डा.महेद्र भटनागर/ Poems : For Human Dignity /कवितायेँ :मानव गरिमा के लिए [progressive poems]२०१३ रचना और रचनाकार (३०)डा, महेंद्र भटनागर मान...
डा.महेद्र भटनागर/ Poems : For Human Dignity /कवितायेँ :मानव गरिमा के लिए [progressive poems]२०१३
रचना और रचनाकार (३०)डा, महेंद्र भटनागर
मानव गरिमा के लिए
डा. सुरेन्द्र वर्मा
डा. महेंद्र भटनागर उन गिने-चुने वरिष्ठ कवियों में से एक हैं जिन्होंने कविता लिखना उस समय शुरू किया था जब ऐसा समझा जा रहा था कि वाम-पंथी विचार-धारा ही एक मात्र विकल्प है जो सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं का समाधान कर सकती है | तब से अबतक गंगा-जमुना में बहुत पानी बह चुका है लेकिन डा. भटनागर आज भी अपने विश्वासों पर अडिग हैं | मैं नहीं जानता कि उन्होंने अपना मज़दूरों का गीत –‘मिल कर कदम बाढाएं हम’- कब लिखा, लेकिन वह गीत १९१३ में प्रकाशित “मानव गरिमा के लिए” उनके कविता-संग्रह में स्थान पा गया है, इस बात का सबूत है की वे वाम विचार-धारा से अभी तक मुक्त नहीं हुए हैं वैसे भी मुख पृष्ठ पर शीर्षक के नीचे कोष्टक में {Progressive Poems} लिखकर उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है | पर इसी संग्रह की पहली कविता “श्रेयस” से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें अब भारतीय दर्शन भी, जिसका आधार प्रेम, लोकसंग्रह, और सर्वोदय है, शायद कुछ-कुछ रास आने लगा है—
सृष्टि में वरेण्य /
एक मात्र /
स्नेह, प्यार भावना मनुष्य की /
मनुष्य–लोक मध्य, /
सर्व जन-समष्टि मध्य /
राग प्रीति भावना समस्त जीव-जंतु मध्य /
अशेष हो /
मनुष्य की दयालुता ! यही /
महान श्रेष्ठ उपासना ! (पृष्ठ १)
संभवत: १९६० के उत्तरार्ध में डा. महेंद्र भटनागर माधव कालेज, उज्जैन में हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक थे | मैं भी उन दिनों वहीं था और दर्शनशास्त्र पढाता था | लेकिन मेरी रूचि हिन्दी साहित्य में भी कम नहीं थी | हम लोग बहुत कम समय के लिए साथ साथ रहे | पर क्योंकि डा. भटनागर की ख्याति एक कवि के रूप में तब भी थोड़ी-बहुत हो चुकी थी, मेरा उनके प्रति आकर्षण स्वाभाविक था | डा. भटनागर का शीघ्र ही स्थानान्तर हो गया और उसके बाद उनसे मेरा संपर्क भी छूट गया | उनकी कवितायेँ बेशक, यत्र-तत्र पढता रहता था | कुछ सप्ताह पूर्व वर्धा से प्रकाशिक होने वाली ई-पत्रिका “हिन्दी समय” में उनकी ढेर सी कवितायेँ पढने को मिलीं | तब मैंने उनसे संपर्क करना चाहा ,लेकिन मेरा पत्र किसी दूसरे मिलते-जुलते ई-मेल पते पर चला गया | पर मेरी किस्मत अच्छी थी | डा. साहब ने ही मुझे ढूँढ़ निकाला | “रचनाकार” ई-पत्रिका इसका माध्यम बनी | वर्षों पुराना संपर्क एक झटके में ताज़ी हो गया | और आज मैं उनका कविता संकलन “कवितायेँ मानव गरिमा के लिए” लिए बैठा हूँ | इस संकलन की कविताओं का यद्यपि अंगरेजी में भी इसी जिल्द में अनुवाद भी है किन्तु डा. साहब का आग्रह है “यह मान कर चलें कि कृति मात्र हिन्दी में छपी है” सो यह आलेख लिखते समय मैंने अंगरेजी अनुवाद को बिलकुल नज़र-अंदाज़ कर दिया है|
महेंद्र भटनागर की इन कविताओं को पढ़ते हुए जो बात अपने पूरे आग्रह के साथ सामने आती है वह यह है कि कवि वर्तमान सामाजिक राजनैतिक स्थितियों से पूरी तरह असंतुष्ट है, कि वह समाज में व्याप्त शोषण और असमानता, भूख और धार्मिक कट्टरता, शक्ति के दुरुपयोग और अन्याय, भ्रष्टाचार और अंध- विश्वासों को ख़त्म करना चाहता है | उसका आदर्श एक ऐसे समतावादी मानव समाज का निर्माण है जो जन-जन के जीवन में उत्कृष्टता की ओर परिवर्तन ला सके, उनके दुष्कर जीवन को सरल बना सके | महेंद्र भटनागर को पूरा विश्वास है कि इक्कीसवीं शताब्दी में एक ऐसी नई मानवता जन्म लेगी जिसका प्रकाश हमारे समाज को सही रास्ता दिखाएगा | उनकी यह आशावादिता इतनी प्रखर है कि सामान्य पाठक अचंभित रह जाता है | अचंभित इसलिए कि वह न तो हमें कोई संकेत देते हैं कि आखिर ऐसा परिवर्तन क्योंकर होगा, और यदि होगा तो कैसे होगा | पर वे किसी भी स्थिति में अपनी यह आशावादिता छोड़ते नहीं | उनकी कवितायेँ शुभेच्छाओं और शुभकामनाओं से भरी पडी हैं | ऐसा नहीं है की वे कठिन स्थितियों से अनभिज्ञ हों या उन्हें नज़र-अंदाज़ कर रहे हों लेकिन वे अपनी आस्था डिगने नहीं देते | उन्हें पूरा-पूरा विश्वास है कि,(जैसा कि एक फिल्म के किसी गाने में कहा गया है) “वह सुबह कभी तो आएगी” !
