कहानी संग्रह - अपने ही घर में / विरोधाभास रीटा शहाणी ‘सुबह से खूँ-खूँ लगा रखी है ! मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि रात को गर्म दूध में आ...
कहानी संग्रह - अपने ही घर में /
विरोधाभास
रीटा शहाणी
‘सुबह से खूँ-खूँ लगा रखी है ! मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि रात को गर्म दूध में आधा चम्मच हल्दी डालकर पी लिया करो। उससे खांसी से आराम मिलता है। रात को सोने के पहले क्या तुमने ऐसा किया ?’
‘नहीं’
‘क्यों ?’
‘बस नहीं किया।’
‘यह भी कोई जवाब हुआ।’
‘बस मैं ऐसी ही हूँ। इन टोटकों में कतई विश्वास नहीं रखती। तंग आ गई हूँ।’
‘इस में तंग आने की क्या बात है ? आखिर तो तुम्हारे ही भले की बात कर रहा हूँ।’
‘हाँ, हाँ, मुझे पता है। सभी को मेरे भले की फ़िक्र है।’
अक्सर ऐसी गुफ़्तगू हम दोनों पति-पत्नी के बीच होती रहती थी। वह भी मेरे इस तरह के जवाबों के आदी हो गए थे और छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाकर कभी मुझे यह अहसास नहीं दिलाया कि उन्हें बुरा लगा है और फिर दूसरे दिन कोई नया सुझाव दिये बिना नहीं रहते।
वाकई मैं तंग आ गई थी। कितना सुनती रहूँगी सबका। छुटपन से लेकर आज तक, जिसको देखो बिन माँगे सलाह दिये जाता है। पहले मैं उनकी बात सुनती थी मगर अब सुनते-सुनते ऊब चुकी हूँ।
कोई कहता - ‘सुबह उठकर पहले-पहले तुलसी के चार पत्ते खाओ।’
कोई कहता - ‘काली मिर्च और लवंग उबालकर वह पानी पियो।’
‘ठंडे पानी से परहेज करो। थरमास में गरम पानी भरकर रखो और वही पिया करो।’
‘दही मत खाओ।’
‘फल खाने छोड़ दो।’
‘दूध पीना तुम्हारे लिये हानिकारक है।’
कोई और कहता - ‘दूध पीना ज़रूरी है।’
‘छाती को गर्म सेक किया करो।’
‘पाँच छीले हुए बादाम नाश्ते के पहले खाया करो।’
‘ब्रांडी और शहद गर्म पानी में मिलाकर पियो।’
‘मीठी काठी, सौंफ, मिसरी, किशमिश का काढ़ा बनाकर पीलो।’
‘छाती और गले पर कूटी हुई अजवाइन का लेप लगाओ।’
‘बाईं कलाई में ताम्बे का कड़ा पहनो।’
‘साँसों की वर्जिश यानि प्राणायाम किया करो।’
असल में सिर्फ़ टोटके ही टोटके ! उनका कोई अंत ही नहीं, किसकी सुनूं, किसकी न सुनूं ?
