किसी भी सार्वजनिक व्यवस्था का संचालन कर (tax) द्वारा प्राप्त अर्थ शक्ति के बल पर होता हैं। कर का निर्धारण सार्वजनिक संस्था की मूलभूत समस्या...
किसी भी सार्वजनिक व्यवस्था का संचालन कर (tax) द्वारा प्राप्त अर्थ शक्ति के बल पर होता हैं। कर का निर्धारण सार्वजनिक संस्था की मूलभूत समस्या है। इसके निर्धारण के संदर्भ में स्मृतिकारों के मत में विभिन्नता है लेकिन सबके मत में एक समानता है कि कर नागरिकों पर भार नहीं बनने चाहिए। प्राचीन युग से कर निर्धारण राज्य एवं संस्थानों का स्वरूप तय करती आई है। कर व्यवस्था के आधार पर इतिहासकारों ने राजाओं की लोकप्रियता तय किया है।
राज्य के संदर्भ में कराधान को कई स्मृतिकारों की लेखनी ने स्पष्ट किया है। समाज के संदर्भ में सर्वप्रथम हजरत मोहम्मद ने कराधान की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए इसे आवश्यक धार्मिक सिद्धांत में डाल है। हजरत मोहम्मद साहब ने प्रत्येक मुसलमान को अपनी आमदनी का 40 वां भाग अर्थात 2.5 प्रतिशत जकात या कर रुप में देने की शिक्षा दी गई। समष्टि समक्ष कम्पनी एवं व्यापारिक प्रतिष्ठान व्यष्टि के रुप में गण्य हो। प्रत्येक व्यष्टि से प्राप्त आय से समष्टि आय का निर्माण होता हैं । महात्मा गांधी जी ने ग्राम स्वावलंबन के माध्यम से आय पर प्रथम अधिकार ग्राम हो इस ओर ईशारा किया है।
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने आनन्द मार्ग की कर प्रणाली को सुनिश्चित करते समय व्यष्टि अपनी आय का 2 प्रतिशत समाज सेवा में खर्च करने की व्यवस्था दी है । व्यष्टि से यह कर सबसे छोटी इकाई प्राप्त करेगी। यह इकाई अपनी उच्च इकाई को कुल आय का आठवां भाग अर्थात 12½% देकर शेष आय से जन कल्याणकारी एवं समष्टि कार्यो में खर्च करने की व्यवस्था प्रदान की।
प्राचीन राज्य , समाज एवं आन्दोलन के कराधान पर अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि सार्वजनिक सम्पत्ति निर्माण के चार आधार है - स्वैच्छिक दान, निर्धारित कर, सार्वजनिक निलामी से एवं लुट से प्राप्त धन। इसके अतिरिक्त पराजित राज्य से प्राप्त सम्पदा तथा उपहार भी समष्टि आय के निर्धारक बने हैं। उपासना एवं आस्था के कार्य मात्र स्वैच्छिक दान ही होना समाज हित में है। सामाजिक रीति रिवाज के निष्पादन से संदर्भित कार्यों पर सदस्यों पर आय के अनुकूल निर्धारित कर एवं स्वैच्छिक दान से करने चाहिए। जनकल्याणकारी कार्य हेतु स्वैच्छिक दान, निर्धारित कर एवं सार्वजनिक उपक्रम से प्राप्त आय का भी उपयोग किया जा सकता है। यद्यपि लुट से प्राप्त सम्पदा को राष्ट्र या समाज की आय निर्धारण का आधार नहीं माना जा सकता है तथापि किसी आन्दोलन को मूर्त रुप देने के लिए इसे वैध माना गया है। लेकिन इसे नैतिक एवं मानवीय पैमाने पर सही नहीं ठहराया जा सकता है।
