नायं हन्ति न हन्यते ! मत्स्यगंधा एक्सप्रेस खेत-खलिहानों, नदी-नालों को पार करती तेजी से आगे बढ़ती जा रही थी। इसी ट्रेन के द्वितीय श्रेणी ...
नायं हन्ति न हन्यते !
मत्स्यगंधा एक्सप्रेस खेत-खलिहानों, नदी-नालों को पार करती तेजी से आगे बढ़ती जा रही थी। इसी ट्रेन के द्वितीय श्रेणी शयनयान के डिब्बे में अपनी बर्थ पर लेटा हुआ अमित सोच रहा था-
छोटे से शहर महादेवपुरम में उसका बचपन बीता। पिता का ट्रान्सफर हो गया और वे दिल्ली आ गए। कुछ वर्षों के लिए सबकुछ छूट सा गया। हमेशा याद आई उनकी, इतने वर्ष बीत गए। क्या कर सकता है वह अपने गुरूजी के लिए, अपने जीवन आदर्श के लिए ? मिल पाउँगा उनसे, कैसे मिलूँगा, क्या कहूँगा ! ऐसे तमाम सवाल अमित के मस्तिष्क में उमड़-घुमड़ रहे थे। मास्टर जी का तेजस्वी चेहरा उसके मस्तिष्क के सामने आ रहा था, धुंधलका हट रहा था....
हमारे शिक्षक श्री सत्य प्रकाश जी, यथा नाम तथा गुण। बड़े ही अच्छे अध्यापक और वो भी हिंदी के। कोचिंग चलाते थे वे। प्रधानाचार्य थे वे एक छोटे से कोचिंग संस्थान के। स्वच्छन्द, बड़े ही अनुशासन प्रिय, सरल एवं प्रभावी व्यक्तित्व। लड़कों की पहली पसंद। वे जब भी पढ़ाते तो हमें ऐसा प्रतीत होता जैसे उनके पीछे कोई शक्ति पड़ी हो। कभी-कभी जोर-जोर से चिल्लाने लगते तो कभी इतना धीरे बोलते कि लड़के कूपमंडूक सुना ही करते। सत्य प्रकाश जी हिंदी साहित्य में निष्णात, कवि हृदय पुरुष थे। साहित्यानुराग उनके अन्य गुणों के साथ बोनस की तरह जुड़ा हुआ था।
उन्हें अपने विषय पर गहरी पकड़ थी सो बगैर किताब के ही उनका लेक्चर शुरू हो जाता। छोटे से छोटे टॉपिक पर भी घंटों बोला करते। घंटी तो उन्हें सुनाई ही न पड़ती थी। जब बच्चे यह कहते कि गुरूजी कुछ प्रश्न-उत्तर, व्याख्या, जीवनी लिखवा दीजिये तो वे कहते- लिखा तो किताब में है ही, उसे ही पढ़ो। कक्षा में मैं जो बोलूं उसे ध्यान से सुनो। पुराने जमाने में जब किताबें नहीं थी तब मौखिक ही शिक्षण होता था और शुरू हो जाता उनका उपदेश। अब लड़के ठहरे हाईस्कूल/इन्टर स्तर की निचली कक्षाओं के और वो भी ग्रामीण बच्चे। कहाँ से समझ पाते इतनी गहराई की बातें। मेहनत व्यर्थ जाती उनकी लेकिन जी न चुराते पढ़ाने से। शायद इसीलिए संस्थान का रिजल्ट कभी इतना बढ़िया नहीं रहा। उनका शिक्षण सिर्फ पढ़ा देने या अंक दिला कर पास करा देने तक ही सीमित नहीं था। उनका शिक्षण बहुआयामी था। सभी लड़के-लड़कियां उनका बहुत सम्मान करते थे। वे भी उन्हें अपने बच्चों समान मानते थे। सत्य प्रकाश जी आर्थिक दृष्टि से थोड़ा विपन्न थे। वे पुरुषार्थ के बाकी तीन अवयवों का तो बखूबी पालन करने में तत्पर रहे परन्तु एक अवयव यानी की ‘अर्थ’ से वे विलग ही रहे।