डा. भटनागर की परेशानी का सबसे बड़ा बायस धर्म और उसके ठेकेदार हैं | उनका कवि ह्रदय यह बात समझ पाने में बिलकुल असमर्थ है कि “ आदमी - /
अपने से पृथक धर्म वाले /
आदमी से –लगाव से /
क्यों नहीं देखता ?” (पृष्ठ १६) वे सोचते हैं,
कितना अच्छा होगा /
जब दुनिया में सिर्फ रहेंगे /
ईश्वर से अनभिज्ञ /
प्राणी प्राणी प्रेम प्रतिज्ञ /
फिर ना मंदिर होंगे /
ना मसजिद /
ना गुरूद्वारे....(आरजू,६४)
अपने मन्वंतर में वह “धर्मों की /
असम्बद्ध , अप्रासंगिक, दकियानूस /
आस्थाओं को” तोड़ने का आह्वान करते हैं और इक्कीसवीं शताब्दी में एक नए पैगम्बर, अवतार, मसीहे के आगमन की बात जोहते हैं जो अनेकानेक धर्मों से ऊपर उठकर “महान मानव धर्म” की प्रतिष्ठा करे ताकि सच्चे मानव की पहचान सुरक्षित हो सके |
अवतरित हो /
नया देवदूत, नया पैगम्बर, नया मसीहा /
इक्कीसवीं सदी का अन्य लोकों में पहुंचाने के पूर्व /
मानव की पहचान सुरक्षित हो ...(पृष्ठ ६१)
डा, भटनागर एक ऐसे समता-कांक्षी कवि-ह्रदय हैं जो समाज में किसी भी प्रकार के अनावश्यक शक्ति प्रदर्शन को गैर ज़रूरी समझते हैं | वह कामना करते हैं कि मानव ह्रदय से “दुष्टता, पशुता, निठुरता दूर हो /
हिंसा-दर्प सारा चूर हो /
दृष्टि में ममता भरी भरपूर हो !(२६) पर वह यह भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आज जिसके पास अधिकार है, धन है, वही शक्तिशाली है | ऐसे में ज़ाहिर है कि एक शोषण-मुक्त और समता-युक्त समाज का निर्माण “दुष्कर” (२८) है | पर दुश्वारियों के बावजूद मानव समता का स्वप्न ही सदा उनका आदर्श रहा है| जन जन का जीवन उत्कृष्ट करने के लिए वह प्रतिश्रुत हैं, प्रतिबद्ध हैं |
मानव समता का स्वप्न, हमारा आदर्श सदा जिसको धारण कर जन जन जीवन उत्कर्ष सदा प्रतिश्रुत कि हम, शोषण रहित समाज बनाएंगे प्रतिबद्ध कि हम जगती पर ही स्वर्ग बनाएंगे (२७)
डा. भटनागर आश्चर्य करते हैं कि वह महामानव जो अभिनव विश्व को आकार दे सके,अभी तक अवतरित क्यों नहीं हो पाया है ? वस्तुत: उनकी कविताओं से ऐसा प्रतीत होता है कि यह महामानव कोई ऊपर से अचानक ही अवतरित होने वाला पैगम्बर नहीं है | यह तो वस्तुत: जन जन की आवाज़ है जिसके फलीभूत होने की वह प्रतीक्षा कर रहे हैं | यह महामानव जन जन में पैवस्थ है | वह पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि अंध विश्वासों और अंधी आस्था से ऊपर उठकर, धर्म की कट्टरता से मुक्त होकर जो नई मानवता का सच्चा पूजक है वह “जन जन” ही है | (३१)
प्रज्ज्वलित-प्रकाशित दीप हैं हम सर उठाए जगमगाती रोशनी के दीप हैं हम वेगवाही अग्नि लहरों से लहकते चिह्न-धर दीप हैं हम.... व्यक्ति से उगी-उपजी निराशा का कठिन संहार करने के लिए | (३०)
हमें हर हालत में ऐसी स्थितियां बदलनी ही चाहिए जो मनुष्य को मनुष्य से ही नफ़रत और द्वेष के लिए उकसाती हैं | आदमी आदमी से ही डरे, स्वयं अपनी जाति से ही नफ़रत करने लगे, एक दूसरे को लूटे, अपने से कमज़ोर पर अतिचार करे, यह मानव समाज में नाकाबिले-बर्दाश्त है | वह साफ़ साफ़ कहते हैं –
