड़ों की तरह।
आज में जीकर तू सौ साल की तैयारी कर,
उम्र शायद बढ़ जाए देश के लफड़ों की तरह।
हुनर और किरदार को बस तराशने की देर है,
तू भी टीक जाएगा आरक्षण के पचड़ों की तरह।
जिंदगी मिली है तो जिंदादिली से जी इसको,
जिंदगी क्या खींचना वोटबैंक के छकड़ों की तरह।
स्पाइडरमेन ना सही दोस्त लॉयलमेन तो बनना,
दलबदलू मत हो जाना सफेदपोश मकड़ों की तरह।
बुरे हालात 'दिनेश' तुझे और भी निखारेंगे,
मुश्किलों में हंसना फ़ौजी ट्रेनिंग के रगड़ों की तरह।
कवि परिचय
नाम-दिनेश कुमार 'डीजे'
जन्म तिथि - 10.07.1987
शिक्षा- १. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति
एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण २. समाज कार्य में
स्नातकोत्तर एवं स्नातक उपाधि
३. योग में स्नातकोत्तर उपाधिपत्र
प्रकाशित पुस्तकें - दास्तान ए ताऊ, कवि की कीर्ति एवं प्रेम की पोथी
पता- हिसार (हरियाणा)- 125001
फेसबुक पेज- facebook.com/kaviyogidjblog
फेसबुक प्रोफाइल- facebook.com/kaviyogidj
पुस्तक प्राप्ति हेतु लिंक्स-
www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/272/प्रेम-की-पोथी.html
www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/272/प्रेम-की-पोथी.html
http://www.flipkart.com/prem-ki-pothi/p/itmedhsamgpggy7p?pid=9789352126057
0000000000000000
राजीव गोयल
मेरे कुछ हाइकु
चीख के कहे
मैं भी कभी घर था
सूना मकान
उम्र मकड़ी
मुख पे बुन गई
झुर्री का जाल
पत्तों से छन
हुई चितकबरी
उजली धूप
बैठी है रात
दिन की कब्र पर
जला के दीया
रात के हाथों
होता है रोज़ शाम
सूरज क़त्ल
********राजीव गोयल
0000000000000000
ठाकुर दास 'सिद्ध'
-: वक़्त की मानिंद करवट :-
(ग़ज़ल)
वह दिखावे के लिए ही दिल मिलाता है ।
सिर्फ़ जिससे काम कोई,उससे नाता है।।
आज है सर पर शिकारी बाज का पंजा।
अब अमन का मन परिंदा फड़फड़ाता है।।
नफ़रतों के दौर का है ये असर शायद ।
बात सुनकर प्रीत की,वह रूठ जाता है।।
वायदों की खोलकर दुकान वो बैठा ।
हर किसी को ख़्वाब मोहक वह दिखाता है।।
हाथ उसका है उधारी के लिए फैला ।
इस जनम की किस जनम में वह चुकाता है।।
सब रखो मेरी तरह उसके चरण में सर ।
गान चमचों का कहे,वह ही विधाता है।।
अपने-अपने झूठ को सब कह रहे हैं सच।
कौन किस इन्सान का सच जान पाता है।।
एक पल भी हम सुकूँ की साँस ले लें तो।
देख कर अपना सुकूँ,वह तिलमिलाता है।।
वह बदलता वक़्त की मानिंद करवट बस।
मुँह फुलाता, 'सिद्ध' उसको जब जगाता है।।
ठाकुर दास 'सिद्ध'
सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
भारत
मो-919406375695
00000000000000000
डाक्टर चंद जैन
गणित पर कैसे गीत लिखूं
तुम अंक गणित हो बीज गणित हो और तुम ही रेखा हो
मेरे सारे चित्रों का तुम ही लेखा हो
अब तुम ही मेरे गीत बनो मेरे जीवन साथी
मैं तुझ सा हो जाऊं या तुम मुझ सा जाना
गणित पर कैसे गीत लिखूं
पहले इस दुनिया में मैं आया फिर तुम आई
क्या जानूं क्यूँ तुम भाये
अब कुछ तो रस श्रृंगार भरो
मैं कैसे प्रेम करूँ
गणित पर कैसे गीत लिखूं
तुम जैसे हो अच्छे हो वैसे ही रहना
मैं बदलूँगा कुछ बदलूँगा
ऋण कम जादा धन होना है
तुम संग भाग नहीं होना है अगुणित हो जाना है
अंकों का आधार मिला है तुम संग जीवन सार कहूँ
गणित पर कैसे गीत लिखूं
तुम वर्षों का इतिहास हो , पर वर्तमान हो तुम
हरदम मेरे आस पास हो तुम
फिर भी दूरी बची हुई है मेरे जीवन साथी
तुझ संग मिल कर वर्गमूल हो जाऊं
गणित पर कैसे गीत लिखूं
000000000000000
शालिनी मुखरैया
अजनबी
कभी कभी लगता है कि
कितने अजनबी हो तुम
इतने कि .....
जैसे पहली बार मिले हो ।
पास हो कर भी दूर
इतने कि .....
हाथ बढ़ा कर छूना मुश्किल
क्यूँ हो तुम मुझसे खफा
इतने कि .....
तुम्हें मनाना मुश्किल
क्या हुई मुझसे खता
इतनी कि .....
तुम्हें समझाना मुश्किल
अब तो मान भी जाओ
कि जीना हुआ दुश्वार
इतना कि .....
