5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष ० आदतों में परिवर्तन से होगा संरक्षण अपने पर्यावरण को सहेजना या उसे अनुकूल बनाये रखना हमारे के लिए को...
5 जून विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष
० आदतों में परिवर्तन से होगा संरक्षण
अपने पर्यावरण को सहेजना या उसे अनुकूल बनाये रखना हमारे के लिए कोई एवरेस्ट चढऩे जैसा कठिन कार्य नहीं है। अपने आसपास हो रहे प्रकृति विरूद्ध कार्य को रोकना अथवा ऐसा करने वालों को टोकना या ही इस महान कार्य की शुरूआत मानी जा सकती है। वास्तव में हो तो ऐसा रहा है कि हम सब कुछ गलत होता देख रहे है, और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर रहे है। जिस दिन हम गलत कार्य को होते न देखने की प्रतिज्ञा ले लेेंगे, उस दिन से हमारा पर्यावरण सुधार की राह पर बढ़ चलेगा। इसकी शुरूआत हमें उस स्थान से करनी होगी, जहां प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग हमें मिले और हम अपने पर्यावरण की चिंता उन पर भी डालना शुरू कर दें। जहां तक मैं समझता हूं इस अभियान की शुरूआत विद्यालयों और महाविद्यालयों से की जानी चाहिए। वर्तमान परिदृश्य हमें दिखा रहा है कि प्रतिदिन हमारे देश के शाला परिसरों में प्लास्टिक की थैलियां लाखों की तादाद में फेंकी जा रही है। ये थैलियां कैसे आ रही है? इस पर चिंतन जरूरी है। बच्चों द्वारा अपने लंच बाक्स के स्थान पर जंकफुड का इस्तेमाल इसका सबसे बड़ा कारण है। अब तो बच्चे पानी भी पाऊच में लेकर आने लगे है। हमें इसे रोकने बच्चों के टिफिन में रोटी-सब्जी से लेकर घर पर बनाये जाने वाले अन्य प्रकार के भोजन की अनिवार्यता पर बदलना होगा। पानी के लिए शालाओं में ही पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी। बच्चों को प्लास्टिक की बॉटल में पानी न लाने अथवा पाऊच का उपयोग न करने की हिदायत भी दी जा सकती है। उन्हें यह समझाया जा सकता है कि पानी कांच की बोतल या फिर ठंडा रखने वाली स्टील की बॉटल में लाया जा सकता है। यह शुरूआती प्रयास संतुलन के लिए बीजारोपण का कार्य कर सकता है।
पाठ्यक्रम में शामिल पर्यावरण विषय की गंभीरता को समझना होगा
हमारे बिगड़ते पर्यावरण को चिंता के चश्में से देखते हुए पर्यावरण विदों ने विद्यालयीन पाठ्यक्रम से लेकर महाविद्यालयों तक इसे अनिवार्य विषय में रूप में शामिल किया है। इस विषय की गंभीरता उस समय खत्म हो गई, जब इसमें पास होना जरूरी नहीं बल्कि शामिल होना जरूरी बना दिया गया। हमारी पाठ्यक्रम निर्माता समिति ने भला किस सोच के साथ ऐसा किया, कि विषय का महत्व ही समाप्त हो गया? आज की ज्वलंत समस्या से प्रत्यक्ष संबंध रखने वाले उक्त विषय को हर स्थिति में अनिवार्य करना ही जागरूकता की अच्छी कड़ी मानी जा सकती है। हमारे पर्यावरण को प्राणियों के अनुकूल बनाने में हमारा योगदान जो सहयोग कर सकता है, उससे कहीं अधिक सकारात्मक परिणाम हमारी वर्तमान पीढ़ी दे सकती है। यदि बच्चों के दिमाग में इस बात को बैठा दिया जाए कि पर्यावरण ही उनके विकास का मार्ग तय करेगा, तो ऐसी कोई ताकत नहीं, जो पर्यावरण संतुलन की स्थिति को टाल सके। बच्चों को शालेय स्तर पर उनके आसपास फल-फुल रहे पौधों के संरक्षण की विधि से परिचित कराना एक अच्छा कदम हो सकता है। उन्हें अलग-अलग वर्गों में बांटते हुए क्यारियों की देखभाल कर जिम्मा दिया जा सकता है। बदले में उन्हें उसी तरह अंक प्रदान किए जा सकते है जैसे की विज्ञान संकाय के बच्चों को प्रायोगिक तौर पर दिये जाते है। जिन क्यारियों में अधिक जीवित पौधे और हरियाली का सामंजस्य पाया जाए, उन क्यारियों के रखवाले छात्रों को ‘पर्यावरण मित्र’ अथवा ऐसे ही उत्साहित करने वाले अवार्ड दिये जा सकते है। इस प्रकार की शैक्षणिक गतिविधि बच्चों को पेड़ पौधों से स्नेह का पाठ पढ़ा सकती है।