इस स्थिति को बदलो कि आदमी आदमी से डरे इन हालात को हटाओ कि आदमी आदमी से नफ़रत करे ... कि आदमी आदमी को लूटे, उसे लहूलुहान करे हर कमजोर से बलात्कार करे, अत्याचार करे और फिर मंदिर, मसजिद, गिरजाघर गुरुद्वारा जाकर भजन करे, ईश्वर को नमन करे (पृष्ठ ४७)
लेकिन आज वस्तुत: ऐसा ही हो रहा है | ऐसा प्रतीत होता है की आज हम मानों चारों और से नरभक्षियों से घिर गए हैं | हमारी मानव-चेतना, हमारी मनुष्यता, हमारी संवेदनशीलता, जड़ हो गई है, सुन्न पड़ गई है; ऐसी स्थिति से पार पाने केलिए दृढ संकल्प की आवश्यकता है तभी हम इस हिंसक दौर से बाहर आ सकते हैं|
सच है, घिर गए हैं हम चारों ओर से हर कदम पर नर भक्षियों के चक्रव्यूहों में भौचक से खड़े हैं लाशों हड्डियों के ढूहों में ....मस्तिष्क की नस-नस विवश है फूट पड़ने को ठिठक कर रह गए हैं हम... (४८) चेतना जैसे हो गई है सुन्न जड़वत ... लेकिन नहीं अब और स्थिर रह सकेगा आदमी का आदमी के प्रति हिंसा क्रूरता का दौर दृढ संकल्प करते हैं कठिन संकल्प के लिए इस स्थिति से उबरने के लिए (४९)
विज्ञान के आधुनिक विकास ने उन शक्तियों को काफी-कुछ दुर्बल कर दिया है जो हमें एक-दूसरे से अलग करती हैं | पहले हम अलग थलग पड़े हुए थे, एक दूसरे को बिना जाने, बिना समझे |तब दूरियाँ पाटना अत्यंत कठिन था | लेकिन आज ऐसा नहीं है | दूर रहकर भी हम आज दूर नहीं हैं | एक दूसरे से संपर्क सरल हो गया है | एक दूसरे को जानना- समझना भी अब दुष्कर नहीं रहा है | अब पूरी वसुधा ही एक परिवार है –
सुन्दर विविधरूपा प्रकृति है इसपर विस्मय है हमें इसपर गर्व है हमें सुदूर आदिम युग ने हमें भिन्न भिन्न भिन्न भाषा बोल दिए भिन्न भिन्न लिपि-चिह्न दिए किन्तु आज इन दूरियों को ज्ञान विज्ञान के आलोक में.... मैत्री चाह के आदिम आवेश ने तोड़ दी हैं दीवारें रेखाएं जो बांटती हैं हमें विभिन्न जातियों, वंशों, धर्मो, वर्गों में (५१)
लेकिन हम सभी जानते हैं की मनुष्य की बिगड़ी बनाने में विज्ञान भी बहुत कारगर सिद्ध नहीं हो पा रहा है | मनुष्य का लोभ और स्वार्थ इतना प्रबल है कि अपनी निजी भौतिक सम्पन्नता के लिए व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है ---
भ्रष्टाचार गाजर घास-सा चारो तरफ क्या खूब फैला है देश को हर क्षण पतन के गर्द में गहरे धकेला है (५२) जमघट ठगों का कर रहा जमकर परस्पर मुक्त जयजयकार ... (५३) देश की नव-देह पर चिपकी हुई जो अनगिनत जोकें-जलौकें श्वेत लोलुप लोभ मोहित बुभिक्षित जोंकें-जलौकें - आओ इन्हें नोचें-उखाडे धधकती आग में झोंकें.... देश की नव-देह यूं टूटे नहीं खुद्गरज़ कुछ लोग विकसित देश की सम्पन्नता लूटें नहीं (५४)
यों चुनाव की प्रक्रिया तो हर साल संपन्न होती है | लेकिन हमारे नेतागण चुनाव जीतने के लिए, और चुनाव के बाद सत्ता पक्ष को असहज करने के लिए तरह तरह के सिक्के (मुद्दे) उछालते रहते हैं | सभी जानते हैं कि ये झूठे और नकली हैं फिर भी जनता हर बार ठगी जाती रही है | डा, भटनागर अपने विशिष्ट अंदाज़ में सटीक तंज कसते हैं –