तुम्हारे बिना मरना भी है मुश्किल
भंवर
रिश्तों के भंवर में खुद को घिरा पाते हैं
कैसे समझायें दिल को समझ नहीं पाते हैं
उम्र गुजर जाएगी तुम को समझने में
फिर भी न समझ पाऐंगे हम तुम क़़ो
क्या चाहा था जिंदगी में हमने
बस दो कदम तुम साथ चलो
फिर भी कभी साथ न चल पाये हम मगर
शायद खुदा को यही मंजूर था
मयस्सर नहीं था इन रिश्तों को एक दूजे का विश्वास
फिर भी लगाए रहे मिलने की आस
कहीं न कहीं एक रिश्ता तो था हम दोनों के बीच
प्यार न सही नफरत तो थी हमारे बीच
कैसे कोई समझायें कि बेवफा हम नहीं
मगर इसमें भी किसी की कोई गलती नहीं
साथ अगर चलना होता तो क्यों बिछडते हम
रिश्तों की इस भंवर में क्यों घिरते हम ।
दिल्लगी
दिल्लगी का सबब था
इसलिये हंसी कर बैठे
भूल बस इतनी हुई
कि इस खेल पर तुम
हमसे दिल लगा बैठे
दिन गुजरते गये
दीवानगी बढ़ती गई
असर ये हुआ कि
मेरी हर बात पर तुम
दिलो जां अपनी लुटा बैठे
कैसे समझायें तुम्हें हम
कि यह प्यार नहीं था
एक बस खेल था
कि पत्थर को तुम
अपना खुदा समझ बैठे
फरियाद
माँ बाप का साया खुदा की नियामत होती है
ज़िन्दगी की सर्द हवाओं में सरमाया छत होती है।
औलाद की खातिर हर दुःख झेल लेते हैं वो
बच्चों के आगे ढाल बन कर
हर सितम अपने सीने पर लेते हैं वो
औलाद के चेहरे पर हंसी के लिये
अपने दिल के गमों को उनसे छुपा लेते हैं वो।
कितना बड़ा अहसान है उनका
कि ये जिन्दगी उन्होंने हमें है बख़्शी
कितना भी जतन कर लें हम
उनका यह कर्ज हम न उतार पायेंगे कभी।
हमारी हर सॉस उनकी कर्जदार है
उन्हें तो बस हमारी वफा की दरकार है
जब तक उनका साया है हम पर
तब तक मेहरबान है खुदा हम पर
बेमुरव्वत होती है वो औलाद
जो अपने माँ बाप की कद्र ना करे
ऐसे शख़्स को खुदा भी कभी माफ न करे
खुदा दुनिया के हर माँ बाप की उम्र दराज़ करे
हर साल के दिन पचास हजार करे।
ऐसी फरियाद क्यूँ न हर औलाद अपने खुदा से करे।
जीवन मृत्यु चक्र
कभी कभी उठता है मन में विचार
कि मैं जाऊँ मृत्यु के उस पार
प्रश्न करूं उस परम पिता से
कि आखिर सत्य क्या है
क्या है यह जन्म मरण का चक्र
जिसके व्यूह में फंसी है सम्पूर्ण सृष्टि
युगों से चलता आया है यह खेल
फिर भी कोई जान न पाया इस भेद
हम क्यों आते हैं और
क्यों चले जाते है इस संसार से
कभी तो अपनी अपूर्ण इच्छा लिये
तो कभी अधूरा लक्ष्य प्राप्त किये
हम क्यों पाते हैं सुख
तो कभी दुःख अपार
कैसे निर्णय होता है हमारे भाग्य का
यदि कर्म ही सब कुछ होता
तो कोई ऊँचा या नीचा क्यों होता
न होता भेद राजा और रंक का
कभी हम बिन मांगे ही पा जाते हैं
तो कभी चाहने पर भी नहीं मिलता
अगर मिल भी जाता है तो
मृत्यु वरण कर लेती है उसका
आखिर क्यों होती है मृत्यु ऋ
क्या होता है उसके पार
मन में सदा उठता है यह विचार
बस प्रार्थना है उस परमेश्वर से
वह दे मुझे इसका ज्ञान
जिससे छांटे अज्ञान का अंधकार
श्रीमती शालिनी मुखरैया
पंजाब नैशनल बैंक
वार्ष्णेय डिग्री कॉलेज अलीगढ
0000000000000000000
संजय वर्मा"दृष्टी"
पक्ष
स्त्री की उत्पीड़न की
आवाज टकराती पहाड़ो पर
और आवाज लोट आती
साँझ की तरह
नव कोपले वसंत मूक बना
कोयल फिजूल मीठी राग अलापे
ढलता सूरज मुँह छुपाता
उत्पीड़न कौन रोके
मोन हुए बादल
चुप सी हवाएँ
नदियों व् मेड़ो के पत्थर
हुए मोन
जैसे साँप सूंघ गया
झड़ी पत्तियाँ मानो रो रही
पहाड़ और जंगल कटते गए
विकास की राह बदली
किन्तु उत्पीड़न की आवाजे
कम नहीं हुई स्त्री के पक्ष में
बद्तमीजों को सबक सिखाने
वासन्तिक छटा में टेसू को
मानों आ रहा हो गुस्सा
वो सुर्ख लाल आँखे दिखा
उत्पीडन के उन्मूलन हेतू
रख रहा हो दुनिया के समक्ष
वेदना का पक्ष
125 शहीद भगत सिंग मार्ग
