बरकत / कहानी / गोविन्द सेन

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कहानी बरकत -गोविन्द सेन ’’दराज से रुपया गायब है।’’ जगदीश ने पहला ही कौर उठाया ही था कि जीजाजी ने वज्रपात-सा किया। ’’...........’’ जगदीश यह...

कहानी

बरकत -गोविन्द सेन

’’दराज से रुपया गायब है।’’ जगदीश ने पहला ही कौर उठाया ही था कि जीजाजी ने वज्रपात-सा किया।

’’...........’’ जगदीश यह अप्रत्याशित सूचना पा सकपका गया। कुछ क्षणों के लिए उसका हाथ थाली और होठों के बीच फ्रीज हो गया।

’’मैं यह नहीं कहता कि रुपया तुमने लिया होगा, लेकिन तुम्हारे होते हुए उसे ले गया कौन ?” प्रश्न को जीजाजी ने छुरे की तरह तान दिया था।

’’तुम तो बैठे होंगे एकदम गुमसुम। सूम जैसे। किसी उस्ताद ने हाथ साफ कर लिया होगा।...इतने सीधेपन से कैसे काम चलेगा। ऐसे ही सीधे बने रहे तो दुनिया बेचकर खा जाएगी तुमको।’’ जीजाजी की आँखों में लाल-लाल डोरे उभर आए थे।

जीजाजी एक छोटी-सी बात को बड़ी गंभीरता से ले रहे थे जबकि कई गंभीर बातों को वे यूँ ही हवा में उड़ा देते हैं। यह उनकी अजीब आदत है।

जगदीश प्रतिवाद में एक शब्द भी नहीं बोल पाया। आँखें डबडबा आईं। जैसे-तैसे दो रोटियाँ निगल हाथ धो लिये। वह स्वयं को सहज बनाए रखने की कोशिश करता रहा।

सुबह-शाम दराज से सारे रुपये अवेर लेने के बाद भी जीजाजी उसमें एक विशेष धुँधलाया रुपया अवश्य रखते थे। वह उनका बरकती रुपया था। इस रुपये के कारण ही दुकान में बरकत रहती है, यह उनका पक्का विश्वास था। वही रुपया आज दराज से गायब था, जिसका जिम्मेदार वे जगदीश को ठहरा रहे थे।

गुमटी में जाकर जगदीश सो नहीं पाया। जीजाजी की कटु-तिक्त बातें उसे कचोटने लगीं। एक-एक करके सभी बातें याद आने लगीं। उसका मन हुआ, जी भरकर रो ले। बिना सोचे समझे वह क्यों चला आया यहाँ ? जो मकसद ले कर आया था क्या वह पूरा हुआ ?

हायरसेकण्डरी करने के बाद चाहकर भी आगे पढ़ने के लिए शहर कालेज नहीं जा पाया। साइन्स की महँगी पढ़ाई उसके बूते की बात नहीं थी। पुश्तैनी धंधे में उसे कोई खास रुचि नहीं थी। एक तो वैसे भी उनका धंधा हेय दृष्टि से देख जाता है, और फिर, पूरी जिन्दगी वह इसी में गुजार दे उसे यह मंजूर नहीं था। वह कोई सरकारी नौकरी चाहता था। तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद उसने अच्छी द्वितीय श्रेणी बनायी थी। लेकिन आजकल नौकरियाँ इतनी आसानी से कहाँ मिलती हैं। फिर उसके पास योग्यता के अलावा था ही क्या ? न पैसा और न कोई पहुँच।

ऐसे निराशा के दौर में उसे जीजाजी उम्मीद की एक किरण के रूप में नजर आये थे। वे उसके दूर के रिश्ते की बहन के पति थे। जब भी गाँव आते, चुटकी बजाते हुए कहते-“बड़े-बड़े अफसरों से मेरी जान-पहचान है। जगदीश बाबू को तो मैं यूँ चुटकी में कहीं भी लगवा दूँगा।’’ प्रभावित हो पिताजी ने जगदीश को आड़े वक्त के लिए छः सौ रुपये देकर जीजाजी के साथ रवाना कर दिया था।