....घिसे पिटे सिक्के फेंक कर चले गए अफ़सोस कि हम इस बार भी छले गए ! देखो- खोटा सिक्का है न ‘धर्म-निरपेक्षता’ का ? ‘सामाजिक न्याय व्यवस्था’ का?....सिक्के ... ‘राष्ट्रीय एकता’ के ‘संविधान-सुरक्षा’ के.... (तमाशा, पृष्ठ ५५)
जिन लोगों का सारा समय दो वक्त का खाना जुटाने में ही ख़त्म हो जाता है वे भला इन सिक्कों (?) का क्या करेंगे ? उनका सपना तो सिर्फ रोटी ही है | और विडम्बना यह है कि उनकी रोटी का ख्याल किसी को नहीं है | रोटी के बिना न तो मानव-गरिमा का प्रश्न है, न ही समता का सवाल उठता है | इन अशिक्षित, भूखे, असुरक्षित जनों को केवल दया और भिक्षा में दिए गए टुकड़ों की आवश्यकता नहीं है | उन्हें सर्व प्रथम अपने श्रम से कमाई हुई रोटी और शिक्षा की आवश्यकता है | ---
दो जून रोटी तक जुटाने में नहीं जो कामयाब ज़िंदगी उनके लिए क्या ख़ाक होगी ख़्वाब कोई खूबसूरत ख़्वाब (७४)... पहले चाहिए उन्हें - शोषण मुक्त महिमा युक्त गरिमा मान की सम्मान की रोटी सुरक्षा और शिक्षा ! चाहिए ना एक कण भी राज्य की या व्यक्ति की करुणा, दया, भिक्षा (पृष्ठ ७४-७५)
हमें, सच तो यह है कि किसी भी व्यक्ति पर तरस खाकर उसकी मदद नहीं करनी है | इससे तो असमानता का भाव और भी गहरा होता चला जाएगा (कहा भी है, देनेवाले का हाथ हमेशा ऊपर रहता है) | हमें तो एक ऐसी व्यवस्था लानी है जिसमें सभी अपने श्रम और योग्यता अनुसार बराबरी का हिस्सा पा सकें | यही बात व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए भी कही जा सकती है | कुछ लोग अपनी सम्पन्नता के चलते स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता से लगा लेते हैं | बेशक हम सभी को उड़ने के लिए आकाश और अवकाश तो चाहिए लेकिन साथ ही सभी अपने अपने हिस्से की स्वतंत्रता प्राप्त कर सकें इसके लिए स्वानुशासन भी ज़रूरी है –
आकाश है सबके लिए अवकाश है सबके लिए विहगों उडो उन्मुक्त पंखों से उडो (६०) न हो कोई किसी की राह में बाधक न हो कोई किसी की पूर्ण होती चाह में स्वाधीन हो स्वानुशासन में बंधे हमराह हों संभलें सधें (६१)
अब समय आगया है कि हम चुप न बैठें | कवि आह्वान करता है,--
आओ चोट करें ...मिलकर चोट करें स्थितियां बदलेंगीं (संभव १, ५८) आओ टकराएं ...टकराएं मिलकर टकराएं जीवन संवारेगा (संभव २, ५९)
कोई वजह नहीं है यह संभव न हो | युग-युग वांछित-इच्छित समता अवश्य ही स्थापित होकर रहेगी | इंसानी दुनिया में माली समता के साथ खुशहाली भी आएगी |(७९) ‘अनुभव सिद्ध’ (कविता में) महेंद्र भटनागर कहते हैं
तय है कि काली रात गुज़रेगी भयावह रात गुज़रेगी असफल रहेगा हर घात का संघात पराजित रात गुज़रेगी (पृष्ठ २०)
-- डा. सुरेन्द्र वर्मा
१०, एच आई जी /
१, सर्कुलर रोड , इलाहाबाद -२११००१
मो. ९६२१२२२७७८
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