मनावर जिला धार (म प्र )
000000000000000
मीनाक्षी भालेराव
तूम
बुनते रहे स्वप्न
मैं जागती रही
रात भर
तुम निकल पड़े
जब मंजिल की ओर
मैं राहे तुम्हारी
बुहारती रही
पहर दर पहर
तुम्हारी सफलता
की सीढ़ियों पर
जितने भी कांटे थे
अपने ह्रदय के
सूनेपन मैं चुभोती रही
कोई पत्थर तुम्हें
जख्मी ना कर दे
अपने सीने पर
धैर्य के पत्थर
रखती रही
सावन को पतझड
बना लिया था
ताकि तुम्हारी
सफलता को
बून्दें भिगोकर
स्याही सा बहा ना दे
तुम्हारे मन का सारा
बोझ हर रात तुम
जब मेरे मन पर
ड़ाल कर चेन की
नीन्द सो जाते थे
तब मेरा होना
मुझे सार्थक लगता
तुम्हारे सपनों को
साफ जमीन देने के लिए
कई बार
मैंने
अपनी आत्मा को
मैला किया
तब जाकर
तूम ,तूम बने
और मैं , मैं ही
नहीं रही ।
--
मैं
मिली नहीं खुद से
बरसों हो गए ।
पहचान लेती हूँ
दरवाजे से
दाखिल होने
वाली हवाओं के
चेहरों की
मंशा को भी
मैं जानती हूँ घर
की हर दीवार के
मन की बातें
भी
सहला लेती हूँ
उन्हें भी
बतिया लेती हूँ पास
बैठ कर
उनकी सुंदरता को
जब संवार देती हूँ
तब वो मूझे
अपने आगोश में
लेकर मेरा मन
सन्तुष्ट कर देती है
बाहरी ही नहीं
घर के अंदर भी
सराही जाती हूँ
तब खुद से
बरसों तक
नहीं मिल पाने का
दुख
नहीं होता ।
पहचान गुम
होने का दुख
नहीं होता ।
कितनी
पिसती है
हर रोज
चकला ,बेलन
के मध्य स्त्री
हाँ स्त्री रोटी सी स्त्री
कभी कभी यूँ ही
सोचकर मन
भारी हो जाता है
मां बाप के घर में
आटे सा
तैयार किया जाता है
बारीक
ताकि कोई
कमी नहीं रह जाये
ब्याही
जाने पर
ससुराल जाकर
उसका मंथन
किया जाता ताकि
नर्म नर्म
रोटी सी
बन कर पूरे
परिवार को संतुष्ट
कर सके
पिसती रहे
रोटी सी
चकला , बेलन के
बीच
अपने
अस्तित्व को दबाए
चूप
हाँ बिलकुल
चूप
स्त्री हाँ रोटी सी स्त्री ।
---
लकड़ी
काट कर अपनी
जड़ो से
गीली लकड़ी को
गठ्ठर बाना
बान्ध कर
रस्सी से
ला कर
घर के किसी कोने में
ड़ाल कर
छोड दिया जाता है
सूखने के वास्ते
ताकि
जब चूल्हे में
ड़ाली जाये तो
जलकर आसानी से
राख हो जाए ।
धुआँ धुआँ हो जाये
वो
पर
किसी और की
आंखें में पानी नहीं
आने दे
जलती हुई
सूखी लकड़ी ।
---
देह
उसकी देह आज
चुपचाप पड़ी थी
मृत
बिना कम्पन के
मारकर
अपने
मन को
जब मुर्दा सी
पड़ी रहती थी
तब कोई नहीं
आया
रोने को
देह निष्क्रिय
देह
सब कोई दहाड़ें
मार मार कर
दुखी होने का स्वांग ।
क्यों ?
----.
पीड़ा भी घरबार
देखती है
आंखों का मीठी
पानी देखती है
सूखे ह्रदय में
नहीं भरती वो
अपनी आहों को
उसको भी तो
उपजने के लिए
उपजाऊ मन चाहिए
आंखों का सावन
भरी हुई प्रेम की
नदियां चाहिए
साफ सुथरा मन
आंगन चाहिए
तब जाकर पीड़ा
ह्रदय में घर करती है
वरना कटु मन
और रिक्त जीवन
कर देती है
एक ब्याह से
कितने रिश्ते
बना लेती है
स्त्रियां
उसकी चाची
उसकी मामी
उसकी भाभी
उसकी ताई
और ना जाने
क्या क्या ।
बहू बनकर
जो सबके
ह्रदय घर
कर लेती है
वास्तव में
क्यों ससुराल
उसका घर
नहीं होता ।
अम्मा
-------------
मैं कहती थी अम्मा को
तनिक बैठ कर सुस्ता लो ना
तूम फिरकी सी क्यों फिरती हो
तुम क्या कोल्हू का बेल हो ।
तुम ही क्यों पूरे कुटुम्ब की
सेवा में तत्पर रहती हो
थोड़ा खुद के लिए भी तो
वक़्त तूम निकालो
कितनी सुंदर कितनी हंसमुख
तुम रहती थी
दिखती थी परियों जैसी
अपने मन को हार कर
सब का मन जिता तुमने
अपने मन को मत हारो ।
वो बातें मुझ अब लगती है
पगली जैसी
अम्मा अब हुए जाती हूँ मैं
तेरे जैसी
तेरी नातिन अब
वो बातें मुझ से है कहती
देखा लेना ब्याही जाने पर
वो भी हो जाएगी
तेरे मेरे जैसी
00000000000000000
जयप्रकाश श्रीवास्तव
पर्व कहां ?
---------०---------------
पर्व कहां ?
