मंतव्य -5 से कविताएँ, साभार : महाराजकृष्ण संतोषी की कविताएं तीलियाँ हम माचिस में बंद तीलियाँ नहीं छोटे-छोटे अग्नि देवता हैं हम मं...
मंतव्य -5 से कविताएँ, साभार :
महाराजकृष्ण संतोषी की कविताएं
तीलियाँ
हम माचिस में बंद तीलियाँ नहीं
छोटे-छोटे अग्नि देवता हैं
हम मंत्रों
पूजा-पाठ से
प्रसन्न नहीं होते
जब हमसे
ऐसी आग प्रगट हो
जो भूख और अँधेरे को मिटा डालती है
तब हमें लगता है अपना सार्थक होना
कहने को हम
माचिस की तीलियाँ हैं
पर संकल्पों की गंधक ओढ़े
छोटे-छोटे अग्नि देवता हैं
हम नहीं माँगते
ब्राह्मणों से आहुतियाँ
हम नित्य तत्पर रहते हैं
यह विश्वास लिए कि इस पृथ्वी पर इतने सारे दिये जल जायें और सबको अपनी
खोई हुई चीज़ें मिल जायें
बूढ़ों की संसद
बूढ़ों की संसद संविधान के नियमों से
संचालित नहीं होती
वे घरों से बाहर आकर
कहीं भी मिल-बैठ कर
अपनी संसद चलाते हैं
जहाँ न कोई अध्यक्ष
न विपक्ष का नेता सब बराबर
अपने सुख-दुःख के प्रतिनिधि
वे एक-दूसरे के आकाश में
उड़ाते रहते हैं बातों का गुब्बारा
हवा का रुख पहचाने बिना
कभी-कभी
वे घर समाज के रिश्तों का
मैल धोकर
एक दूसरे की आँखों में टटोलते हैं
खुशी के कुछ निर्मल लम्हें
जिन्हें वे अपने साथ लेकर
लौट आते हैं घर
यह वह समय होता है
जब सूरज उनकी पीठ पर
डूब रहा होता है और डूबते-डूबते उन्हें
तारों के हवाले कर देता है
कहते हैं तारों और बूढ़ों के बीच
अक्सर कहा-सुनी होती है
तारों को बूढ़ों का खांसना
अच्छा नहीं लगता
और बूढ़ों को
तारों का टिमटिमाना नहीं भाता
पर अज़ीब बात है
बूढ़ों की संसद में
इस विषय पर
कभी कोई चर्चा नहीं होता...
लाठी
पहले हमने सुन रखा था
ईश्वर की लाठी के बारे में
फिर देखा
गाँधी जी के हाथ में लाठी
पर कभी कोई डर नहीं लगा
लेकिन अब
जबसे धर्म-पूजकों ने
हथिया ली है लाठी
डर लगता है
लाठी से नहीं
उन चेहरों से
जो उन्हें बच्चों को सौंप रहे हैं।
लोकतंत्र में कौवे
आजकल
कौवों की कर्कश आवाज़ें सुनना
मुझे बेहद अच्छा लगता है
और इसका श्रेय
मैं अपने देश के लोकतंत्र को देता हूँ
मैं कहीं भी होता हूँ
कौवों की यह कांव-कांव
मेरी आत्मा में संगीत की तरह
रच बस गया है
वैसे भी
कौवों की एकनिष्ठता
उनकी बौद्धिकता
दूरदृष्टि
किसी भी लोकतंत्र के लिए
आदर्श हो सकती है
उस पर रंग भी कुछ ऐसा
कि चरित्र का मैल ही दिखाई न दे
कौवे निडर भी बहुत होते हैं
किसी ताली से एकदम उड़ने वाले नहीं
उन्हें गर्व है अपनी चोंच पर
अपने पंजों पर
जो न कभी मलिन होते हैं
न ही थकते
और यही बात
हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।
एक कवि के कोट को याद करते हुए
जब चीन गये थे
कश्मीरी कवि दीनानाथ नादिम
तो कहते हैं
कामरेड माओ ने उन्हें भेंट में
अपना एक कोट दिया था
यह उन दिनों की बात है
जब हवा साम्यवादी हुआ करती थी
पता नहीं आज
इतने बरसों बाद
अकस्मात् वह कोट मुझे
क्यों याद आया
सोचता हूँ
नादिम की कविताओं में
कामरेड के उस कोट का
कहीं कोई उल्लेख नहीं
न ही उस कोट में
उनका कोई फोटो दिखता है
क्या पता
किसी संदूक में बंद पड़ा वह कोट
नादिम के घरवालों की हिज़रत पर
वही रह गया हो
और अपने पहने जाने का इंतज़ार करता हुआ
चीनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता रहता हो
स्मृतियों की सीढ़ियों पर
चढ़ते-उतरते जब दिन बीता
और रात का जादू फैला
नादिम मेरे सपने में आये
कहा, तुमने जो कोट का प्रसंग छेड़ा है
तो सच बताऊं
मैं वह कोट पहनकर
कविताएं नहीं लिख पाता था।
हाउस नंबर-113 ए/4, आनंद नगर, बोहरी (तालाब टिलू) जम्मू तवी-180002
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विवेक निराला की कविताएं
सांगीतिक
एक लम्बे आलाप में
कुछ ही स्वर थे
कुछ ही स्वर विलाप में भी थे।
कुछ जन में
और कुछ गवैये के मन में।
गायन एकल था
मगर रुदन सामूहिक था
आँखों की अपनी जुगलबन्दी थी।
खयाल कुछ द्रुत था कुछ विलम्बित।
एक विचार था और वह
अपने निरर्थक होते जाने को
द्रुपद शैली में विस्तारित कर रहा था।
पूरी हवा में एक
अनसुना-सा तराना अपने पीछे
एक मुकम्मल अफ़साना छिपाये हुए था।
इस आलाप और विलाप के
बीचोबीच एक प्रलाप था।
नागरिकता
(मक़बूल फ़िदा हुसैन के लिए)
दीवार पर एक आकृति जैसी थी
उसमें कुछ रंग जैसे थे
कुछ रंग उसमें नहीं थे।
उसमें कुछ था और कुछ नहीं था
बिल्कुल उसके सर्जक की तरह।
उस पर जो तितली बैठी थी
वह भी कुछ अधूरी-सी थी।
तितली का कोई रंग न था वहाँ
वह भी दीवार जैसी थी
और दीवार अपनी ज़गह पर नहीं थी।
इस तरह एक कलाकृति
अपने चित्रकार के साथ अपने होने
और न होने के मध्य
अपने लिए एक देश ढूँढ़ रही थी।
संकटग्रस्त
भूमण्डलीकरण के इस युग में
संकट ही संकट थे
स्थानीय लोग कुछ वैश्विक संकटों से जूझ रहे थे
और वैश्विक लोग स्थानीय संकटों से।
मेरा संकट मेरी टूटी खाट थी
जबकि मैं स्वप्न में था।
किसानों के पास कर्ज़ था और उद्योगपतियों के पास मर्ज़
सरकार को किसी से हर्ज़ न था।
खुदगर्ज़ सिर्फ़ हिन्दी का कवि था
लेकिन वह भी संकट से दुबराया था।
न उसकी किताब बिकती थी और न उसकी आत्मा।
उसके शरीर में जन्म से एक ही गुर्दा था
वह उसे भी नहीं बेच सकता था...
निराला निवास, 265, छोटी वासुकी, दारागंज, इलाहाबाद-211006 (उ. प्र.)
मोबाइल : 09415289529
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अनिल करमेले की कविताएं
रात के तीन बजे
गहरे सन्नाटे की आवाज़ है लगातार
और घड़ी की टिक टिक...
