सौरभ श्रीप्रकाश काव्य संग्रह प्रकाशक / लेखक की अनुमति के बिना इस पुस्तक को या इसके अंश को संक्षिप्त, परिवर्धित कर प्रकाशित करना या फ़ि...
सौरभ
श्रीप्रकाश
काव्य संग्रह
प्रकाशक / लेखक की अनुमति के बिना इस पुस्तक को या इसके अंश को
संक्षिप्त, परिवर्धित कर प्रकाशित करना या फ़िल्म आदि बनाना कानूनी अपराध है ।
प्रकाशक :
अंजुमन प्रकाशन
९४२, आर्य कन्या चौराहा
मुठ्ठीगंज, इलाहाबाद - २११००३
उत्तर प्रदेश, भारत
पुरोवाक
कविता कवि की मानसी सृष्टि है जिसके माध्यम से कवि अपनी व्यापक सोच एवं कल्पनाशक्ति के सहारे ऐसा रचना संसार सृजित करता है जो जनमानस को लोकोत्तर आनंद की अनुभूति कराती है । इतना ही
नहीं इसके अनुशीलन से व्यक्ति की वैचारिक एवं चारित्रिक शक्ति को उत्कर्ष भी प्राप्त होता है फलस्वरूप समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना होती है साथ ही समरसता, सदाचार, सद्भावना, त्याग एवं परोपकार को बल मिलता है । समाज में व्याप्त अनेक प्रकार की विद्रूपताओं, विसंगतियों, असमानताओं एवं देश एवं समाज को हानि पहुँचाने वाली अनेक प्रकार की परिस्थितिजन्य समस्याओं के प्रति प्रबल विरोध भी कवि के इस रचना संसार में दृष्टिगोचर होता है ।
काव्य सृजन की शक्ति ईश्वर प्रदत्त होती है यह मात्र उसी व्यक्ति को प्राप्त होती है जिसपर माँ वीणापाणि की असीम अनुकम्पा होती है कविवर श्रीप्रकाश जी भी माँ शारदा की कृपा प्राप्त एक नैसर्गिक प्रतिभासंपन्न उर्वर हृदय के संवेदनशील कवि हैं । आप द्वारा विरचित ’सौरभ’ एक भावपूर्ण, सरस एवं मार्मिक काव्यकृति है । यह काव्यकृति दो खण्डों में विभक्त है प्रथम खंड में इकतालीस एवं द्वितीय खंड में सैंतीस विभिन्न शीर्षकों में निबद्ध कवितायेँ, गीत/मुक्तक हैं । ’सौरभ’ काव्यकृति का विषय क्षेत्र अत्यधिक व्यापक है जिसमें कवि ने अपने अंतस में समयसमय पर उठने वाली भाव तरंगों को रूपायित किया है । इस कृति की कुछ रचनाएँ कवि की निजी अनुभूतियों को व्यक्त करतीं हैं जिनकी भाव छटा एवं कल्पना शक्ति सहज ही जनमानस को अपनी ओर आकृष्ट करती है तथा कुछ रचनाएं देश एवं समाज की दशा एवं दिशा को चित्रित करतीं हैं ।
कवि की सोच अत्यंत व्यापक होती है । सम्पूर्ण विश्व उसकी सोच की परिधि में आता है यही कारण है कि कवि अपनी लेखनी के माध्यम से जो लिखता है उससे सम्पूर्ण मानवता का कल्याण होता है । ’दीपक से’
शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये जिसमें कवि ने देश से अज्ञता का तिमिर मिटाकर सत्य का प्रकाश फ़ैलाने की दीपक से याचना की है-
’सत्य ज्योति के प्रीतम दीपक
भारत भू पर
विस्तृत तम हर
ऐसी रश्मि बिखेर तुरत
प्रिय मत तू अब कर देर ।’
यह शरीर नश्वर है । यह प्रत्येक व्यक्ति जानता है परन्तु वह अपने निजी स्वार्थ में इतना अंधा हो गया है कि जान कर भी अन्जान बन रहा है ।
आज का मानव दया, त्याग, परोपकार एवं सद्कर्मों से विमुख हो रहा है । इन्हीं भावों से ओतप्रोत ’जीवन क्षणिक है’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिये-
’जीवन क्षणिक है
हर जीव को ज्ञात है
फिर भी
वह सद्कर्म न करके
दुष्कर्म अधिक करता है ।
ऐसा क्यों ?
जीवन में
सुकर्म करना चाहिए
ऐसा उपदेश
हर व्यक्ति हमें देता है
फिर भी
हम उसके वचनों का
पालन नहीं करते ।’
वास्तव में वे व्यक्ति धन्य हैं जो सम्पूर्ण जीवन मानव सेवा में न्योछावर कर देते हैं । कवि श्रीप्रकाश जी ने इस कृति में निहित अनेक रचनाओं में समाज को मानव सेवा की ओर प्रेरित किया है साथ ही आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करने की शिक्षा भी दी है । अंतर्मुखी साधना के सुफल से भी व्यक्ति को अवगत कराया है ’अन्दर टटोल’ शीर्षक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखिये-
’मानवता पर करें निछावर अपना साहस औ बलिदान,
उसी व्यक्ति के प्राण महा हैं वही विश्व में बने महान ।’
’एक जगह पर तुम्हें मिलेगा सत्य ज्योति का तीव्र प्रकाश,
जहाँ शांति के वातायन से आती रहती सदा सुवास ।’
इस कृति में अनेक भावपूर्ण रहस्यवादी रचनाएं भी हैं । परमात्मा को प्रियतम मानकर कवि ने अपनी आंतरिक अनुभूतियों को व्यक्त किया है । आत्मा का कथन ’निष्काम कर्म’ शीर्षक रचना में इस प्रकार है-
’हे प्रीतम मुझे कुछ न दे
लेकिन उस सरल सरिता के समान
रूप कर्म और अबाध गति से
तरंगायित रहने की
क्षमता अवश्य दे ।’
’सौरभ’ काव्यकृति में अनेक ऐसी रचनाएं भी हैं जिनको कवि ने यथार्थवादी आधार प्रदान किया है । आज के इस मशीनी युग में व्यक्ति स्वयं मशीन हो गया है । वह संवेदनहीन, धर्म,कर्म एवं मानवता से दूर होता जा रहा है । ’वाह रे’ शीर्षक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखिये जो इन्हीं भावों से ओतप्रोत हैं-
’वाह रे !
आया मशीनी युग धरा पर
धर्म से हटता मनुज
बस जी रहा है
जी रहा केवल अकेला
शांति खोकर पी रहा
अमृत सरीखा विष
जिसे न कोई समझ
जी रहा बस
अर्थ की गठरी समेटे ।’
’सौरभ काव्यकृति के द्वितीय खंड में मुक्तक एवं गीत हैं । कवि श्रीप्रकाश जी ने निरंतर नवसृजन के पथ पर एक आशा और विश्वास के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा समाज को दी है । प्रत्येक व्यक्ति को मार्ग में आने वाली बड़ी से बड़ी बाधाओं को हटाते हुए निर्भीकतापूर्वक आगे बढ़ना चाहिए । यही एक सच्चे मानव का कर्म भी है और धर्म भी । दीन-दुखियों की सेवा करना, उनके कष्टों का निवारण करना भी व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए ।
देखिये एक मुक्तक-
’नव सृजन के पंथ पर विश्वास ले बढ़ता रहा हूँ,
पर्वतों की चोटियों पर मैं सदा चढ़ता रहा हूँ;
आँधियों के तीव्र झोंके मैं सदा सहता रहा हूँ,
और नयनों से सदा मैं अश्रु बन बहता रहा हूँ ।’
आज समाज में चारों ओर भौतिकवाद का ही बोलबाला है । लोग अपने स्वार्थ में अंधे होते जा रहे हैं । कोई भी एक दूसरे के दुःखदर्द को नहीं समझता । शासन तंत्र पूर्ण रूप से पंगु हो गया है । साधारण जनता विशेष रूप से गरीब श्रमिकों की दशा देखने वाला कोई नहीं है । इतिहास साक्षी है कि त्रस्त जनता के मध्य ही क्रांति का ज्वालामुखी फूटता है जो वर्तमान व्यवस्था को पूर्णरूप से ध्वस्त कर पुनः सुख का नवल प्रभात लाता है । एक मुक्तक देखिये-
’चंचला शून्य में कड़क कठिन कह जाती
इस भीड़तंत्र के प्राण सूखने वाले हैं,
मजदूर गरीबों के साहस की सीमा पर
अब क्रांति बीज अंकुरण फूटने वाले हैं ।’
’सौरभ’ काव्यकृति में बड़े ही सरस एवं मनोरम गीत संग्रहीत हैं जिनमें स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित भाव निर्झरनी प्रवाहित है । ’आओ मेरे राम’ शीर्षक गीत में कवि ने भगवान् राम एवं कृष्ण से पुनः अवतार लेकर धरा को अधर्म एवं पाप मुक्त करने की याचना की है । आज के शासक पुनः रावण एवं कंस का रूप ले चुके हैं । चारों ओर राक्षसी प्रवृत्ति का ही बोलबाला है ऐसे में अवतार तो होना ही चाहिए । देखिये गीत का एक बंद-
’यहाँ कृष्ण की मथुरा सहसा सहम गयी है,
शासक को जनता पर जिसका रहम नहीं है
वहां न देखो राह ! स्वर्ग से जल्दी आओ
बंदीगृह में बंद युगल के प्राण बचाओ ।
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
कालिंदी का घाट प्रतीक्षारत रहता है ।’
प्रायः यही देखा गया है कि सुख के क्षणों में सभी साथ लगे रहते हैं परन्तु दुःख के क्षणों में सभी किनारा काट जाते हैं । जीवन के पथ पर बहुत से संगी साथी मिलते रहते हैं किन्तु लक्ष्य की अंतिम सीमा तक कोई नहीं चलता । ’कैसे कह दूँ यह संसृति अपना साथी है’ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
’जीवन पगडण्डी पे मुझको साथी मिले हजारों लेकिन
मन की बीहड़तम सीमा तक चलने वाला नहीं मिला ।
वैभव के उपवन में संग-संग हँसने वाले मिले बहुत
दुःख के सघन वनों में संग-संग हँसने वाला नहीं मिला ।’
मानव जीवन बड़े ही भाग्य से प्राप्त होता है । इसका मुख्य कारण यह है कि मानवयोनि कर्मयोनि है । इसी के द्वारा व्यक्ति आध्यात्मिक शक्ति संचित कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है साथ ही सद्कर्मों, त्याग, दया, क्षमा, उदारता एवं परोपकार द्वारा पुण्य कमा सकता है । परन्तु मोहमाया के अन्धकार में घिरकर लोग मानव जीवन व्यर्थ ही गवां देते हैं । कविवर श्रीप्रकाश जी ने ’मेरे साथी सो मत जाना’ शीर्षक गीत में व्यक्ति को सतर्क करते हुए अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये हैं-
’जीवन जीने की प्रिय गति है
सद्कर्मों की सद्परिणति है
दुष्कर्मों के तीर न जाना
उससे जीवन की दुर्गति है,
जीवन एक सघन कानन है
अपने को प्रिय खो मत देना
मेरे साथी रो मत देना !’
