प्रकृति चित्रण या कम से कम ऋतु-संकेत जापान में एक समय हाइकु का एक अनिवार्य अंग रहा है, किंतु यह अनिवार्यता न तो जापानी रचनाओं में पूरी तरह ...
प्रकृति चित्रण या कम से कम ऋतु-संकेत जापान में एक समय हाइकु का एक अनिवार्य अंग रहा है, किंतु यह अनिवार्यता न तो जापानी रचनाओं में पूरी तरह निभ सकी और न ही हिंदी हाइकु में. इसमें संदेह नहीं कि कवि कहीं का भी क्यों न हो वह एक सम्वेदनशील प्राणी होता है और प्रकृति के सौंदर्य से, उसके वैभव और उसके विकराल रूपों से, वह अछूता नहीं रह सकता. धरती और आकाश, नदी और समुद्र, पहाड़ और झरने, वृक्ष और लताएं, पशु और पक्षी सभी उसे सम्मोहित करते हैं. प्रकृति की छटाएं और रंग, उसके विविध रूप और गंध, उसके सौंदर्य और सुषमा को वह आत्मसात करता है और अवकाश के सर्जनात्मक क्षणों में उसे अपनी साहित्यिक रचनाओं में पिरोता है. हिंदी की हाइकु कविता भी इसका अपवाद नहीं है.
माना कि आज का कवि जिस परिवेश में रहता है वह प्रकृति-संपन्न नहीं है. नगरों में तो प्राकृतिक दृश्य देखने को ही नहीं मिलते. फिर भी जब-जब कवि का प्रकृति से साक्षात्कार हुआ है, प्रकृति के वैभव को उसने संजोया है और अपनी रचनाओं में उसे उतारा है. आज के कवि के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रकृति की गोद में बैठकर ही कविता-कर्म करे. फिर भी अपनी रचनाओं में कभी उसने स्वयं को प्रकृति में प्रतिबिम्बित देखा है तो कभी प्रकृति को अपनी भावनाओं से प्रतिरोपित किया है. मनुष्य और प्रकृति का यह अटूट रिश्ता कभी टूटा नहीं है. मनुष्य ने जहां एक ओर प्रकृति को माध्यम बनाकर मानवी भावों की अभिव्यक्ति की है वहीं दूसरी ओर मानवी संवेगों का प्रकृति के साथ तादात्म्य भी किया है. कभी केवल प्रकृति के सौंदर्य और उसके विविध रूपों को चित्रात्मक भाषा में प्रस्तुत किया है तो कभी प्रकृति में निहित गहरे अर्थों को तलाश कर उन्हें अनावृत किया है.
डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव हिंदी के वरिष्ट हाइकुकार हैं. हाल ही में उनका एक संकलन <चितन के विविध क्षण> नाम से प्रकाशित हुआ है. इस संकलन में जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है अधिकतर हाइकु विचार प्रधान हैं. जिसे हम सामान्य-बोध का दर्शन कह सकते हैं, ये हाइकु उसी की रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं. परंतु इनमें कई सशक्त हाइकु ऐसे भी हैं जो प्रकृति से जुड़े हैं. मानवी भावनाओं से जुड़कर प्रकृति के कुछ चित्र बड़े सजीव बन पड़े हैं.
सूखी वीथी में/
शेफाली बन झरी/
हंसी वन की
जीवंत हुई/
धरती की ममता/
फूटे अंकुर
रमाकांत जी ने अपने प्रकृति सम्बंधी कुछ हाइकुओं में यदि मानवी भावों से प्रकृति का तादात्म्य किया है तो कुछ में प्रकृति को प्रतीक बनाकर मानव कृतित्व को महिमा मंडित किया है, यथा –
अमलतास/
पीत-वर्णी समिधा/
धरा वेदिका
धरती पर/
अंकित महाकाव्य/
दूर्वा लिपि में
उपर्युक्त दोनों रचनाओं में धरती को माध्यम बना कर पूरा का पूरा रूपक विकसित किया गया जो देखते ही बनता है. प्रकृति को चिंतन से जोड़ने का यहां अद्भुत प्रयास है.
