हिंदी काव्य परम्परा एक जीवंत परम्परा है. इसमें समय-समय पर अनेक प्रयोग हुए हैं जिन्होंने उसे ना केवल गति प्रदान की है बल्कि सृजन और रचना के ...
हिंदी काव्य परम्परा एक जीवंत परम्परा है. इसमें समय-समय पर अनेक प्रयोग हुए हैं जिन्होंने उसे ना केवल गति प्रदान की है बल्कि सृजन और रचना के कई नए द्वार भी खोले हैं. हिंदी में सौनेटस् लिखे गए और खूब प्रचलित हुए. इसी प्रकार लिरिक्स रचे गए,
और तो और, लिमिरिक्स् भी लिखे गए जिन्हें हम तुक्तकों के रूप में भली-भांति जानते पहचानते हैं. पिछले पच्चीसेक वर्षों से जापानी काव्य विधा हाइकु ने भी अपना एक निश्चित स्थान बना लिया है. हाइकु की लोकप्रियता का आज यह आलम है कि वर्ष 2004 में कम से कम हिंदी में 20 हाइकु संकलन प्रकाशित हुए है. इनमें कुछ नहीं तो तीन-चार हज़ार हाइकु तो होंगे ही. लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि इन हज़ारों हाइकुओं में शायद 300-400 हाइकु ही ऐसे हों जो हाइकु की श्रेणी में आ सकें. शेष तो बस हाइकु लेखन के अधिक से अधिक अभ्यास मात्र कहे जा सकते हैं.
जापान में हाइकु के विषय मुख्यतः प्रकृति और अध्यात्म रहे हैं, किंतु हिंदी में विषयगत विस्तार काफी हुआ है. प्रकृति और आध्यात्मिक अनुभूतियों के अतिरिक्त प्रेम और परिवेश, समाज और समय, प्रकृति और स्मृति ने भी हिंदी हाइकु में अपनी पैठ बनाई है.
हिंदी हाइकु मुख्यतः अपने परिवेश से जुड़ा है. यहां की रचनाओं में पर्यावरण संबंधी चिंता स्पष्टतः परिलक्षित होती है. नीलमेंदु सागर वृक्ष विहीन पहाड़ियों को देखकर दुःखी हैं. उन्हें ऐसा लगता है कि नंगी शाखाएं घनश्याम (बादल/
कृष्ण) से मानों प्रार्थना कर रहीं हैं कि वह उन्हें वस्त्र प्रदान करें. उन्हें यह भी लगता है कि सारे के सारे वृक्ष, जिनके पत्ते झड़ गए हैं, हरे सपने देख रहे हैं. –
नग्न शाखायें/
मांगती रही साड़ी/
घनश्याम से
बेपात पेड़/
रात भर देखता/
हरे सपने
इन हाइकुओं में दुःख तो है किंतु आशावादिता भी झलकती है. पर इस आशा का कोई ठोस आधार नहीं है. यह केवल प्रार्थना के रूप में प्रकट हुई है. कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि दुःख से मानों प्रकृति ने समझौता कर, उसी में संतोष कर लिया है.
बासंती हवा/
ठूंठ से बतियाती/
संतोषी कथा.
स्थिति बदल नहीं सकती, फिर भी कवि द्वारा यदि परिवेश के पतन का संदेश ही पाठक तक ठीक-ठीक पहुंच जाए तो भी सुधार का कोई न कोई रास्ता शायद निकल ही आए. परिवेश की इस चिंता को उर्मिला कौल में भी देखा जा सकता है. उन्होंने बहुत ही काव्या त्मक ढंग से नारी सुलभ भाषा में कहा है -
उकुड़ूं बैठी/
शर्मसार पहाड़ी/
ढूंढती साड़ी.
उर्मिला जी का यह अद्वितीय हाइकु है.
कविता के लिए प्रेम एक शाश्वत विषय रहा है. यह एक ऐसी भावना है जिसने मनुष्य को सर्वाधिक विचलित किया है. प्रेम का यह संसार हिंदी हाइकु में भी अपनी उपस्थिति बनाए रखे है तो कोई आश्चर्य नहीं. प्रदीप श्रीवास्तव के लिए प्रेम निःसंदेह महत्वपूर्ण तो है, किंतु ऐसा लगता है कि वे उसे ज़िंदगी का एक हिस्सा भर मानते हैं.
वे कहते हैं –
एक टुकड़ा/
ज़िंदगी जी ली मैंने/
तुझे पाकर.-
लेकिन ज़िंदगी का यह एक ऐसा टुकड़ा है जो सदा-सदा के लिए ज़िंदगी में सुरक्षित है –
सहेज रखा/
कभी नहीं भूलूंगा/
स्निग्ध स्पर्श.
