हाइकु की विषय-वस्तु हमेशा से ही दार्शनिक अनुभूतियाँ और विचार रहे हैं. दार्शनिक सोच की गंभीरतम बातों को हाइकु ने कम से कम शब्दों में प्रस्तु...
हाइकु की विषय-वस्तु हमेशा से ही दार्शनिक अनुभूतियाँ और विचार रहे हैं. दार्शनिक सोच की गंभीरतम बातों को हाइकु ने कम से कम शब्दों में प्रस्तुत करना अपना लक्ष्य बनाया. जापान में हाइकु रचनाओं के अंतर्गत बौद्ध, ज़ेन, तथा चीनी दर्शन की गूढ़तम अनुभूतियों को स्थान दिया गया. किन्तु धीरे-धीरे हाइकु की विषय-वस्तु में परिवर्तन आया और हाइकु प्रकृति से प्राप्त सूक्ष्म मानवी संवेदनाओं से जुड़ गया. इस दौर में हाइकु मुख्यत: प्राकृतिक सम्वृत्तियों का चित्रण और उनका मानवीकरण हो गया. इसमें प्रकृति के बहाने मानव उच्छवासों, इच्छाओं और यहां तक कि मानवी दुर्बलताओं का चित्रण होने लगा. ऋतुओं से एकाकार होना, उनसे एक आँतरिक सम्बन्ध स्थापित करना और उनमें अपने अस्तित्व को विलीन कर हाइकु रचनाओं का सृजन कवियों का अभीष्ट हो गया. किन्तु समय बदला और वक्त के साथ-साथ हाइकु की विषय-सामग्री में भी परिवर्तन आने लगा. हाइकु जो अभी तक मुख्यत: व्यक्ति के सोच और मार्मिक अनुभूतियों का वाहक था, अधिक ‘सामाजिक’ होने लगा. यह जीवन के यथार्थ से, जनभावनाओं से और व्यक्ति के सामाजिक परिवेश से भी जुड़ने लगा.
जापान में ‘हाइकु’ और ‘सेंर्यु’ (सेनरियु) में एक स्पष्ट भेद किया गया है. जब हाइकु के कलेवर में कवि सामाजिक विडंबनाओं और विरोधाभासों पर छींटाकशी करता है, व्यंग्य कसते हुए उनकी हंसी उड़ाता है, ऐसी रचनाओं को ‘हाइकु’ नाम न देकर जापान में ‘सेंर्यु’ कहा गया है. स्पष्ट ही कथ्य की दृष्टि से ‘हाइकु’ और ‘सेंर्यु’ में एक ऐसा भेद है जो एक ही कलेवर की रचनाओं को दो प्रारूपों में विभाजित करता है. हिन्दी में इस विभाजन को आमतौर पर स्वीकार नहीं किया गया है. सामाजिक सन्दर्भ से युक्त हाइकु कलेवर की हल्की-फुल्की रचनाओं को भी “हाइकु” ही कहा गया है, और यह उचित भी लगता है. केवल कथ्य की दृष्टि से ऐसी रचनाओं का एक वर्ग तो हो सकता है लेकिन उन्हें एक अलग नाम देकर उनकी एक स्वतन्त्र पहचान के लिए जिद करना हिन्दी की उदार वृत्ति को गवारा नहीं. एक व्यापक दृष्टि से यदि देखा जाए तो तथाकथित सेंर्यु हाइकु से अलग नहीं है.
हाइकु रचनाओं की उस संकुचित समझ को जिसके अनुसार हाइकु की विषय-वस्तु केवल दार्शनिक अनुभूतियाँ और प्रकृति की मार्मिक अभिव्यक्ति ही होना चाहिए, आज बहुत तंगख्याली लगती है. आज हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं जिसमे राजनैतिक और सामाजिक परिवेश बहुत महत्वपूर्ण हो गया है और उससे यदि कोई बचना भी चाहे तो बच नहीं सकता. कविता और साहित्य भी कोई अपवाद नहीं है. आखिर कवि भी एक सामाजिक परिवेश में रहता है और अपने आर्थिक-राजनैतिक वातावरण से उसकी एक सतत क्रिया-प्रतिक्रिया संपन्न होती रहती है. ऐसे में यह सोचना कि हाइकुकार कोरी कल्पना के हाथी-दांत मह्ल में बंद होकर सूक्ष्म दार्शनिक सोच या अपनी नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियों को ही परोसेगा, गलत होगा. हिन्दी के हाइकुकार की आँखें खुली हुई हैं और वह अपने सामाजिक परिवेश के प्रति सजग है. अत: यह कोई अचम्भा नहीं कि वह अपने हाइकु काव्य में भी अपने परिवेश की विसंगतियों, विमूल्यों, राजनैतिक पतन और दुमुहेपन तथा सामाजिक-राजनैतिक विषमताओं को लगातार अभिव्यक्ति दे रहा है. ज़ाहिर है, इसका कारण उसकी परिवेश के प्रति संवेदनशीलता है.