’सौरभ’ काव्यकृति एक श्रेष्ठ कृति है । इसमें कविवर श्रीप्रकाश जी ने व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए भावसृजन किया है । इस कृति में जहाँ भावुकता एवं कल्पनाशक्ति का उत्कर्ष है वहीँ आध्यात्मिक, देशप्रेम एवं विश्वबंधुत्व परक भाव भी व्यक्त किये गये हैं । इसमें गरीब मजदूरों के प्रति सहानुभूति भी दृष्टव्य है तथा समाज एवं देश को खोखला करने वाली शक्तियों के प्रति विद्रोही स्वर भी विद्यमान हैं । ’सौरभ’ काव्यकृति जनजीवन से जुड़ी एक समाजोपयोगी कृति है । गीतों एवं मुक्तकों में पूर्ण प्रवाह तो है ही, कवि ने अतुकांत रचनाओं में भी लयात्मकता का पुट दिया है । कविवर श्रीप्रकाश जी को मैं इस सरस काव्यकृति की रचना हेतु अपनी हार्दिक बधाई देता हूँ ।
-अशोक कुमार पाण्डेय ’अशोक’
६४५ ए/ ५७७ जानकी विहार कालोनी
जानकीपुरम, लखनऊ ।
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’सौरभ’ सुगंध
सुकवि श्रीप्रकाश के चिरप्रतीक्षित काव्य-संग्रह ’सौरभ’ का प्रकाशन हो रहा है, यह हमारे लिए बड़ा ही तोषद एवं आह्लादकारी है ।
श्रीप्रकाश जी मेरे चिरपरिचित हैं और मित्र भी । हमारा परिचय लगभग पैंतीस वर्षों से भी अधिक पुराना है । ’निराला साहित्य परिषद् के गठन को ही बत्तीस वर्षों से अधिक हो चले हैं । श्रीप्रकाश तब परिषद् के संस्थापक ’साहित्यिक सचिव’ और मैं उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया था । तब से आज तक परिषद् के माध्यम से प्रगाढ़तर होता हुआ हमारा यह साहित्यिक सम्बन्ध अनवरत जारी है । इस सम्बन्ध के परिप्रेक्ष्य में आज के इस पुनीत अवसर पर मुझे गौरव और आत्मिक सुख की जो अनुभूति हो रही है, वह शब्दातीत है ।
विद्यार्थी जीवन के वे पल मुझे आज भी रोमांचित कर जाते हैं जब मैं, श्रीप्रकाश, अनिल’ज्योति’ एवं विनोद प्रायः रोज ही एक दूसरे से मिला करते थे, साहित्यिक चर्चा किया करते थे एवं अपनी-अपनी लिखी रचनाओं को सुनाया करते थे । हम लोगों की साहित्यिक यात्रा का वह प्रथम पड़ाव किसी स्वर्णिम स्वप्नलोक की संतोषप्रद यात्रा से कम नहीं था ।
आस-पास के गांवों का पैदल भ्रमण, कभी खेतों की मेड़ पर, कभी तालाब के किनारे बैठकर साहित्य-चर्चा एवं कविताओं के पठन-पाठन का वह क्रम बड़ा ही मनोरम था । मुझे लगता है कि प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश रचनाएँ उसी कालखंड में लिखी गयीं हैं । प्रस्तुत कृति में ’स्मृति’ खंडकाव्य के कुछ अंश भी दिए गए हैं । यह शायद १९८२ की रचना है । उन्हीं दिनों ’प्रसाद जी’ के ’आंसू’ की तर्ज पर लिखी जाने वाली ’स्मृति’ से प्रेरित होकर अनिल’ज्योति’ ने ’विस्मृति’ की रचना की थी और मैंने ’सम्भ्रम’ की । हर रोज तीनों लोग आपस में मिलते थे और लिखे गए छंदों को एक-दूसरे को सुनाया करते थे । इस प्रकार आपस के सत्संग से काव्य-लेखन का जो प्रेरणास्पद क्रम चला, मैं समझता हूँ कि वही शायद ’निराला साहित्य परिषद्’ के माध्यम से आजतक लगातार पोषित, पल्लवित एवं पुष्पित होता रहा है ।
श्रीप्रकाश की वृत्ति प्रारंभ से ही कुछ-कुछ आध्यात्मिक अधिक रही है, उनकी रचनाओं में इसे देखा जा सकता है । प्रस्तुत काव्यकृति ’सौरभ’ को दो खण्डों यथा कविता खंड एवं मुक्तक/गीत खंड में विभाजित
किया गया है । कविता खंड की रचनाओं में कवि के प्रसाद एवं निराला-प्रेम के सहज दर्शन प्राप्त होते हैं । जीवन के तप्त धरातल के यथार्थस्वरुप को व्यक्त करती हुई ये कविताएं सहज एवं मर्मस्पर्शी हैं । कहीं ’भिखारिन’ तो कहीं ’पथरकट्टा’, वारतिय (वेश्या), ’घूरा बोला’ के माध्यम से कवि की मार्मिक लेखनी का प्रस्फुटन देखते ही बनता है । ’भिखारिन’ की पोटली में बंधे चावलों के बिखरने पर व्यक्त कवि की संवेदना कितनी हृदयस्पर्शी एवं बिम्ब कितने सार्थक हैं, देखिये-
’भिखारिन क्या करे अब !
धूल में वैसे मिलेजैसे कि,
दुःख में व्यंग्य करता व्यक्ति
कोई हँस रहा हो !’
कवि की सुकोमल भावना एवं उसकी कविता केवल श्रृंगार एवं व्यंग्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उसे क्रांति की मशाल जलाने की सतत प्रेरणा भी देती है । एक मुक्तक में व्यक्त कवि की ये भावना कुछ इस रूप में प्रकट हुई है, देखिये-
’कल्पना भाव की कविता मुझसे कह बैठी’
मैं लोकक्रांति की लौ पर जलने वाली हूँ ।
निज स्वाभिमान पर यदि धक्का देगा शासनउसकी धज्जी-धज्जी से लड़ने वाली हूँ ।’
मुक्तक/ गीत खंड में कई लम्बी कवितायेँ भी संग्रहीत हैं, जिनमें ’अधूरा एक स्वप्न’ एवं ’आओ मेरे राम !’ बड़ी ही सुन्दर एवं प्रभावोत्पादक बन पड़ीं हैं । ’स्मृति’ खंडकाव्य के कुछ अंशों को भी इसी खंड में स्थान
दिया गया है ।
’आओ मेरे राम ! कृष्ण का रूपक बनकर’ एवं बड़ी ही सार्थक एवं मनोरम कविता है, जिसमे मर्यादा पुरुषोत्तम राम को महाभारत के कृष्ण रूप में पुनर्रअवतरण की मंगल कामना बड़ी ही सुन्दर है,कुछ पंक्तियाँ देखिये-
’गीता का सन्देश सुनाओ शंख बजाकर’
अर्जुन का गांडीव यहाँ हुंकार रहा है ।
वृन्दावन की गली-गली में शोर मच रहा,
कालिंदी का नाग पुनः फुंकार रहा है ।’
काव्य संग्रह की भाषा खड़ी बोली एवं सहज रूप से भावोन्मेषशालिनी है । जगह-जगह स्वाभाविक रूप से आये उपमा, रूपक एवं उत्प्रेक्षा अलंकारों की शोभा काव्य शौष्ठव में सहज रूप से चार चाँद लगाती सी प्रतीत होती है । मेरी निश्चल प्रतीति है कि साहित्य समाज में ’सौरभ’ की सुरभि अपनी सलोनी सुगंध से एक अनोखी छाप छोड़ेगी ।
हिंदी साहित्य जगत में आपकी इस कृति का सहज भाव से स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है । ऐसी सुन्दर एवं मनोरम काव्यकृति के प्रणयन के लिए कवि को हार्दिक साधुवाद !
- अवधेश गुप्त ’नमन’
अध्यक्ष- निराला साहित्य परिषद्
महमूदाबाद (अवध), सीतापुर
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’सौरभ’ एक आध्यात्मिक एवं सामाजिक अनुभूति
श्रीयुत श्रीप्रकाश जी से मेरा परिचय आज से कोई ३८ वर्ष पूर्व १९७५ के आस-पास हुआ। वे भी काल्विन कॉलेज के छात्र थे और मैं भी।
उनकी विनम्रता एवं सेवा भावना ने मुझे ऐसा प्रभावित किया कि एक छोटी सी मुलाकात बाद के वर्षों में मित्रता के रूप में पल्लवित होती रही, यद्यपि इस मित्रता का सारा श्रेय मेरे बचपन के अभिन्न मित्र विनोद जी को जाता है।
मैं हमेशा अनुभव करता रहा हूँ कि श्रीप्रकाश जी में सरलता है, तरलता है, सभी के प्रति सम्मान का स्वाभाविक भाव है । सामाजिक सरोकारों पर उनके विचार किसी से भिन्न हो सकते हैं किन्तु मैं इसे
परिस्थितिजन्य प्रक्रिया मानता हूँ और उनके कविरूप को प्रणाम करता हूँ ।
’सौरभ’ वस्तुतः दो भागों में विभक्त है, प्रथम भाग में मुक्तछन्द की कविताएँ हैं । इस खंड की अधिकांश कविताएँ आध्यात्मिक पृष्ठभूमि, जिज्ञासा एवं चिंतन से निःसृत हुई हैं । सृष्टि एवं व्यष्टि, ज्ञात और अज्ञात के बीच रहस्य का जो झीना सा पर्दा है उसे भेदने के प्रयास में प्रार्थना, करुणा और पुकार ने भाव सृजित किये गए हैं उन्हीं भावों का अनन्य संकलन है ’सौरभ’ । ’मैं’ की तलाश एवं ’मैं’ का व्यापक स्वरुप देखने की अभीप्सा में स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा वास्तव में इन रचनाओं का मूल है । कवि जब कहता है- ’हे स्वामी मुझे वह मार्ग बता दो जिस पर सत्य के सिवा कुछ न हो’ प्रदर्शित करता है कि सत्य के प्रति कवि कितना संवेदनशील है। कवि की यही आशा और समर्पण उस परमसत्ता का आभास पाने का मार्ग बन जाता है किन्तु उस मार्ग में भी ’क्यों’ उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब कवि कहता है- ’जीवन क्षणिक है- हर जीव को ज्ञात है, फिर भी वह सत्कर्म न करके दुष्कर्म अधिक करता है- ऐसा क्यों ?’ अंतर-संसार में कवि जड़ एवं चेतन में एक ही के अमरत्व की बात करता है ’स्वयं जीवन में एक अमर है- एक स्वर-जड़-चेतन- संसार, अमर है परिवर्तन संसार’, जड़ और चेतन का सम्मिश्रण ही यह संसार है । विकास के प्रति कवि की स्पष्ट मान्यता है-
’आशा और विश्वास जगाये
वह ही चेतन और प्रकाश
तम को भेद किरण जो आये
वही हमारा करे विकास ।’
’उधर भी देखूं’ रचना में कवि पीड़ा,विषाद,कष्ट,संघर्ष एवं अन्धकारमय जीवन के बीच ईश्वर से मात्र विवेकयुक्त ज्ञान का अभिलाषी है ताकि वह इस विराट सृष्टि के सत्य तक पहुँच सके ।
’मम स्वार्थ’, ’एक दिन’, ’नया रूप’ जैसी रचनायें पढ़कर कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की ’गीतांजलि’ बरबस ही स्मृति में कौंध जाती है । ’नया रूप’ में कवि का कथन है कि संसार में कुछ भी नष्ट नहीं होता मात्र उसका स्वरुप बदल जाता है । इस परिवर्तन के क्रम में अंतिम रूप कौन सा होगा कवि उसी रूप की प्रभु से कामना करता है । ’अंतर्द्वंद’, ’निष्काम कर्म’, ’यही अर्चना है’ में कवि अत्यंत सूक्ष्म होकर कहता है- ’हममे तुममे भेद है ऐसा कभी न सोचने की क्षमता दे- यही पूजा है, यही अर्चना है ।’
प्रथम खंड की कुछ रचनाएँ सामाजिक विसंगतियों, करुणाजन्य अनुभूति के उत्स बिन्दुओं का पर्याय बनी हैं जिन्हें पढ़कर अनायास ही ’निराला’ की याद आ जाती है । ’पथरकट्टा’, ’भिखारिन’, ’अभागा’, ’घूरा
बोला’ एवं ’वह वारतिय(वेश्या)’ कुछ ऐसी ही मर्मस्पर्शी रचनाएँ हैं जिनमें श्रीप्रकाश जी की वेदना शब्दों में पिघल-पिघलकर साकार हुई है।
’सौरभ’ के द्वितीय खंड में कुछ मुक्तक संग्रहीत हैं । स्वर, अनुभूति, जीवन और यथार्थ के अतिरिक्त राष्ट्रप्रेम की भावना को जीवंत करते हुए वर्तमान व्यवस्था के प्रति आक्रोश परिलक्षित होता है-
’अत्याचारों के शिखर बिंदु से सहसा
जलती ज्वाला सी क्रांति निकलने वाली है,
युग की वाणी आमंत्रण देकर कहती है
शासक संप्रभु की जान निकलने वाली है ।
कल्पना भाव की कविता मुझसे कह बैठी
मैं लोक क्रांति की लौ पर जलने वाली हूँ,
निज स्वाभिमान पर यदि धक्का देगा शासन
उसकी धज्जी-धज्जी से लड़ने वाली हूँ ।’
सामाजिक अधोपतन के कारणों की व्याख्या करते हुए श्रीप्रकाश जी के दो मुक्तक देखिये-
’पिक्क्चरों के गीत गाये जा रहे हैं
पीरियड में पान खाए जा रहे हैं,
है नहीं बस छात्र जन की बात
गुरुजनों में दोष पाए जा रहे हैं ।
झूठ को भी सच बताया जा रहा है
कालेजों में गीत गाया जा रहा है,
अर्थमानव ने लिया जब से जनम
चाकरी के हित पढ़ाया जा रहा है ।’
’सौरभ’ के अंतिम खंड में गीतों की एक लम्बी श्रृंखला है स्वयं कवि महाकवि जयशंकर प्रसाद के व्यक्तित्व और कृतित्व से अपने छात्र जीवन से ही प्रभावित रहा है अतः इन गीतों की सर्जना में छायावादी दृष्टि का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । ’स्मृति’ नामक रचना पढ़ते-पढ़ते मुझे ऐसा आभास हुआ जैसे मैं श्रीप्रकाश जी की ’स्मृति’ नहीं बल्कि प्रसाद जी के ’आंसू’ का पाठ कर रहा हूँ । वही शिल्प, वही सौन्दर्य, संस्कृतनिष्ठ शुद्ध भाषा, मोहक बिम्ब, छायावाद की वही भावभूमि तथा वही छन्द विधान ।
धन्य हुआ मैं, आप भी कुछ छंदों को हृदयंगम करने की अनुभूति से आप्लावित हों-
’दृग पलकों की डोली में, बैठी थी बनकर भोली
क्यों गंड विभा-आँगन में खेली अधरों ने होली ।
मस्तिष्क धरा पर उलझन आती है आंधी सी जब
झकझोर प्रलय सा देती हँसते हैं आंसू क्यों तब ।
दुःख के सागर में कूदा सुख के मोती लेने को
मैं डूब गया मणि पाकर, कुछ रहा नहीं देने को ।’
मेरी दृष्टि में श्रीप्रकाश जी मूलतः गीतकार हैं । गीतों को मोहक कलेवर देने के लिए उन्होंने अपने शब्द-विधान में एक से बढ़कर एक शब्दों का चयन किया है जिससे उनकी कविता जीवंत हो उठी है और रहस्यमयी
भी । श्रीप्रकाश जी की कविता ने भावों के रथ पर सवार होकर जिन शब्दों के साहचर्य से अपनी काव्यऊर्जा का प्राकट्य किया है उन शब्दों में- माया, आशा, विश्वास, स्वप्न, जीवन, जगत, ईश्वर, पहेली, जीवन, ज्योति,
परिवर्तन, पीड़ा, विश्व, दीपक और मैं जैसे अनेकों शब्द उनकी कविता की व्याख्या करते हुए प्रतीत होते हैं । जीवन और जगत के निरंतर संघर्ष से व्यथित होकर कवि कह उठता है-
’सोचता था जिंदगी में शांति का आभास लूँगा
जिंदगी में उलझनों से मैं क्षणिक अवकाश लूँगा ।’
किन्तु पीड़ा और विकलता भरे आज के जीवन में अवकाश कहाँ
क्योंकि कर्म का पंथ एक पल भी चैन से बैठने नहीं देता-
’पीर का काकली राग जब तक बजे
काल का यह नियति साज जब तक सजे
कर्म के पंथ पर अब चलें घूमकर
जिंदगी की विकलतर व्यथाएं लिए ।’
’विवर्तन’ में कवि ईश्वर को संबोधित करते हुए कहता है-
’तुम कभी पाषाण में विश्वास का आधार लेते हो
आस्थावश कल्पना में ईश का आकार देते ।’
’कैसे कह दूँ यह संसृति अपना साथी है’, ’आत्मीय विरोधाभास’, ’इस स्वयं में क्या छिपा है’, ’मैंने दुःख से प्यार किया है’ आदि गीत उस निराकार ईश्वर से जुड़ने का प्रयास हैं जिसमे श्रीप्रकाश जी पूर्णरूपेण सफल हुए हैं।
’लोचनों में नीर भर-भर खोजता जाता कहीं हूँ
इस स्वयं में क्या छिपा है मैं समझ पाता नहीं हूँ ।’
’आओ मेरे राम’ एक ऐसी रचना है जो अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों को जोड़ती हुई हमें युगबोध की ओर ले जाती है और हमें राजनीति की जगह राष्ट्रनीति की ओर उन्मुख करने का विचार देती है ।
अंत में ’सौरभ’ के रचनाकार श्रीप्रकाश जी को ढेरों शुभकामनाएं, इतनी सुन्दर सर्जना और संकल्पना के लिए ! वे और भी आगे बढ़ें, यशस्वी हों, शतायु हों और उनकी यह कृति ’सौरभ’ दिग-दिगन्त में फैलकर जनमानस को सुवासित करे ऐसी मेरी हार्दिक कामना है ।
-अनिल’ज्योति’
सचिव- निराला साहित्य परिषद्
महमूदाबाद- सीतापुर (उ.प्र.)