बचपन से ही कुदरत की तरफ़ से नाज़ुक सेहत तोहफे के रूप में मिली थी। सांस लेने की तकलीफ बेहाल करती थी। जाड़े में ठंड का असर होता था, गर्मी में लू अपनी तासीर दिखाती। पतझड़ और बहार में एलर्जी का शिकार हो जाती। जुकाम ऐसा हुआ करता कि नाक से या तो पानी बहता या तो नाक बिलकुल बंद। उस छोटी उम्र से ही अम्मी ने मेरी सेहत को लेकर काफ़ी पापड़ बेले थे। कभी होमियोपैथ डाक्टर के पास ले जाती, कभी वैद्य या हकीम के पास, जो जड़ी बूटियों का कड़वा-कड़वा चूरन खाने को देती।
एक बार अख़बार में नुस्खा आया ‘दम के मरीज़ों के लिये - दक्षिण भारत के एक वैद्य ने ऐलान किया था कि पूरणमासी की रात, दूध का एक कटोरा चाँदिनी रात में टेरेस पर रख देने से कुछ उपयोगी व लाभदायक गुण दूध में शामिल हो जाते हैं। उसे पीना और साथ में एक छोटी साबित कच्ची मछली निगलनी है, ऐसा करने से एलर्जी वाली दमे की बीमारी से ज़िन्दगी भर के लिये छुटकारा मिल जाता है। इसके साथ कुछ परहेज के नियमों का भी पालन करना है। मेरी अम्मी ये सब प्रयास करने के लिये तैयार हो गई मगर मैंने कच्ची मछली निगलने से साफ़ इनकार कर दिया।
परिवार का एक मित्र, हमारा खैरख़्वाह था। मुझे एक ऐसे हकीम के पास ले गया, जिसके पास मेरी बीमारी का निश्चित इलाज था और उस इलाज का बेशुमार लोगों ने लाभ लिया था। उसने भी खूब परहेज़ करवाई, यह खाना है, वह नहीं खाना है। (खास करके सब लजीज चीज़े चखने पर पाबंदी !) खाने से पहले पानी नहीं पीना है, खाने के बाद एक घंटा पानी पीने पर बंदिश !
दोपहर को खाने के बाद सोना तो दूर, लेटना भी नहीं है। यह करना है, यह नहीं करना है वगैरह, वगैरह। एक कीमती दवा का नाम देते हुए उसे खरीदने की हिदायत दी। यह दवा पीने से वाकई मुझे लाभ हुआ। मेरी तकलीफ कम होने लगी, फूलों से सुगंध आने लगी, हवा ताजी लगने लगी, चाँद और तारों का सौंदर्य बढ़ गया। ज़िन्दगी हसीन हो गई। वाह, वाह, क्या तो हकीम है!
अचानक एक दिन अख़बार में खबर आई कि अमूमन एक आयुर्वेदिक दवा में कार्टीसोन का पैमाना ज़्यादा था। कार्टीजन एक ऐसी खतरनाक ऐलोपथी दवा है जो किन बहुत ज़रूरी हालात में सलाह के तहत खबरदारी से दी जाती है। यह मर्ज़ को किसी हद तक दूर करती है पर अनेक विपरीत नतीजों के साथ। लेने वालों का वजन बढ़ने लगता है। पैमाने ये ज़्यादा भूख लगती है, हड्डियाँ कमज़ोर और भरभुरी-सी हो जाती है। वही आगे चलकर समस्त शरीर को निकम्मा कर देती है।
ज़ाहिर है कि ऐसे तजुर्बे मिलने के बाद, मेरा विश्वास सभी शुभचिंतको से उठ गया। पता नहीं लोगों को औरो को सलाह देने में इतना मज़ा क्यों आता है ? सलाह देते वक़्त शायद उनके अहम को सुकून मिलता है, और वो खुद को ज़्यादा होशियार और अक्लमंद समझने लगते हैं। मैं भी तो लगातार कितने साल तक एक छोटे बालक की तरह इनकी सलाहों पर अमल करती आ रही हूँ, पर अब हद हो चुकी है, अब मैं उनकी सलाहों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती हूँ, क्या मैं उनकी सलाहों पर अमल करने के लिये बंधी हुई हूँ ? छोड़ो उन्हें हवा खाने दो !