यह दिसंबर की रात है और
कुत्ते ऊंघ रहे हैं
गली के किसी मकान में उठ-उठ के कराहता कोई
दूर कोई स्त्री कर रही है विलाप
पता नहीं किस बीमारी से उसका बच्चा नहीं रहा
या आधी रात होते उखड़ गयी पति की सांसें
हो सकता है अपने पहले और आख़िरी प्रेम को
कर रही हो याद
टीवी के समाचार चैनलों पर
रात एक बजे के कैसेट चल रहे हैं
समाचारों को दोहराते दिन भर के आराम के बाद
हथियार तेज़ करके निकले हत्यारे
व्यस्त होंगे अपने शिकार में
उधर फिलिस्तीन में नवजात शिशु
मर रहे होंगे इस्रायली बमों से
अफगानी स्त्रियाँ घास की रोटियों खाकर
अपने सूखे स्तनों से बच्चों को चिपकाये
सुन रही होंगी अमरीकी फौज़ी बूटों की आवाज़
कश्मीर में सीमा पर
अभी-अभी कोई सैनिक
दुश्मन की गोली से हुआ होगा शहीद
इच्छाशक्ति और सूखे से परास्त होकर
कोई किसान आत्महत्या कर रहा होगा
देश की ज़रूरतों और अपने अपने एजेंडों पर
पेशाब करने के बाद मीठी नींद में होंगे नेतागण
शेयर दलालों के सपनों में चढ़ रहा होगा सूचकांक
सप्ताहांत की पार्टियों से नशे की खुमारी में
अभी-अभी लौटे होंगे नौकरशाह
महामहिम अभी-अभी सोये होंगे
कल के बयान की तैयारी के बाद
घंटाघर ने अभी-अभी तीन बजाए हैं
आतताइयों के सिवाय किसी को नहीं मालूम
इस बीच क्या बुरा घट गया है दुनिया में।
बिना शीर्षक
मैं नींद में हूँ या सपने में
ये कौन सी काली छायाएं हैं डोलतीं
मेरी आँखों के सामने लगातार करतीं चीत्कार
नाचती हैं जुनून में भरकर
और बैठ जाती हैं मेरे कंधों पर
मेरी पीठ पर घूंसे पड़ते हैं
मैं भी शामिल हो जाता हूँ उस नृत्य में
वे सब लंबी दूरी की दौड़ में शामिल
हर क्षण चेहरा और शरीर बदलते निकल रहे छलांग मारते
बेसुरे बेताल बेअदब मरे हुए
गैर ज़रूरी इस दुनिया के लिए
उनके अपने रास्ते हैं और अपने निशान
ख़तरों की तरह मैं बस मैं हूँ उनके सामने
मैं तीसरी दुनिया का एक निम्नवर्गीय मिडिल क्लास सूअर
वे मेरी आँखों के सामने रौंद रहे मेरे उजले सपनों को
वे लुढ़कते जा रहे मेरी नींदों में
मेरे भोजन में और मेरे बाथरूम में वे हैं
वे हैं यहाँ तक कि मेरे संभोग के बीच
उपस्थित तिलचट्टों की तरह हर कोने में हर जगह
मेरे जीवन की सलवटों और तड़कती हुई
सिलाइयों में हर ग़ैर ज़रूरी चीज़ को उम्दा और ज़रूरी बताते
पगडंडियों को आसान बनाती
कंदील की टिमटिमाती रोशनी पर
जादू का रक्तिम उजाला मारते मांसपिण्डों की उछाल पर बरगलाते
और मैं कहता हूँ हाँ यही... यही तो चाहिए कहीं ऐसा तो नहीं मित्रो
कि चीज़ें मेरी गिरफ़्त में नहीं आ रही हैं जहान के दुखों की गेंद के टप्पे
मेरी कविताओं से बाहर होते जा रहे निरंतर मैं स्वीकार करता हूँ
मैं शामिल हूँ पूरी तरह इस बाज़ारूखेल में
रोने के सामान हँसते हुए भर रहा हूँ घर में
अपने ही शब्दों से डरते मुँह चुराते
नयी दुनिया के प्रेतों के सम्मोहन में
पहली ही फुर्सत में पाया जाता हूँ भुगतान करते।
58, हनुमान नगर, जाट खेड़ी, होशंगाबाद रोड, भोपाल-462026, मोबाइल-09425675622
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अरूण अर्णव खरे की कविताएं
आकार में लघु होना
सूर्य
आकार में पृथ्वी से बड़े हैं,
रोशनी के देव कहलाते हैं,
पर अदना सा बादल,
उन्हे आगोश में छुपाने की सामर्थ्य रखता है ।
छोटा सा दीया
कितना भी लघु हो आकार में,
तम को हरने में सक्षम होता है।
पदार्थ से अधिक ऊर्जा
अणु में है,
और अणु से अधिक परमाणु में।
आकार में लघु होना
कमतर होना नहीं है।
दो पल
पृवी पर दो तिहाई जल है
पर दो प्रतिशत से भी कम है
जीवन दायिनी जल की मात्रा।
यह मात्रा भी करती है
बड़ी ज़रूरतों को पूरा
बुझाती है प्यास
रखती है साफ़-सुथरा
धरती के सात अरब लोगों को
असंख्य पशु-पक्षियों को चारों और बिखरा
प्रकृति का सौंदर्य लुभावनी हरियाली...
ज़िंदा है इसी दो प्रतिशत जल की कृपा पर।
ज़िंदगी के असंख्य पलों के बीच हिस्से में आये
खुशियों के दो पल भी काफी हैं
पूरी ज़िंदगी जीने के लिए।
डी-1/35, दानिश नगर, होशंगाबाद रोड, भोपाल-462023, मोबाइल-09893007744
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ज्योतिकृष्ण वर्मा की कविताएं
पीड़ा
गाँव की
खाली पड़ी ज़मीन के
एक कोने में
जगह नीयत कर दी गयी है
एक भव्य
सती मंदिर के लिए...
पीड़ा से कराहती
एक गर्भवती स्त्री को
भीड़ ने
कहा है अभी-अभी
दूर हटने को
वहाँ से।
फ़सल
वे
गाते हैं, झूमते हैं
नृत्य करते हैं मिलकर
खेत में...
पकी फ़सल देखकर
मिट्टी
पैदा करती है
अपने भीतर से
नृत्य भी!
बहुत पहले
यह
तब की बात है
जब मनुष्य
लिखता नहीं था
कविता
इतिहासकारों ने
इसीलिए शायद
नाम दिया उसे
पाषाण-युग!
बनते-बिगड़ते
उसके
घर बनाने से
खोखला होता है
घर
किसी और का
लगता है
लांछन यही
जहाँ-तहाँ
बनाती है घर
दीमक
बैसाखियाँ
कंधों से मज़बूत
साबित होती हैं
कभी-कभी
बैसाखियाँ
2
खुद से चलकर
नहीं जाती
कहीं भी
लेकिन ‘ज़िन्दगी’ को
चलाती हैं
कभी-कभी
ज़िन्दगी भर
बैसाखियाँ...