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’सौरभ’ : अटूट जिजीविषा के कवि श्रीप्रकाश
’सौरभ’ काव्य संग्रह के रचयिता श्रीप्रकाश ने अपने जीवन में करुणा ही करुणा बोई और सींची है । इसीलिए वे किसी के आंसू देख, सुन और सह नहीं सकते । उनका जीवन भले ही आंसुओं से लबालब भरा रहा हो पर कभी उफनाया नहीं लेकिन जहाँ कहीं दुनिया-जहान के बीहड़तम कानन या फिर किसी कुटिया या प्रासाद के किसी भी अतरी कोने में यदि एक भी अश्रुबिंदु देख ली तो इनकी करुणा का महासागर उमड़ पड़ा ’जीवन एक सघन कानन है/ अपने को प्रिय खो मत देना/ मेरे साथी रो मत देना ।’
कवि का यह अपनापा अवसरवाद का धर्म निभाने के लिए नहीं अपितु स्वभावगत है। इतना ही नहीं इनके अन्तःस्थल के गहरे गह्वर के भावों में प्रसाद, चेतना और चरित्र में निराला के तेजपुंज और आँखों में महादेवी
की करुणा की छवि साफ़-साफ़ देखी जा सकती है या यह भी कहें तो कह सकते हैं कि कवि श्रीप्रकाश के काव्य संसार में इन तीनों के भावों-विचारोंकी त्रिवेणी का सहज प्रवाह देखने को मिलता है ।
यह संसार उत्सवधर्मी है। यहाँ जगह पर झंडे और डंडे और गलीगली में पण्डे मिल जाते हैं। इन्हीं उत्सवधर्मियों में से यदि कहीं पर कोई हमदर्द बनकर कवि के साथ चल भी देता है तो जल्द ही रास्ता भी बदल लेता है क्योंकि जिस दुरूह मार्ग को कवि चुने हुए है उस पर वह उत्सवधर्मी कोमलांगी व्यापारी कब तक साथ दे पाता ? अंततः वह साथ छोड़कर या तो पीछे मुड़ जाता है या फिर कोई आसान सी राह देखकर उसपर कट लेता है।
कवि को ऐसे असहज आचरण पर क्षोभ होता है और वह ऐसी व्यावसायिक आत्मीयता, जिसमें वह सदा ठगा गया है, पर व्यथित हो गा उठता है ’जीवन पगडण्डी पर मुझको साथी मिले हजारों लेकिन/ मन की बीहड़तम सीमा तक चलने वाला नहीं मिला / वैभव के उपवन में संग-संग हंसने वाले मिले बहुत/ दुःख के सघन वनों में संग-संग हंसने वाला नहीं मिला ।’
अर्थ के व्यर्थ चक्कर में व्यर्थ के अनर्थ करने वालों का फैलता चक्रव्यूह धीरे-धीरे हर सत्यधर्मी अभिमन्यु को अपने आगोश में लेने को उद्यत है। वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में अपनी सभ्यता और संस्कृति को
भूलकर लोग भौतिकता में आकंठ डूबते जा रहे हैं। कवि भविष्य के प्रति अपनी कविताओं के माध्यम से जीने के लिए कुछ भी करने को तत्पर समाज को इस तरफ से आगाह करते हुए कह रहा है- ’धर्म से हटता मनुज बस जी रहा है/........../जी रहा बस अर्थ की गठरी समेटे ।’
कवि यह सब देखकर चिंतित हो उठता है उसके अनुसार यह अर्थ की गठरी तब तक व्यर्थ है जब तक वह समाज के काम न आये इसलिए उसने स्वयं भी अर्थ की यह गठरी न केवल मानसिक जगत से अपितु अपने वास्तविक जगत से भी उठाकर फेंक दी है । इस तरह कवि श्रीप्रकाश का भावलोक कल्पना का अवसाद नहीं करुणा का प्रसाद अपने उन्मुक्त करों से लुटाता हुआ मिलता है ।
काव्य की विविध विधाओं की कुल ७८ छोटी बड़ी रचनाओं गीत/ प्रगीत/ मुक्तकों/ कविताओं कहीं छंदबद्ध तो कहीं मुक्तछन्द तो कहीं बिलकुल स्वच्छन्द होकर जैसे मूलस्रोत से प्रस्फुटित हुई, कवि ने उन्हें ज्यों का त्यों बह जाने दिया है। उसने शंकर की भांति अपने अन्तःस्थल के जटाजूट खोले हैं, काव्य गंगा तो स्वतः प्रवाहित हुई है। इस तरह कवि ने कविता की नहर बनाने के बजाय उसे नदी के रूप में ही रहने देना अधिक
बेहतर समझा है इसलिए इनके यहाँ शिल्प का कोई विशेष आग्रह नहीं है । भीतर-बाहर के तुक हों या आंतरिक लय की अन्तःसलिला सब स्वतः बही है, बहाई नहीं गयी है । इस दृष्टि से कवि का रचना संसार पूर्णतः मौलिक है सायास या बनावटी यहाँ कुछ भी नहीं है।
कवि का यह ’सौरभ’ किसी जमींदार की अमराई से नहीं उसकी स्वयं की मानसी अमराई के यथार्थ से उपजा है। कवि के ’सौरभ’ के इसी रूप को उनके काव्य का असली रूपक माना जाना चाहिए क्योंकि श्रीप्रकाश ने जीवन में सुख के कम दुःख के बादल के गर्जन-तर्जन अधिक देखे-सुने हैं। उनके निजी जीवन में तीनों ऋतुओं ने कहर बरपाए हैं । ऐसे में कौन सी ऋतु उन्हें सुख देती, यही कारण कई कि कवि की रचनाओं में ऋतुओं/ प्रकृति का लावण्य प्रायः लुप्त ही रहा है। वैसे फूल किसे नहीं सुहाते।
बगिया की अमराई और फूली सरसों से हाथ पीले किये क्यारियाँ कवि को भी लुभाती रहीं हैं पर वह इनमें बहुत अधिक बिरमा नहीं। उसका मन तो उसी खेत की मेड़ से गुज़र रही ’भिखारिन’ में रमा है जिसके कटोरे से कुछ पैसे उछलकर उसी खेत की मिट्टी में मिल गए हैं- ’भिखारिन क्या करे अब !/ धूलमें वैसे मिले अब/ जैसे कि,/ दुःख में व्यंग्य करता व्यक्ति/ कोई हँस रहा हो ।’
वास्तव में दुखी व्यक्ति को हर स्थिति-परिस्स्थिति उसका व्यंग्य करती हुई ही लगती है। इस रूप में कवि श्रीप्रकाश भी परिस्थितियों के चाहे-अनचाहे शिकार हुए ही हैं पर इनकी एक खासियत रही है कि ये किसी भी स्थिति-परिस्थिति में टूटे और बिखरे नहीं हैं बल्कि और मजबूत होकर निखरे हैं इनकी यही जिजीविषा उन्हें कल्पनालोक के कवियों के अलगकर इन्हें सच्चे अ-भावलोक का कवि बनाती है और इस तरह इनका यह लोकभाव और यथार्थ का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण बन जाता है कि कवि उस रसायन को पीकर जग के अँधेरे से लड़ने की ऊर्जा अर्जित कर लेता है और इतना शक्तिशाली बन जाता है कि शासन-दुश्शासन सबसे दो दो हाथ करने को तैयार हो जाता है।
सन १९७५ से लेकर मैं आज तक कवि के निजी जीवन का भी भेदिया रहा हूँ । उसके अंतर्मन के गहरे जुड़ाव के कारण स्थानीय दूरियों के बावजूद वैचारिक और आत्मीय नैकट्य ने कवि के द्वंदों को समझने में मेरी
बहुत मदद की है । जिस कालखंड को समाज कवि के आध्यात्मिक झुकाव का काल मानता है उसे मैं निजी तौर पर कवि के जीवन का निजी रूप से अत्यंत दुखद और सामाजिक रूप में करुणा का कालखंड मानता हूँ। अपनी इसी दृष्टि के चलते कविवर श्रीप्रकाश के दुखों को चुपचाप पीने के स्वभाव और मौन के बीच की दरारों से झांकते उनके दुःख-दर्दों को देख सका हूँ।
कुछ भी हो कवि श्रीप्रकाश निःसंदेह रूप से अटूट जिजीविषा के कवि हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि सभी मौसमों में शिरीष से मस्त रहने वाले अवधूत योगी का नाम है
श्रीप्रकाश जो हर किसी को कुछ न कुछ लुटाने के लिए ही सूखे मौसम में भी सुमन से स्वागत में ऐसे रत रहता है जहाँ याचना नहीं दान ही दान है फिर चाहे सामने वाला रंक हो या राजा । इस मन के महाराजा के दर पर कभी कोई दाता नहीं देखा जब भी और जिसे भी देखा पाया वह याचक ही था।
अस्तु इस अवधूत को इसी की काव्यपंक्तियों का प्रसाद चढ़ाते हुए इसी के काव्य मंदिर की देहरी पर विराम लेता हूँ- ’दुःख के सागर में कूदा/ सुख के मोती लेने को/ मैं डूब गया मणि पाकर/ कुछ रहा नहीं देने को !’
-डॉ गंगा प्रसाद शर्मा ’गुणशेखर’
प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष (हिंदी)
गुआंग्डांग अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (वैश्विक अध्ययन),
ग्वान्ज़ाऊ, चीन
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आत्मकथ्य
सत्य मिथ्या से ज्यादा रहस्यमयी होता है, उसके रहस्य को भेद पाना सिर्फ तत्व ज्ञानियों के ही वश की बात होती है, और जिसे ज्ञान मिल जाता है, उसे कविता मिल जाती है। फिर दुनियादारी से कुछ कम ही सरोकार रह जाता है। तब वह व्यक्ति प्रकृति में ही छाया और प्राण तलाशने लगता है। उसका अनुभूति से संपृक्त होते ही कवि सब कुछ विरक्तत कर देता है, और फिर मुक्त हो जाता है।
काल की असीम पगडण्डी पर परिवर्तन सत्य है और इसी सत्य का रूपक बनकर मैं यहाँ आया हूँ । कब तक रहूँगा ज्ञात नहीं लेकिन इतना अवश्य है कि इस विश्व सदन में जब तक रहूँ तब तक इसके लिए कर्माशा को साथ लेकर आदर्श की विभिन्न रेखाओं की श्रृंखला स्थापित करूँ जो चिर हो, अमर हो।
वैसे सुमनों से सौरभ का जन्म माना जाता है, किन्तु यह ’सौरभ’ जीवन वृक्ष की यथार्थरूपी मंजरी से निस्सरित है। कालरूपी वसंत में भावी के तीव्र प्रभंजनाघात से इसका निष्क्रमण केवल कोपलों से है कलिकाओं से नहीं, क्योंकि वृक्ष की शैशव कलिकाएँ पूर्वाघात से व्यथित हो अपने भावी जीवन के अस्तित्व को पराजित करके सत्यम में विलीन हो चुकीं हैं।
प्रस्तुत विरोधाभास मंजरी की विडंबना या जीवन वृक्ष का सौभाग्य है मुझे पता नहीं, आप कुछ समझें या कहें, इसमें मुझे कोई भी आपत्ति नहीं है।
श्रीप्रकाश
अनुक्रम
(क) कविता खंड :
१. माँ वर दे !
