उसका आईने में खुद को निहारना और मेरा चोरी चोरी उसे निहारना प्रतिदिन की बात थी। उसके मन में मेरे प्रति क्या विचार थे, मैं कभी नहीं समझ सका। ...
उसका आईने में खुद को निहारना और मेरा चोरी चोरी उसे निहारना प्रतिदिन की बात थी। उसके मन में मेरे प्रति क्या विचार थे, मैं कभी नहीं समझ सका। शायद मुझे वह कुछ भी नहीं समझती थी, इग्नोर करती थी वह मुझे।
मेरा होना ना होना उसके लिए बराबर था। उसके लिए मेरी हैसियत उस कमरे में टंगे कैलेंडर, टेबल, आधे खाली पाउडर के डब्बे या वैसलीन की भरी हुई शीशी आदी से अधिक नहीं थी।
नाम क्या था उसका, मालूम नहीं मुझे। मैं उसे चुनमुन कहा करता था। उन दिनों चुनमुन का नियमित मेरे कमरे से आना जाना होता था। खिड़की के पास बड़े से आईने में स्वयं को निहारना उसकी दिनचर्या थी।
उसका आना दिन में दस बजे के आस पास होता था। उस समय घर पर मेरे और माँ के अलावा कोई नहीं होता था। बाबूजी दफ्तर चले जाते थे, छोटे भाई बहन स्कूल चले जाते थे, माँ हमेशा की तरह भोजन बनाने, घर संभालने में व्यस्त। लगता है अनंत काल से माँ सबकी देखभाल कर रही है, ईश्वर माँ को यह काम सौंपकर खुद छुट्टी पर बैठ गए है।
मैं बीए का छात्र था। हमारे कॉलेज में चालीस चालीस साल के वरिष्ठ छात्र पढ़ते थे। जिनका काम कॉलेज बंद, धरना प्रदर्शन, हरिजन, आदिवासी, दलित, अगड़ों पिछड़ों की लड़ाई, लड़कियों से दोस्ती गाँठना, शहर में गुंडागर्दी करना आदि होता था। लगभग हर दूसरे दिन पठनपाठन गतिविधियां ठप्प रहती थी। मण्डल आयोग का भूत उस काल में ही जन्मा था।
मैं पढ़ाई और लड़ाई दोनों में ही फिसड्डी था। कॉलेज न जाकर घर पर ही रहकर रेल्वे की तैयारी करता रहता। मोबाइल, कम्प्यूटर आदि का जमाना नहीं था।
वह पहली बार मेरे कमरे कब आई थी, मुझे याद नहीं है। एक छोटी सी गौरैया थी चुनमुन। एकदम छोटी सी, एक मुट्ठी में समा जाने लायक थी। अभी अभी ही तरूण हुई थी शायद। अपनी आंखों में सारा संसार रखती थी। वह धीरे से आती, खिड़की पर बैठ जाती, कमरे को निहारकर उड़ जाती।
एक दिन, सारी वर्जनायें, मर्यादायें, तोड़ते हुए, प्राणों की, आत्मसम्मान की परवाह न करते हुए वह कमरे में, मेरे संसार में घुस आई, कुछ समय व्यतीत कर लौट गई। तब पहली बार किताब से सिर निकालकर देखा था उसे।
धीरे-धीरे वह रोज़ आने लगी थी। दो क्षण में वह सारे कमरे का मुआयना कर लेती और फिर फुर्र से एक छोटी छलांग लगाती और आईने के सामने, पाउडर के डिब्बे पर बैठ जाती। आईने के अंदर बैठी गौरैया से आंखें मिलाती। शायद दोस्ती करना चाहती थी चुनमुन उससे।
पाउडर के डिब्बों के छिद्रों में नाखून फसा कर संयत होने बाद दोनों गौरैया का वार्तालाप शुरू होता।
चुनमुन पहले शांति से उसे बुलाती :- " चु... चु.... "
आईने के अंदर बैठी गौरैया उसी अंदाज़ में कहती :- " चु... चु...."