3
वो अँधेरा बंद कमरा
जहाँ रखी हैं
बहुत-सी बैसाखियाँ
वहीं की वहीं है
बरसों से।
आरजेड-106, इंद्रा पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059 मोबाइल- 09811763579
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लम्बी कविता
अनाज के एक-एक दाने का वजन जानते हैं हम
-संतोष कुमार चतुर्वेदी
यादों की नदी
हमेशा अपनी लहरों के विपरीत बहा करती है
इन लहरो में बीत गये कुछ उदास से हमारे दिन हुआ करते थे।
इन दिनों को अपने दोस्तों की हँसी से तारीख़वार बनाने की भरपूर कोशिश की हमने
दरअसल यह बिखरे हुए उन तिनकों की
सामूहिक हँसी होती जो हर साँझ को गुलज़ार हो जाती
इस साँझ में हम सबकी तमाम लंतरानियाँ होतीं
और इसकी ख़ासियत यह होती
कि किसी बात पर हमारा गुस्सा इतना परवान नहीं चढ़ता
कि हम अपना आपा ही खो बैठें
और सब कुछ तहस-नहस कर बैठें इसकी एक शर्त यह भी होती
कि लंतरानियों में शामिल गोंइयाँ किसी की बात का भी बुरा नहीं मानेंगे
और जो भी बहस होगी दोस्ताना अंदाज़ वाली
उसमें सबको छूट होगी कि जितना चाहें ढील दे
अपने पतंग की डोर आसमान की सैर सब साथ-साथ करेंगे
और सब तब भी ज़मीन से अपनी डोर जोड़े रखेंगे
हमारी लड़ाइयाँ भी कुछ अलग क़िस्म की हमारे हर झगड़े में अपनेपन की नमी होती
जिसे थोड़ी सी हवा और थोड़ा सा पानी कुछ समय बाद उर्वर बना देता
और दोस्ती के अंकुर फिर निकल आते पृथ्वी के धरातल को भेद कर तो
यह हमारा अपना संविधान था मिलजुल कर वाक़ई सर्वसम्मति से बनाया हुआ
जिसमें तमाम प्रावधान तमाम धाराएं और तमाम उपधाराएं थीं
लेकिन ज़रूरत के मुताबिक़ परिवर्तनीय
जिसमें हर रात की एक सुबह सुनिश्चित थी
जिसमें सबके लिए पूरी-पूरी धूप तय थी और बारिश पर किसी का पट्टा नहीं होना था
तो जो था उसमें सबके बिलकुल अपने-अपने शब्द थे
हमारी सहमतियों में प्रायः सबकी सहमतियाँ थीं,
लेकिन साथ ही असहमतियों के लिए भी पूरम्पूर जगह थी यहाँ पर
यहाँ अवमानना कोई ऐसा गुनाह नहीं कि
आदमी साँस तक न ले सके डर के मारे अपनी बात तक न कह सके
और जब तक उसके हलक में अटका हुआ कोई शब्द
हवा में गूँजे उस पर अवमानना का इल्ज़ाम लगाकर
न्याय के नाम पर अमानवीय तरीक़े से मार डाला जाय
लगातार बदलता समय ही जीवन है जैसे कि शब्दों की ज़िन्दगी ज़माने के साथ
उनके बदलते अर्थों और क़दमताल करते मतलबों में महफूज़ रहती है
तो जब नींद में माते होते हम
तभी कहीं मुर्गा सुबह की मुनादी करता
और यह हमारे लिए रोज़ की तरह रोशनी का शगुन होता
उन्मुक्त पंखों से उड़ान भरने के अभ्यास में जोर-शोर से जब जुटी होती सुबह
तब एक-एक कर सारे पक्षी निकल जाते उड़ान पर
घोंसला उत्साहित हो हाथ हिला विदा करता हमें
रोज़ मर-मारे जाने के तमाम संभावित खतरों के बावजूद
हमारी आँखें आश्वस्त करतीं घोंसले को
अच्छा तो शाम ढले मिलेंगे हम एक बार फिर
और इसमें कोई फ़रेब, कोई ढोंग नहीं क्योंकि बातों पर मर-मिटना
हमारी वल्दियत थी फिर-फिर जी उठना हमारी आदतों में शुमार
और घोर निराशाओं में भी हताश न होने के सबक हमें रट्टा मार-मार कर
बचपन में ही याद कराये गये थे हाथ पकड़ कर बिला नागा लिखाये गये थे
इमले ऐसे जो आज भी विचार के एक-एक रेशे में गुँथ गया है ऐसे
जैसे देह से प्राण और आग से ताप
यह आपके लिए एक यूटोपिया हो सकता है
लेकिन यह भी एक समय हुआ करता था जिसमें शेयर बाज़ार के बिना भी
जीने के उपागम थे जिसमें एक मड़ई में पूरी ज़िन्दग़ी गुज़ार देने का
जज़्बा होता था और जिसमें हमारी यह राम मड़ईया
हमेशा गह-गह करती रहती थी जिसमें एक गुल्लक रोज़-ब-रोज़ खाली होकर
बार-बार हमारी अपेक्षाएं पूरी करता
जिसमें अपने बुझे चूल्हे के लिए अंगार माँगने वाली औरत
खाली हाथ वापस नहीं लौटी कभी हमारे दर से
अब फ़साना लगने वाली इस ज़िंदगी की हक़ीक़त में
तब गाड़ीवान ही बैल बन कर खींचता
बेतकल्लुफ़ी से पूरी की पूरी गाड़ी
और यह जहाँ से भी जाती, अपने पीछे एक लीक छोड़ जाती
हमारे पास बेहिसाब कामों की फेहरिस्त थी
इन कामों में पास-पड़ोस का काम अपने काम की तरह शामिल हुआ करता
और प्राथमिकता में रहे हमारे अपने व्यक्तिगत काम कई बार लगातार
पीछे खिसकते जाते पड़ोसियों के काम दौड़े-दौड़े पहले चले आते
जिसे जुटकर फ़ौरन खुशी-खुशी हम करते तब भी झल्लाना बिलकुल मना था
और अगर ऐसी ज़रूरत आन ही पड़ी तो
एकांत में जाकर अपने पर ही निःसंकोच झल्लाने की छूट थी
इस बात का ध्यान रखते हुए कि किसी को कुछ भी पता न चलने पाये
आँसू की एक बूँद भी कहीं न दिखने पाये
क्योंकि यह एक ऐसा अविभाजित परिवार था जिसमें
तमाम झोल थे फिर भी जो देश की तरह ही चल रहा था
जिसमें सबके कोई न कोई अपनी मर्ज़ी से लिये गये दायित्व थे
सबकी बराबर की ज़िम्मेदारियों से चलता था यह कुनबा
जिसमें न तो कोई इतना ऊंचा था कि उसे छू पाना मुश्किल
न ही इतना नीचा कि उससे मिलने की सोच पर ही उबकाई आये
यानी कि तब गाँछ की एक गझिन छाँव ज़रूर हुआ करती
जिसमें हम गीत गा सकें वक़्त-ज़रूरत पर
एक अदृश्य से बंधन से हम सब बँधे थे
हमारे लिए भी दिन-रात के कुल चौबीस घंटे ही मुक़र्रर थे
हालांकि इसमें एक भी पल कहीं आराम का नहीं था
और तो और हमारे हिस्से में कोई इतवार तक नहीं था
क्योंकि हमारी ही प्रजाति का एक मुखिया ख़ासतौर पर हमें सूक्ति की तरह
यह नारा दे चुका था कि ‘आराम हराम है’
काम की मारक थकान के बावजूद हम सोचते
काश हमारा यह दिन कुछ और बड़ा हो जाता
और रातें कुछ और छोटी हो जातीं
सुकून के कुछ पल हमारे पास भी होते जिसमें थोड़ी मटरगस्ती हम भी करते
और जैसे ही हम यह सब सोचते
यह सब उन्हें पता चल जाता जो हमारे लिए अदृश्य थे
पता नहीं वे देवता थे या दानव या मानव
हम पर विलासिता का इल्ज़ाम लगाया जाता और गिरफ़्तार कर लिया जाता
हमें अदालतों में अपराधी की तरह पेश किया जाता
लोग आँखें फाड़कर देखते और चटखारे लेकर कहते,
अच्छा तो यही है वह देशद्रोही जिसके बारे में आजकल बहुत चर्चा है
वे न तो हमें जानते, न हमारे ऊपर मढ़े गये इल्ज़ामों से
तनिक भी वाक़िफ होते फिर भी आगे जोड़ते हुए
वे अपनी बात के क्रम में कहते यह तो बहुत शातिर है,