२. वाह री दुनिया
३. दीपक से
४. उसी को
५. हे स्वामी
६. मुक्तांगन
७. जीवन क्षणिक है
८. अंतर संसार
९. लिख दे
१०. अन्दर टटोल
११. उधर भी देखूं
१२. मम् स्वार्थ
१३. तो मेरे अपने
१४. मैं चलता
१५. एक दिन
१६. कविता-१
१७. नया रूप
१८. परम्परा
१९. अंतर्द्वद
२०. निष्काम कर्म
२१. यही अर्चना है
२२. सम्भ्रम
२३. सद्गति दे
२४. भूखा : दो बिम्ब
२५. वाह रे !
२६. नया जनपद
२७. नेति-नेति
२८. वह वारतिय
२९. भिखारिन
३०. पथरकट्टा
३१. चरैवेति
३२. एकांत
३३. आप से
३४. मति वर दे
३५. करूण स्पर्श
३६. कौन तू मेरे हृदय में
३७. कविता-२
३८. प्रायः
३९. अभागा
४०. सम्बन्ध
४१. घूरा बोला
(ख) मुक्तक/गीत खंड :
१. स्वर !
२. अनुभूति
३. किधर बहूँ
४. मुक्तक
५. पाँच मुक्तक
६. चार मुक्तक
७. मुक्तक (व्यंग्य)
८. स्मृति
९. एक स्वप्न
१०. मत सुनो प्रिय मीत, मेरे गीत !
११. वेदना अश्रु से आज कहने लगी
१२. विवर्तन
१३. मैं शलभ हूँ
१४. अंत में
१५. आओ ! मेरे राम
१६. निशा गीत
१७. अर्चना
१८. छल गया जीवन फिर फिर बार
१९. कैसे कह दूँ
२०. मेरे साथी सो मत जाना
२१. साथी जीवन तो बस श्रम है
२२. अव्यक्त होते हुए
२३. मेरे दीपक
२४. सजनि यह कैसा सवेरा
२५. निज गीत
२६. आत्मीय विरोधाभास
२७. इस स्वयं में क्या छिपा है
२८. विश्व संचालक बता दे
२९. मैंने दुःख से प्यार किया है
३०. सुप्त मेरी वेदना की
३१. खो न जाना
३२. सुस्मृति के स्वर
३३. यदि बता दो
३४. जीवन का कैसा है प्रभात
३५. क्रांतिबीज
३६. मत मचल चंचल विहग मन
३७. कौन अपना है यहाँ पर
कविता खंड
माँ वर दे !
अपने स्नेहिल मधुर करों को
मेरे सिर धर दे
माँ वर दे !
मैं नीच अधम अपराधी
मैंने सबकुछ छोड़,
तुम्हारे चरणों की आभा पा ली ।
तुम्हारे स्नेह भरे
नयनों का प्रकाश
मेरे जीवन को देता विकास
माँ वर दे !
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वाह री दुनिया !
कितनी अजीब है यह
कितनी लजीज़ है यह
माया का खेल है
या कर्म का रहस्य
समझ नहीं पाया मन
छोड़ भाग जाते हम
इंसानियत को ठेल गयी ईर्ष्या
मानव तेरे करतबों की
होने लगी वर्षा
मन नहीं हर्षा
अंत में मानवता ने मजबूर हो
हाथ में ले लिया फरसा!
---------
दीपक से
सत्य ज्योति के प्रीतम दीपक
भारत भू पर
विस्तृत तम हर
ऐसी रश्मि बिखेर तुरत,
प्रिय मत तू
अब कर देर !
सत्यम शिवम् सुन्दरम बनके
जनजीवन का घनतम हरके
ऐसी किरण बिखेर
दीप-प्रिय मत तू
अब कर देर !
---------
उसी को
स्वप्न है कि सत्य है
मुझे ज्ञात नहीं
निशा की गोद में
खेलता हुआ मैं
एक सुन्दर सरोवर के
शीतल सलिल में
स्नान करने का प्रयास किया
निर्मल और स्वच्छ जल को
ज्यों मैंने स्पर्श किया
जीवन में कुछ नवीन
परिवर्तन दिखाई दिए !
---------
हे स्वामी !
हे स्वामी !
मुझे वह मार्ग बता दो
जिस पर सत्य के सिवा
और कुछ न हो,
उसका आभास करा दो
जिसमें सुख-शांति
और सुन्दर है;
यह नदी बहुत लम्बी है
स्मृतियों के झुरमुट से
अखिल विश्वांगन में
प्रकाश विकसित कर दे
हे स्वामी !!
---------
मुक्तांगन
विश्व के अंतर्जगत में,
मध्य मुक्तांगन पड़ा खाली
रहा सूना हृदय मेरा
न आया आज तक प्रीतम,
हे समय के चक्र संचालित
स्वयं के मेघदूत
तू बता
संयोग से जाकर
विरह में आज बैठी
मैं प्रतीक्षारत बहुत हूँ
पर न आया लौटकर
निजदूत,
शायद ढूंढता है शून्य में
प्रेषी कहाँ है ?
---------
जीवन क्षणिक है !
जीवन क्षणिक है,
हर जीव को ज्ञात है
फिर भी वह सद्कर्म न करके
दुष्कर्म अधिक करता है ।
ऐसा क्यों ?
जीवन में सुकर्म करना चाहिए
ऐसा उपदेश हर व्यक्ति हमें देता है
फिर भी हम
उसके वचनों का पालन नहीं करते हैं ।
ऐसा क्यों ?
ब्रह्मांड में प्रत्येक जीव का
उसके जीवन में
असद् की अपेक्षा
सद् का प्रतिशत अधिक हो,
ऐसा प्रयास करना चाहिए
फिर भी हम नहीं मानते हैं
ऐसा क्यों ?
मेरे विचार सेऐसा इसलिए होता है कि
यदि सभी जीव आत्माएं
परमात्म सत्ता में विलीन हो जाएँगी
तो एक क्षण के लिए
यह भवसागर रिक्त हो जायेगा
और जीवन शून्य हो जायेगा !
---------
अंतर संसार
विश्व निलय की आभा में,
विश्रांति ! हाय विश्रांति !!
कहाँ है शांति ?
तुम्हारे मन में
या अंतर संसार
स्वयं जीवन में
एक अमर है
या जड़ता की सीमा,
दोनों मिलकर सब हैं एक
एक स्वर जड़- चेतन संसार
अमर है,
परिवर्तन संसार !
---------
लिख दे !
अमर लेखनी लिख दे
तू ऐसा गान,
गुंजन-सौरभ-परिमल सा मधुरिम
जगती अम्बर भर गूंजे
ऐसा गान लिख दे !
लिख दे तू प्रकाश की रेखाआलोकित कर
तमसावृत पथ पर
अगणित भावों की सरिता मान,
ऐसा गान, लिख दे ।
संगीत सुगम जीवन लय भर दे,
लिख दे अमर लेखनी
जीवन सतत सुमंगल लिख दे
लिख दे
कमल नील का मधुरिम
संध्या परिणय लिख दे !
जीवन की मधुरिम पीड़ा लिख दे,
करुणा की विकल रागिनी लिख दे
राग भरे, जीवन बंधन के आँसू लिख दे
अमर कहानी इस सपने की कविता लिख दे !
कर्म रूप की सीधी रेखा
ओर-छोर का सुन्दर लिख दे
शाश्वत सरिता की उमंगमय लहरें लिख दे;
लिख दे अमर लेखनी;
मानव-जीवन-वंदन लिख दे
लिख दे, क्या लिख दे ?
लिख दे, ऊँच-नीच के भेदभाव का क्रंदन लिख दे
लिख देजातिवाद के लोकतंत्र स्पंदन लिख दे
अमर लेखनी !
मानव जीवन वेदी पर
उत्थान-पतन का संगम लिख दे
अमर लेखनी लिख दे
क्या लिख दे ?
पाप पुण्य का लेखा-जोखा लिख दे,
सत्यं शिवम् सुन्दरम लिख दे !
लिख दे, तू समाज का दर्पण लिख दे,
दर्पण टूट गया है !! लेकिन,
लिख दे, कुछ अमर लेखनी लिख दे
दर्पण के असंख्य टुकड़ों में जीवन भर दे
लिख दे, अमर लेखनी लिख दे
चेतन-स्वामी परिवर्तन के कालचक्र में
गतिमय जीवन चंचल सरिता की
उमंग का दर्शन लिख दे,
कविता लिख दे!
---------
अन्दर टटोल!
सब कुछ प्रभु पर आधारित है
गति का जीवन नाम
जो चलती ही चलती रहती
चलना जिसका निशिदिन काम,
आशा और विश्वास जगाये
वह ही चेतन और प्रकाश
तम को भेद किरण जो आये
वही हमारा करे विकास;
मानवता पर करे निछावर
अपना साहस औ बलिदान
उसी व्यक्ति के प्राण महा हैं
वही विश्व में बने महान,
अन्दर के इस सघन विपिन में
घुसो और घुसते जाओ
तम गह्वर के अन्धकार में
हाथ बढ़ा चलते आओ;
एक जगह पर तुम्हे मिलेगा
सत्य ज्योति का तीव्र प्रकाश
जहाँ शांति के वातायन से
आती रहती सदा सुवास ।
---------
उधर भी देखूँ
हे ईश्वर!
मुझे पीड़ा दे, शूल दे
कठिन जीवन पथ दे,
विषाद दे, संघर्ष दे
रजनी सा अन्धकार औ
झँझा सी उमड़न दे
करुणा का अपार सागर दे
और वह कठिनतम घड़ी दे,
जिसे तू कठिन समझता है।
किन्तु विवेक के धरातल पर
ज्ञान का आलोक अवश्य बिखेर दे
जिससे मैं जीवन और जगत की
सच्ची परख कर सकूँ
और देखूँ कि-
विपक्ष क्या है ?
---------
मम् - स्वार्थ
अखिल संसृति के संचालक
पंचतत्व के स्वामी
तू मेरे स्वयं को
पर्वत सी अखंड श्रृंखला की भांति
सद्गुणों की माला दे
जिससे मैं तुम्हारे नाम का जप
समय क्षणों की असीम श्रृंखला पर
सदैव करता रहूँ;
मैं समझता हूँ
कि इसमें मेरा स्वार्थ है
किन्तु इसमें तेरा भी तो स्वार्थ है
क्योंकि तू स्वयं में विद्यमान है !
---------
...तो मेरे अपने !
तो मेरे अपने
जिन्हें चाहा था मन ने
छोड़ा था तन ने
उनके भी साए
हो गये पराये !
ओ मेरे अपने
अंतर के सपने,
नींद खुली जब
छूट गए सब
ओ मेरे अपने
खो गए सपने
बीहड़ पगडण्डी पर
चुल्लू में पानी भर !!
३८ सौरभ
मैं चलता
मैं बढ़ता,
गिर-गिर पड़ता
उठता, चलता
कुछ दूर अचानक
आ जाता संसार;
उलझता, फंसता
चढ़ता, रुकता
चिंतन की सरिता में
डूब सहज ही जाता !
---------
एक दिन
विश्वास के स्वच्छ आँगन में
बदली से ढके चाँद को देख
चाँदनी ने उसे प्रकाश रहित समझ लिया
शायद यह उसकी भारी भूल थी
क्योंकि-
चाँद प्रकाश रहित होता तो
चाँदनी का अस्तित्व ही न होता
इस विपरीत कथ्य में
एक सार्वभौमिक सत्य सर्वथा निहित है
जिसे हम जान बूझकर भूल जाते हैं
अर्थात ....!!
---------
कविता-१
आज इड़ा पर्वत के मध्य
वैचारिक शैल-खण्डों से टकराकर
श्रद्धा के उत्स स्रोत से
बही भावधारा
कागज़ के पृष्ठों पर
विस्तृत हो गयी
कविता बन गयी !
---------
नया रूप
संसार में कुछ नष्ट नहीं होता
केवल रूप बदल जाता है
इसी प्रकार
’मैं’ कभी नष्ट नहीं होता
केवल रूप बदल जाता है
लेकिन, यह रूप बदलने का क्रम
कब तक चलेगा?
अंत में,
कौन सा रूप होगा?
प्रिय बता दे,
और वही रूप प्रदान कर !
---------
परम्परा
जी हाँ,
मैं परम्परा हूँ
अतीत को वर्तमान
और वर्तमान से भविष्य
की सम्बद्धता की प्रतीक हूँ,
काल पथ पर मैं युगों की लीक हूँ
चल रहे मैं आजकल की सीख हूँ
हे मनुष्यों ! मैं तुम्हारी भीख हूँ;
जी हाँ, मैं संयोजिका हूँ सद्गुणों की
मैं नहीं हूँ रूढ़ि
जी हाँ, मैं परम्परा हूँ समय की धरा हूँ
मैं न होती,
तो न होती संस्कृति
चेतना में भी न होती भव्यता
मैं सिखाती हूँ
मनुजता के गुणों को
जोड़ती हूँ आज तेरे हाथ
मत मुझे बदनाम करना
मैं तुम्हारी भारतीयता हूँ
किन्तु मैं नहीं हूँ रूढ़ि
मैं नहीं हूँ रूढ़ि !