मगर मैं अपने पतिदेव का क्या करूँ ? वह औरों के सुझाव और सलाहें मुझे आकर बताते थे - हद हो गई ! आखिर मुझे अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जीने का अधिकार है या नहीं ? क्यों सुनूँ और अमल करूँ हर एक के बताये नुख़्सों पर - न फकत अनजान और आम आदमियों ने मुझे गुमराह करने की कोशिश की है, पर डाक्टरों ने भी न जाने कितने उल्टे-सीधे तजरुबे मेरे जिस्म के साथ करके उसे नुकसान पहुँचाया है। एक तजुर्बे से तो मेरे दिल ने कुछ समय के लिये काम करना बंद कर दिया और मैं कार्डियक अरेस्ट की शिकार हो गई। ये तो वक़्त पर डाक्टरों ने आर्टिफिशियल रेस्पिरेशन से मुझे दुबारा जीवित किया।
मेरा पति तो जैसे सेहत का मसीहा था, उसे पता ही नहीं था कि बीमारी किस बला का नाम है और दर्द क्या होता है ? उसके जिस्म के सबके सब पुर्जे सलामत थे। न ब्लड प्रेशर, न डाइबिटीज, न बुखार, न खाँसी, न आरथ्राइट्सि, न और कुछ। दिनभर के काम के पश्चात् उसे रात को ऐसी गहरी नींद आ जाती, जो सुबह जाकर खुलती और मैं रातभर करवटें बदलते अपनी किसी न किसी जिस्मानी तकलीफ की वजह से जागरण करती।
एक दिन अजीबो-ग़रीब दानों की माला ले आया और मुझसे कहने लगा - ‘ये लो अपने गले में डाल लो, तुम्हारे फेफड़ों को ताकत मिलेगी।’
‘पर यह क्या है ?’
‘यह चुंबकीय हार है, असली जादू का हार। पहनकर तो देखो, दो दिन में राहत मिल जाएगी।’
मैंने भी उसकी बात मान ली। कब तक हर बात के लिए इनकार करती रहूँगी और ‘ना, ना’ कहती रहूँगी ?
दो दिन के बाद मेरा माथा गरम होने लगा। मैं हर छोटी-छोटी बात पर खफा होने लगी, स्वभाव चिड़चिड़ा-सा हो गया। मुझे कुछ शक हुआ। अपने डाक्टर के पास ब्लड प्रेशर चेक करवाया। मेरा शक सही निकला। ब्लड प्रेशर हद से ज़्यादा बढ़ गया था। मैंने गले से हार उतार फेंका और दो-तीन दिन में ठीक हो गई।
मगर मेरे पति महोदय न जाने किस नीम तबीब की बातों में आ गए। हर वक़्त मैग्नेटिक थेरापी के बारे में बात करने लगे। न जाने कौन उसे बाज़ार में आई मैग्नेटिक चीज़ें दिखाकर उनको सेहत संबंधी फ़ायदों की पट्टी पढ़ाने लगा। ये भी उनसे हार, कंगन, माथे पर बाँधने वाले पट्टे, पानी में डालने वाले चुंबकीय टुकड़े खरीदने लगे। अपने रिश्तेदारों और दोस्तों में मुफ्त बाँटने लगे। एक तरह से यह उनके लिये समाज सुधार का एक सेवा कार्य हो गया। मैं दूर से सब देखती रही। न उसकी हिम्मत बढ़ाई और न ही उनको ऐसा करने से रोका। काश मैं कुछ करती! काश मैं उसे उनके इस्तेमाल के विपरीत दर्दनाक और खतरनाक अंजाम से बचा पाती! पर क्या चाहते हुए भी मैं ऐसा कुछ कर पाती ? क्या वो मेरी बात सुनते ? मुझे क्या, किसी को और भी ऐसा कुछ होगा, इस बात की कोई संभावना नहीं दिखी। किसी ने सोचा तक नहीं कि ऐसा हो सकता है और ऐसा होगा।
मानती हूँ कि मैग्नेटिक थेरापी से फायदे हो सकते हैं, पर शर्त है कि उसे सही जानकारी के तहत किया जाए। चुम्बक के दो मुँह होते है - एक उत्तर पोल और दूसरा दक्षिण पोल। अगर दोनों समान पोल एक दूसरे के सामने होंगे तो जबरदस्त ताकत से एक दूसरे को खीचेंगे। इसलिये उन्हें अलग-अलग दिशाओं में रखा जाता है। यह एक विज्ञान है और इस्तेमाल के पहले इसकी पूर्ण जानकारी का मालूम होना ज़रूरी है।
मेरे हमसफ़र, मेरे जीवनसाथी ने एक खतरनाक जानलेवा गलती कर दी। ऐसी गलती जिसने एक सेहतमंद, कर्मठ, उपयोगी, कारगर जीवन को बेवक़्त अंत प्रदान किया, जिसने उसके बच्चों के सर से बाप का साया छीन लिया और सुहागन शरीके-हयात को विधवा बना दिया।
वह बिलकुल तंदुरुस्त था। दिन के पंद्रह घंटे काम में व्यतीत किये। रात को खाना खाया, ग्यारह बजे तक टी.वी देखी थी। मुझे नींद न आने की हालत में आधी रात को उठकर मेरे मुँह में होमियोपैथी ‘कालीफास’ की गोलियाँ डाली और सुबह साढ़े सात बजे जब मैं चाय पीने के लिये उसे उठाने की कोशिश की तो वह था ही नहीं।
सुबह के तीन और पाँच के बीच में, बिना कुछ कहे, बिना किसी आवाज़ के, बिना किसी कराहने और किसी शोर के, उसके तन से प्राण-पंछी परवाज़ कर गया। मैं उससे दो फुट की दूरी पर, नींद में निमग्न थी। उसने मुझे छूकर जताया भी नहीं, न बताया, न अलविदा की ! ऐसे कैसे हो गया ?