चुनमुन अपनी बात का दोहराये जाने से चिढ जाती, गौरैया को प्यार से समझाते हुए चेतावनी देती:- " चु..... चु.... चु..... चु..... "
आईने वाली गौरैया उसी तेवर में उत्तर देती:-" चु..... चु.... चु..... चु..... "
दो तीन बार यह दुहराया जाता। दोनों ओर गुस्सा, नाराजगी, शिकायतें आदी समान रूप से बढ़ती जाती।
चुनमुन पूरे ज़ोर से ची...ची... चिही... चीही ...चूहु ...चूहु .ची.....ची..... कर अंतिम चेतावनी जारी करती, पर दुश्मन की ओर से भी से भी ऐसी ही चेतावनी आती। हालात, बहुत बिगड़ जाते। संधि और शांति की सभी संभावनायें समाप्त और युद्ध अवश्यंभावी होता जा रहा था।
चुनमुन युद्ध की रणनीति बनाती। उसकी रणनीति हमेशा तेजी से उड़कर ऊपर जाने और दुगने तेजी से नीचे आते हुए शत्रु को बचने का मौका न देते हुए हमला करने की होती।
अंतिम एक बार पूरे पंख फैलाकर शत्रु को अपना रौद्ररूप दिखाया जाता। यह शांति स्थापना का अंतिम प्रयास होता। परंतु दूसरी ओर से भी यही रूप दिखाया जाता है । कोई किसी से कम नहीं है। शांति के सारे प्रयास विफल, अंतिम विकल्प युद्ध ही बचता था।
चुनमुन पाउडर के डब्बे से कूद कर विक्स की शीशी पर बैठ जाती। उस पर पंजों को जमाने में आसानी होती थी और कम ऊंचाई के कारण अधिक तेज और विस्फोटक उड़ान भरी जा सकती थे ...
अपनी रणनीति अनुसार चुनमुन तेजी से उड़ान भरकर ऊपर पहुंची... मगर यह क्या शत्रु गौरैया भी पूरी तरह तैयार थी। गौरैया भी चुनमुन की तरह उड़ान भरते हुए उसे बराबर की टक्कर देती, आँख से आँख, चोंच से चोंच मिलाते हुए सीमा पर ही रोक देती। दोनों अपनी अपनी सीमाओं पर ठहरे हुए नीचे की ओर फिसलते जाते है। पंख फड़फड़ा कर संतुलन बनाते हुए दोनों अपनी अपनी वैसलीन की शीशी पर बैठ जाती। पहला हमला बेकार गया। कोई बात नहीं फिर हमला होता है ।
युद्ध का कोई नतीजा न निकलते देख चुनमुन अंत में शान्ति का फैसला करती है। अपने हथियार दुरुस्त कर, दुश्मन से बाद में निपटा जाए, यही सोचते सोचते नेत्रों से शांति प्रस्ताव गौरैया को भेजा जाता।
चुनमुन अपनी आंखें बड़ी बड़ी कर उसे पुनः डराने का प्रयास करती, चोंच को टेढ़ा मेढ़ा दाये बाए घूमा कर समझाती। दोनों में कुछ कूटनीतिक वार्ता होती। चुनमुन फुर्र से खिड़की से बाहर चली जाती। दोपहर बारह बजे के लगभग फिर लौटती। शांति, मित्रता, प्रेम, युद्ध आदी प्रकरण एक बार पुनः होते है।
मां तब तक कमरे का एक चक्कर लगाती सब कुछ दुरुस्त करती। खिड़की बंद करती और खेल खतम हो जाता। अगले दिन फिर यही प्रक्रिया और प्रतिक्रिया होती ।
मुझे वह बहुत अच्छी लगने लगी थी। मैं उसकी प्रतीक्षा में रहता था। उसका साथ अनायास ही मुझे अपने बचपन में खींच ले जाता था।
बचपन गाँव में बीता था। वहाँ गौरैया को हम बहुत नजदीक से देखते थे। गौरय्या पालतू पक्षी नहीं है। अपने में मस्त, स्वतंत्र विचार, स्वाभिमान से भरी, मोह माया से विरत। दाना चुगना और फुर्र फुर्र उड़ना, चे चे ची ची करना ही उनका काम होता था।
कभी-कभी शैतानी-वश, हम खाँची(लकड़ी के बनी टोकरी) को डंडी का सहारा देकर एक ओर से उठा देते थे। डंडी में डोरी बंधी होती थी। खाँची के नीचे चावल के कुछ दाने दाल कर कुछ दूरी पर डोरी को पकड़ कर बैठ जाते। जैसे ही कुछ गौरैय्या खाँची के नीचे दाना चुगने आती, हम झट्ट से डोरी खींच देते। लकड़ी हट जाती और खाँची ढप्प से गिर जाति, एक या दो गौरैया उसके नीचे फंस जाती। शेष ची ची का शोर मचाती दूसरी गौरैया को आगाह करती उड़ जाती। उनके शोर का नतीजा होता की दो चार दिन तक कोई गौरैया हमारे जाल में नहीं फंसती।