---------
अंतर्द्वद
काल-अर्णव में
जीवन रुपी तरणी
अबाध गति से गतिमान हो रही है
विभिन्न प्रकार के दृश्य
सामने से निकल जाते हैं
क्या यह सब स्वप्न है
यदि हाँ,
तो सत्य क्या है ?
आज यही अंतर्द्वद है !
---------
निष्काम कर्म
हे प्रीतम मुझे कुछ न दे
लेकिन उस सरल सरिता के समान
रूप-कर्म और अबाध गति से
तरंगायित रहने की
क्षमता अवश्य दे,
जो पर्वतों से प्रस्फुटित होकर
मैदानों में ग्रीष्म की विकलता से
आकुल व्यक्तियों की प्यास बुझाती है
ऐसा परोपकार करने की
शक्ति अवश्य प्रदान कर!
---------
यही अर्चना है !
मेरे पास जो कुछ है
वह सब तुम्हारा है
ब्रम्हांड में जो कुछ हो रहा है
वह सब तुम्हारी देन है
तू एक स्वभाव है
परिवर्तन में तू ही समाया है
जहाँ तक अंतर्दृष्टि जाती है
वहाँ तक मेरे को
तेरे अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता ।
थक जाता हूँ,
सो जाता हूँ
फिर जगता हूँ;
सोचता हूँ यह क्रम कब तक चलेगा
मेरे भीतर तू है
तेरे भीतर मैं
तो भेद कैसा
हममें तुझमे भेद है
ऐसा कभी न सोचने की क्षमता दे,
यही पूजा है
यही अर्चना है !
---------
सम्भ्रम
प्रीतम मुझे वहाँ ले चल
जहाँ पर अद्भुत आनंद हो
असीम अलौकिकता हो,
प्रेम का वातावरण हो
शांति का पाठ होता हो
लेकिन ऐसी प्रकृति में
कभी न ले चलना
जहाँ मायावी पनघट पर
मनरूपी घट से
इड़ारुपी सुन्दरी
अतृप्ति सलिल लेने के लिए
प्रतीक्षारत हो।
---------
सद्गति दे
दीपक सा सरलापन
वैसी ही शालीनता
सुखदुःख में समान रहने की सामर्थ्य
मुझे प्रदान कर
लेकिन उसकी भांति
गलत चीज़ का स्पर्शन कभी न दे
जिससे काजल की भांति
अवगुण उभरें।
---------
भूखा : दो बिम्ब
(१)
भूख से आकुल निरंतर
इधर जाता, उधर जाता
आत्मा की, काम की क्या !
पेट की ज्वाला निराली
एक दिन की बात ही क्या
रोज ही है पेट खाली
तिलमिलाहट जोर भरती
लड़ रही थी पूर्ण बल से
वह मनुज इक वीर ही था
लड़ रहा था काल-कल से !
(२)
जी हाँ !
वह भूखा था
शरीर का नहीं, पेट का
किससे कहता
इधर जाता, उधर जाता
पग बढ़ेदूकान पहुंचा
उधार हुंचा,
पछताता
घर आता
सो जाता !
---------
वाह रे !
वाह रे !
आया मशीनी युग धरा पर
धर्म से हटता मनुज,
बस जी रहा है
जी रहा केवल
अकेला शांति खोकर
पी रहा- बस पी रहा
अमृत सरीखा विष
जिसे न कोई समझ
जी रहा बस
अर्थ की गठरी समेटे !
---------
नया जनपद
न जाने बिंदु जैसा सिन्धु
कितनी दूर !
चल रहा हूँ मैं
अकिंचन प्यास लेकर
यह मरुस्थल का नया जनपद लिए
मैं पल रहा हूँ आस लेकर
बिंदु के उस सिन्धु ने
देखा सुधांशु भी निकट से
हो विकट फिर ज्वार-भाटा
तीव्र गति लेने लगा मिश्रित अमा में;
नियति की लहरें उठीं,
उठती रहेंगी
कालगति से वे बंधीं
बंधती रहेंगीं
छाएगी इक दिन उजाली रात
मुझसे हो गयी है बात !
---------
नेति-नेति
मुझे आज कुछ अच्छा नहीं लगता
मैं आकुल हूँ
इसलिए कि जो कुछ
इस जगत में घट रहा है
कब से है,
यह क्रम कब तक चलेगा ?
मैं क्या हूँ
यह प्रश्न आज के अतिरिक्त
शैशव में भी हमारे अन्दर उठता था
तब भी मैं सोचते-सोचते
न जाने कहाँ पहुँच जाता था
औ आज भीइसका उत्तर मुझे कौन देगा ?
मैं इसलिए आकुल हूँ !
---------
वह वारतिय
बजती थी पायल,
झुनुन- झुनुन
थे सभी मस्त
अलमस्त हमारे बाराती
देखा मैंने तब
एक दृश्य की करुणिम आभा,
न्यारी सबके आगे वह जाती बेचारी
करती यौवन व्यापार;
न सुधरा मानव फिर भी
इतना जघन्य अपराध !
न माना फिर भी तू
ओ मनु की संतान !
भटकता है क्यों,
श्रद्धा में ही सुख पा ले
उसमें ही तू हल ढूँढें ।
नारी सब कुछ
शक्ति वही है
मर्यादा के बंधन मत तोड़ो
मेरे वीर !
नयनों की आभा अंतर्मन में
उस बच्चे की पीड़ा
जो उसका अपना है,
कौन उसे अपने जीवन में
समाज में उसे अपनाने
साथी होगा !
---------
हे मानव !
मनु की संतानों सोचो
अबला नारी की दशा हो रही
इस युग में ऐसी
कैसे हम बढ़ पाएंगे इस संसृति में?
नारी पत्नी
नारी सबकी सब श्रद्धा
किन्तु नहीं नारी वेश्या !!
---------
भिखारिन
न जाने छिटक कर कैसे
बिथर वे सब गए,
चावल!
भिखारिन के
मांगकर निज पोटली में बांध
जो रखा;
भिखारिन क्या करे अब
धूल में वैसे मिले जैसे कि
दुःख में व्यंग्य करता व्यक्ति कोई
हँस रहा हो,
यह नियति का खेल या फिर
कर्म की हठखेलियाँ हैं;
कवि खड़ा कुछ सोचता ही रह गया
उस दिन !
सांध्य वेला उधर बढ़ती
रात्रि के पहले चरण में
भीख की कोई न आशा
दिन सिमटकर दे गया था विकट धोखा,
निकट खोखा
बंद जो अब हो चुका था।
भिखारिन क्या करेगी
क्या भरेगी पेट खाली
सुबह से जो ठोकरें
दर-दर भटकती खा रही थी
स्यात् सोना ही पड़ेगा
भूख से उसको
कवि खड़ा कुछ देखता क्या -
सामने अट्टालिका में रौशनी ही रौशनी थी जोर
जैसे हो गया हो भोर,
किन्तु उसकी जिंदगी का
तम मिटाने की कहाँ क्षमता
करूण गाथा सिमटकर कवि हृदय में
सो गयी उस दिन !
---------
पथरकट्टा
अरुण का अंचल
सुनहरा बद्ध प्रातःकाल
धीमी चाल
मैं भ्रमणने शौच करने जा रहा उस दिन
प्रकृति की आभा निराली
देख सहसा रुक गए पग,
थी निकट ही एक नाली
दृष्टि भर देखा सहज ही
था वहाँ पर काटता पत्थर
जड़ीला पथरकट्टा !
देह पर थी कालिमा भरपूर
केशों में गहन उलझाव देखा
वस्त्र उसके भी मलिन भरपूर
लेकिन कर्म की तल्लीनता थी पूर्ण;
घूर कर देखा,
स्वयं को एकबार
दृष्टि उसकी फिर झुकी
निष्काम अपने कर्म पर
हस्त में मैलट सरीखा कुछ लिए
कर रहा जिससे निरंतर
वह प्रहार बार-बार
छांटता पत्थर
निराला पथरकट्टा !
---------
चरैवेति
कितने युग कितने संवत्सर
कितनी मृगतृष्णा कितने घर
भटक-भटक कर देख चुका हूँ
किन्तु न पाया हूँ प्रिय का घर
जाने कब तक चलना मुझको
अपने को देकर मैं तुझको !
---------
एकांत
हे ईश्वर,
मुझे ज्ञान का आलोक दे
जिससे मैं जीवनपथ पर बिखरे
इस विशालतम में
वे अद्भुत चीजें देख सकूँ,
जिनका सम्बन्ध सत्य से है
क्या सत्य ही पूर्ण सुन्दर है ?
यदि हाँ तो वही अखिल सौन्दर्य
मुझे प्रदान कर
जो स्वयं में विद्यमान है;
हे प्रिय मैं सत्य कहता हूँ
तुम मुझे बहुत प्रिय लगते हो
तेरे अन्दर की गहराई तक में जब जाता हूँ
मुझे अपार आनंद की अनुभूति मिलती है
इस भांति तू प्रतिपल
मुझसे मिला कर
मेरे लिए तेरे अलावा
सब शून्य है
मैं तुझे अंतर से
नमस्कार करता हूँ !
---------
आप से
ऐसे दीप जलाओ उर में
अन्धकार भर सब मिट जाए
ऐसे दीप जलाओ कुल में
बहुत दिनों तक सब गुण गायें
ऐसे दीप जलाओ जग में
युग-युग तक बुझने न पायें
ऐसे दीप जलाओ पथ पर
युग-युग तक प्रकाश भर जाये !
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मति वर दे !
इड़ादायिनी मति वर दे
निज मन बुद्धि विमल कर दे
बुद्धिदायिनी मति वर दे
मुझमे पूर्ण शुद्धता भर दे !
सागर चित्त बना दे मेरा
रात दिनों तू डाले डेरा
मानवता ही शेष बनाए
कर्मरूप की सेज सजाए
बैठ सात्विकी रूप ने घेरा
तेरा रूप कमल का घेरा
मेरी बुद्धि सरलतम कर दे
बुद्धिदायिनी मति वर दे !
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करुण स्पर्श
यह अतल सुस्पर्श तेरा क्या करेगा
चिर युगों से चल रहा हूँ मैं निरंतर
व्यक्त मैं कैसे करूँ
अपने स्वयं को,
तुम बने हो मूक पीड़ा
काल पथ पर यह निरन्तर
बन गयी अव्यक्त गीता
निज स्वयं की
व्यक्त मैं कैसे करूँ
तेरी छुअन को?
रूप में सबकुछ समाया आज मेरा
मैं यहां के लोक से संन्यास लूँ
या मधुर स्पर्श का आभास लूँ;
आज आकुल अतल अंतर की व्यथा फिर
चिर युगों से आस लेकर कह रही है
काल पथ पर चल रहीं हूँ मैं निरंतर
मूक गीता को मधुर स्वर आज दे दो !
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कौन तू मेरे हृदय में
एक छाया सी
विकलतर बिम्ब
मानस को दिखाकर
कौन तू मेरे हृदय में ?
है सहज ही
सत्य का आभास
या कि विभ्रम
बिंदु का विश्वास
मैं समझ पाया नहीं हूँ आज तक
मैं स्वयं शोधूं
न मिलता चित्र का आभास
कौन तू मेरे हृदय में ?
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कविता-२
ऐसी रसधारा फूटे
जिसमे डूबे ये संसार
काल न भ्रमित कर सके
अमर बनें उसके पदचिन्ह
मिला ले-
लघुता का संसार !
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प्रायः
नित्य की ही बात,
तुम सहज आते बुलाने
’मैं’ नहीं जाता,
बने बाधा
मिलन की यामिनी
अंतिम घनेरी रात
आ रहा प्रात
सुनिश्चित हो गयी है बात
मानस में हमारे साथ सारी रात
उषा की रक्तिम कपोलों में
नया उल्लास देखा
आज प्रातः पास
तरणि इस बार तेरे हाथ !
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अभागा
जी हाँ
उससे कौन पूछता
दिल का हाल
उसका कोई नहीं है
सिवा उसके
पिता मरा, माता मरी
भाई-बहन काल कवलित हुए
समय की पगडण्डी पर
अर्धांगिनी ने साथ छोड़ा,
दोस्तों ने मुंह मोड़ा
उसके अपने आंसू उससे पूछते हैं
समय की मार को सहकर कहते हैंक्या तू अभागा है?
या कर्म से भागा है
नियति ने मारा है
या अपने से हारा है?
वह चुप है
मौनता अनंत को निहारती गयी
भावी सौभाग्य को बहारती गयी
शायद, तू अभागा है !
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सम्बन्ध
सम्बन्ध बनते हैं
सम्बन्ध बिगड़ते हैं
सम्बन्ध टूट जाते हैं
सम्बन्ध छूट जाते हैं,
सम्बन्ध जुड़ते हैं
सम्बन्ध मुड़ते हैं
सम्बन्ध छुटते हैं
सम्बन्ध घुटते हैं,
सम्बन्ध !
सम्बन्ध किसका
सम्बन्ध प्रकृति का
सम्बन्ध पुरुष का !
सम्बन्ध हलचल का
सम्बन्ध दो पल का
सम्बन्ध जीवन का
सम्बन्ध जन-जन का,
सम्बन्ध अनुबंधों का
सम्बन्ध प्राणों का
सम्बन्ध बस्तियों का
सम्बन्ध बियाबानों का,
संबंधों से यह दुनिया है जहान है
संबंधों के बिना यह जिंदगी
तपता रेगिस्तान है !