सेहत का मसीहा, हमारी ताकत का स्तंभ, शेर मर्द कैसे ज़िन्दगी से पछाड़ खाकर सो गया, एक शाश्वत नींद !
मेरी जीवन नैया को तूफानों के बीच तनहा जूझने के लिए छोड़ गया!
मैं नाजुक तबीयत वाली, इतनी बीमारियों से घिरी, उसकी फ़िक्र का सबब, अभी जिन्दा हूँ, कौन से मनोबल के एवज मैं ये सब सह पाई ?
यह ज़िन्दगी का कौन-सा विरोधाभास है ?
चंद घंटे तो मैं कुछ भी सोचने में नाकाबिल रही, पर फिर मेरा दिमाग चल पड़ा। मैंने उनकी एक दिन पहले पहनी हुई कमीज जाँची। उसकी जेब में चुम्बक का एक टुकड़ा देखा। वह जेब उनकी बाईं तरफ़ का था, बिलकुल दिल के पास। खोज करने से पता चला कि चार-पाँच दिन से (या शायद उससे भी ज़्यादा) उसने वह सिक्के जैसा चुम्बक जेब में यानि दिल के पास रखा हुआ था। उसके सिवा दुकान की मेज पर चारों तरफ़ चुम्बक के हार, चूड़ियाँ, कलाई बंध, दाने, सर पर बाँधने वाले पट्टे, न जाने क्या-क्या रखा था। वह दिन के कई घंटे इस चुम्बकीय वातावरण में बैठा रहता था। इस बात से अनभिज्ञ कि यह सिलसिला सेहत के लिये खतरे की हदों को छूता हुआ हानिकारक हो सकता है।
मेरे मन की व्याकुलता बढ़ने लगी, नींद हराम हो गई। तीसरे दिन तक खामोश रही, उसके दूसरे दिन उस चुम्बकीय ट्रस्ट चलाने वाले एन.आर.आइ. समाज सुधारक को पैगाम भेजकर अपने यहाँ बुलाया। यह दानवीर मुफ्त में यह दवाखाना चलाता है और समाज में सेहत सुधार की दिशा में खर्च भी खूब करता है। हर हफ़्ते रोज़ के अंग्रेजी लोकल अख़बार में उनके इश्तिहार आते रहते हैं।
उनके सामने हक़ीक़त रखते हुए मैंने सवाल किया - ‘कमीज के बायीं तरफ़ जेब में चुम्बक रखने से ऐसा अंजाम होने की संभावना है क्या ?
थोड़ा सोचकर उसने जवाब दिया - ‘हाँ, यह मुमकिन है। अगर चुम्बक के इस्तेमाल से फायदे हो सकते हैं तो गलत इस्तेमाल से हानिकारक प्रभाव भी पड़ सकते हैं। इनको बहुत सोच समझकर इस्तेमाल करना पड़ता है।’
‘चुम्बक देते समय, बाँटते वक़्त, क्या आप उसे इस्तेमाल करने वालों को आगाह करते हैं ?’