आडम्बर है या
केवल दम्भ कथाएं
शरशैया पर भीष्म
मरण की है प्रतीक्षा
मरा नहीं रावण
सीता की अग्नि परीक्षा
अर्जुन का
गांडीव टूटता
और राम की मर्यादाएं
बिछी हुई चौसर
बाजी पर अब भी नारी
धर्मराज का सत्य
झूठ की हिस्सेदारी
शापित हुई
अहिल्या फिर से
पत्थर जैसी मूक व्यथाएं
उजयारे की कोख
पल रहे अंधियारे हैं
दीप धरूं किस देहरी
रक्तिम गलियारे हैं
मैली सरयु
डरी अयोध्या
दबी छुपी सी आशंकाएं
******
जयप्रकाश श्रीवास्तव आई. सी. 5 सैनिक सोसाइटी
शक्तिनगर जबलपुर 482001 मो. 7869193927
000000000000000
नन्दलाल भारती
मान का धागा/कविता
बहारे हुस्न ना कभी तलाशा था
ना कोई ऐसा अपना इरादा था
फ़िक्र थी कुनबे के आन की
ना कोई राजसत्ता थी
ना कोई विरासत बची थी
अपनी जहां में गढ़नी पहचान थी
फ़र्ज़ पर फ़ना पुरखों की विरासत थी ,
तभी तो फ़र्ज़ पर फना होना जनता हूँ यारों
अपनी जहां में मुश्किलें हजारों है यारों
निगाहें उनसे मिली भी ना थी
ना कोई ऐसा इरादा था
हुस्न ये गुमान तिरछी नज़र से ताका था
निगाहों से उसने अपनी वजूद नापा था
कर दिया था रिश्ते का खून उसने
मैं तो रिश्तों का दीवाना था
आज भी वो मिलती है
चोर निगाहें बेवफा लगती है
मेरी निगाहों में ना दोष था यारों
रिश्ते निभाने के उद्यम किये हजारों
सच फ़र्ज़ पर फ़ना होना जानता हूँ
पराई माँ -बहन को माँ -बहन मानता हूँ
उन बेईमान निगाहों का क्या
जिसे शरीफ में दोष नजर आता है
हुस्न ये मल्लिका ना कर गुमान
चाँद का टुकड़ा ढल जाएगा
मान का धागा चटका तो,
फिर ना जुड़ पाएगा
--------
ना तकरार करो/कविता
कब कब किससे और कैसे कहूं कि
मैं भी आदमी हूँ यारों
बहुत मिला जख्म अब तो जाति-धर्म के,
खंजर से ना मारो,
मुझे भी जीने का अधिकार है
जाति-धर्म के ढकोसले गढ़ते रार है
खौफ में जीता हूँ ,विष पीता हूँ
चिंता की चिता पर बेचैन सोता हूँ
मेरा कसूर क्या है,कोई बताता ही नहीं
अब भेद का दहकता दर्द सहा जाता नहीं
खंडित है आदमी अपनी जहां में
साथ कोई आता नहीं
ना नेक इरादे है ना पक्के वादे
तभी तो जवाँ है भेद की लकीरे
डंसती रहती है वक्त -बेवक्त
आदमी है तो बस अब
आदमियत की बात करो
ना रार ना तकरार करो
आदमी को आदमी होने के सुख लेने दो
समता संग जीओ और औरों को जीने दो ........
----------
मानवीय समानता/कविता
अपनी जहां का जुल्म,
रिसते घाव खुरचता रहता है,
कभी कोई मठाधीश,
कभी कोई सत्ताधीश
सत्ताएँ स्वार्थ का केंद्र हो रही है .......
पहली अर्थात धार्मिक सत्ता तो
शुरुआत से खिलाफ रही है
आदमी को बांटती रही है
कुछ अछूत बनती रही है
ताकि आदमी होकर भी
आदमी होने के सुख से वंचित रहे
गुलामी की जंजीर में जकड़े
तड़पते रहे .........
कैसी सत्ता है आदमी को बांटती है
स्व-धर्मी को अछूत मानती है
आदमी में भेद कराती है
आदमी के बीच खूनी लकीर खींचती है
ये कैसी धार्मिक सत्ता यह तो राजनीति है
निर्बल को निर्बल की रणनीति है। ........
दूसरी यानी वर्तमान राजनैतिक सत्ता
जिससे उम्मीद जागी थी
बीएड रहित जीवन की
सम्मान विकास सम्मान शिक्षा की
क्योंकि यह तो आज़ाद देश की
संवैधानिक/लोकतन्त्रतिक सत्ता है
लोकतन्त्रतिक सत्ता से गोरे अब
बहुत दूर जा चुके है
अपने लोग अपनी सरकार है
हाय रे यहाँ तो
जाति धर्म के नाम पर तकरार है। .........
सत्ता सुख में बौराए लोग
हाशिये के आदमी के दुःख पर मौन है
कैसे होगा निवारण
हाशिये के आदमी दे दुःख का
इस दर्द के बवंडर से जूझता
सफर कर रहा हूँ..........
देखता हूँ समता क्रांति के लिए
धर्मधीश और सत्ताधीश साथ आते है
या सदियों से दम तोड़ रहे
हाशिये के लोगों की तरह
मानवीय समानता के लिए
संघर्षरत
यों ही तड़प -तड़प कर दम तोड़ देता हूं .........
----------
हमारी पहचान/कविता
दलित,दमित अथवा अछूत
भला आदमी भी हो सकता है
कैसे............ ?
ये कैसी विडम्बना है ............ ?