पर प्रेम केवल स्मृति का होकर ही नहीं रह जाता. वह मनुष्य को शून्यता, उदासी और नैराश्य में ही ढकेल सकता है. नीलमेंदु सागर ऐसे ही खंडित प्रेम के शिकार हैं –
किसे क्या पता/
इस गली में हुआ/
चांद लापता.
शून्य में बैठा/
ताकता शून्य को ही/
शून्य जैसा ही.
सूना आंगन/
चांदनी बिछा बैठी/
उदास रात.
हिंदी हाइकु पर्यावरण और प्रेम से ही नहीं अपने समय और समाज से भी घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है. समय को न पहचान पाना और समय की गति को अनदेखा कर देना बहुत भारी पड़ सकता है. सिद्धेश्वर इसकी क़ीमत अच्छी तरह पहचानते हैं, कहते हैं,
न पहचाना/
जिसने समय को/
उसने गंवाया.
रोक न सका/
समय को कोई भी/
हम ही रुके.
हम आज अपने समय की विसंगतियों की, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार की, अक्सर अनदेखी करते रहते हैं. किंतु यह ठीक नहीं है. इससे तो पतनोन्मुख समाज और भी गर्त में चला जाएगा. आज के सुर निश्चय ही सुरीले नहीं है. अतः सिद्धेश्वर जी हमें सदा सजग रहने का परामर्श देते हैं –
अंधेरा अभी/
और गहराएगा/
जागते रहो.
सिद्धेश्वर की ही तरह भास्कर तैलंग भी समाज में व्याप्त अपसंसकृति से बहुत चिंतित हैं. उनके अनुसार –
यहां भाग्य में/
वनवास लिखा है/
सदा राम के
हर ईसा को/
इस धरती पर/
सूली मिलती
इसका कारण है. मनुष्य में पाशविक वृत्तियां बड़ी तेज़ी से घर कर रहीं हैं –
शहर आए/
शेर चीते स्यार/
जंगल छोड़
चारों तरफ/
दिखाई देते हैं/
मकड़ जाल
समाज में आज पैसे का बुखार चढा हुआ है –
अर्जित करें/
जायज़ नाजायज़/
सभी कमाई.
व्यक्ति का आज अपना कोई मूल्य नहीं रहा है. जबतक भोगा जा सकता है उसे भोगा जाता है और बाद में मक्खी की तरह उसे निकाल फेंका जाता है. प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं कि हम लगातार – तृप्त होकर/
बुझी सिगरेट को/
रौंधते रहे – हमारा मन बौना हो गया है वह रिश्तों की दूरी तो नापता है, संबंधों की निकटता का प्रयास नहीं करता -
मन वामन/
प्रतिदिन नापता/
रिश्तों की दूरी
प्रकृति का सौंदर्य-चित्रण और उसका मानवीकरण हिंदी कविता में हमेशा से ही एक मुख्य धारा रही है. हाइकु रचनाएं भी इसका अपवाद नहीं हैं. यहां भी हम प्रकृति का मानवीकरण कर एक अद्भुत संसार की रचना करते हैं. ऋतुओं के अनुसार प्रकृति जिस तरह से अपना चोला बदलती है, वह कवियों को चमत्कृत करता है. आकाश, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु सभी तत्व अपनी करामात दिखाते हैं. तेज़ वायु के झोंके निःसंदेह दीपक बुझा भी सकते हैं, लेकिन प्राण-वायु न हो तो दीपक जलता भी तो नहीं रह सकता. इसीलिए सिद्धेश्वर कहते हैं –
हवा से पूछो/
ये कौन जलता है/
दहलीज़ पे.
भास्कर तेलंग बताते हैं, दीपक ही नहीं, -
जल उठती/
राख दबी चिंगारी/
हवा पाकर.
यह चिंगारी प्रतिभा की हो सकती है, सात्विक क्रोध की हो सकती है, और प्रेम की भी हो
सकती है. हवा का अर्थ यहां अनुकूल परिस्थिति से है जो व्यक्ति को प्रोत्साहित करती है. हवा है, तो साफ सफाई भी है –
पत्ते झरते/
बुहार रही हवा/
सृष्टि आंगन
लेकिन कुछ लोग तो हवा को आवारा समझते हैं और खिड़कियां बंद कर लेते हैं. ऐसे में बेचारी हवा भी क्या करे! -
बंद हवा/
दस्तक दे लौटती/
आवारा हवा - (नीलमेंदु सागर)
परंतु इसी हवा का स्वागत पके धान की बालियां करती हैं और हवा उन्हें चूम-चूम लेती है. -
हवा चूमती/
पके हुए धान की/
बाली झूमती- (प्रदीप श्रीवास्तव)
प्रकृति की ऋतुएं भी हाइकुकारों को उद्वेलित करती हैं. ग्रीष्म ऋतु एक ऐसी ऋतु है जो किसी को भी झुलसा दे लेकिन नीलमेंदु सागर कहते हैं कि अमलतास की शोखी तो देखिए, वह जलते बैसाख में भी पीला परिधान पहने बैठा है-
जला बैसाख/
शोख अमलतास/
पियरी ओढे
और यह फूलों का राजा, कि शरद ऋतु में जब
नीबू ने थामा/
आंचल तितली का/
जला गुलाब
विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोच रखना कोई प्रकृति से सीखे. प्रकृति बेशक सुंदर तो है ही, पर कवि अपनी कल्पना से उसे और भी सुंदर बना देता है.