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घूरा बोला !
तू उपेक्षित सा पड़ा
क्या सोचता है ?
पूछ मैंने ही लिया
इक दिन उसी से,
क्या तुझे पीड़ा
तुम्हारा नाम क्या है,
तुम्हारा काम ?
डांट कर उसने
सहज उत्तर दिया मुझकोनाम कूड़े-करकटों का ढेर
सब घरों की गंदगी एकत्र हूँ,
आज कल के बाद
मैं बनूँगा खाद
खेती की उपज में
मैं सुनहरी क्रांति लाऊंगा
तुम्हे फिर से जिलाऊँगा !
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मुक्तक/गीत खंड
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स्वर !
स्वर अक्षर है, स्वर ही चेतन
स्वर ही परिवर्तन है
स्वर की ही क्रीडा संसृति में
स्वर का ही नर्तन है !
अनुभूति
अभिचित्र भाव-संरचना
अंतर का यह सूनापन
मुझमें अनंत करुणा है
तुझमे असीम निराजन !
किधर बहूँ ?
अर्थतंत्र की बात कहूँ
या बहूँ कल्पना धारा में
शून्य बना हूँ, जीना मरना
है यथार्थ की कारा में !
मुक्तक
नवसृजन के पंथ पर विश्वास ले बढ़ता रहा हूँ
पर्वतों की चोटियों पर मैं सदा चढ़ता रहा हूँ,
आँधियों के तीव्र झोंके मैं सदा सहता रहा हूँ
और नयनों से सदा मैं अश्रु बन बहता रहा हूँ !
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पाँच मुक्तक
विश्व को विश्व के चाह की यह लड़ी
विश्व में चेतना प्राण जब तक रहे,
प्रिय मधुप का कली पे बजे राग भी
जब तलक गंध सौरभ सुमन में बहे !
प्यार छलता रहा प्रीति के पंथ पर
दीप जलता रहा शाम ढलती रही,
जिंदगी निशि प्रभा की मधुर आस ले
रात दिन सी सरल साँस चलती रही !
नेह की गति नहीं है निरति अंक में
काल की गति नहीं उम्र की गति नहीं,
चाह की गति नहीं कल्प की गति नहीं
रूप के पंथ पर तृप्ति की गति नहीं !
जिंदगी पथ पर निरंतर चल रहा हूँ
साँस लेकर भी यहाँ पर घुट रहा हूँ,
नियति की गहरी व्यथा को साथ लेकर
मैं स्वयं विश्वास में नित लुट रहा हूँ !
रूप ही अंतिम निशानी दे दिया था
नेह बदले में तनिक सा ले लिया था,
है निगाहों में गलत हर शख्स के
तुम बताओ क्या गलत हमने किया था !
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चार मुक्तक
अत्याचारों के शिखर बिंदु से सहसा
जलती ज्वाला सी क्रांति निकलने वाली है,
युग की वाणी आमंत्रण देकर कहती
शासक संप्रभु की जान बदलने वाली है ।
कल्पना भाव की कविता मुझसे कह बैठी
मैं लोकक्रांति की लौ पर जलने वाली हूँ,
निज स्वाभिमान पर यदि धक्का देगा शासन
उसकी धज्जी-धज्जी से लड़ने वाली हूँ ।
चंचला शून्य में कड़क कठिन यह कह जाती
इस भीड़तंत्र के प्राण सूखने वाले हैं,
मजदूर गरीबों के साहस की सीमा पर
अब क्रांतिबीज अंकुरण फूटने वाले हैं ।
धरती प्यासी है उस मानव के शोणित की
जिसके अंतर में लोकप्रेम की कविता है,
धरती प्यासी है उन कवियों की कविता की
जिनके अंतर में लेशमात्र मानवता है ।
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मुक्तक
कालगति के युग धरा पे सत्य का मंदिर बना के
स्वप्न का आधार जिसका स्वप्न से उसको सजा के,
भावना की मूर्ति को छल रूप के लघु प्यार में
अर्थ मानव पूजता है आज के बाज़ार में ।
पिक्चरों के गीत गाये जा रहे हैं
पिरीयड में पान खाए जा रहे हैं,
है नहीं बस छात्र जन की बात
गुरुजनों में दोष पाए जा रहे हैं ।
झूठ को भी सच बताया जा रहा है
कालेजों में गीत गाया जा रहा है,
अर्थ मानव ने लिया जब से जनम
चाकरी के हित पढ़ाया जा रहा है ।
अर्थ से भी सत्य अब बिकने लगा है
झूठ का व्यापार फिर बढ़ने लगा है,
अर्थ हो तो आज के बाज़ार में ले लो
मोल पैसे से यहाँ चढ़ने लगा है ।
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स्मृति
प्रिय की कुछ मधुर कहानी
अब हृदय नहीं कह पाता
स्वाती की आशा में ज्यों
चातक रह-रह चिल्लाता ।
अपने इन नयनों को जब
प्रिय की छवि पड़ी दिखायी
जीवन की इस सरिता में
फिर एक लहर सी आयी ।
इस सरल हृदय के पट पे
सुस्मृति के चिन्ह घने हैं
जो नहीं बिगड़ते हैं अब
वे अमिट सदैव बने हैं ।
चित पुष्कर में खिल करके
बनके सरोज से आये
गुंजर बनकर सुस्मृति ने
तब गीत मिलन के गाये ।
आनन पर घूंघट डाले
घूंघट में सिसक-सिसककर
देखा आँखों ने मुझको मैं
खड़ा रहा कुछ कहकर ।
लोचन में आंसू भरकर
भटका फिरता अनजानी
जीवन के व्यथित क्षणों से
कहता निज करुण कहानी ।
हृद नीड़ मध्य चुप बैठे
अनुपम निज रूप छिपाये
देखी प्रीतम की प्रतिमा
शालीन हुए मुस्काये ।
मन मानसरोवर सा बन
मानस में मानस उमड़ा
देखा स्तब्ध रहा था प्रिय का
अनुपम शशि मुखड़ा ।
निज मन वसंत में खिल के
बन आम्रमंजरी आये
मैं चल समीर का झोंका
सुस्पर्श किये सुख पाये ।
चपला में तीव्र कड़क थी
अम्बर में घोर घटायें
बरसाती पानी से थीं
भीजीं चहुँ ओर दिशाएं ।
कल्पना दिखाने सपने
आती है मुझको अपने
तंद्रित नयनों के घर में
सुस्मृति के चलते सपने ।
दृग पलकों की डोली में
बैठी थी बनकर भोली
क्यों गण्ड-विभा-आँगन में
खेली अधरों ने होली ।
दुःख की घनघोर घटा से
आँसू बन बरसे पानी
उसमे चंचला बनी थी
मेरे सपनों की रानी ।
परिवर्तित होकर क्षण-क्षण
भावी दुर्भाग्य बनाकर
मन दर्पण तोड़ चुका था
तेरा प्रतिबिम्ब दिखाकर ।
मस्तिष्क धरा पर उलझन
आती है आंधी सी जब
झकझोर प्रलय सा देती
हँसते हैं आंसू क्यों तब ।
चित्त चित्राधार बना था
प्रिय की सुस्मृतियां धरके
मन फिसल पड़ा था थमकर
चित्रना चित्र की करके ।
लोचन विश्रांत हुए थे
निज में प्रिय प्रतिमा धरकर
सोयीं विस्मृतियां जागीं
नयनों में आंसू भरकर ।
जाकर यथार्थ से कह दो
निश्चित आशय को चुन ले
अभिसंधि रूप के आगे
जीवन के पट पे चुन ले ।
रोते कपोलपर झरते
आंसू पलकों से छनकर
सो जाती है सुस्मृति में
चेतना अचेतन बनकर ।
दुःख के सागर में कूदा
सुख के मोती लेने को
मैं डूब गया मणि पाकर
कुछ रहा नहीं देने को !
---------
एक स्वप्न
चला जा रहा था पथ पर मैं
विधि का कुछ ऐसा प्रकोप था
संग छोड़कर पकड़ा कसकर
एक पुष्प की डाल को मैंने ।
देखा क्या इक पुष्प लगा था
कोमल था और रंग सुर्ख था
भौंरे उसके आस-पास थे
मधु पराग मकरंद युक्त था ।
बढ़ा तोड़ने को मैं ज्यों ही
एक पवन का चला प्रभंजन
भौंरे सारे दूर हो गए
पुष्प धरा को लगा चूमने ।
आलिंगन करने को ज्यों ही
कर से मैंने उसे उठाया
कर न सका आलिंगन उसका
इतना कोमल उसको पाया ।
नहीं फिर छोड़ सका वह पुष्प
हुई निद्रा कुछ गहरी मूल
स्वप्न कुछ और बढ़ा अतिशीघ्र
किया मैंने कुछ हल्की भूल।
गिर गया कर से सहसा फूल
लगी उसमें कुछ हल्की धूल
नींदवश मैं कुछ जान न पाया
कथा में कुछ परिवर्तन आया ।
पुष्प जगह पर खड़ी हुई थी
एक सुन्दर सी प्रमदा काया
देख उसे आश्चर्य हुआ अति
मैंने समझा है कोई माया ।
निर्मिमेष अपनी आँखों से
उसने मुझको ऐसा देखा
मानो बगुला देख रहा हो
जल जीवन की ताक में अपने ।
न रहा क्षण भर फिर मैं मौन
कहा मैंने तुम कैसे कौन?
कहाँ रहती हो, क्या है नाम ?
बताओ अपना सुन्दर धाम ।
इतना कहने पर रमणी ने
रजनी अपना नाम बताया
शक्रभवन की परी बताकर
उसने अपना धाम बताया ।
तिल छोटा सा चमक रहा था
उसके अधरों के कुछ नीचे
मानो श्वेत कमल पर भौंरा
बैठा हो निज आँखें मींचे ।
---------
मन सुनो प्रिय मीत, मेरे गीत !
गीत मेरे जिंदगी की आँधियों के तृण बने हैं
यामिनी दिन पंथ की मरुभूमि के कण-कण बने हैं
जो कठिन जाते बरस इन लोचनों मे नीर बनकर
जिंदगी संघर्ष नभ के मध्य में वे घन बने हैं
मत सुनो प्रिय मीत, मेरे गीत !
रो रहे इन लोचनों के मध्य मे जलकण बने हैं
भावना के शून्य में वे चंचला कड़कन बने हैं
वेदना की यह मधुर गीता कहूँ मैं आज किससे
गीत करुणामय हृदय के मध्य मे धड़कन बने हैं
मत सुनो............................!
गीत मेरे जिंदगानी की कहानी बन गए हैं
गीत जीवन की कठिन बीहड़ निशानी बन गए हैं
देखता मैं सोचता जब-जब इन्हें हूँ
गीत तब-तब मन नयन में आग-पानी बन गए हैं ।
मत सुनो............................!
सोचता था जिंदगी मे शांति का आभास लूँगा
जिंदगी मे उलझनों से कुछ क्षणिक अवकाश लूँगा
आर्द्र नयनों की पहेली बुझा लूँ कैसे बता दो ?
आज मानस मध्य में मृदुगीत फिर उलझन बने हैं ।
मत सुनो............................!
---------
वेदना अश्रु से आज कहने लगी...
पीर का काकली राग जब तक बजे
काल का यह नियति साज जब तक सजे
कर्म के पंथ पर अब चलें घूमकर
जिंदगी की विकलतर व्यथाएं लिए,
तुम बहो आँख से मैं निकलती रहूँ !
तुम मिले किन्तु मैं कुछ नहीं कह सकी
राग को रागिनी मैं नहीं रख सकी
चित्र की चित्त में चित्रना जानकर
नेह में प्रिय सरल चित्रताई लिए,
चित्र निर्मित करो मैं छलकती रहूँ !
हर तरफ ज़िन्दगी की बहारें लुटीं
विश्व के साधना की पुकारें छुटी
हर व्यथा की सघन यामिनी पंथ पर
पर्वणी सी सघन रश्मियों को लिए,
याद करते रहो मैं मचलती रहूँ !
आज सुस्मृत हुई ज़िन्दगी की व्यथा
प्यार की गीतिका की अधूरी कथा
जागरण ले जगाकर कहे छेड़कर
साँस की श्रृंखला पर व्यथित गीत को,
राग देते रहो मैं पिघलती रहूँ !
---------
विवर्तन
छोड़ मुझको दे कहीं उस
पंथ पे जो पंथ जीवन की पहेली
मैं तुम्हारे आगमन के पृष्ठ गिनना चाहता हूँ !
आज वैभव कल दुखों की आँधियों में है बसेरा
और रजनी है, कभी सन्ध्या कभी प्यारा सवेरा
चल रहे गतिकाल के बदलाव में बनकर पहेली
मैं तुम्हारी चाल की गति जान लेना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे......................................!
बीज से अंकुर बने फिर वृक्ष बनके बढ़ रहे हैं
फिर उन्हीं पर क्यों पतन के तेज आरे चलरहे हैं,
विश्व परिवर्तन कठिन क्रमवार
मैं तुम्हारे वार के क्रमपृष्ठ गिनना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे......................................!
ग्रीष्म ऋतु में वह सलिल जो संकुचित होता रहा है
दुर्दिनों में ही वही क्यों बाढ़ बनकर के बहा है
है कभी विकराल ज्वाला होलिका में जल रही
दीपिका की लौ कभी तो चंचला में चल रही,
जिंदगी के पंथ की बीहड़ पहेली
मैं तुम्हारी चाल में गतिमान होना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे......................................!