आदमी को गुलाम बनाए रखने की
धार्मिक रंगो में रंगी खूनी तरकीब।
सच तो ये है
ना तो आदमी अछूत हो सकता है
ना तो धर्म अमानुषता का पोषक
हाँ हाशिये आदमी गरीब हो सकता है
अमीर हो सकता है
शोषित निर्बल भी
अछूत तो कतई नहीं ।
यदि धर्म आदमी को अछूत बनता है
खंडित करता है तो
यकीन मानिए वह धर्म नहीं
स्थाई सत्ता स्थापित रखने का
घिनौना चक्रव्यूह है ।
देशवासियो नए दौर में
हर चक्रव्यूह को तोड़ दो
ढकोसले की हर दीवार को तोड़ दो
आदमी को आदमी होने का मान दो ।
नई उमंग है नया दौर है
भेद की हर दीवार तोड़ो दो
चक्रव्यूह रचने वालो को तज दो
हम भारतवासी देश ही हमारा धर्म
देश ही हमारी पहचान
हमारी पहचान मत कलंकित करो ..........
----------
चिंता की बात :-
आधुनिक शॉपिंग माल हो
या दूकान पुरानी
बिक जाता है जहां
धडल्ले से हर माल सेल के नाम पर
जरुरत का हो या
न हो जरुरत का
परचेज पॉवर देखकर
खुश हो जाता है मन
लग जाता है तरक्की का अनुमान......
मन रो जाता है
जब गमछा से बार -बार
मुंह पोंछता लौटता है
मज़दूर चौक से
नून तेल की तूफ़ान से
जूझता मज़बूर इंसान.......
डॉ नन्द लाल भारती २०/०४/२०१६
000000000000000000
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
जला नहीं था चूल्हा.......
सुखलाल की डायरी खोल रही है पोल
मरने से पहले लिखे कई तो उसने बोल
मरो-मरो सब कोई कहे,पर मरना न जाने कोई
एक बार ऐसा मरो कि फिर न मरना होए
सूखी रोटी जेब में रख गया शहर की ओर
कम मिला जब तो नहीं दिये प्राण तो छोड.
दिये प्राण तो छोड. प्रशासन तब तो जागा
माँ बेटीबाई के आगंन गेहूं लेकर भागा
पत्नी तेजा कह रही जला नहीं था चूल्हा
राशन से कटा नाम, प्रशासन था अंधा लूला!
सुरेन्द्र अग्निहोत्री
ए-305, ओ.सी.आर, बिधान सभा मार्ग;लखनऊ
डवरू 9415586095
00000000000000000000
सतीश शर्मा
ब्राह्मण कौन है ?
ब्राह्मण जप से पैदा हुई शक्ति का नाम है।
ब्राह्मण त्याग से जन्मी भक्ति का धाम है।
ब्राह्मण ज्ञान के दीप जलाने का नाम है।
ब्राह्मण विद्या का प्रकाश फैलाने का काम है।
ब्राह्मण स्वाभिमान से जीने का ढंग है।
ब्राह्मण सृष्टि का अनुपम अमिट अंग है।
ब्राह्मण विकराल हलाहल पीने की कला है।
ब्राह्मण कठिन संघर्षों को जी कर ही पला है।
ब्राह्मण ज्ञान भक्ति ,त्याग ,परमार्थ का प्रकाश है।
ब्राह्मण शक्ति ,कौशल ,पुरुषार्थ का आकाश है।
ब्राह्मण न धर्म ,न जाति में बंधा इंसान है।
ब्राह्मण मनुष्य के रूप में साक्षात् भगवान है।
ब्राह्मण कंठ में शारदा लिए ज्ञान का संवाहक है।
ब्राह्मण हाथ में शस्त्र लिए आतंक का संहारक है।
ब्राह्मण सिर्फ मंदिर में पूजा करता हुआ पुजारी नहीं है।
ब्राह्मण घर घर भीख मांगता भिखारी नहीं है।
ब्राह्मण गरीबी में सुदामा सा सरल है।
ब्राह्मण त्याग में दधीचि सा विरल है।
ब्राह्मण विषधरों के शहर में शंकर के समान है।
ब्राह्मण के हस्त में शत्रुओं के लिए परशु कीर्तिवान है।
ब्राह्मण सूखते रिश्तों को संवेदनाओं से सजाता है।
ब्राह्मण निषिद्ध गलियों में सहमे सत्य को बचाता है।
ब्राह्मण संकुचित विचारधारों से परे एक नाम है।
ब्राह्मण सबके अंतःस्थल में बसा अविरल राम है।
--
मजदूर दिवस पर - मेरा हक़
मई की दोपहर में दो सूखी रोटी प्याज के साथ खा कर।
हांफता हुआ बना रहा हूँ साहब की एक और हवेली।
मेरी पत्नी चार पांच घरों के बर्तन मांज कर।
टटोल रही होगी घर में खाली कनस्तर।
बेटी सरकारी स्कूल में मध्यान्ह भोजन कर।
साहब की पास की कोठी में लगा रही होगी झाड़ू।
बेटा स्कूल से भाग कर कहीं नाले के किनारे।
अपने बीड़ी पीने वाले दोस्तों के साथ ताश खेल रहा होगा।