भारत एक ऐसा देश है जिसमें आर्थिक और सामाजिक विषमता का बोल-बाला है. कवि का कोमल ह्रदय यहाँ की दरिद्रता और सामाजिक गैर-बराबरी देखकर सहज ही करुणा से भर आता है.यों तो, हिन्दी के आरंभिक हाइकुकारों में से एक, डा. रमेश कुमार त्रिपाठी मूलत: अपने दार्शनिक सोच के लिए जाने जाते हैं लेकिन वे भी देश की आर्थिक विषमता और गरीबी को देखकर विचलित हो जाते हैं
ईंटें उसके सिर पर, नंगे पाँव तपती भू पर
इतनी तकलीफ के बावजूद भी गरीब को भला क्या मिलता है? –
हंसता रहा /
अभावों में अभाव /
रोया गरीब (मुकेश रावल)
गरीब मरा /
जन्म से ही मरा था /
जिया ही कब? (र. च. शर्मा ‘चन्द्र’)
बहुत सी तकलीफें हैं जिनका कारण प्रकृति का विकराल रूप होता है. उन पर हमारा वश नहीं होता. लेकिन जो सामाजिक असमानता, लापरवाही और दुष्टता से उत्पन्न होते हैं वे दु:ख तो मानव निर्मित हैं और कोई वजह नहीं है कि हम उनका निवारण न कर सकें. अधिकतर धर्म के नाम पर होने वाले दंगे प्रायोजित होते हैं और वे न जाने कितने घरों को बरबाद कर देते हैं. एक दु:खिया कहती है, ‘सब कुछ तो/
भस्म किया दंगों ने /
जाऊं कहाँ मैं’ (डा. उर्मिला अग्रवाल). आज सारा समाजिक माहौल दहशत और डर से भरा हुआ है. कहीं आतंकवादियों का डर है, कहीं फिरकापरस्ती का भय है. और तो और आज सामान्य आदमी सुरक्षा देने वाली पुलिस तक से डर रहा है. परिस्थितियों को नियंत्रित करने के बाद भी वास्तविक शान्ति स्थापित नहीं हो पाती. –
चीखती रही हादसे के बाद भी घायल शान्ति (प्रदीप श्रीवास्तव)
स्त्रियों के दु:ख भी कुछ कम नहीं हैं. पुरुष उसपर इतना हावी हो गया है कि नारी न केवल अत्याचार की पात्र बन के रह गई है बल्कि उस अत्याचार में भागीदार भी उसे बना दिया गया है. उसने अपनी स्थिति को मानो स्वीकार ही कर लिया है. वह, जैसा कि डा. सुधा गुप्ता कहती हैं, सोचती है,
लहर पर छोड़ दो अपने को बनेगी नाव
लेकिन परिस्थितियों से समर्पण कर लेना नारी को उसकी कारा से मुक्त नहीं करा सकता. उसे यदि कोई भी उसका साथ न दे तो अकेले ही आगे बढ़ना होगा. सुधाजी आश्वस्त हैं-
आगे जो बढे वे अकेले ही चले गए न छले
अपने आसपास के राजनैतिक और सामाजिक विरोधाभासों को और राज-नेताओं की कारगुजारियों देखकर कवि के मन में इतना क्रोध आता है की वह उनपर व्यंग्य और कटाक्ष करने से भी बाज़ नहीं आता –
दु:शासन में/
चीनी हड़पे आदमी /
डकार न ले (भगवानदास एजाज़) पेड़ तो यहाँ /
कतारबद्ध खड़े हैं /
छाँव है कहाँ (डा. गोपाल बाबू शर्मा) राजनीति में /
सोलह दूनी आठ /
कुर्सी का पाठ (सूरज सिंह सरल)
हिन्दी हाइकू में सामाजिक और राजनैतिक विषमतओं पर ऐसे कटाक्षों की भरमार है. ये कटाक्ष मार भी करते हैं, और जैसी कि कहावत है, रोने भी नहीं देते –
नेता की बात अच्छे सलीखे भीड़ तंत्र में गूलर के फूल सी संसद के छिलके सोचो समझो नहीं अता न पता मूंगफली के बजाओ ताली
(बालकृष्ण धोलाम्बिया) (डा. ॐ प्रकाश शर्मा) (डा. रामप्रसाद मिश्र)
सारे के सारे सामाजिक मूल्य धरे के धरे रह गए हैं. आज आदमी को केवल एक ही चीज़ मूल्य – वान लगती है और वह है, पैसा. डा. उर्मिला अग्रवाल अपने नव प्रकाशित संग्रह ’भोर आसपास है’ में कहती हैं ‘लुभाते जब/
खनखनाते सिक्के/
छूटता धर्म’ . सुधीर कुशवाह आश्चर्य करते हैं, “यह कैसे हुआ /
आदमी से भी बड़े/
हो गए पैसे?” आर्थिक भ्रष्टाचार का यह हाल है कि प्राकृतिक विपदा के समय भी लोग पीड़ितों की मदद का पैसा खाने से परहेज़ नहीं करते.
आ गई बाड़ खुल गया विभाग बहा पैसा (राजेन्द्र पांडे)
पूरा का पूरा जनतंत्र तो भीड़ तंत्र में परिवर्तित हो ही गया है सामाजिक रिश्ते भी तहस नहस हो गए हैं. आदमी भीड़ में अपने को अकेला पाता है. संवाद अनुपस्थित है. आपसी सम्बन्ध भी अब केवल आर्थिक रह गए हैं. अशोक आनन कहते हैं, ‘खूँटी लटके/
संबंध परिधान/
घर बाज़ार”. उर्मिला जी भी यही तो कह रही हैं –
स्वार्थ ही स्वार्थ रिश्तों की दुनिया में जुड़ाव नहीं
किन्तु इन भयावह परिस्थितियों में भी उम्मीद की किरण अभी बाकी है. कवि अच्छी तरह जानता है ‘हर अंधेरा /
पालता है गर्भ में /
प्रकाश रेख.’ (श्रीगोपाल जैन), और यह प्रकाश रेख केवल युवा प्रयत्न में ही देखी जा सकती है.
तू जवान है भागीरथ भी है तू चल ला गंगा
--
-(डा.सुरेन्द्र वर्मा)
१०, एच आई जी /
१, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद
(मो) ०९६२१२२२७७८ ई मेल surendraverma389@gmail.com
Blog – www.dr-surendra-verma .blogspot.com
COMMENTS