उन्होंने कभी अपने या अपने परिवार के लिए धन इकट्ठा नहीं किया। शाहखर्च थे वे। जेब में पैसे हों तो क्या कहने, न हों तब भी कोई गम नहीं। जब लोग उनसे इस बारे में कहते तो वे सुनी सुनाई एक लाइन से सबको निरुत्तर कर देते वे कहते, ‘पूत कपूत तो क्या धन संचे पूत सपूत तो क्या धन संचे।’ लोगों ने उन्हें मास्टर मस्तराम की संज्ञा दे दी थी। उन पर यह कहावत एकदम सटीक बैठती थी, मस्तराम मस्ती में आग लगे बस्ती में।
कोचिंग में लड़कों ने सभी शिक्षकों के कुछ न कुछ नाम रख दिए थे। भौतिकी विषय के शिक्षक काफी मोटे थे उनका नाम गैंडास्वामी रखा गया, केमिस्ट्री के अध्यापक महोदय हमेशा अजीब से शकल लिए रहते थे मानो प्रेशर आया हुआ हो इसलिए उनका नामकरण हुआ- हगासा, कॉमर्स के टीचर क्लास में अक्सर हाथ उठा-उठाकर, ताली बजा बजाकर पढ़ाया करते थे उनका नाम रख गया- किन्नर, बायो के अध्यापक की शकल व बालों की स्टाइल फ़िल्मी हीरो शाहरुख़ खान से मिलती-जुलती थी इसलिए उनका नाम पड़ गया शाहरुख़ खान, गणित विषय के अध्यापक महोदय के चेहरे व शरीर पर सफ़ेद दाग थे सो उनका नाम दिया गया- सफेदा, कंप्यूटर के शिक्षक नाटे कद के थे इसलिए उनका नाम छोटू रखा गया। सभी अध्यापकों के पीठ पीछे हम उन्हें इन्हीं नामों से बुलाया करते। सचमुच वह भी क्या खूब मजे के दिन थे। इन सब बातों से दूर सत्यप्रकाश जी अन्य अध्यापकों से एकदम अलग थे वे लड़कों से कभी खुद ही पूछते- आज पढ़ने की इच्छा नहीं है क्या ! तो वो कभी चाय पिलवाते तो कभी नाश्ता करवाते। कोचिंग के अन्य शिक्षणगण विस्मित होते उनके व्यवहार से। वे छात्र एवं अध्यापक के संबंधों की गरिमा को अच्छी तरह से समझते थे। वे मनोवैज्ञानिक ढंग से बच्चों को डील करते थे।
विश्राम करने के लिए सत्य प्रकाश जी कभी-कभी ऑफिस में ही ऊँघ लेते। कोई देखे तो यही कहे शायद देर रात तक जगते हैं। मगर ऐसा कुछ भी नहीं था। ये तो आदत थी उनकी। अब कुर्सी की पीड़ा को कौन झेले तो वही कोचिंग के ऑफिस में एक तखत भी डलवा लिया। जैसे ही थोड़ी फुर्सत/मौका मिलता तो वे उसी तखत पर पसर जाते। कभी-कभी सभी लोग चले जाते और वे छुट्टी के बाद भी घोड़े बेच कर सोया ही करते जब तक घर से उनका लड़का उन्हें बुलाने न आ जाये।
वे कर्मयोगी थे। एक दार्शनिकता सी थी उनके जीवन में। प्रबंधक सहित सभी शिक्षक सोचते थे जब ये दिनभर एक दो पीरियड पढ़ाने के अलावा सोया ही करते हैं तो आखिर सभी रजिस्टर, फाइलें, फीस इंट्री, आय-व्यय का विवरण कैसे रखते होंगे। यही सोचकर एक दिन हो गया सत्य प्रकाश जी के ऑफिस का औचक निरीक्षण। प्रबंधक सहित कार्यकारिणी के कई वरिष्ठ सदस्य कोचिंग परिसर में दाखिल हुए। उन्होंने देखा कि सत्य प्रकाश जी आराम फरमा रहे हैं। प्रबंधक महोदय का पारा चढ़ गया। उन्होंने सोचा कि अगर सभी एंट्रियाँ पूर्ण न मिलीं तो इन्हें रखने से क्या फायदा। ये तो अव्यवस्था है, बच्चे क्या सोचते होंगे ? ऐसा बड़बड़ाते हुए उन्होंने मेज पर, अलमारी के सभी कागज़ पत्रों की जांच कर डाली। आश्चर्य ! सबकुछ इतना मेनटेन था कि प्रबंधक सहित सभी शिक्षकों को हैरानी हुई। तभी सत्यप्रकाश जी उठ बैठे और बेमतलब खड़े हुए शिक्षकों से बोले, ‘आप लोग यहाँ पर क्या कर रहें हैं। जाइये अपने-अपने क्लास लीजिये। कितना शोर हो रहा है।’