कुछ लाल झंडे ,कुछ पीले झंडे ,कुछ तिरंगे झंडे लहरा रहे हैं।
सुना है ये मेरे हक़ के लिए लड़ रहे हैं।
मेरा हक़ जो गिरवी पड़ा है राजनीती के गलियारों में।
मेरे हक़ की लड़ाई लड़ते - लड़ते पहुँच जाते हैं संसद में।
और वहां पहुँच कर सो जाते हैं चुपचाप कुर्सी पर।
मै फिर से चल देता हूँ मई की तपती दोपहर में।
अपने काम पर दो सूखी रोटी खा कर अपने हक़ के इंतजार में।
00000000000000000000
धर्मेंद्र निर्मल
पानी का मोल
पूछिए उस औरत से
पानी का मोल
जो हमाम में घुसी बैठी है
देह पर साबुन लगाये
बाल बजबजा रहे हैं जिनके
शैम्पू के झाग से
और नल से पानी नदारद है।
पानी का मोल
बर्तन मांजती औरत से पूछिए
उस औरत से
जिसे धोने हैं अभी
ढेरों बर्तन
घिसनी है अभी टिकिया
फिर छपक-खंगाल बारी-बारी
बाल्टी दर बाल्टी डूबो
उजियारने है कपड़े घर भर के
और जिनके बर्तन खड़े है
पारी की बाट जोहते
हवा से गुड़गुड़ी खेलते
नल के पास
नल का मुंह ताकते
उॅगली चूसते बच्चे की तरह।
उस औरत से पूछिए
पानी का मोल
जो माथे पर आये पानी के बूंदों को
भूल, लगातार झूल-झूल
पोंछा लगा रही है
साफ और दांत से चक्क फर्ष को
और और चमकाने
जिनके कानों में गूंज रही है लगातार
पीछे छोड़ आये घर में
भूखे, अधनंगे बच्चों के
रोने की आवाजें
और आंखों में लटक रहा
घर का भविष्य - ताला बन।
पानी का मोल
पूछिए मत
पूछिएगा उस औरत से
पानी का मोल
जिसे चाहिए पानी
धोने के लिए चांवल
रांधकर भात - साग
परोसकर संतुलित आहार
भरने के लिए पेट परिवार का
भरनी है अभी गुंडियां
चलना है अभी शेष
दूर तक
चिलकती धूप में जहां
हवा चलने से भी थर्राती है।
मत पूछिए
पानी का मोल
मर्द क्या बता पायेगा
जिसे बस पीने-खाने के लिए
पानी की जरूरत होती है
अपनी आंखों में दुनिया भर का
पानी लिए पानी के लिए
तरसती औरत से बेहतर
कौन समझ सकता है भला ?
पानी का मोल।
00000000000000000000
ललित साहू"जख्मी"
मेरी कलम...
कलम मेरी तवायफ नहीं
जो बिकती हो बाजारों में
मन की बात लिखता हूं
मैं अपनी हर हूंकारों में
बात मेरी अच्छी या बुरी
मुझको इसका अनुमान नहीं
पर लालच में दिन को रात लिखुं
मैं ऐसा बेईमान नहीं
चाहता सुख और सम्मान देश का
दुसरा और कोई अरमान नहीं
चिर सीना यकीन दिलाऊं
मैं ऐसा हनुमान नहीं
गलतियां मुझसे भी होती है
इंसान हूं मैं भगवान नहीं
पर जान कर आहत करुं
ऐसा भी मैं शैतान नहीं
उत्पीड़न का दंश झेल रहे
मैं उन बहनों का भाई हूं
सावधान हो जाओ हत्यारों
मैं कलम वीर कसाई हूं
मैं अपनी कविता से
देश जगाने निकला हूं
मैं समाज के कोढी चेहरे को
दर्पण दिखलाने निकला हूं
----
"पापा की बेटी"
बिस्तर में पडे बीमार पिता को देख
एक किशोरी की आत्मा है रोती
लब हिले मगर स्वर निकला ही नहीं
वह कहती काश मैं थोडी बडी होती
काश मैं थोडी बडी होती...
रुष्ट ग्रहों को भी कर लेती शांत
मुसीबतों में पापा संग खडी होती
मैं उनकी असहाय लाडली बेटी
काश कोई जादू की छडी होती
काश मैं थोडी बडी होती....
अपने पापा के आंखों की ज्योति
मैं हृदय की अविराम घडी होती
धड़कन बन मैं उनके दिल में रहती
तकलीफें कुछ मेरे हिस्से भी पडी होती
काश मैं थोडी बडी होती....
मुझको जन्म दिया ना भेद किया
मैं उनके जीवन मोतियों की लडी होती
पढा लिखा बनाया लायक मुझको
मैं दर्द देख पाऊं इतनी कडी होती
काश मैं थोडी बडी होती....
छोड़ बचपन की अल्लढ़ता
मैं सीढियां समझदारी की चढी होती
काश लकीरें बनाती मैं खुद
भविष्य अपने परिवार का गढी होती
काश मैं थोडी बडी होती....
युगों रखती नजरों के सामने
ऐसी मैं मजबूत हथकडी होती
जन्म से कर्मवीर साहसी बनने
काश मैं ईश्वर से थोडी लडी होती
काश मैं थोडी बडी होती....
-----.