वह खामोश हो गया, कुछ कह न पाया, सिर्फ़ ‘ना’ में सर हिलाता रहा। मुझे अपना जवाब मिल गया। कुछ देर के बाद में उसने यह बात भी स्वीकारी - ‘कभी किसी वक़्त आधी रात को भी मेरे पास फोन आते हैं ऐसे ही चुम्बक के हानिपूर्ण प्रभाव को लेकर। मैं उन्हें सलाह देता हूँ कि नंगे पांव फर्श पर अपने पैर रखें या खड़े हो जाएँ, धरती पर खड़े होने से चुम्बक का बुरा असर दूर हो जाता है। प्रवास में बहुत लोगों के कमरों में गलीचे होते हैं, ऐसे लोगों के बाथरूम में जाकर खड़े होने की सलाह देता हूँ।‘
मैं हैरत से घिरी सोचती रही. ‘इतनी जानकारी होते हुए भी आम लोगों को चुम्बक बाँटते समय समूची जानकारी से वंचित रखते हो, उन्हें हिदायत भी नहीं देते?’
पर मेरे जीवनसाथी को यह सब कुछ करने का वक़्त कहाँ मिला होगा ? उस समय मुझे उनसे बात करके, उसे बढ़ाना मुनासिब न लगा। मैं इस हक़ीक़त की ओर भी सचेत थी कि ऐसे नतीजे का कारण खुद मेरे पतिदेव की बेपरवाही थी। इसके सिवा किसी को भी इस सिलसिले में दोषी करार करना या साबित करना मुमकिन न था क्योंकि अंतिम संस्कार हो चुका था।
पर मेरा दिल बेहद विचलित था। नूरजहाँ के पुराने राग की ये पंक्तियाँ बार-बार कानों में ध्वनित हो रही थीं :
इस कफस की कैद में, गुल मचाना है मना
बुलबुलो मत रो यहाँ, आँसू बहाना है मना
छोड़कर तूफान में, मल्लाह कहकर चल बसा
डूब जा मँझधार में, साहिल पे आना है मना !
चंद महीने के पश्चात् मैंने अपने हार्ट स्पेशलिस्ट को समूची बात बताई और वही सवाल दोहराया कि - ‘क्या चुम्बक के गलत इस्तेमाल दिल की धड़कन के रुक जाने का कारण हो सकता है ?’
डाक्टर ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा - ‘यह मुमकिन है। याद रहे कि चुम्बक में दो जबरदस्त शक्तियाँ समाई हुई हैं - पाज़िटिव एवं नेगेटिव।’
मैंने डाक्टर को अंग्रेजी डेली के लिये अपना ड्राफ्ट किया हुआ लेख दिखाया, जो उन्होंने ध्यान से पढ़कर उसे छपवाने की स्वीकृति दी, यह कहते हुए कि - ‘ऐसी बात अख़बार में ज़रूर आनी चाहिए। मैंने उस लेख में पाठकों को चुम्बक के विकट परिणामों से आगाह किया था और प्रतिक्रिया में छपने के बाद कुछ शामिल - राय पाठकों के फोन आए, कुछ खत भी हासिल हुए, कुछ और विस्तारपूर्ण जानकारी के लिए।
ऐसे अजीब किस्से जीवन में तहलका मचाकर डावांडोल कर देते हैं। अपने पुष्ट सहारे के बिना अपनी तबीयत पर सावधानी की चादर ओढ़कर जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए मैं मजबूर हूँ। जिस्मानी तकलीफ की तो मैं शुरू से ही आदी रही हूँ।
मगर फिर भी, अपनी उस दिल का क्या करूँ, जो पल-पल पुकारती है -
क्यों हुआ जो कुछ हुआ, क्या उसमें कोई राज़ था
चल दिया दस्तक दिए बिन, सुनती मैं आवाज़ क्या ?
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