इसे कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए
फिर कभी ख़त्म न होने वाली तारीख़ों पर तारीख़ें पड़तीं
सच की तरह दिखतीं झूठमूठ की कर्मकांडीय बहसें अंततः
हज़ार पेज़ी तर्कसंगत से लगते फ़ैसले में हमें तुरत-फुरत
फाँसी की सज़ा सुनायी जाती जिसके ख़िलाफ़ बोलना
न्याय के ख़िलाफ बोलना होता और
फाँसी पर चुपचाप लटक जाना क़ानून का सम्मान
हमारी रहम की याचिका हर जगह से खारिज़ हो जाती
और कहीं पर कोई उम्मीद नहीं दिखती
अब आप ही बताइये
हम कैसे करें उसका आदर जिसे हमारे जीवन से ही वैर हो
हम तो उस नियति से ही हमेशा मुठभेड़ करते आये जिसे
अक्सर अमिट और अपरिवर्तनीय बताया जाता
हमने हर अन्याय के विरोध में आवाज़ उठाने की हिमाक़त की
भले ही हम मुट्ठी भर थे
और वे इस पूरे दुनिया-ज़हान में फैले हुए
हमारे जीवन की इबारतें तो
उस पसीने की स्याही से लिखी गयी थीं
जिसे बिना किसी दिक़्क़त के दूर से ही साफ़-साफ़
पढ़ा जा सकता था और जिसमें अटकने-भटकने की
कहीं कोई गुंज़ाइश ही नहीं थी पसीना ही वह दस्तावेज़ था
हमारे पास जो सबसे अधिक सुरक्षित था
जिसके पुराने पड़ने, सड़ने-गलने की तनिक भी गुंज़ाइश नहीं थी
लेकिन सरकार को काग़ज़ी दस्तावेज़ों पर अधिक यक़ीन होता था
पसीने की भाषा उसके लिए अपठनीय लिपि थी
और इस बिना पर हम पूरी तरह ऐसे नामज़द अवांछित
जिस पर भरोसा करना सरकार-ए-हुज़ूर का अपने साथ विश्वासघात करना होता
हमारे प्रधानमंत्री के बार-बार आश्वासनों के बावजूद
कि दोषियों को किसी क़ीमत पर बख़्शा नहीं जाएगा
हमारे शहर में किसी वक़्त कहीं भी कोई दंगा हो सकता था
किसी वक़्त कहीं भी कोई धमाका हो सकता था
किसी वक़्त राह चलते या रेल या बस में यात्रा करते हमारे चिथड़े उड़ सकते थे
और आँसू पोछने के नाम पर हमारे परिजनों को
मुआवज़े का एक ऐसा लोला थमाया जा सकता था
जिसमें उलझ कर रह जाते परिवारवाले
और फिर हमें भूल जाते अतीत की तरह
हमारे परिजन ही फिर भी कोई विकल्प नहीं हमारे पास
हमें रोज़ कुंआ खोदने और रोज़ पानी पीने वाला सारा सरंज़ाम करना था
हमारा शहर आज के सरकारी रिकार्डों में एक संवेदनशील शहर था
क्योंकि मिथकों में हमारे शहर का सम्बन्ध हमारे धर्म से था
और यह हमारा यह तथाकथित सहिष्णु धर्म
काफ़िरों को एक पल के लिए बर्दाश्त नहीं कर पाता था
जबकि ईश्वर की पोल खुल चुकी थी पूरी तरह कि
अब वह बहुत-बहुत दयनीय और कमज़ोर हो गया था
इतना कमज़ोर कि अगर उसकी मूर्ति के पास कोई
आतंकी बम रख देता जिससे उसका टुकड़े-टुकड़े होना सुनिश्चित होता
तो भी वह उसे हटा पाने में अक्षम था
हरदम अपनी अकड़ में जकड़ा रहने वाला हमारी रक्षा भला कैसे कर पाता
ताज्जुब की बात तो यह कि सारे किन्तु-परन्तु के बावजूद
वह बचा लेता अपना समूचा ईश्वरत्व
और हम मर कर भी नहीं बचा पाते थोड़ी-सी मनुष्यता क्योंकि
आदमजात खून तभी शांत पड़ता था जब बदले में
उतना ही खून बह जाये
प्रतिद्वन्दी का आस्था को तर्क से ताकतवर बताने वाले धर्म की
एक समानांतर सत्ता हुआ करती हमारे देश में
जिसे चुनौती दे पाना नामुमकिन
जिसके ठेकेदार वे स्वघोषित शंकराचार्य
जो अदालतों में रोज़ मुक़दमें लड़ते
जिनकी सभी अंगुलियाँ बहुमूल्य रत्नों से जड़ित
अंगूठियों से मंडित वे बेहिसाब गोलीबारी करते,
महंगी लक्ज़री गाड़ियों पर लाल-बत्ती लगा कर चलने के लिए
सरकारी अधिकारियों से होड़ करते, लड़ते-झगड़ते
वे हमसे फल की इच्छा किये बिना काम करने को कहते
और अपने बेहिसाब इच्छाओं की भरपाई में मगन रहते
इस धर्म की ख़ासियत ही यह थी कि तमाम बलात्कारों, तमाम कालाबाज़ारियों
तमाम लूटपाट, तमाम भ्रष्टाचारों के बावज़ूद
लोगों की आस्था लगातार इसमें उमड़ती ही जा रही थी
चढ़ावे बेहिसाब बढ़ते जा रहे थे
इधर भूख से पटपटा कर मरने वाले लोगों की संख्याएं
बढ़ती जा रही थीं जिसमें कभी हम शामिल होते
कभी हमारे ही परिवार का कोई अपना बिलकुल सगा
कभी हमारा ही वह जानी दुश्मन जो कभी
हमारा लंगोटिया यार हुआ करता जिसे शंकराचार्य हमारी नियति बताते
इन दिनों धर्म-कर्म टी.वी. चैनलों का
अच्छा-ख़ासा व्यापारी बन चुका था और तमाम तरक़ीबों के बावजूद हम
लोगों को कुछ भी समझा पाने में पूरे के पूरे निकम्मे साबित होते
धर्म पर लोगों की आस्था इतनी ज़बरदस्त होती कि
फ़िजूल बातों पर भी उनका पुख्ता यक़ीन उमड़ आता
और गाय की पूँछ पकड़ बैतरनी पार करने का
भरोसा मरते दम तलक बना रहता
हम बहुसंख्यकों में वे अल्पसंख्यक हुआ करते थे
जिसका ज़िक्र न तो किसी अनुसूची में था न ही आरक्षण की किसी कथा-कहानी में
हमारी लड़ाई में हमारे साथ केवल हमीं होते अकेले
दरअसल हम ऐसे अल्पसंख्यक थे जो अपनों के बीच भी घोर अविश्वसनीय
और अपनी जाति-बिरादरी के खिलाफ़ ही अक़्सर बोलते रहने वाले
समय-असमय बिगुल बजा देने वाले विद्रोही थे जिनका उन्मूलन ही सबसे बेहतर इलाज़
हालांकि उनके ही लफ़्जों में कहें तो
अपनी सोच को बेहतर साबित करने के लिए
हम एक से एक ऐसे अकाट्य तर्क देते जिसे सुन कर सबको ताज्जुब होता
कि इतना इंटेलीज़ेंट होने के बावजूद
कैसे बहक गया राह से निकल गया हाथ से
यह तो किसी विधर्मी की गहरी साज़िश लगती है
या फिर अपने ही किसी देवी-देवता की घोर नाराज़गी
वैसे हम उनका भी विश्वास अर्ज़ित कर पाने में
प्रायः असफल रहते जिनके हक़ की बातें अक्सर खुलेआम किया करते
जिनके साथ सदियों की घृणा को मिटा कर उठने-बैठने, जीने-मरने
साथ खाने और सम्बन्ध बनाने तक की कविताएं रचते रहते
कुल मिला कर वहाँ हमें भेदिया समझा जाता जबकि अपनों के बीच हम गद्दार थे
हम अतीत और भविष्य के बीच डोलते
उस वर्तमान की तरह होते जिसके अस्तित्व के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता
केवल महसूस किया जा सकता है
हम लगातार दोलन करते उस पेंडुलम जैसे थे जो समय तो सही बताता
लेकिन जिसके बारे में सबके ज़ेहन में एक शक़ लगातार बना रहता
आख़िर यह किस ओर झुका हुआ है
और यह पेंडुलम समय बताते हुए भी टिक नहीं पाता
एक भी पल जैसे बेदख़ल होने के लिए अभिशप्त हर समय हर जगह
यह वह समय था जब जहाँ कहीं जाओ