भिंड निवासी भगवत भट्ट भी अपने हाइकु-संग्रह ‘आखर पांखी’ में अक्षरों को पंख प्रदान कर कल्पना और चिंतन के मुक्त आकाश में विचरने देते हैं. सामान्यतः आखर पांखी के हाइकु भी रमाकांत जी के चिंतन के विविध क्षण में संकलित हाइकुओं के समान ही सामान्य बोध के दर्शन की प्रस्तुति ही हैं (यथा,-
जग से नाता/
जैसे डाल का पक्षी/
है उड़ जाता)
परंतु इसके कुछ हाइकुओं में प्रकृति के मनोरम चित्र भी उपस्थित हैं-
ठिठरे गात/
नई दुल्हन सी/
धूप लजाई
इसी तरह नदी शीर्षक एक हाइकु नदी का चित्र कुछ इस प्रकार खींचता है –
टेंढा सा तीर/
जैसे कोई बालक/
खींचे लकीर
भगवत भट्ट शब्दों से चित्रांकन करने में सिद्धहस्त हैं. आखर पांखी उनका एक सचित्र हाइकु संग्रह है. इसके रेखांकन भी कवि ने ही बनाए हैं. पर कुल मिलाकर रेखा-चित्रों से शब्द-चित्र बेहतर हैं. एक शब्द-चित्र देखिए –
नदी किनारे/
सरके जैसे सांप/
राह गांव की.
भट्ट जी के यहां प्रकृति अपनी पूरी चित्रमयता के साथ प्रकट होती है. बादलों का एक चित्र कुछ इस प्रकार है -
नभ में डोले/
हवा के संग-संग/
रुई के गोले
प्रकृति चित्रण में सुधा गुप्ता एक अद्वितीय हाइकुकार हैं. उनका संग्रह ‘कूकी जो पिकी’ पूरा का पूरा प्रकृति प्रेम से ओतप्रोत है. सुधाजी को बसंत लुभाता है, धरती पर वे मोहित हैं और कोयल की कूक उन्हें पागल बना देती है. कोयल ही नहीं, ठठेरा, कठफोड़वा, शकर खोरा और महोका जैसे पक्षी भी उन्हें आकर्षित करते हैं. पीलक उनके कंठ में मिठास घोलता है. फुदकी उनके हाइकु में चहकती है. उनके काव्योपवन में पिकी और बया उपस्थित है और मैंना की तो उन्होंने शादी तक रचाई है, -
मैंना की शादी/
बाराती बैठे तार/
लम्बी कतार.
पीले फूल और सूखा गुलाब उनके संग्रह के पृष्ठो में सुरक्षित है. टेसू पलाश, कचनार, शेफाली और जुही के फूल उनकी कोमल भावनाएं जगाते हैं, उनकी आशा और निराशा के साथी हैं, -
कभी मैंने भी/
पिरोई थी उम्मीद/
पीले फूलों से.
सुधा गुप्ता अपने हाइकुओं में चैती और रसिया गाती हैं. यहां मछुआरा कजरी गुन-
गुनाता है और अमराई के झूले सावन के गीत सुनाते हैं. इंद्रधनुष रंगों का छिड़काव करता है. फूलों से लदा अमलतास किलकारियों मारता है. पूनो की रात बात-बे-बात हंसती इठलाती है. चंद्र-किरण जुही के अधरों पर कविता लिखती है. यहां नभ के बीचोंबीच सप्त- ऋषि तारे साधना रत हैं
चांद आता है/
झरोखा बंद करो/
फुसलाता है
सुधा गुप्ता के संसार में प्रेम और प्रकृति एक दूसरे में समाए हुए हैं. यहां नीरद झुकता है तो ऋतुमती धरती फलवती हो जाती है. शुक्ल अभिसारिका, मदालसा भू से मिलने आती है, पर ज्यों ही
मेघ गरजा/
डरकर बिजुरी/
कस लिपटी
कुकी जो पिकी, शृंखला के अधिकतर हाइकु प्रकृति के मिस मानवी सम्वेदनाओं की सबल अभिव्यक्तियां हैं –
कुकी जो पिकी/
बंद पड़े घर की/
खिड़की खुली
कुकी जो पिकी/
एक हिलोर उठी/
हिचकी बंधी
कुकी जो पिकी/
आंख भरी छलकी/
रोके न रुकी
कुकी जो पिकी/
हूक टीस मरोड़/
बर्छी सी गढी
कुकी जो पिकी/
बरसों की बंदिनी/
मुक्त हो गई
---
मो. ९६२१२२२७७८ देखें, - surendraverma389.blogspot.in .
हाइकू में प्रकृति चित्रण वाकई लाजवाब है,लेख पढ़ने के बाद यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है।धन्यवाद।मनीषा।
जवाब देंहटाएं