शहर में ठीक कोर्ट के सामने जीजाजी ने अभी-अभी गुमटी ली थी जिसका अभी नामान्तरण होना भी शेष था। वे एक पुरानी इमारत की तीसरी मंजिल पर कोठरीनुमा एक छोटे से कमरे में किराये से रहते थे। कमरे में घुसने के लिए खिड़कीनुमा दरवाजा था। झुककर भीतर घुसना पड़ता था। शुरू-शुरू में अभ्यास न होने और लम्बे कद के कारण जगदीश का माथा कई बार चौखट से ठुका था। छोटे से कमरे में सामान जबरन ठूस-ठूसकर भरा था। कमरा देखकर जगदीश सोच में पड़ गया था कि वह कैसे समा पाएगा इन सबके बीच। चार प्राणी तो पहले ही कमरे में रह रहे थे-जीजाजी, जीजी, पिन्टू और पिंकी।

वे जनवरी की सर्द रातें थीं। आठ-दस दिन जगदीश को उसी कमरे में सुलाया गया। नई और सँकरी जगह में एक-दूसरे से सटकर सोने में उसे घुटन-सी हो रही थी। एक अजीब से तनाव से घिर गया था वह। उसे लगातार महसूस हो रहा था उसके कारण जीजी-जीजाजी की प्राइवेसी भंग हो रही थी। कमरे के बाहर गच्ची पर जगह तो थी लेकिन ठंड रोकने लायक बिस्तरों का प्रबंध नहीं था।

तभी एक दिन तय हुआ कि वह दुकान पर सोया करेगा। उसे दो गुदड़िया और एक दरी दे दी गई। अब रात को खाने के बाद वह सोने के लिए गुमटी पर आ जाया करता था।

इस जर्जर गुमटी में जीजाजी ने सैलून खोल रखा था, जिसे वे दुकान कहते थे। गुमटी के पतरे जंग लगने के कारण छलनी हो चुके थे। दुकान ठीक चैराहे पर होने के कारण रास्ता लगभग पूरी रात चालू रहता था। ऐसे कोलाहल में उसे अकसर देर तक नींद नहीं आती थी।

ऊपर से नौकरी की चिंता खाए जा रही थी। इधर जीजाजी का व्यवहार भी काफी संदिग्ध लग रहा था। जो रुपये उसको पिताजी ने आते समय दिए थे, उसमें से आधे रुपए तो जीजाजी ने गुमटी के नामांतरण के लिए पहले ही ले लिये थे। शेष राशि भी चुट-बुट घरेलू खर्च में खत्म हो गई, जिसका कोई हिसाब नहीं रखा गया था। जीजाजी ने उससे कहा था कि वे जल्दी ही उसके रुपये लौटा देंगे। लेकिन आज तक नहीं लौटाये थे और उसे उनकी वापसी की भी कोई खास उम्मीद नहीं थी।

जगदीश जब भी उन्हें नौकरी की याद दिलाता, वे कहते-“अरे, मैं तुम्हें रेलवे में लगवाऊँगा। इन छोटे-मोटे ऑफीसों में नहीं। रेलवे की नौकरी तो राजा नौकरी होती है। बस थोड़े दिन और ठहर जाओ।’’ फिर वे रेलवे की नौकरी के फायदे गिनवाने लगते। बताने लगते कि किन-किन अफसरों से उनकी दोस्ती है। ये सब मेरे पास ही बाल बनवाते हैं। बस फलाँ साहब से बात हुई नहीं कि तुम्हारी नौकरी पक्की समझो। कई दिनों तक वो बात होती नहीं, और होती भी तो कोई न कोई अड़चन अवश्य आ जाती। टाइपिंग सीखने की बात जब भी उठाता तो कहते-“बस अगले महीने विकास टाइपिंग सेण्टर पर लगवा दूँगा आपको। वो तो मेरा दोस्त ही है।’’ और वह अगला महीना कभी न आता। कभी-कभार जगदीश अधीर हो उठता तो वे उसे फिर किसी नए दिलासे से बहला देते। दिलासे देने में वे बड़े माहिर थे।