शिकारी हर जगह टोह में तैयार बैठे मिल जाते वे तपस्वी भेष में भभूत लगाये हो सकते थे
नैतिक उपदेश बाँचते हुए ईश्वरीय सन्देश देते हुए
वे याचक के रूप में आँखों में आँसू भरे दोनों हाथ फैलाये
आपके सामने बेवश और लाचार दिखने के सारे
सरंजाम समेत हो सकते थे जो अपनी लड़की की शादी में दहेज़ के लिए
या जो अपने बच्चे के गंभीर बीमारी के इलाज़ के लिए पैसा जुटाने में
न जाने कब से न जाने कब तक के लिए लगे हुए थे
दरअसल हम जैसे अपरिचितों को फाँसने का यह उनका
नुस्ख़ा था आजमाया हुआ वे एक गाडी के ड्राइवर या कंडक्टर हो सकते थे
जो हमें घर पहुँचाने का आश्वासन देकर अपनी गाड़ी में
ससम्मान बिठा कर किसी वक़्त भी हमें अपने चंगुल में फँसा सकते थे
और अकेला पाकर हमें लूट सकते थे
हमारी हत्या कर लाश को ठिकाने लगा सकते थे ऐसे
कि तीनों लोक चौदहों भुवन में खोजने पर भी पता न चल पाये वे
राजनीतिज्ञ हो सकते थे जो आपको हर चुनाव के वक़्त रिरियाते, मिमियाते और
बच्चों जैसे हमें पोल्हाते दिख सकते थे
हम उनकी जीत के लिए खून-पसीना एक करते जुलूस में जाते, नारे लगाते
लेकिन अपनी आदत से परेशान वे हर जीत के बाद
गायब हो जाते बेरहमी से जैसे जनता कोई संक्रामक बीमारी हो
और अब उनकी चिंताएं देश की चिंता में बदल जाती
यानी कि हर जगह हम तरबूजे थे और शिकारी वह चाकू
जो जब और जहाँ से भी हम पर गिरता हमें अकथनीय अकल्पनीय तकलीफ़ देता
बस हमें ही उजाड़ने के तरक़ीब रचता
इस तरह पुष्पित-पल्लवित होता रहता दुनिया का सबसे बड़ा यह लोकतन्त्र
और हारते जाते हमीं लगातार बार-बार
शिकारियों की एक गोली से हमारी देह
रेलवे क्रॉसिंग के पास बने उन वीरान घरों की तरह हो जाती
जिन पर मोटे-मोटे डरावने हर्फ़ों में लिखा होता- परित्यक्त
और हमारी आत्मा उसी वक़्त ख़ानाबदोश बन जाती
जैसे कि सदियों से चला आ रहा हमारा यही मुक़र्रर पता हो
जहाँ जाने के लिए कई संकरी गलियों
और कई तीखे मोड़ों से गुज़रना होता
और भद्र व्यक्ति को बारम्बार अपनी नाक से मुआफ़ी माँगनी पड़ती
और चेहरे को रुमाल से ढँकना पड़ता फ़ौरन
हमारे पते पर पहुँच पाते हम जैसे ज़ेहादी ही
बाक़ियों के लिए यह दुर्गम दुरूह ऐसी ज़गह थी
जिसका होना आमतौर पर शहर के लिए एक दाग एक धब्बा सरीख़ा होता
और जिसको गिराने के लिए शहर के बुलडोज़र
अपने सुरक्षाकर्मियों समेत अक्सर वहीं गरजा करते बरसा करते
वहीं के घरों को चुटकी बजाते मलवे में तब्दील किया करते
हम समझने में नाकामयाब रहते हमेशा
कि बार-बार ऐसी घानी हमीं पर क्यों फिरती है
आख़िर हमीं को दोषी ठहराया जाता क्यों बार-बार
हमारे ही ऊपर से पनाला क्यों बहाया जाता हर बार
हमीं क्यों ऐसे जिससे कोई मुरव्वत संभव ही नहीं
कहीं भी तो सुरक्षित नहीं हम
हमारा पता हमारा हुलिया
पूरा-पूरा दर्ज़ है उनकी खाता-बही में
उनके टोही उपग्रह हमारे एक-एक क़दम का
हर वक़्त मानचित्र खींचते और वे हमारी अहेर में जुटे रहते
हमारा ख़ात्मा किये जाने तक
हम किसी घराने से नहीं बल्कि उस घर से थे
जहाँ ज़मीन पर चिचिरी खींचने तक से हमें रोका जाता
लड़कपन से ही तब हम भला किसी नरसंहार में शामिल कैसे हो सकते थे
वैसे हमें तो उनके आसमान का चाँद भी उतना ही
दाग़दार दिखता था जितना वे हमारे
आसमान के चाँद के दाग़दार होने के बारे में दावे करते
अब उन्होंने हमारे बादलों तक को रेहन पर रख लिया था
उनकी संगत में ये अब उदास चेहरे वाले वे बादल थे
जिनसे बरसाती चमक पूरी तरह गायब दिखती ये बादल चाह कर भी हँस नहीं सकते थे
जिनके होने पर भी अब किसी को न तो छाँव मिलती न ही कोई फुहार
यह हमारे समय का वह त्रासद दौर था जिसमें तैयार फसलों के दाने
अगली फसलों के बीजों के तौर पर नहीं रखे जा सकते थे
और अब बात-बात पर बाज़ार की राह देखनी पड़ती
अन्यथा की स्थिति में तड़प-तड़प कर मरना तो तय ही था हमारे लिए
लगातार सिकुड़ते जाने के बावजूद
हमारे ग्लेशियरों से बहता रहा हर मौसम में पानी
जिसे जगह-जगह गेंड़ कर वे बिजली बनाते
तब भी हमारे घरों में जलने को अभिशप्त थी ढिबरी
जिसकी रोशनी में पढ़ी हमने जीवन की फटी किताबें
जिसकी रोशनी से सीखे हमने तमाम सबक
हमारे ग्लेशियरों ने नदियों से होते हुए जीवों-जानवरों और पेड़-पौधों तक की
प्यास बुझाई सदियों की,
फसलें उगायीं दुनिया की भूख के बरक़्स
हमारे पानी के लिए हमेशा आतुर रहा समुद्र
जनमानस में यह गलत धारणा फैलाये कि
इतना बड़ा वह कि उसे ज़रूरत नहीं किसी की कोई
यहाँ समुद्र में भी कहाँ रह पाते हम चैन से
समुद्र के खारेपन में तब्दील हो हम नमक में बदलते गये
और दुनिया को स्वाद से सींचते रहे
सहेजते रहे हर जगह
हर पोटली में उम्मीद के बीज
फिर भी हमारे हाथ खाली के खाली जिसके बारे में वे
आप्त वचन जैसे कहते रहते खाली हाथ आया तू बन्दे, खाली हाथ जाएगा
और सेंकते रहे अपने हाथ हर संभव आँच पर
अपने घरों तक की राहें रोके जाने के बावजूद हम
इन खाली हाथों से ही बनाते रहे
दुर्गम से दुर्गमतम जगहों के घरों तक पहुँचाने वाली सड़कें
अपने खेतों की नालियाँ रोके जाने के बावजूद
पहुँचाते रहे तमाम खेतों की नालियों में पानी
सींचते रहे तमाम खेतों को हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड में भी
बेघर होने के बावजूद
अपने इन्हीं हाथों से हम खड़ी करते रहे दिन-रात तमाम इमारतें
खुद घृणा का पात्र बनने के बावजूद
हम रोपते रहे अपने तमाम गिरस्थों के खेतों में
प्यार के बेहन हम जागते रहे दिन-रात अनवरत
और जुटे रहे लगातार लोगों की नींद के लिए इधर हम
अपनी खाली आँखों में भी जगे सपने लिए हुए
जिनमें हमारे समय का नमक था और इस नमक में जीवन था
स्मृतियों को मिटा देने की तमाम कोशिशों के बीच भी हमारे पास नदी थी
उन गहरी यादों की जिसमें हमारी नाव कभी धारा के साथ
तो कभी धारा के ख़िलाफ़ बहती रहती थी बेखौफ़
इन नावों को डूबने से बचा लेती थीं हमेशा
हमारी शामें जो अक्सर दादी की कहानियों
और माँ की लोरियों से भरी बड़ी मनोरम होतीं
स्मृतियों को और खुशगंवार बनाने के दारोमदार को निभाने की
समूची ज़िम्मेदारी बिना किसी हिचक के हमीं को निभानी थी...