तुम कभी पाषाण में विश्वास का आधार लेते
आस्थावश कल्पना में ईश का आकार देते
और सहसा फिर कभी तुम कल्प की झंझा सरल हो
शांतिवन के इस भुवन में आज निश्चय ही विरल हो,
इसलिए ही मैं तुम्हारे आगमन के स्वागतम में
नित्य प्रति कवि को नवल संगीत देना चाहता हूँ,
मैं तुम्हारे......................................!
---------
मैं शलभ हूँ...!
मैं शलभ हूँ ज्योति से है प्यार मेरा
इसलिए ही मैं तड़पता मृत्यु को स्वीकारता हूँ
साथ उसका- प्यार मेरा
मैं शलभ हूँ............................!
मोह पथ पर मैं यहीं पुरुषार्थ ही करता रहा
और विभ्रम में फंसा तव रूप ही छलता रहा,
मृत्यु पाकर मुक्ति का सन्देश मैं गलहारता हूँ
इसलिए ही मैं तड़पता मृत्यु को स्वीकारता हूँ !
पार उसके- प्यार मेरा
मैं शलभ हूँ............................!
---------
अंत में
उस कली के मधुर सौरभ
का क्षणिक आभास पा लूँ
मैं मधुप बनकर क्षणिक पल
राग उसके साथ गा लूँ,
कल्पना अंतिम यही है !
उस कली के रूप में
चित शून्य को ऐसे सुला दूँ
उस कली मृदुगंध में
हर साँस को ऐसे मिला दूँ,
भावना अंतिम यही है !
उस कली हर पंखुड़ी का
नेह में स्पर्श पाकर
और आलिंगन भरूं फिर
चित्त शुचि में गीत गाकर,
लौट कर मैं फिर न आऊँ
विश्व मन के पार जाऊं
कामना अंतिम यही है !
---------
आओ मेरे राम !
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
जगती में अविराम महाभारत चलता है !
यहाँ शकुनि की छलना नीति छला करती है
पांडुपुत्र छाती पर मूंग दला करती है,
जहाँ असत् की लघुतरणी सत जलपे आती
वहाँ सत्य की चीख स्वयं ही शिव बन जाती !
मानस का धृतराष्ट्र अकिंचन बोल रहा है
अपनी गरिमा स्वयं-स्वयं में तोल रहा है
गांधारी सी बहन बेचारी क्या कर सकती
स्वयं पाप की गांठ शकुनि जब डाल रहा है,
आओ मेरे राम तुलसि मन मंदिर में
भावों का साकेत स्वयं में ध्वनि करता है !
पांचाली की लाज लूटता है दुःशासन
फिकर नहीं धृतराष्ट्र भीष्म को निज का शासन
वहाँ न देखो राह उतरकर जल्दी आओ
और बहन को चीर बढ़ाकर लाज बचाओ,
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
मानस का साकेत ज्वाल सा अब जलता है !
जहाँ सत्य की मर्यादा खंडित होती है
कूटनीति के युद्धस्थल पौधे बोती है
तुम्ही बताओ शांति वहाँ कैसे आएगी
जहाँ युगों से दोषहीन सीता रोती है,
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
यहाँ अयोध्या तीर्थ तुम्हारा व्रत करता है !
यहाँ कंस की मथुरा सहसा सहम गयी है
शासक को जनता पर जिसका रहम नहीं है
वहाँ न देखो राह, स्वर्ग से जल्दी आओ
बंदी गृह में बंद युगल के प्राण बचाओ,
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
कालिंदी का घाट प्रतीक्षारत रहता है !
गीता का सन्देश सुनाओ शंख बजाकर
अर्जुन का गांडीव यहाँ हुंकार रहा है
वृन्दावन की गली-गली में शोर मच रहा
कालिंदी का नाग यहाँ फुंकार रहा है
आओ मेरे राम कृष्ण का रूपक बनकर
गोवर्धन पर आज इंद्र वर्षा करता है !
यहाँ निकटतम होकर भी सब दूर हो रहे
और जागरण रखकर भी सब खूब सो रहे
इसीलिए अविराम पगों से बढ़ते आओ
कमल-करों से आशा-दीपक शीघ्र जलाओ,
छाओ मेरे राम श्याम बन नयनों में
दर्शन का आध्यात्म यहाँ आहें भरता है !
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निशा गीत
मेरी इस अंतिम निशा को प्यार की तस्वीर दे दो,
कामना अंतिम यही है प्रेम से उर में छिपा लो !
कह न पाऊंगा किसी से प्यार की अंतिम कहानी
मेरे उर के मध्य रक्खी तेरे उर की वह निशानी,
प्यार के आंसू सिवा औ दे न पाया मैं तुम्हे कुछ
इसलिए अंतिम निशा में प्यार की मुस्कान दे दो !
मेरी इस अंतिम..........................................!
ऊब कर इस जिंदगी से मैं तुम्हारे पास आया
जिंदगी के इस सफ़र में गीत मैंने तेरा गाया
प्यार की आंहें अभी भी याद मुझको आ रहीं हैं,
तेरे अनुपम प्रीत की वह गीत अब भी गा रही है !
मेरी इस अंतिम..........................................!
संग करना था तो जीवन संगिनी तू क्यों बनी ना
प्यार की तस्वीर तुमने उस तरह से क्यों दिया ना
आज मेरे प्यार की मुस्कान की मधुरिम कहानी
याद रखना तू हृदय में यह हमारी है निशानी,
मेरी इस अंतिम..........................................!
क्योंकि अंतिम रात है अंतिम समय है प्यार अंतिम
इसलिए कुछ मानकर तुम मुक्ति का सन्देश दे दो
कल्पना में बह रही हम एक सरिता के किनारे,
जो कभी भी मिलन पाए हैं हमेशा वे निनारे !
मेरी इस अंतिम..........................................!
---------
अर्चना
मंजरी प्रस्फुटित होकर
वंदना करती तुम्हारी
ज्ञान का वरदान दे दे,
शारदा सुफला !
कालजीवन पंथ पे संघर्ष से लड़ती रहूँ मैं
अर्चना के इन स्वरों से वंदना करती रहूँ मैं
चित्त में उस शक्ति का भण्डार कर दे,
ज्ञानदा शुक्ला !
मलिन मानस में हमारे
निज स्वयं को
सुन्दरम् शिव सत्य
का आभास दे दे,
भारती शुक्ला !
वीण-धारिणि महाविजया
घोर प्रतिभा स्वच्छ हृदया
ज्ञान का भण्डार भर दे,
सुंदरी विमला !
---------
छल गया जीवन फिर-फिर बार !
छल गया जीवन फिर-फिर बार
समय की ऐसी रही पुकार !
जानता रहा स्वयं फिर मौन
नियति के आगे किसका कौन
दोष मेरा या तेरा रहा कर्म की ऐसी धारा बहा,
छल गया..........................!
निरंतर चलता रहा मगर
लक्ष्य बिन ओझिल रही डगर
बिचारी आशा बैठी रही
मान में अपने ऐंठी रही प्रतीक्षा जीवन बारम्बार,
छल गया..........................!
विगत रजनी की सारी पोल
दिया सूरज ने सहसा खोल
निरखता रहा निरंतर बार
हो गया विस्मय का संसार समझता रहा निरंतर बार,
छल गया..........................!
समय जीवन का सत्य यही
मृत्यु का असमय आ जाना
अमरता का सन्देश यही
गीत गति के फिर गा जाना दृष्टिगत रहा पुनः इस बार,
छल गया..........................!
---------
कैसे कह दूँ यह संसृति अपना साथी है!
जीवन पगडण्डी पे मुझको
साथी मिले हजारों लेकिन
मन की बीहड़तम सीमा तक
चलने वाला नहीं मिला !
वैभव के उपवन में संग-संग
हँसने वाले मिले बहुत
दुःख के सघन वनों में संग-संग
हंसने वाला नहीं मिला !
कैसे कह दूँ.................!
जीवन वसंत में साथी मिले हजारों लेकिन
पथझड़ की गर्म प्रभंजन लू को
सहने वाला नहीं मिला,
जीवन वैभव में मिले बहुत रुकने वाले
दुर्दिन में संग में
रुकने वाला नहीं मिला !
कैसे कह दूँ.................!
सुख की रजनी में रात-रात जगते थे जो
दुःख की रजनी के प्रथम पहर में, सो बैठे
कैसे कह दूँ प्रातः तक साथ निभाएंगे
सुख में हँसते, दुःख में जो सहसा रो बैठे
उपवन में पुष्प खिले थे जब
तब मिले बहुत,
कांटे पथ पर जब पड़े तो कोई नहीं मिला
कैसे कह दूँ.................!
---------
मेरे साथी सो मत जाना
जीवन एक महासागर है
तरणी सांसों का चलना
सत्य एक विश्राम स्थल पर
सुख से जिस पर है रुकना,
इस अमूल्य जीवन सागर में
मेरे साथी डूब न जाना
जीवन साथी ऊब न जाना !
जीवन जीने की प्रिय गति है
सद्कर्मों की सद् परिणति है
दुष्कर्मों के तीर न जाना
उससे जीवन की दुर्गति है,
जीवन एक सघन कानन है
अपने को प्रिय खो मत देना
मेरे साथी रो मत देना !
जीवन वे लहरें सरिता की
चलना जिनका नाम है
जीवन क्षण कलियाँ उपवन की
हँसना जिनका काम है,
संघर्षों के चक्रवात में
दुःख बीहड़तम महारात में
सुख का चंदा देख-देख के
सो मत जाना,
मेरे साथी खो मत जाना !
---------
साथी जीवन तो बस श्रम है !
प्रातः से रविकल का होना
रविकल से संध्या बन जाना
संध्या का रजनी बन जाना
रजनी में तारों का गाना,
परिवर्तन का क्रम है
साथी जीवन तो बस श्रम है !
गर्मी से सरदी बन जाना
सर्दी से दुर्दिन का होना
दुर्दिन में घन निरख-निरखकर
स्वाती प्रिय चातक का रोना,
राग रूप का भ्रम है
साथी माया का अनुक्रम है !
पतझड़ से वसंत का होना
हर वसंत पतझड़ बन जाना
आशा पथ पे चलते रहकर
घोर निराशा का क्रम आना,
माया का विभ्रम है
साथी परिवर्तन का क्रम है !
---------
अव्यक्त होते हुए
इतनी पीड़ा मुझको दे दी
कविता भी अव्यक्त हो गयी !
मेरे कोमल भावुक मन को
इतनी पीड़ा तुमने दे दी,
उसकी करुणा घनीभूत बन
नयनों से आंसू बरसाये !
मेरे जीवन के लघु पथ पे
जगती ने इतना कुछ ढाहा
कर्म सभी विक्षुब्ध हो गये,
भावी ने पाषाण बिछाये !
इतनी विस्तृत कविता दे दी
वाणी भी अव्यक्त हो गयी,
तेरी पीड़ा मेरा सुख है
पर जगती का मुझको दुःख है,
जिसने निज उपहास उड़ाया
उसके मैंने गीत रचाए !
भावों ने निज संकेतों से
मूक लेखनी से कह डाला
कालचक्र की गति के पथ पे
दृग जलकण सावन बरसाये !
इतनी पीड़ा मुझको दे दी
कविता भी अव्यक्त हो गयी !
---------
मेरे दीपक !
मत मिलन की बात कर
तू अब विरह में जल
निरंतर जलता चल!
मधुर-मधुर तेरा स्पंदन
तेरा रूप बना है चन्दन
पल-पलभर जल-जल कर
जीवन भर जलता चल!
आशा के पनघट पर
यदि कोई न आये
तुझको ही तेरा भी
जब रूप न भाए
फिर भी आलोकित कर
पनघट पर जीवन भर
आंधी तूफानों में
अविरल जलता चल!
यही शेष है तेरा जीवन
नयनों में आशा का सावन
कविता से, किरणों से
कह दे, यही शेष है मेरा जीवन !
---------
सजनि यह कैसा सवेरा ?
है नहीं कलरव यहाँ पर, ना कहीं उल्लास
हास रोकर दे गया था, वेदना संत्रास !
सैकड़ो रावण जगे हैं सो रहा है राम
हो गया मधुरिम सवेरा किन्तु लगती शाम !
दुःख के इस नीड़ में ही, है बना युग का बसेरा,
सजनि यह कैसा सवेरा ?
भूल बैठा पूर्व अपनी सभ्यता का जाप
रात पश्चिम का प्रभंजन दे गया अभिशाप,
है नहीं नभ में प्रभाकर सारथी के संग
स्यात् अश्वों की अवलि, ही हो गयी है भंग
घोर तम ही चांदनी का, बन गया शायद लुटेरा,
सजनि यह कैसा सवेरा ?
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निज गीत
यह नियति का व्यंग्य मेला और मैं इसमें अकेला
चल रहा, मैं चल रहा बस चल रहा हूँ !
कर्म की गति और मेरी, साधना में लीन तेरी
रूप में तेरे समाकर,
ढल रहा, मैं ढल रहा बस ढल रहा हूँ !
देखता हूँ मैं निरंतर, खोजता निज रूप अंतर
पल रहा, मैं पल रहा बस पल रहा हूँ !
कर्म बंधन से स्वयं को मुक्त होना चाहता हूँ
मैं तुम्हें ही देखकर कुछ और होना चाहता हूँ,
भेज ही तुमने दिया जब इस जगत में
आज भी हूँ,
चल रहा, मैं चल रहा बस चल रहा हूँ !