पक्षियों में एक पक्षी है काग. जन-जीवन में इसे कई तरह से चित्रित किया गया है
मुंडेर पर अगर कागा बोलता है तो यह प्रिय के आगमन की सूचना देता है. मगर कौआ झूठ बोलने पर काट भी लेता है. कौए की निंदा भी कम नहीं हुई है,
निंदित पक्षी/
श्राद्ध में काम आते/
केवल कौए (भास्कर तेलंग)
लेकिन कौए की एक पहचान यह भी है कि वह अकेला कभी नहीं खाता. खाते समय वह कांव-कांव की पुकार लगाकर अपने सभी साथियों को न्योता देता रहता है. उर्मिला कौल कौए के इसी गुण को रेखांकित करती हैं –
काग से सीख/
खा मिलके खाना/
कांव पुकार
पर्यावरण और प्रकृति से अपना अटूट सम्बंध बनाए रखकर भी हिंदी हाइकुकार अन्य कवियों की तरह आत्मरति में लीन, आत्मकेंद्रित भी है. उसने अपनी निजी इच्छाओं और महत्त्वाकांक्षाओं को अभिव्यक्ति देने में कभी कोताही नहीं बरती. वह एक दार्शनिक की तरह स्पष्ट कहता है कि ,- अपने से ही/
हम तो अभी तक/
अनजाने हैं.
(भास्कर तैलंग)
इसीलिए जब भी वह एकांत में होता है यादों के मेले लगते हैं. उर्मिला कौल तो मुख्यतः अपनी वेदना और स्मृति को पंख देने में एक सिद्धहस्त हाइकुकार हैं. –
जितना छुआ/
उतनी बिखरी मैं/
रेत का घर.
उड़ी पतंग/
हां वो काटा थी वह/
मेरी पतंग.
उर्मिलाजी अपनी दुःखद स्मृतियों को विशेषकर सहेज कर रखती हैं और उन्हें याद कर मानों सुख अनुभव करती हैं. –
लपेटा लगा/
सेंकती मैं यादों की/
ऊष्म कांगणी
यादों के मोती/
चली पिरोती सुई/
हार किसे दूं
अपनी स्मृति में दूसरों को सम्मिलित करना उन्हें अच्छा लगता है.
उर्मिला जी अपने मायके को कभी भूल नहीं पातीं. उन्हें मायके जाना, धूप की तरह थोड़ी देर के लिए ही सही पर सुखद प्रतीत होता है. आदमी मायके नहीं जाता लेकिन कभी-कभी उसे अपना गांव छोड़ना पड़ता है और तब लगभग उसी गृह-विरह की अनुभूति जो स्त्री को मायके के लिए होती है, उसे भी होती है. इस ‘नॉस्टेलजिया’ से हिंदी कवि भी कम पीड़ित नहीं दिखते. रमाकांत श्रीवास्तव को हम बिना हिचक गृह-विरह के हाइकुकार कह सकते हैं. –
खुल गए हैं/
पी कहां पुकार से/
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कहां वो कुआं/
कहां वो पनघट/
कहां वो गांव
हाइकु अपने मूल स्थान, जापान से इतना दूर आगया है कि कहने को बेख़ास्ता मन करता है कि कहां जापानी और कहां हिंदी हाइकु! फिर भी कुछ हाइकुकारों ने हाइकु से
अपना तादात्म बैठा ही लिया है. उर्मिला कौल के ही शब्दों में, -
हाइकु संग/
रहते-रहते मैं/
बनी हाइकु.
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चर्चित हाइकु संकलन –
1, उर्मिला कौल, बिल्ब पत्र, आरा 2, नीलमेंदु सागर, दोना भर त्रिदल, दिल्ली.
3, भास्कर तैलंग, मकड़जाल, होशंगाबाद. 4, रमाकांत श्रीवास्तव, प्यासा बन-पाखी, 5, सिद्धेश्वर, सुर नहीं सुरीले, दिल्ली. 6, सिद्धेश्वर, जागरण के स्वर, दिल्ली
7, प्रदीप श्रीवास्तव, एक टुकड़ा ज़िंदगी, रायबरेली.
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