भविष्य चाहे जितना सुन्दर हो
अपने प्रांगण में घूमने-टहलने की अनुमति नहीं देता
कभी किसी को अतीत हमारी दुनिया का वह पुरातन ठीहा
जिसमें होते हमारे वे दिन जिसके फूलों के पास मकरंद था
और इस मकरंद पर फ़िदा तितलियाँ थीं उड़ती-फिरती रंग-बिरंगी
हमारे इसी पतझड़ दिन में महुए की भीनी-भीनी गंध थी
खटास को मीठेपन में तब्दील करने की जद्दोज़हद में जुटे आम के टिकोढ़े थे
और कभी भी पोस न मानने वाली
उदास दिनों में भी सुरीले गीत गाने वाली कोयलें थीं
हम उन दिनों की रातें हैं
जिसकी एक सुबह सुनिश्चित
खुशियों से लबरेज़ खिलखिलाती सुबह
अनाज के दानों से भरी सुबह
तुम क्या जानोगे एक दाने की अहमियत
एक दाने के खिसक जाने पर
तुम्हारा तराजू भी टस से मस नहीं होगा लेकिन हम तो वे किसान हैं
जो अनाज के एक-एक दाने को उगाने का मर्म जानते हैं
जो अनाज के एक-एक दाने का वजन जानते हैं
एक-एक दाने का ठीक-ठीक पता पहचानते हैं
जो चिड़ियों से बेधड़क
उनकी भाषा में बातें कर सकते हैं
जो जानवरों तक की भावनाएं बखूबी समझते हैं
दिन-रात खटते, बोझ ढोते हम वे मजदूर हैं
जो एक-एक ईंट चुने जाने के साक्षी हैं
जिसके पसीने से सना है वह सीमेंट
जिस पर खड़ी हैं ऊंची-ऊंची इमारतें हम वे कामगार हैं
जिसे एक-एक दिन के काम के लिए ज़द्दोज़हद करनी है
हम वे बुनकर जो बिन थके लगे हुए अपने करघे पर
और खुद नंगे रह कर भी सबके लिए कपड़े बुनते हुए
हम दिन-रात उच्चरित होते वे श्लोक जिसके मतलब वे आचार्य भी नहीं जानते
जिन्हें बड़ा गुमान हुआ करता था अपने इन क्लिष्ट श्लोकों की संपदा पर
हम वे कथावाचक जो घूम घूम कर बाँचते फ़िरते
रोचक अंदाज़ में अपने ही जख़्मों की अध्यायवार गाथाएं
जिसे सुनते लोग तल्लीन होकर पौराणिक कथाओं की तरह
और श्रद्धा से वशीभूत हो तालियाँ बजाते
जैसे कि यह ताली अब उनका यह तकिया कलाम बन गयी हो
जो हर वाक्य में अनायास ही शामिल हो जाती
अपनी बदसूरती में भी और जिसके बिना रह पाना अब असंभव उनका
दुनिया भर की
सारी विभीषिकाएं हमारे लिए
सारे भूकम्प, सारे ज्वालामुखी, सारे तूफ़ान हमारे लिए
क्योंकि इसके हम आदी थे
और वे नाज़ुक इतने कि धूप में पिघल जाते
ठण्ड में जम कर बर्फ़ बन जाते थे
इसीलिये मोर्चे पर तैनात किया जाता सिर्फ़ हमें ही
क्योंकि हमारे बीत जाने पर भी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनकी सेहत पर
जिसके पास कोई अतीत ही नहीं उसे
बहुत डर लगता है हमारे अतीत से
जो तमाम दिक्कतों के बावजूद साक्षी हैं
एक समृद्ध अतीत के सदियों से चलते चले आ रहे हैं अपनी राह पर
और जो तमाम मुसीबतों के बावजूद
तमाम प्रताड़नाएं झेलने के बावजूद
देखते रहते हैं लगातार सपने
सच होने वाले
जो बार-बार मरने के बावजूद जी उठते
जो बार-बार गिरने के बावजूद अपने-आप ही उठ खड़े होते
और बार बार फिर से जुट जाते
हार गयी बाजी जीतने के मंसूबे से
आपसे मुखातिब हम वही हैं
जो इतिहास से एक लम्बे अरसे तक गायब रहे
लेकिन आते रहे बार-बार कवियों की कविताओं में
उमड़ते-घुमड़ते रहे जीवन की कहानियों में
हम वही हैं जो अपना रास्ता बना कर बढ़ते रहे हमेशा आगे
ठीक से पहचान लीजिए हम वही हैं
ठीक से देख लीजिए हम वही हैं
ठीक से लिख लीजिए हम वही हैं कभी भी ख़त्म न होने वाले...
3/1 बी, बी. के. बनर्जी मागर्, नया कटरा, इलाहाबाद-211002
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मिथिलेश कुमार राय की कविताएं
मैं भादो की रात में जन्मा था
कक्का कब जन्मे थे यह किसी को याद नहीं
जिस महीने ओवरटाइम ज्यादा लगता था
उस महीने पैसे अच्छे मिलते थे
इसी खुशी में
वे एक शाम भांग पीकर
थाली बजाते हुए कोई गीत गुनगुनाने लगते
कक्षा आठवीं की अमेरिका कुमारी को
अपना जन्म दिन याद है
लेकिन उसने कहा कि कब आकर गुज़र जाता है
कुछ भी याद नहीं रहता पिता को जब-जब काम मिलता है
वे माँ से लड़ाई करना भूल जाते हैं
तब उसे बड़ी खुशी मिलती है
मैं खेतों में उतरा कई लोग धान रोप रहे थे
ठीक-ठीक किसी को भी
अपना जन्म दिन याद नहीं था सबने कहा कि
फसल अच्छी होगी तो
अपने आप ओठों पर हँसी आ जाएगी
देह में उत्साह आ जाएगा
हम थोड़ा गा लेंगे
नाच लेंगे
मैं जानता हूँ
कि मेरा जन्म कब हुआ था
लेकिन यह और किसी को याद नहीं रहता
असल में वो एक भादो की रात थी
भादो में यहाँ छप्पर चूने की चिंता में
सब परेशान रहते हैं
शेष सब वैसा ही
मामी की सुबह फूल तोड़ने से शुरूहोती थी
सबसे अच्छा सुकून उन्हें
पूजा घर में मिला करता था
वे जगते ही
हज़ार देवताओं का नाम गुनगुनाने लगती थीं
हम सब की नींद किसी मधुर भजन की आवाज़ पर टूटती
तीन दिन मगर हमें बड़ा अटपटा लगता था
जैसे हमारी दिनचर्या टूट जाती थी और
हमें थोड़ा-थोड़ा सूनापन भी खलता था
हालांकि शेष सब वैसा ही चलता था
मामी वहीं सोती थीं उसी बिस्तर पर
उसी समय पर जगती थीं रोज़ की तरह वैसे ही मुसकुराती थीं
हमारे लिए खाना पकाती थीं ज़िद करके परसन देती थीं
वैसे ही
वे अपने शिशु को लोरी सुनाती थीं
तेल लगाती थीं
गोदी में झूलाती थीं
दूध पिलाती थीं
और ज़रा-ज़रा सी बात पर
जोर-जोर से खिलखिलाने लगती थीं
दुनिया में बुरा होने की ख़बर सुनकर
उदास हो जाती थीं
मगर उनकी सुबह की शुरुआत
फूल तोड़ने से नहीं होती थीं
जगते ही वे वंदना नहीं गाती थीं
हमारी आँखें किसी मधुर भजन के स्वर से
नहीं खुलती थीं
वे पूजा घर का रास्ता भूल जाती थीं
चौथे दिन से हमारा जीवन
पहले जितना सहज हो जाता था
जितने महँगे लड़के हो गये हैं
ऐसे तो यह मौसम
धान की कटाई के बाद
गेहूँ की बुआई का साधारण सा मौसम है
लेकिन यही मौसम
लड़कियों की उदासी का मौसम भी हो जाता है
यही मौसम बहुत सारे पिताओं के लिए
अभावों के खटकने का मौसम भी हो जाता है
क्या है कि अभी परसों से
हाथ पीले करने का मौसम शुरूहो रहा है
इसके कारण एकाएक जीवन को
धुंध ने घेर लिया है
क्या मैंने अभी महँगी जैसा कुछ कहा
तो इससे मुझे याद आया
कि लड़के से महँगा कुछ भी नहीं है इस संसार में
लेकिन यह बात
किसी लड़की के प्रिय पापा को ही पता होती है
सिर्फ़ इसी कारण मौसम ऐसा हो गया है
आजकल कि पापा लड़के की खोज़ में मारे-मारे फिरते हैं
कोई लड़का मिल भी जाता है तो
उसको पाने की फ़ेहरिस्त की लंबाई सबके क़द को नाप लेती है
लड़की सब कुछ सुनती रहती है
और सब कुछ देखती रहती है
लेकिन वह कैसे क्या बोल सकती है
कुछ भी कहने का काम
लड़की का उदास-उदास चेहरा करता है
किसी को बताऊंगा तो ताज्जुब होगा
कि इस मौसम में कई बार यहाँ
लड़खड़ते क़दमों के हाथ में
अभी-अभी जो कली खिलेगी
उसे बाँध दिया जाता है इसी मौसम में
जिसके पास पैसे होते हैं वे खेत खरीदते हैं
और जिसके पास नहीं होते
वे बेच देते हैं
क्या है कि पीला रंग
बड़ा महंगा हो गया है
इतना महंगा अब कुछ भी नहीं रहा...