"कुदरत का वजूद"
वृक्ष नहीं हमने पूरा जंगल काट डाला
सीमाओं की लडाई में रक्त बांट डाला
खोदी खनिज ताल तलईया पाटे
मोतियों के लालच में सागर चांट डाला
(उर्जा एवं निस्तार)
लिपटा कर सीने से हरदम
धरती मय्या ने हमें है पाला
नहीं सोचा एक पल को भी
यही है मेरा गर्भ भेदने वाला
(नलकूप खनन)
हमें लगती धरा कमजोर हमारी
तभी सख्त परत हमने है डाला
हवा के झोंको का भी य़कीं ना रहा
यत्न शीतलता की हमने कर डाला
(सड़क पंखे कूलर)
हमने झीलों की सूरत बदली
नदियों का छोर भी बदल डाला
पहुंच करीब उन्नति शिखर के
अपना ही विनाश कर डाला
(बांध,नहर निर्माण)
उजाड चमन हमने महल बनाये
पर्वतों को खण्डित कर डाला
मॉ के आंचल को चिथडा बनाया
स्वर्णों में नाम वर्णित कर डाला
(खनिज दोहन)
नभ विषाक्त धरा बंजर अग्नि प्रचंड
ध्वनि भी हमने प्रदूषित कर डाला
गंगा का जल प्रमाण इस बात का
भागीरथ परिश्रम हमने कलंकित कर डाला
(औद्योगिक प्रदूषण)
हम डरते तल्ख सूरज किरणों से
पर रवि हृदय में हमने किया छाला
अपनी दुनिया हमने खुद बनाई
और समझते दोषी है उपर वाला
(ओजोन परत)
ये महज रचना नहीं मेरी कल्पना नहीं
मैंने तो मानव कृत्यों पर है प्रकाश डाला
ये मुद्दा तो है कुदरत के वजूद का
जिसकी आत्मा हमने जख्मी कर डाला
रचनाकार - ललित साहू"जख्मी"
ग्राम - छुरा
जिला - गरियाबंद (छ.ग.)
9144992879
0000000000000000000
अक्षय आजाद भण्डारी
जय बोलो शिक्षा जगत की
शिक्षा का मन्दिर ,भविष्य बनेगा तुम्हारा
ऊपर से संस्कार,भीतर में भ्रष्टाचार
इस मन्दिर के पुजारी क्या बांचे,कथा सरस्वती माता कि
नित्य रोज मैं आता हूं,
स्कूल में प्रार्थना गाता हूं
शिक्षक को नमस्कार ओर
स्कूल से निकलते दोस्त को बाय बाय
किताब-कापी-फीस ओर ड्रेस
भाव सुनकर परेशान हो गए फेस
दिन पर दिन बढ़ता शिक्षा का व्यापार
कुछआ गति से न चलो सरकार
महंगाई में बच्चों की पढ़ाई
पालक की जेब पर पड़ रहा डाका
कहा रह गया शिक्षा जगत में
सत्य-धर्म-ईमान
जय बोलो शिक्षा जगत की
----
एक चिडि़या कहती है...
एक चिड़िया कहती है
मेरी आंखों में अनेक सपने सजाये है
मैं उड़ती हूं तो सोचती एक अच्छा
जीवन मिल जाए।
काशः मैं बोल पाती फिर भी
चूं-चूं करती इधर-उधर फुदकती रहती हूं
मेरे सब साथी यही सोचते
उड़ान तो भर लेते हम पंछी
न जाने हम कहा गुम हो जाते है
है इंसान फिक्र है अगर हमारी
हमें बचा लेना
गर्मी के मौसम में कभी पंछी, कभी इंसान
सब परेशान हो जाते है
बस इस मौसम में
एक छोटा सा आशियाना बना देना
गर्मी के इस साये में पानी भी पिला देना।
नाम-अक्षय आजाद भण्डारी राजगढ़ जिला धार मध्यप्रदेश 454116
मों. 9893711820, ई मेल-bhandari.akshay11@gmail.com
000000000000000
जी. एस परमार
पीड़ा
गरीबी की गलियों में,
यह मन बहुत अकेला है |
रंग महल में उनके,
खुशियों का मेला हैं |
दिन रैन श्रम कोल्हू में पिसकर
जीवन कण मैं रचता हूँ |
शीत से हैं प्रीत मेरी कसकर,
ग्रीष्म सखा संग मैं चलता हूँ |
जींने की जद्दोजहद में यह तन,
हरदम साहूकार तूफानों से खेला हैं |
गरीबी की गलियों में,
यह मन बहुत अकेला हैं|
रंग महल में उनके
खुशियों का मेला हैं |
सेवक बन जो सरकार चलाए,
मिल बैठ कर प्रेम भाव से,
करतल ध्वनि से वेतन आकार बढ़ाए|
क्या है उन्हें प्रेम मेरी पीड़ा से ?
अन्न का दाता मैं,मिटकर खुद,
तुमको जीवन देता हूँ |
देख दयालु (?) कभी उनको भी ,
दर्द जिनका चहुँ ओर फैला हैं,
गरीबी की गलियों में
यह मन बहुत अकेला हैं |
रंग महल में उनके,
खुशियों का मेला हैं |
आओ तुम्हें आज,
राज की बात बताता हूँ,
होली की बिसात ही क्या?
जब दीवाली भी खेतों में,
काम करते मनाता हूँ |
रक्षा बंधन पर आँसुओं को अपने,
सावन की झाड़ियों से धो कर ,
बहना को,प्रसन्न चेहरा दिखलाता हूँ |
दिल का दिया मेरा
रक्षा बंधन पर भी जलाता हूँ |
लगती जिंदगी अब तो
बस एक झमेला है.