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आत्मीय विरोधाभास
उड़ती रही निरंतर लेकिन पा न सकी आकाश
हे अनंत क्या तू ही मैं हूँ बतला देते काश !
कितनी हलचल है युग पथ पे क्या तेरा ही खेल
जाने किस दिन रुक जाएगी इस जीवन की रेल!
पीती रही सलिल जीवन रस, किन्तु बुझी क्या प्यास
हे अनंत क्या तू ही मैं हूँ बतला देते काश !
रही कामना विश्व निलय में फैले मंगलबेल
कटुता को छोड़े, कर लेवें सब आपस में मेल!
बढ़ती रही निरंतर लेकिन घटने का आभास
हे अनंत क्या तू ही मैं हूँ बतला देते काश !
उलझन है फिर भी सुलझन है आशा की क्या बात
अभिन्न अब कट न सकेगी तुम बिन जीवन रात !
विश्वा के आँगन में तेरा है विस्तृत आवास
हे अनंत क्या तू ही मैं हूँ बतला देते काश !
विघटन और समन्वय दोनों क्या तेरे ही रूप
समझ न पायीं हूँ रहस्यमय तेरा अनुपम रूप !
गतिमय आगम के पथ पर मैं या मेरे अविनाश
हे अनंत क्या तू ही मैं हूँ बतला देते काश !
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इस स्वयं में क्या छिपा है ?
यामिनी दिन भर कठिन इस जिंदगी का क्रम बना हूँ
या सरल इस विश्व के मन मध्य में मैं भ्रम बना हूँ
राग या फिर द्वेष या संगीत की झंकार हूँ मैं,
या सरलतम रूप का मृदु उस गले का हार हूँ ।
या अनिल हूँ या अनल हूँ, शून्य हूँ या हूँ धरा
ओस सा मृदु सलिल कण हूँ मृत्तिका पर हूँ परा,
प्रीति हूँ या प्रीति का आधार हूँ मैं
या सरलतम रूप का मृदु प्यार हूँ !
पवर्णी हूँ या अमा हूँ शून्य हूँ रजनीश हूँ
हूँ सरल सा इक मनुज या फिर कठिन वह ईश हूँ,
कालजीवन सिन्धु पारावार हूँ मैं
जीतती इस जिंदगी की हार हूँ !
भोग का आनंद हूँ मैं या करुण आवाज़ हूँ
घोर पीड़ा हूँ सुखों की या मधुर सी लाज हूँ,
भावना हूँ इस हृदय की या इड़ा की आन हूँ
गीत हूँ परिवेश का या जिंदगी का गान हूँ !
दीप हूँ या ज्योति हूँ आधार हूँ आलोक हूँ मैं
प्रेम का परकाश हूँ या बुझ गए का शोक हूँ,
गुन्जरों की घोर गुंजन का मधुर संगीत हूँ मैं
या कहीं मुकुलित कली पर प्रिय मधुप सा मीत हूँ !
आँधियों की सनसनाहट मेघ कड़कन चंचला हूँ
या प्रकृति सौन्दर्य पर मोहित हुआ मैं मनचला हूँ,
लोचनों में नीर भर-भर खोजता जाता कहीं हूँ
इस स्वयं में क्या छिपा है मैं समझ पाता नहीं हूँ !!
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विश्व संचालक बता दे !
विश्व संचालक बता दे
उस क्षितिज के पार क्या है ?
देख लूँ अंतर नयन सेविश्व का आधार क्या है ?
देखकर यह राग वैभव
मोह के बंधन सजीले
हट रहा है आज मन
क्यों हो रहे ये नयन गीले ?
विश्व संचालक बता दे
उस क्षितिज के पार क्या है ?
देख लूँ निज दृष्टि सेसागर भुवन के पार क्या है ?
झूठ या वह सत्य या फिर
सत्य ही का है घना भ्रम
काल के इस पंथ परदिन रात परिवर्तन बना क्रम !
देखने को लोचनों की दृष्टि
आकुल हो रही है
चल रहे क्रम पार क्या है
बुद्धि व्याकुल हो रही है ?
विश्व संचालक बता दे
विश्व मन के पार क्या है ?
देख लूँ अपने स्वयं के
विश्व में उस पार क्या है ?
विश्व की इन इन्द्रियों का
कर्म क्या है भाग्य क्या है
हो कभी जाता सहज
संयोग का वह मर्म क्या है ?
मैं समझ पाता नहीं हूँ
भाग्य क्या दुर्भाग्य क्या है
और जीवन की धरा पर
विश्व मानव धर्म क्या है ?
विश्व संचालक बता दे
विश्व मन के पार क्या है ?
देख लूँ निज विश्व में
उस विश्व का आकार क्या है ?
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मैंने दुःख से प्यार किया है !
जीवन निर्झरणी के तट पर
मैंने दुःख से प्यार किया है,
कांटो से अभिसार किया है !
सुख के तुच्छ माधुरी रस को
रसना ने सब कुछ दे डाला,
दुःख की सघन व्यथा को पाकर
अंतर ने सब कुछ कह डाला !
आशा का दीपक ले करके
निःश्वासों के मंद पवन में,
आंसू छलक गये आँखों में
करुणाई ले अंतर्मन में !
दुःख की गहन मित्रता पाकर
अपने को बलिहार किया है,
मैंने दुःख से प्यार किया है !
कभी निराशा का विलोम ले
लौटा हूँ यथार्थ के तट पर,
छोड़ कल्पना की बांहों को
बैठा हूँ जीवन पनघट पर !
राग-रूप की विकट परीक्षा
जब-जब अंतर ने कर डाली,
तब-तब अपनी सघन व्यथा की
ढुलका दी जीवन ने प्याली !
सुख को छोड़ दिया इस मन ने
पीड़ा को गलहार किया है,
मैंने दुःख से प्यार किया है !
आकुल मन की सूक्ष्म कल्पना
भटक कहीं जीवन के वन में
भावुकता को लिए अंक में,
बदल गयी कष्टों के घन में !
बरस गयी नयनों में दुःख जल
जीवन में जीवन की पीड़ा,
और दुखों संग नृत्य कर रही
बजा रही करुणा की वीणा !
जीवन के दुखमय उपवन में,
काँटों से अभिसार किया है
मैंने दुःख से प्यार किया है !
आंसू बरसे गंड देश पर
करुणाई की विकल रागिनी,
बजी किन्तु स्वर नहीं मिल सके
दुःख की गहन व्यथा है इतनी !
भावी ने ठोकर खायी जब
असफलता के चौराहे पर
मौन प्रयास बढ़ा, फिर बोला
कर्मों की बीहड़ राहों पर !
सुख को छोड़ दिया इस मन ने
पीड़ा से व्यवहार किया है
मैंने दुःख से प्यार किया है !
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सुप्त मेरी वेदना की गीतिका को मत जगाओ !
सुप्त मेरी वेदना की गीतिका को मत जगाओ !
सुप्त मेरी वेदना की गीतिका को मत जगाओ !
नींद भर अवचेतना संग आज उसको खेलने दो
खोज लेने दो अलौकिक रूप का सागर कहीं पर
स्वप्न में सुख का नया संसार उसको ढूंढने दो !
मत जगाओ वेदना की गीतिका को मत जगाओ !
सिक्ततम सोये स्वयं के मध्यनिद्रा का नयन सुख
वेदना की गीतिका निज विश्व का मृदु नेह पाकर
नींद के निस्सीम आँगन में कहीं कुछ खोजता है
प्रीत भर प्रिय चित्र का आभास दे, सन्देश लाकर !
मत जगाओ सुप्त मेरी वेदना को मत जगाओ !
रिक्त मानस में मिलन की वेदना की गीतिका यह
दृष्टि भर स्वप्निल नयन में तृप्ति लाना चाहती है
प्रीति चपला के व्यथित आलोक में आराम लेकर
नींद के शुचि अंक में प्रिय रूप पाना चाहती है !
मत जगाओ सुप्त मेरी वेदना को मत जगाओ !
मत जगाओ निज हृदय की वेदना को मत जगाओ
नींद के प्रिय प्यार में विश्राम पाना चाहती है
भावना के शून्य में वह कल्पना के संग उड़कर
प्रीति के संसार में प्रिय गीत गाना चाहती है !
सुप्त मेरी गीतिका की वेदना को मत जगाओ !
चंचला की चपल क्रीडा मेघ घन के मध्य पूछे
विश्व-मन दैविक मिलन की पूर्ति का पनघट कहाँ है ?
प्यास नयनों में अकम्पित आज प्रिय आशीष मांगे
सुन्दरम् शिव सत्य के आनंद का प्रिय पथ कहाँ है ?
सुप्त मेरी वेदना की गीतिका को मत जगाओ !
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खो न जाना !!
खो न जाना प्रिय कहीं तुम, अश्रुओं के सघन कण में
भावना के पंथ पर आ, करूण मन के स्मृति घन में !
खो न जाना !
जिंदगी की सरल सरिता, के निरंतर तीव्र वन में
और चलती आन्धियों के, तेज उड़ते वात-त्रण में !
खो न जाना !
मिलन सीमा पर निरति के, शांतियुत निःस्वन स्वयं में
रिक्त उर के तिमिर घन में, नेह के विस्तृत गगन में !
खो न जाना !
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सुस्मृति के स्वर
विगत कविता जीवन की आज,
चित्त तंत्री के सरला तार
बजा जाती सहसा चुपचाप,
खींच लेती मन के उदगार,
कठिन जीवन के मृदु श्रृंगार!
डुबो लेते दृग बीते चित्र,
स्मृति उठ गिरती है लाचार
स्वयं से कहती बारम्बार,
आह बिरही के समिध अंगार,
विकल जीवन के मृदु श्रृंगार!
चीर करके भावों के तंतु,
निकल आई अंतर के द्वार
विरह में आकुल कविता आप,
सुना जाती है शत शत बार!
आह जीवन के मृदु श्रृंगार!
वही सुख दुःख में बदला आज,
विकल दुःख सुख परिणत साकार
मूक सुख भीतर के मृदु छन्द,
करें मानस में करुण पुकार !
आह- जीवन अतीत का प्यार !
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यदि बता दो !
रिक्त उर के तिमिर घन में, कौन हो तुम मौन ?
यदि बता दो तो प्रिये मैं गीत गाऊँ !
कल्प-युग-निस्सीम आँगन में, खिलौना जग बनाये,
कर रहे क्रीड़ा निरंतर, विश्व में तुम हो समाये !
काल गति के चक्र सीमा तक चलो यदि,
तो प्रिये मैं गीत गाऊँ !
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जीवन का कैसा है प्रभात !
संध्या तम का घिर-घिर आना
रविकल शैशव का छिप जाना
तम चूर्ण छिटककर जीवन पर
क्षण-क्षण पर मुझसे रो जाना,
जीवन का कैसा है विकास !
प्रातः है रजनी सा लगना
आलोक रश्मियों का भगना
जीवन अद्भुदता के पथ पे
दर्शन सा अंतर का जगना,
उलझन का कैसा मधुर हास !
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क्रांति बीज
पुनर्जागरण नवदीपक में मानवता का तैल भरो
याद करो अपने अतीत को वर्तमान से मेल करो !
इस युग के बीहड़तम पथ पे वर्षों से सोने वालों
जागो-जागो हिन्द जवानों क्रांतिबीज बोने वालों !
प्रजातंत्र के चलते युग में युग-युग से सोने वालों
जागो-जागो हिन्द जवानों क्रांतिबीज बोने वालों !
नवजीवन के शुभ ऋजु पथ पर अब तक तुम सोने वालों
जागो-जागो हिन्द जवानों क्रांतिबीज बोने वालों !
भीड़तंत्र की बहती धुनि में शांति सलिल मत बन जाओ
नयी लहर में नयी उमंगें नयी वीरता दिखलाओ !
रुको न क्षण भर बढ़े चलो तुम रजनी दिन चलने वालों
झोपड़ियों के वीर जवानों महलों से लड़ने वालों !
सत्य धर्म के विरला पथ पर बाल युवा सोने वालों
जागो-जागो हिन्द जवानों क्रांतिबीज बोने वालों !
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मत मचल चंचल विहग मन तू बता दे !
मोह के अनुपम निलय में राग उत्सव तू मनाकर
नृत्य करता जा रहा क्यों जिंदगी सम्भ्रम बनाकर !
नेह बंधन जाल में फँस घूम कर अपने गगन में
क्यों उड़ा करता न थकता विश्व के विस्तृत गगन में !
मत मचल........................!
तू रमणियों की सरल सी दृष्टि में
हर विभव की तीव्र मोहक वृष्टि में,
रूप लौकिक पंथ पर कुछ दूर चलकर
क्यों सहज जाता भटक तू सूर बनकर !
मत मचल........................!
विश्व के मोहक सुखों के साथ उड़कर
मन-विहग कुछ देख ले इस पार मुड़कर,
खेलता क्यों आत्म संयम राह पर
भाग जाता तू स्वयं की चाह पर !
मत मचल........................!
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कौन अपना है यहाँ पर ?
स्वप्न के इस काल क्रम में
रूपसी माया जगत के
स्वार्थ मानव हाट में
इस विश्व के जंजाल में,
कौन अपना है यहाँ पर !
क्रोध, मद औ लोभ पथ पर
इस सतत नश्वर जगत में
चाह के लघु प्यार में
औ मोह के जंजाल में,
कौन अपना है यहाँ पर !
--
सौरभ
समाप्त
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