ग्राम व पोस्ट- लालपुर, वाया-सुरपत गंज, जिला- सुपौल (बिहार)-852 137, मोबाइल-9473050546
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अजीतपाल सिंह दैया की कविताएं
एक स्त्री होती है
मैं सारी कविताएं
सबके लिए नहीं लिखता हूँ
कुछ कविताएं बहुत निज़ी होती हैं
और मैं उन्हें सिर्फ़ अपने लिए लिखता हूँ।
मेरी ये कविताएं किसी भी संग्रह में नहीं आएंगी
असल में ये वे कविताएं हैं जो मैं
एक स्त्री के लिए लिखता हूँ
एक स्त्री होती है जिससे
मन बँध जाता है जिसकी गंध तन में
बस जाती है वह स्त्री जब नहाकर
स्नानघर से बाहर आती है
और अपने गीले बाल झटकती है तो
मेरे ज़हन में बारिश होती है फिर जन्म लेती हैं
अनेक सुंदर कविताएं...
जब वह अपनी पतली उंगलियों के
नाखूनों पर नेल पॉलिश की कत्थई
परत चढ़ाती है तो
उस कमरे में फैली
कीटोनी महक
मदहोश किये जाती है मुझे
वह स्त्री
आईने में अपने चेहरे पर
आँखें गड़ाकर गाल पर उभर आयी
नन्हें से पिम्पल को देखते हुए
क्या साज़िश रचती है?
वह अपने चेहरे पर अक्सर
लगाती है कुछ फ्रेंच नामों वाले
क्रीम और लोशन
फिर उसके प्रश्न का उत्तर
हाँ में ही देना पड़ता है...
यद्यपि उसके चेहरे की रंगत में
ज़रा भी बदलाव नहीं आता
पर कहना पड़ता है
हाँ, काफ़ी साफ़ हुआ है तुम्हारा चेहरा
वाकई वह स्त्री मासूम होती है
मार्केटिंग के झाँसों की कितनी
सहजता से शिकार होती है।
सोचता हूँ उस स्त्री को
सुनाऊं अपनी कविताएं
पर इन कविताओं को
मैं निजी ही रखता हूँ
खुद उसे भी नहीं सुनाता...
रास्ते
कई बार हम
बड़ी दुविधा में होते हैं
चौराहों पर हमें
रास्तों के बहुत सारे विकल्प मिलते हैं...
और हममें से अधिकतर लोग जानते ही नहीं कि
मंज़िल तक पहुँचने का
आख़िर सही रास्ता है कौन-सा?
हम बहुत सारे लोग अनेक रास्तों पर भटकते हैं
एक सही रास्ते की तलाश में मंज़िल तक पहुँचने के लिए...
यह और बात है कि
बहुतों को तो अपनी मंज़िल ही
नहीं होती है पता
फिर भी लोग चलते रहते हैं
इस रास्ते
कभी उस रास्ते...
पर कुछ लोग अपनी मंज़िलों को लेकर
बड़े ईमानदार होते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं
अपने बनाये रास्तों पर
और अक्सर उनके रास्ते
दूसरे रास्ते से क्रॉस करते हैं...
अजमेर
दरग़ाह शरीफ़ से कुछ ही ग़ज दूर
पीपलेश्वर महादेव के नामी मंदिर के
ज़रा से फ़ासले पर
स्टेशन रोड के फुटपाथ पर
अजमेर की सर्द रात में
मर गये दो शख़्स एक फटे कम्बल में
एक दूसरे को ठण्ड से
बचाने की जद्दोज़हद में
उनके ज़िस्म आपस में
लिपटे थे।
पंचनामे में
शहर कोतवाल ने
एक ज़िस्म का नाम
भगवान लिखा और
दूसरे का मुहम्मद।
उपायुक्त (आयकर), ट्रांसफर प्राइसिंग ऑफिस-1,
कमरा नंबर-206, नवजीवन ट्रस्ट बिल्डिंग,
गुजरात विद्यापीठ के पीछे, अहमदाबाद-380009
------
अवनीश सिंह चौहान के नवगीत
हम जीते हैं
सीधा-सीधा
कविता काट-छाँट करती है
कहना सरल कि
जो हम जीते
वो लिखते हैं
कविता-जीवन
एक-दूसरे में
ढलते हैं
हम भूले
जिन ख़ास क्षणों को
कविता याद उन्हें रखती है
कविता
याद कराती रहती है
वे सपने
बहुत चाहने पर जो
हो न सके
हैं अपने
पिछड़ गये हम
शायद हमसे
कविता कुछ आगे चलती है
2
सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?
पगडंडी जो
मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत
केवल-केवल
खेतों से औ गाँवों से
इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?
जहाँ केन्द्र से
चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि
भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में
मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?
कार-क़ाफिला
हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की
पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा
कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?
3
धूप सुनहरी, माँग रहा है
रामभरोसे आज
नदी चढ़ी है
सागर गहरा
पार उसे ही करना
सोच रहा वह
नैया छोटी
और धार पर तिरना
छोटे-छोटे चप्पू मेरे
साहस-धीरज-लाज
खून-पसीना
बो-बोकर वह
फसलें नयी उगाए
तोता-मैना की
बातों से
उसका मन घबराये
चिड़ियाँ चहकें डाल-डाल पर
करें पेड़ पर राज
घड़ियालों का
अपना घर है
उनको भी तो जीना
पानी तो है
सबका जीवन
जल की मीन-नगीना
पंख सभी के छुएँ शिखर को
प्रभु दे, वह परवाज़
4
सोच रहा
चुप बैठा धुनिया
भीड़-भाड़ वह चहल पहल वह
बन्द द्वार का एक महल वह
ढोल मढ़ी-सी
लगती दुनिया
मेहनत के मुँह बँध मुसीका
घुटता जाता गला खुशी का
ताड़ रहा है
सब कुछ गुनिया
फैला भीतर तक सन्नाटा
अंधियारों ने सब कुछ पाटा
कहाँ-कहाँ से
टूटी पुनिया
ई-264/ए, प्रेम नगर, लाइन पार, मंझोला, मुरादाबाद-244001 (उ. प्र.)
मोबाइल-09456011560
-------------
पूनम शुक्ला की कविताएं
चरित्रहीन
मैं एक स्त्री हूँ प्रेम की प्रतिमूर्ति
फिर भी डरी-डरी सी सहमी-सहमी सी
ढाई अक्षर प्रेम से
देखती हूँ अक्सर आस-पास
कुछ मनचले घूमते तितलियों के पीछे
कहते हुए -
तुम प्रेम का सागर
तुममें ऊष्मा और ताप
निस्पंद पड़े इस जीवन में
दे दो बस थोड़ा सा भाप
ताकि जी रह सकें हम भी
अंकुरित हों कुछ नये बीज
फिर भरते जल्द ही उन्हें बाँहों में
श्वासों में भरते ऊष्मा बढ़ाते रक्त का संचार
तृप्त करते अपना जीवन
ज्यों स्त्री कोई जड़ी बूटी हो
किसी असाध्य बीमारी की
वही मिलते हँसते ठठाकर जोर से
अगले दिन मित्रों के बीच
बजाकर चुटकी कहते
वह तो यूँ आ जाती है
मेरी बाँहों में चरित्रहीन
वह स्त्री जब प्रेम में थी
चरित्रहीन थी तुम्हारी नज़रों में और तुम?
क्या निरीक्षण कर रहे थे उसके चरित्र का
या ईज़ाद कर रहे थे कोई नया मुहावरा
एक स्त्री के ऊपर हँसने का ।
2.