गरीबी की गलियों में
यह मन बहुत अकेला हैं,
रंग महल में उनके,
खुशियों का मेला हैं |
000000000000000000
सीता राम पटेल
1:- अवध का युवराज
मैं अवध का युवराज
तुमने हमें बना दिया भगवान
हमें भगवान बनने के लिये
क्या क्या नहीं पड़े पापड़ बेलने
हमारी प्यारी माता ने हमारे लिये माँगी
चौदह वर्ष का वनवास
हमारे संग आ गये वन
अर्द्धांगिनी जानकी भाई लखन
और यहाँ हमारी जानकी का
रावण कर लिया हरण
वो भी अपनी बहन के कारण
सूर्पनखा हमें देनी चाही वशीकरण
पर हमारा था एक पत्नी व्रत का प्रण
उसने न जानी प्रणय माँगी नहीं जाती
प्रणय दी जाती है
देने का नाम है प्रणय
उसने लेनी चाही प्रणय
इसीलिए उसने नाक कटाई
उसने अपने भाई को भड़काई
जानकी के जाने के बाद
हम उसे अपना लेंगे
पर हम अपनी जान को ऐसी कैसे जाने देते
हमने अपने संग मिला सभी वनवासी
कर दी हमने रावण पर चढ़ाई
और एकता ने हमें विजय दिलाई
जानकी को पाकर जानकी को गँवाई
नहीं सह सके गँवार की ढिठाई
हमने जानकी को त्यागा भाई
जानकी को आत्महत्या को उकसाया,
हम हैं कसाई
फिर भी तुम कहते हो भगवान
जानकी के संग चली गई हमारी जान
आप सब बतायें प्रबुद्धगण
कितने सुखी हुये हम भगवान बन
2:- मिट्टी के घर
हमारे पूर्वज कितने अच्छे थे
जो मिट्टी के घर में रहते थे
पर्यावरण के अनुकूल होते है
मिट्टी के घर
सभी मौसम के लिए अच्छे होते है
विकास ने हमें विनाश के द्वार पर
खड़ा कर दिया है
मिट्टी के घर
टूटने पर भी काम आते है
अच्छे खाद बनकर हमारे खेतों को
उपजाऊ बनाते है
मिट्टी के घर में प्रेम अधिक होते हैं
बीमारियाँ भी कम होते है
आओ गाँव की ओर चलें
मिट्टी के घर जो कि सही मायने में घर है,
चलो,अपना आशियाँ बनायें
3:-काग के भाग
काग काँव काँव करके आता है,
प्रेम औ सद्भाव का गीत गाता है,
हमें काग की बोली कर्कश नहीं, अच्छी लगती है, हमें आज भी लगता है, काग अतिथि आगमन की सूचना देता है, अतिथियों को हम भगवान मानते हैं।
श्राद्ध पक्ष में काग हमारे घर के छत के मुँडेर पर आते हैं, हम उन्हें अपने पितर मानते हैं, हमारे भक्त कवि रसखान ने भी इसके भाग्य की बड़ी सराहना की है,
काग के भाग बड़ी सजनी हरि हाथों से ले गयो माखन रोटी।
काग भोले भाले प्रवृत्ति के होते हैं, कोयल अपने अंडे काग के घोसलों में देती है, काग उसे बड़े प्यार से सेंती है, बड़े होने पर उड़ जाती है, स्वार्थिनी की स्वर निराली होती है,इन्हें बसंत का दूत भी कहा जाता है,श्रम का कार्य काग करता है, पिक पराश्रित होता है, पर जग में उसकी ही तूती बोलती है, काग की नगाड़े जैसे आवाज होने पर भी उसकी आवाज नगाड़े की आवाज में तूती की आवाज जैसे दब जाती है।
काग प्रतिदिन हमारे घर आओ,
आकर घर की रौनक बढ़ाओ,
घर को हमारे कलह से बचाओ,
अतिथि के सत्कार में सभी भुलाओ।
0000000000000
हिराजी नैताम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम ,तुम्हें सलाम
सौंप दिए है ये अनमोल रत्न हमारे हाथ
हमारा फर्ज इसकी रक्षा करना दिन रात
जगत में सीना ताने जीता रहेगा हिन्दुस्तान
आओ यारों चलो मिलकर सब करले प्रण
अब नहीं बनेगा ये वतन किसी का गुलाम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम, तुम्हें सलाम
असीम बलिदानों से मिली है अमर नौजवानी
याद करो उन वीर शहीदों को क्यों दी क़ुरबानी
चले हो किसी पथ स्वतंत्रता सभी का लक्ष्य था
न मुड़े, न थके, थमे हर कदम जोशीला था
इंकलाब जिंदाबाद की बोली गूँज उठी थी हर धाम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम तुम्हें सलाम
हर्षित है वतन उन जैसे सपूत पाकर
जो परवशता के पग जमीं से उखाड़कर
आजादी पायी है मातृभूमि की फाँसी पे चढ़कर
अब बढ़े जो बुरी कदम इस धरती पर
कसम उन शहीदों की वो कदम काट लेंगे हम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम, तुम्हें सलाम
हमसे ना कोई छीन सकेगा हिन्दुस्तान हमारा
हर दिल में फहरायेंगे विजयी ध्वज प्यारा
इस मिटटी से तिलक करो सर पर बांधे कफन
वतन शीश झुकाये जो उसे करे जमीन में दफ़न
उन रावण को मिटाने सबको बनना है राम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम, तुम्हें सलाम
अमन चैन की जहाँ में हर वक्त वो करते बात
आखों में धूल झोंककर करके विश्वासघात
हमारे मुल्क में धर्मों के नाम मचाये आतंक
बेगुनाह जीव यहाँ मरते रहे कब तक
अब नहीं सहेंगे हम हाथ में ले शस्त्र थाम
हिन्द जवान तुम्हें सलाम, तुम्हें सलाम
हिराजी नैताम
Mo. No. 9823873918
तह. जिल्हा. गडचिरोली
पिन कोड :- ४४२६०५ राज्य :- महाराष्ट्र
0000000000000000
COMMENTS