कर निर्धारण की आदर्श व्यवस्था किसी भी नागरिक को कष्ट में डाले बिना सभी के लिए न्याय करने वाली होनी चाहिए। व्यष्टि अपनी आय का 2% समष्टि को प्रदान करने से समष्टिगत कार्य निष्पादन की प्रासंगिकता पर विचार कर ही हम इसे आदर्श कर व्यवस्था की उपमा दे सकते है। प्रथम कर व्यवस्था का यह आधार सामाजिक विषमता की कसौटी पर कारगर सिद्ध होता है। इससे अमीर को समाज के प्रति उसके उत्तरदायत्व का बोध करवाता हैं तथा गरीब के मन भी समाजिक भागीदारीत्व की आवश्यकता को बताता है। आम आदमी के मन में समष्टी के लिए त्याग की महत्ता को भाव जगता हैं। इससे किसी की व्यष्टिगत अर्थव्यवस्था संकट में नहीं पडती है।
आदर्श कराधान को कतिपय प्रश्नों का सामना करना चाहिए। समष्टि आय के समक्ष व्यष्टि आय किसकी मानी जाए ? मेरे विचार से समष्टि अर्थात सम्पूर्ण मानव समाज की आय के निर्धारण करते समय उस क्षेत्र के समस्त व्यक्तियों एवं व्यष्टिगत एवं समष्टिगत संस्थान जिससे आर्थिक उपादान होता हैं। व्यष्टि मानकर आदर्श कराधान व्यवस्था को लागू किया जाए। दूसरी समस्या यह की व्यष्टि की आय निर्धारण के मानदंड क्या हो ? नकद वेतन के रुप में आय प्राप्त करने वाले व्यष्टि की तुलना में व्यपारी एवं किसान की आय का अनुमान लगाना दुष्कर है। इस निर्धारण के लिए नैतिक मानदंड के अतिरिक्त गुप्तचर व्यवस्था के द्वारा भी आय का पता लगाया जा सकता है। इन सभी व्यवस्था के होते भी चोरियां तो होना स्वाभाविक है। अत: समाज को शक्तिशाली आध्यात्मिक आंदोलन के द्वारा लोगों में नैतिक मूल्यों को प्रतिस्थापित करना होगा। अन्य समाधान के तहत कर संकलन का कार्य ग्राम एवं शहरी स्तर पर वार्ड इकाई के द्वारा करवा कर आय के संदर्भ में झुठ लगाम लगाई जा सकती है।
यह कर व्यवस्था समाज के सभी स्तर व्यक्तियों के साथ न्याय करता है। कर अपनी हैसियत से दो। समाज आपका सुन्दर बनेगा। हमारे स्वपनों का विश्व आसमान से नहीं टपकेगा हमें ही बनाना है । सभी से समान कर लेने की बात सुनने में जितनी अच्छी लगती है व्यवहारिक धरातल पर खरी नहीं उतरती हैं। 2 प्रतिशत की नीति सुनने में हो सकता हैं कर्कश लगे लेकिन व्यवहार में लाया जाए तो कारगर प्रतीक होगी। 2 प्रतिशत में व्यष्टि की जिम्मेदारी है तो समष्टि का उत्तरदायित्व है। व्यष्टि का निर्धारण करना समष्टि की विवेकपूर्ण मानसिक पर निर्भर करता है। 2 प्रतिशत कर देने से किसी व्यष्टि की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने में संकट उत्पन्न होता है तो उस व्यष्टि पर आपातकाल लागू कर 2 प्रतिशत कम किया जाना समाज के लिए हितकर है। समाज को इस बात की दृष्टि रखना होगी कि कर व्यवस्था में ढील देना परिपाटी नहीं बन जाए। समाज सेवा के लिए गृह त्याग व्यष्टि की जब तक निजी संपत्ति नहीं है। समष्टि के समक्ष व्यष्टि इकाई से पृथक रखना समाज के लिए हितकर है । निजी जीवन संचालन के लिए समाज उपभोग करने के बदले वह अपनी सेवा दे रहे वही उनका कर है। समाज एवं राज्य के उच्च