ना बाबा ना
मेरे पास बिल्कुल ना आना
मैं प्रेम से भरा गागर हूँ
छूते ही छलक जाती हूँ
मेरे आस-पास की ज़मीन
हरी भरी हो जाती है
बसंत खरगोश की तरह उछलता
हिरन की तरह कुलाँचे मारता
छा जाता है मरुभूमि पर
ना बाबा ना
मेरे पास बिल्कुल ना आना
मैं प्रेम से भरा बादल हूँ
थोड़ी सी हवा बहते ही
डोलने लगती हूँ थिरकने लगती हूँ
झमाझम बरसने लगती हूँ
गमकने लगती है धरती
चमकने लगता है आसमान
ना बाबा ना
मेरे पास बिल्कुल ना आना
मैं गीत गाती हुई निर्झरिणी हूँ
होठों से लगते ही
मेरा जल मीठा हो जाता है
चाँद आ निहारने लगता है अपना चेहरा
मुझमें मछलियाँ गिटार बजाती हैं
निर्जीव पत्थर देते हैं ढोलक पर थाप
ना बाबा ना
मेरे पास बिल्कुल ना आना
मैं नहीं बनना चाहती चरित्रहीन ।
3.
वे चलती हैं थोड़ा झुककर
झुका हुआ आभा का तना हुआ वितान भी
अपनी हँसी को थोड़ा मुल्तवी करतीं
शिनाख़्त करती आँखों से थोड़ा बचतीं
थिराए हुए क़दमों को धीरे-धीरे बढ़ातीं
आखिर क्यों ऐसे चलती हैं ये औरतें?
लगता है वे अब जान गयी हैं शब्द चरित्रहीन।
50 डी, अपना इन्कलेव, रेलवे रोड, गुड़गाँव (हरियाणा)-122001, मोबाइल-09818423425
------------
नूतन डिमरी गैरोला की कविताएं
कैनवास पर सफ़ेद फूल
सफ़ेद दीवार पर वो दो
कैनवास
जिनमें खिले सफ़ेद फूल
एक चंपा
दूसरा रात की रानी
अदीठ इच्छाओं की तरह
जो सदा बनी रहती हैं
दीवार पर
उसी तरह स्थायी
पर खिल नहीं पाते
न मुरझाते हैं कभी
न मिल पाते हैं
बस जड़ दिये जाते हैं
काली पट्टी वाले फ्रेम के भीतर
सदा के लिए
मौन का प्रत्युत्तर
जब एक सुप्त रिश्ता
जिसे जोर ज़बरदस्ती थपका के सुलाया गया था
जाग जाना चाहता हो और जी उठता हो...
अपनी आँखों को खोल कर
मिचमिचा कर देखता है ऐसे जैसे कोई शिशु
असमंजस में जानना चाहता है दुनिया को
और कि मुझे सुलाया क्यों जा रहा है,
जबकि उसे दिन-रात का हिसाब भी नहीं पता
न ही वह जानता है भूख-प्यास
बस वह जानता है रोना असुविधा के होने पर
और जानता है माँ की आवाज़...
ऐसे में वह रिश्ता रेगिस्तान में बिखरे पानी की तरह
ऊंचे पर्वतों में विलुप्त होती हरियाली की तरह
समुन्दर में जा दबी नदी की मिठास की तरह
पूछता है संदेह में
अपने होने या न होने का मतलब...
कभी मुस्कुरा कर
तो कभी उठाकर फन
कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ?
तब बोलता है एक मौन,
अपनी वर्ज़नाओं की दीवार में
सेंध लगा कर बना लेता है
एक विलुप्त होता हुआ अस्थायी सा सुराख
जिस पर अपने होंठो को धीमे से
रख कर
फुसफुसाता है चुपके से और कहता है...
तुम पानी, तुम लपलपाती आग
तुम पृथ्वी, तुम आकाश
तुम मिट्टी और मिट्टी में बसा प्राण...
मधुर क्लिनिक, अपर नत्थनपुर, मसूरी रिंग रोड, जोगीवाला, देहरादून-248001, मोबाइल-9425085330
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मीता दास की कविताएं
हिंसक गीत
भूखा मानुस
अब सिर्फ़ भात के लिए ही नहीं
नारों के लिए भी मुँह खोलता है
पीठ भी खुली पेट भी खुला
फिर भी गोलियाँ नाकाम...
भात माँगा है, भात दे
बदले में ले-ले स्वेद से गीले दिन और नींद उड़ी रातें
दे सिर्फ़ भात...
भूखे मानुस आज आँखें तरेर कर चिल्ला रहे हैं
क्या आप तक पहुँच रही है उनकी आवाज़?
सभी ने कानो में ठूंस रखे हैं इयर फोन
चल रहा है एफ. एम./आईपॉड पर वेस्टर्न धुन
या चक दे इंडिया...
इस इंडिया में भूखे मानुस की जगह कहाँ है
कहाँ है उसका भात
भूखा मानुस आज भी मुँह खोले खड़ा है अवाक्
अब तक अपना लहू पी रहा था
भूखे भाई का लहू चाट रहा था
अब वे जंगल छोड़ दौड़ रहे हैं शहर की ओर
भूखा मानुस अब लहू पीएगा
तुम्हारा बचना अब असंभव है
आओ मेरे साथ
इन भूख से छटपटाते लोगों की तरफ़...
भूखे मानुस का रोना भद्र जनों को
हिंसक गीत लगता है...
मगर ज़रा उतरो तो इन गीतों के मर्म में
अपने स्वर्ग से बाहर निकलकर एक बार देखो तो
जब तक इनके भीतर लहू का कोई कतरा शेष
है यह चुप नहीं बैठेगा...
लहू अपने हक़-हिसाब माँगेगा...
भूखा पेट कुलबुलाएगा
भोजन माँगेगा..
आदमी कराहेगा जंगल का
और शहर को कंपा देगा...
हम बस्तरिया
आओ, बस्तर आओ और देखो हमें
कैसे हैं हम
निपट साधारण से ही हैं हम
हे पर्यटकों
कोई अजायबघर के जन्तु नहीं हैं हम
न ही हमारा बस्तर कोई अजायबघर है
क्या देखने आते हो
तुम्हें क्या लगता है तुम्हें कैसे लगते हैं हम...?
देखो हमारे खुले स्तनों को
उनसे चिपटे कुपोषित दुधमुँहों को
क्या तुम्हें दिखाई पड़ती है
खुले स्तनों से झाँकती ममता?
तुम फोटो खींचते हो
हमारी बेवशी का अपने घरों में सजाने के लिए...
हमारा रहन-सहन, उठाना-बैठना सभी तो
पहुँच गये हैं तुम्हारे बैठकखानों में
जहाँ बैठकर घोटुल पर
उत्तेजक कल्पनाएं करते हो तुम
हमारा घर यही जंगल है आकाश है हमारी छत
हम भी तो इस देश के ही नागरिक हैं पर्यटकों
कैसा लगता है तुम्हें हमारा मुँह फाड़कर हँसना
हमारा ताली बजाकर ठहाका लगाना
हमारे आँसू कैसे लगते हैं तुम्हें
हम निपट बेढब तरीक़े से
चुम्बनों की बौछार करते हैं
बच्चों के गालों पर और
चुम्बनों की लार
गालों पर चिपचिपी सी...
बताओ न, क्या सोचते हो हमारे बारे में?
63 / 4 , नेहरूनगर वेस्ट, भिलाई नगर (छत्तीसगढ़)-490020, मोबाइलः 9329509050
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नीलम दीक्षित की कविताएं
पतझर
चतुर्दिक हवाएं यूँ चलीं
बवंडर बनाती
जिनमें उड़े चरमराकर
सभी सूखे पात,
डालियाँ झुकी भी तो क्या करतीं!
हाथ बढ़ाती
पर क्या पातीं
सूखकर उचट चुका था
न जाने कब उनके बीच
उन्हें बाँधता द्रव,
तभी तो वे भरभराए
और दूर-दूर तक खड़खड़ाते
उड़ते जाते पत्तों की तरह
रह गयी
अनकही बातें
अनसुने मर्म
अनबूझे अनेक प्रश्न!
पतझर में
झरते पत्तों सा
फिर-फिर बिखरा स्वप्न...
फ़ोल्डर
एक वीराना
सिमट जाता है
मेरे भीतऱ
तस्वीरें और
कही अनकही सी
अनेक चीज़ें
कितनी यादें
वफाएं, प्यार और
कितने रंज
समेटता है
तमाम दस्तावेज़
जैसे फ़ोल्डर
नदी
पत्थरों से टकराती
पहाड़ों से झरती
रेतीले पथ पर भी
अठखेलियाँ करती
लहराती बलखाती
अपनी धुन में नदी
समुंदर से मिलने
जब भी निकलती...
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