जो गौरैया बेचारी फंसती उसे हम खाँची के नीचे हाथ डालकर पकड़ लेते। उसकी आंखो में पहले झाँकते। मौन रहकर उसपर हाथ फेरकर सांत्वना देते की कुछ नहीं होगा तुझे। वह ची ची कर मौन हो जाती परंतु आंखों में वेदना, नाराजगी, नफरत के सारे भाव होते।
उस गौरय्या को लाल, पीला, या आलता गुलाबी से रंग दिया जाता। जब हमारी रंगीन गौरैया उड़ते हुए झुंड में दिखती तो सबको बताया जाता "वो वाली गौरैया हमारी है"। वो आज़ाद गौरय्या इन सबसे निःस्पृह उड़ान जारी रखती। रंगी हुई गौरय्या फिर जाल में दोबारा नहीं फंसती।
चुनमुन से नजदीकी महसूस करने लगा था। उसे भी मेरी उपस्थिति की आदत पड़ गयी थी, मेरी गंध, शारीरिक क्रियाओं को अहानिकर समझ नजरंदाज कर देती थी। अब उसे मेरे हिलने डुलने से दिक्कत नहीं होती थी। मैं कई बार आईने के पास जाकर खड़ा हो जाता दोनों गौरैया को निहारता, परंतु चुनमुन का सारा ध्यान आईने वाली गौरय्या पर ही केन्द्रित रहता ।
एक दिन मुझे शैतानी सूझी मैंने टेबल को हटा दिया। उसके आने का समय हुआ, मैं जाकर आईने के पास खड़ा हो गया। चुनमुन अंदर आई, कमरे में परिवर्तन देख खिड़की से बाहर लौट गई। थोड़ी देर बाद फिर लौटी इस बार वह अधिक समय तक कमरे में रुकी। तीसरी बार फिर आई और इस बार मेरे कंधे पर बैठ गई। मुझसे कोई मतलब न रखते हुए चुनमुन और गौरय्या का वार्तालाप शुरू हो जाता।
धीरे-धीरे वह मेरे कंधे, हाथों और सिर पर बैठने लगी। जब वह मेरे ऊपर बैठती तो मैं उसको 'चुनमुन' 'चुनमुन' बुलाता रहता उसे उसका नाम याद कराना चाहता था।
एक दिन मैंने उसे हाथों से पकड़ लिया। चुनमुन के आंखों में भी वही भाव थे जो बचपन में पकड़ी गौरय्या की आंखों में हुआ करते थे। मैंने उसे सुर्ख लाल रंग से रंग दिया। पशु पक्षियों को केवल सफ़ेद और काला रंग ही दिखता है इसलिए इन्हें रंगो से कोई फर्क नहीं पड़ता। आसानी से अपने झुंड में घुले मिले रहते हैं।
चुनमुन लाल हो गई थी। मेरा काम हो गया था, मैंने उसे छोड़ दिया । चुनमुन फुर्र से उड़ गई। अब मैं चुनमुन को बाहर मिलने पर भी पहचान सकता था बचपन की तरह और उसपर अपना होने हक़ जाता कर सबको चकित कर सकता था।
मुझे कभी कभी चुनमुन का झुंड दिख जाता था । मैं चुनमुन को आवाज देता 'चुनमुन' ' चुनमुन' और चुनमुन मेरे पास आ जाती, मेरे आस पास फुदकती, चहचहाती, लेकिन एक निश्चित दूरी बनाकर रखती फिर उड़ जाती। घर से बाहर वह मेरे ऊपर या मेरे हाथों पर आकर नहीं बैठती। यह सिलसिला चुपचाप ऐसे ही चलता रहा। दुनिया को हमारे संबंधों की कानोंकान खबर नहीं हुई।
मेरा चयन रेल्वे में हो गया। महानगर में पोस्टिंग मिली। नए स्थान पर भोजन और रहने की व्यस्व्था पूरी होते ही फिर चुनमुन याद आई। मैं पहली ही फुर्सत में बाज़ार गया एक बड़ा से आईना खरीदा और खिड़की के पास रख दिया।
मैं फिर किसी गौरय्या को अपने प्रेमजाल में फसाना चाहता था। किसी गौरय्या को अपने रंग में रंगकर चुनमुन बनाना चाहता था ।
दो महीने हो गए कोई गौरय्या नहीं आई।
मैं स्वयं शहर में गौरय्या ढूंढ्ने निकल पड़ा। सारा शहर रंग बिरंगे कपड़ों से अटा पड़ा था, कही कोई गौरय्या नहीं थी।
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18-4-2016 सतीश कुमार त्रिपाठी,
अनुभाग अधिकारी, केंद्रीय विद्यालय कोचीन
(मोबाइल संख्या 9868388838 एवं 08111971178)
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