बेचारे प्रबंधक जी खिसिया गये, क्या कहते- चुपचाप लौट गये। सत्यप्रकाश जी के विरोधियों को काटो तो खून नहीं। उनके सहज और शांत स्वभाव के कारण संस्थान के वरिष्ठ शिक्षकों की निगाहें उनकी कुर्सी पर लगीं रहतीं और वे मौका पा के प्रबंधक महोदय के कान भरा करते, परास्त होने पर अपनी खीझ बच्चों पर निकालते।
हम सब लड़के सब समझते थे। गुप्त रूप से सारी सूचनाएँ गुरूजी के पास पहुँच जातीं। कुल मिलाकर उनका सूचनातंत्र बड़ा सबल था। मेहनत से वे कतराते न थे। समय से पहले ही उनका सब काम पूरा हो जाता। अब इतना बचा समय। करें तो क्या करें तो सोचते कि विश्राम किया जाए।
कभी-कभी अपनी तरफ से वे आकस्मिक अवकाश घोषित कर देते या कभी बच्चों से कहते, ‘अब तुम लोग थक गये होगे। चाहो तो अपनी-अपनी बेंचों पर लेट जाओ। कम पड़ें तो ऑफिस से उठा लाओ।’ मानो कोचिंग नहीं आरामगाह हो। सत्यप्रकाश जी कहा करते, ‘पढ़ो भी, आराम भी करो ! प्रतिरोधक क्षमता/शक्ति बढती है इससे।’ पता नहीं उनकी इस आरामतलबी के पीछे क्या कारण था। खैर जो भी हो थे बड़े ही अच्छे। एक आदर्श अध्यापक में जो गुण होने चाहिए थे वे सभी उनमें विद्यमान थे। विद्यार्थियों और उनके बीच के भाव कृत्रिम नहीं बल्कि अपनत्व से भरे थे। फीस के लिए तो उन्होंने कभी कहा ही नहीं लेकिन जब उन्हें जरुरत पड़ती तो किसी छात्र विशेष को अकेले में बुलाकर सत्यप्रकाश जी संकोच से कहते, ‘बेटा ! कुछ पैसे हों ज़रा दे देना, बाद में मुझसे ले लेना।’ मानो उधार मांग रहे हों। मेरा मानना था कि यदि वे आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते तो सबकी फीस खुद ही जमा कर देते। बड़े ही नेक इंसान थे सत्यप्रकाश जी !
लेकिन इतना सब कुछ कैसे और कब तक चलता। कोचिंग में घाटा तो लगना ही था। बमुश्किल 50-60 बच्चे और 5 अध्यापक ऊपर से बिल्डिंग का किराया, प्रबंधक का हिस्सा तथा अन्य खर्चे अलग। सत्यप्रकाश जी किसी से कुछ न कहते। वे अपने विद्यार्थियों से हमेशा जोर देकर कहते कि, ‘अभी पढ़ लो, आगे विश्राम करोगे जिंदगी भर।’ मैं उनसे बहुत प्रभावित था। दूरदराज़ के जो बच्चे शहर में किराये का कमरा लेकर रहते थे उन्हें कभी-कभी वे अपने लड़के के हाथ अपने घर से भोजन बनवा के पिठवा देते या कभी कुछ। अपने शिष्यों का ऐसा ख़याल कौन रखता है आज के जमाने में। उनके बारे में सोचकर बड़ा अच्छा लगता। सत्य प्रकाश जी मिसाल थे पूरी शिक्षक जाति के लिए। वे समर्पित थे शिक्षा के प्रति/अपने शिष्यों के प्रति। शिक्षा के सम्बन्ध में वे स्वामी विवेकानंद के विचारों से बहुत प्रभावित थे, वे अक्सर कहा करते कि जो इस संसार माया से पार उतार दे, जो कृपा करके सारी मानसिक आधि-व्याधियों को मिटा दे वही यथार्थ गुरु है। जो ज्ञानी हैं, जो दूसरों को संसार सागर से उबार सकने में समर्थ हैं वही असली गुरु हैं। उन्हें पाते ही चेले हो लो ‘नात्र कर्ता विचारणा !’