बागवानी की शिक्षा घरों से
दुनिया में बढ़ रही भीड़ के चलते घरों के दायरे भी सिमटते जा रहे है। ऐसे में घरों में हरियाली के लिए स्थान बनाना बड़ा ही दुष्कर कार्य लगने लगा है। पर्यावरण को बचाने और उसकी शुद्धता को विकार में परिवर्तित न होने देने का संकल्प हरियाली से मित्रता के रूप में सामने लाया जा सकता है। इसके लिए ‘विंडो गार्डिनिंग’ एक अच्छी पहल हो सकती है। लटकाने वाले गमलों का प्रयोग भी काफी राहत दे सकता है। जब से शहरों में महानगरों की तर्ज पर फ्लैट संस्कृति का उदय हुआ है, तब से पर्यावरण अथवा हरियाली के लिए बड़ी समस्या भी सामने आई है। ग्राऊंड फ्लोर के फ्लैट में उपलब्ध खाली जगह पार्किंग का स्थान ले रही है, तो छतों की गगनचुंबी ऊंचाई पानी की समस्या से जुझ रही है। ऐसी विकट स्थिति में फ्लैट में रहने वाले लोगों को शुद्ध और ठंडी हवा के लिए ‘विंडो गार्डिनिंग’ और गमलों को लटकाकर हरियाली रखने वाली विधा को अमल में लाना ही हितकर होगा। बागवानी की शिक्षा बच्चों को अनिवार्यत: दी जानी चाहिए। यह विषय भी पहले पाठ्यक्रम में शामिल था, किंतु विकास की अंधी दौड़ और पेड़ पौधों की संस्कृ़ति से भागने की आदत ने उसे भी बेमौत मार डाला है। हमारी भारतीय संस्कृति ने हमें पर्यावरण से जोड़े रखने के लिए ही तुलसी, पीपल, बरगद, आंवला आदि पेड़ पौधों की पूजा अर्चना की पाठ पढ़ाया था। आज भी पर्यावरण की शुद्धता में तुलसी का योगदान सबसे अधिक है। हमें अपने घरों में अपने गमला रखने की क्षमता के अनुसार बागवानी को प्रोत्साहन देना शुरू करना होगा। नगर प्रशासन को भी इसे अनिवार्य बनाते हुए प्रत्येक घर में कम से कम गमलों की संख्या तय करने का नियम बना देना चाहिए।
तीन सौ पैंसठ चौबीस का फार्मुला ही बचा सकता है पर्यावरण
पर्यावरण बचाने अथवा गर्म पृथ्वी को ठंडा करने की हमारी चिंता कोरी बहस बनकर न रह जाए। वर्ष में एक दिन विश्व पर्यावरण दिवस मना लेने से हम अपनी प्राकृतिक संपदा को नहीं बचा पाऐंगे। वर्ष के पूरे 365 दिन और 24 घंटे हमें पर्यावरण की देख-रेख में देने होंगे। हमें इस बात का बराबर ख्याल रखना होगा कि हम कोई ऐसा कार्य दिनभर में न करे, जिससे हमारी पृथ्वी प्रदूषित होकर पर्यावरण में विष घोलने का काम करें। जीवन की जिस भाग दौड़ में हम स्वस्थ जीवन के मायनों को भुल चुके है उन पर पुन: लौटना ही पर्यावरण की चिंता हो सकती है। हम वह काम कर रहे है जो हिंदी साहित्य में कालीदासजी पर व्यंग्य रूप में कहा जाता रहा है। जिन हरे भरे पेड़ पौधों ने हमें सुरक्षित और स्वस्थ जीवन प्रदान किया, हम उसे ही काट रहे है। अपनी मजबूत पर्यावरणीय नींव को जड़ से उखाडक़र हम वास्तव में क्या पाना चाहते है? उसकी भयावह तस्वीर आज हमें परेशान करने लगी है। विकास के नाम पर हमनें अपनी सोच को बदल डाली, किंतु यह भुल गए है कि सच क्या है। पहले हमारी सोच थी कि हमारे अपने अस्तित्व के लिए पेड़ पौधों, जंगल-नदियों-तालाबों, वन्य प्राणियों, पशु-पक्षियों का होना नितांत जरूरी है। अब हमारी सोच स्वार्थ परता में लिप्त होकर यहीं तक सिमट कर रह गई है कि पेड़-पौधों, जंगल और नदी-तालाबों को पर्यावरण के लिए बचाना जरूरी है। आज भी हम यदि यह नहीं समझ पा रहे है कि प्रतिदिन पर्यावरण और पृथ्वी की रक्षा का संकल्प हमारा प्रथम कर्तव्य होना चाहिए तो वह दिन दूर नहीं जब न तो पर्यावरण ही बच पाएगा और न ही हमारी पृथ्वी। पृथ्वी पर आग बरसेगी और हमारा अस्तित्व इस दुनिया से मिट जाएगा।
(डॉ. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
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