सैलून पर वे जगदीश से बराबर पूरा काम ले रहे थे। खुद दुकान पर कम ही टिकते। सुबह दस-ग्यारह बजे आते, दराज से पूरा पैसे अवेर कर बाज़ार में निकल पड़ते। अपनी पुरानी लत के तहत “भाँग-घोटा” की दुकान पर पहुँचते। भाँग का एक बड़ा गोला मुँह में सटकाते और फिर पता नहीं कहाँ-कहाँ घूमते फिरते। वैसे उनसे कोई व्यसन छूटा नहीं था, लेकिन भाँग उन्हें विशेष प्रिय थी। सुबह के बाद वे शाम सात-आठ बजे ही दुकान की सुध लेते। आते ही फिर दराज से रुपए सोर अपनी जेब के हवाले कर देते । यह उनका नित्य का नियम था।

धीरे-धीरे घर का सारा काम जगदीश के जिम्मे होता चला गया। बच्चों का टीचर भी वही था। पिन्टू को जोड़-घटाओ और पिंकी को अ-आ-इ-ई सीखा रहा था। बाजार से सब्जी एवं किराना सामान लाना उसका ही काम था। जीजाजी मंडी से गेहूँ तुलवा देते, टाट का थैला उसे ही उठाकर लाना पड़ता। जीजी जब कभी ‘छूने’ की होती तो रोटियाँ बेलने और पानी भरने का अतिरिक्त बोझ आ पड़ता। जीजाजी इन कामों में ज़रा भी मदद नहीं करते। उनके अनुसार ये सब औरतों के काम हैं, मर्द ऐसे काम नहीं करते।

जगदीश के कपड़ों की दशा सोचनीय थी। दो पैंट थे लेकिन शर्ट केवल एक ही बचा था। वह भी पीठ और कुहनियों पर से गल चुका था। जरा सा तनाव पड़ता कि चर्र से फटने लगता। एक पैंट थोड़ा ठीक था, लेकिन दूसरे के पीछे दो कारियाँ लग चुकी थीं।

एक दिन बाबूजी खबर लेने आए थे तो उसकी दशा देख चिन्तित हो उठे थे। फटे-मैले कपड़े और उसका दुबलापन उनसे छुपा न रह सका। लेकिन जीजाजी ने उन्हें आश्वस्त कर भेज दिया था। घर जाकर पिताजी ने तुरन्त कपड़े खरीदने के लिए पैसे भेजे थे। जीजाजी ने कुछ रुपए जगदीश को पकड़ा कर शेष रुपये बेहिचक अपनी जेब में डाल लिये। “शंकर सेठ (जहाँ उनका खाता चलता था) की दुकान से शर्ट पीस दिलवा दूँगा। अभी मुझे रुपयों की जरूरत है।’’ उन्होंने कहा था। लेकिन वह शर्ट पीस कभी न आ सका और रुपये भी।

सोचते-सोचते पता नहीं कब रात गुजर गई। धूप की एक धारी उसकी गुदड़ी पर उतर आयी। लोगों और वाहनों की आवाजाही का शोर तेज हो गया था। सुबह का उजास गुमटी में फैलने लगा था। नींद न आने के कारण आँखें जल रही थीं। माथा भन्ना रहा था। बेमन से उठकर उसने गुदड़ियों को समेटकर यथास्थान रख दिया।

वह दिन भर जीजाजी से तना-तना रहा। उन्हें देखते ही उसके मन में कड़वाहट भर जाती। शाम को उन्होंने नियमानुसार दराज टटोली।

’’अरे, जगदीश जी रुपया तो दराज की जोड़ में फँसा था।’’ धुँधलाया-सा तथाकथित एक रुपये का बरकती सिक्का उनकी हथेली पर था।

...तो उसे उस अपराध की सजा दी गई जो उसने किया ही नहीं। जगदीश ने आज बहुत तीव्रता से महसूस किया कि जीजाजी उसे बरकती रुपये की तरह अपनी गुमटी में रखना चाहते हैं। लेकिन वह कोई बेजान रुपया नहीं है। वह सोच सकता है, समझ सकता है।...और जगदीश ने मन ही मन में एक निर्णय ले लिया।

दूसरे दिन सुबह जब जीजाजी गुमटी पर आये तो पाया कि जगदीश गायब है। उन्होंने दराज टटोली, बरकती रुपया वहीं मौजूद था।

-राधारमण कालोनी, मनावर, जिला-धार, (म.प्र.) पिन-454446 मो.09893010439

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रचनाकार: बरकत / कहानी / गोविन्द सेन
बरकत / कहानी / गोविन्द सेन
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