कुछ समय बाद उनका कोचिंग आना बंद हो गया। अन्य कोई प्रधानाचार्य बना था। मगर आश्चर्य ज्योंही पता चला सत्यप्रकाश जी चले गये हैं एक भी बच्चा कोचिंग न आया। मायूस हो गये सब और कोचिंग बंद हो गयी, हमेशा के लिए। उधर बच्चे उनसे मिलने उनके घर पहुँच गये। विह्वल हो रोने लगे सब। बताने लगे सब अपनी-अपनी व्यथा। मानो अपने गुरु नहीं अपने पिता से बातें कर रहें हों। सत्यप्रकाश जी ने सबको ढाढस बंधाया। पुत्रवत स्नेह से सबको गले लगा लिया। ऐसे थे सत्यप्रकाश जी। मानो वे शिक्षा के लिए और अपने बच्चों के लिए ही बने थे। उनकी हर एक बात याद रहती थी बच्चों को। उनका आदेश वेदवाक्य था शिष्यों के लिए। ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं और मेरा गुरु विरला ही था जिनके खुद के पसंदीदा व्यक्ति प्रसाद और निराला जैसे बीहड़ व्यक्तित्व के स्वामी थे। गुरुदक्षिणा तो देनी ही होगी उन्हें। जो वे कहेंगे चरणों में डाल दूंगा लाके। बहुत दिन हुए उनसे मिले, न जाने कैसे हों ? अमित ने सोचा।
यादों के झरोखे से बाहर आकर अमित ने देखा गाड़ी रुकी हुई थी उसका गंतव्य महादेवपुरम आ चुका था। वह उतरा, बहुत बदला-बदला से लग रहा था उसे चारों ओर। अब तो सीधे दिल्ली से रेलगाड़ी की व्यवस्था है सो कोई ख़ास परेशानी न हुई। उत्कट अभिलाषा थी अपने प्रिय आचार्य से मिलने की और इतने वर्षों बाद जब वे मुझे देखेंगे तो कैसा लगेगा। गुरु शिष्य का दुबारा मिलन, होगी भेंट मज़ा आ जायेगा। अमित को रोमांच हो रहा था, यों सोच मानो उसकी यात्रा की सारी थकान, सारा खुमार उतर गया।
अमित ने स्टेशन से बाहर आकर ऑटो किया। पूछते-पाछते, ढूंढते-ढांढते वह उनके पैतृक निवास तक पहुंचा तो देखा वहाँ कुछ न था। यहाँ तो खण्डहर है। अमित ठिठका- कहीं गलत स्थान पर तो नहीं आ गया। उसने इधर-उधर पूछा। वह सही था, ‘शेष नहीं उनका कोई वंशज। मात्र 48 वर्ष की अल्पायु में क्षय रोग से पीड़ित होकर हमें छोड़कर चले गये। सदा-सर्वदा आराम करने के लिए। परिवार भी भयानक बरसात के फलस्वरूप एक दिन कच्ची छतों के नीचे दबकर कालकवलित हो गया। शेष नहीं बची उनकी कोई कृति, समय ने सबकुछ लील लिया !’ निकटवर्ती लोगों ने अमित को ऐसा कुछ बताया। अप्रत्याशित उत्तरों से अमित को झटका सा लगा। वह पता नही क्यों बेचैन सा हो गया। व्यथित हो उलझ गया वह स्वयं से- क्या अर्थ ही है सबकुछ ?? पूछूँ में किससे क्यूँ हो जाता है अंत महामानवों का, इतनी जल्दी !
आज सत्यप्रकाश जी नहीं हैं। बची हैं तो सिर्फ उनकी यादें। आज लोग शिक्षा के आदर्श रूप में उनकी मिसाल देते हैं तो लगता है कि ऐसे मस्तराम जी दोबारा फिर न हो सकेंगे। उनके साथ गुजरा एक-एक क्षण अतीत के चलचित्रों की तरह अमित की आँखों के सामने आ रहा था। मानो कल ही की बात हो। उन जैसे गुरु को पाकर मैं धन्य था। उनकी शिक्षाओं/सिद्धांतों को जिसने जीवन में उतार लिया वह आदमी बन चुका था। खेद है मैं गुरुदक्षिणा न चुका सका। अमित ने सोचा।
टूटे घरौंदे पर जमीं घास मुस्कुरा रही थी। अमित बेबस था, क्रोध आता था उसे ईश्वर पर, उसके अस्तित्व पर। अमित बोझिल क़दमों से वापस लौटने को मुड़ा कि उसे लगा मानो उस खण्डहर से गुरूजी पुकारते हों। वह रुक जाता, उसे उनकी परछाई सी महसूस होती, गूंजती उनकी तेज आवाज़। अमित यथार्थ के कठोर पृष्ठ पर लौट आया। चौराहे पर खड़ा होकर वह इधर-उधर देखता, राहों को ताकता। उसकी अवचेतना झंकृत हो उठी। कदम चलते, मस्तिष्क करता वंदन ! काश वे फिर आयें, कहें मुझसे- ‘विश्राम कर लो अमित ! सुबह फिर जुटना है !’
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संक्षिप्त परिचय
राहुल देव
जन्म – 20/03/1988
शिक्षा - एम.ए. (अर्थशास्त्र), बी.एड.
साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ के दो अंकों का संपादन | त्रैमासिक पत्रिका ‘इंदु संचेतना’ का सहसंपादन | ई-पत्रिका ‘स्पर्श’ (samvedan-sparsh.blogspot.in) का संचालन | ‘जलेस’ से जुड़ाव |
सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन एवं अध्यापन |
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो.– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
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