पद आसीन व्यष्टि के संदर्भ में हमारी आदर्श कर प्रणाली क्या होनी चाहिए ? विश्व में व्याप्त समस्त व्यवस्थाओं ने उच्च पद पर आसीन व्यष्टियों विशेष सुविधा से अलंकृत किया है। मैं इसका विरोधी नहीं हूँ। यदि समाज उनके गुणों का आदर करता है तो समाज बदले में उनसे विशेष जिम्मेदारी की मांग करता है। अत: इन व्यष्टियों को आमजन से कुछ विशेष देना चाहिए । इनका कर आमजन अधिक रखना समाज में इन व्यष्टियों प्रति आमजन के मन में आदर भाव वृद्धि करता है। लेकिन इन व्यष्टियों का कर अधिकत्म 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। सरल भाषा में कहा जाए तो प्रशासनिक अधिकारी, विधायक, सांसद, मंत्रीगण एवं शासक पर लगने वाला कर आमजन से अधिक होना चाहिए। इस व्यवस्था का समर्थन हो सकता है। कोई सहज करने को तैयार नहीं हो लेकिन इस व्यवस्था के परिणाम सुखद एवं सकारात्मकआएंगे।
विषय के अन्त में वर्तमान समाज में राष्ट्रीय आय के निर्धारित मापदंड पर विचार करेंगे। सेल टेक्स अर्थात बिक्री कर किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। इसका प्रत्यक्ष एवं परोक्ष भार उपभोक्ता पर ही पड़ता है जो करदाता के साथ कर निर्धारक द्वारा किया गया छल है। आयकर के प्रति बढ़ रहा असंतोष उपरोक्त कर प्रणाली से मुक्त हो जाएंगे । अन्य वाणिज्यिक कर किसी व्यवस्था के साथ न्याय नहीं है। दैनिक आवश्यकता एवं विलासिता की वस्तु की श्रेणीयां निर्धारित कर की कर व्यवस्था किसी भी प्रकार से कारगर सिद्ध नहीं हुए हैं। मादक एवं उत्तेजक पदार्थों के क्षेत्र में अधिक कर नीति आर्थिक क्षेत्र न्याय पद्धति पर भी सवालिय निशान है। कर सदैव प्रत्यक्ष होनी चाहिए करदाता को ज्ञात होना चाहिए कि मैं कर दे रहा हूँ। टोल टेक्स एवं रोड कर हास्यप्रद है। यह सुविधा नागरिक को प्रदान करना समाज का दायित्व है। व्यक्ति के प्रति समाज द्वारा किये गए कार्य विशेष पर कर निर्धारित करना सेवा नहीं व्यपारिक समझौता है जो उपभोक्ता को अनचाह करना पड़ता है। एक अतिथि को एक दिन के उपभोग के बदले कर देना समाज की आतिथ्य मर्यादा के विपरीत है। सीमा कर राजनीति की आर्थिकता के साथ की गई ना इंसाफी है। यह तस्करी के मार्ग खोल देते हैं। प्रत्यक्ष कर व्येतिरेक अन्य कोई भी कर व्यवस्था अनैतिक एवं गैर कानूनी हथकंडों को अंजाम देने के लिए मजबूर करता है।
आदर्श कर प्रणाली समाज की विषमता को स्वीकार कर सभी के लिए न्यायप्रद कर व्यवस्था की वकालत करती है। समाज सबका हैं इसको सुन्दर बनाना हमारा कर्तव्य एवं जिम्मेदारी है । हम जैसा अपने परिवार के प्रति व्यवहार करते वैसा ही समाज के प्रति करे विश्व एक परिवार सदृश्य बन जाएगा। एक ऐसा सुंदर समाज बनेगा जो सभी पर विश्वास करेगा एवं वसुंधरा स्वर्गमय बन जाएगी।
लेखक -- श्री आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलाव
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