डॉ. रमेशचंद्र खरे ने दिनकर सोनवलकर के रचनात्मक अवदान पर एक लेख लिखा है, दमोह के दिनकर. इसमें उन्होंने दिनकर सोनवलकर की साहित्यिक यात्रा को र...
डॉ. रमेशचंद्र खरे ने दिनकर सोनवलकर के रचनात्मक अवदान पर एक लेख लिखा है, दमोह के दिनकर. इसमें उन्होंने दिनकर सोनवलकर की साहित्यिक यात्रा को रेखांकित करते हुए कहा है, “ दमोह का दिनकर अंततः जावरा का ज्योतिपुंज बन गया”. ज़ाहिर है मुझे अपने इस आलेख का शीर्षक इसी वाक्य से मिला है. दिनकर सोनवलकर भले ही दमोह में जन्में और बड़े हुए हों लेकिन कवि के रूप में उनका नाम जावरा (म. प्र.) से ही सर्वाधिक चमका. उन्होंने जावरा में वर्षों तक शासकीय महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र को स्नातक कक्षाओं को पढ़ाया लेकिन उनकी वास्तविक रूचि व्यंग्य कवितायेँ लिखने/ सुनाने में रही.
दिनकर सोनवलकर का जन्म मई, 1932, में दमोह में हुआ था. वे मराठी-भाषी थे. उन्होंने दर्शनशास्त्र और हिंदी में एम.ए किया था. हिंदी में वे साहित्यरत्न भी थे. 1959 से वे अनवरत हिंदी में लेखन करते रहे. उनकी कविताएं, समीक्षाएं, टिप्पणियां, साक्षात्कार आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. उनका प्रथम कविता-संग्रह जिसमें अधिकांश कविताएं व्यंग्य-कविताएं थीं, “अंकुर की कृतज्ञता” था. अ से असभ्यता” और “इकतारे पर अनहद नाद” पर वे उत्तर प्रदेश हिंदी साहित्य समिति से पुरस्कृत हुए. मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी ने उन्हें “आत्मीय संगीत” और “त्रियामी” पर पुरस्कृत किया. म. प्र. परिषद द्वारा ही, वे अपनी पुस्तक “मराठी कविता” जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया था, पर भी पुरस्कृत हुए थे. “रक्त से जलते हुए अनगिनत सूर्य” दिनकर सोनवलकर द्वारा मराठी दलित कविता की हिंदी में प्रथम प्रस्तुति है. इसके अतिरिक्त भी उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जैसे, “दीवारों के खिलाफ” “पीढियों का दर्शक” और “शीशे और पत्थर का गणित”. “शीशे और पत्थर..” संभवतः उनका अंतिम कविता-संग्रह था. इसे कलाकार प्रह्लाद अग्रवाल ने अपनी सुंदर हस्तलिपि में प्रकाशित किया.
दिनकर सोनवलकर आधुनिक हिंदी व्यंग्य काव्य के उन आरम्भिक कवियों में गिने जाते हैं जिन्होंने व्यंग्य को गम्भीरता से ग्रहण किया. वे कवि-सम्मेलनों के लोकप्रिय कवि थे लेकिन उन्होंने अपनी व्यंग्य कविताओं को हमेशा कवि सम्मेलनी फूहड़ हास्य से बचाए रखा. साहित्य में आज व्यंग्य लेखन तेज़ी से विकसित हो रहा है. स्वतंत्रता के बाद तो हिंदी के क्षेत्र में व्यंग्य पर सर्वाधिक काम हुआ है. एक ओर अच्छे व्यंग्यकारों की एक पूरी टीम, गद्य और कविता दोनों ही विधाओं में, लोक-स्वीकृति पाने में समर्थ हुई है, वहीं दूसरी ओर पाठकों का एक वर्ग भी ऐसा तैयार हुआ है जो बकौल दिनकर सोनवलकर “व्यंग्य के बारीक इशारों को समझता है.” सोनवलकर अपने भारत महान की समकालीन स्थिति का सटीक विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि “आज का नेताभ्रष्ट है, न्याय अंधा है, छात्र दिशाहीन है, शिक्षा खोखली है. अफसर रिश्वतखोर हैं, समाज दकियानूस है, बुदधि- जीवी कमरों में बंद हैं, साहित्य जन-जीवन से कटा हुआ है, व्यंग्य ही एकमात्र विकल्प है. व्यंग्यकार ही रामभरोसे बैठकर सबका ठीक-ठीक हिसाब-किताब रखता है.”1
व्यंग्य के बारे में दिनकर सोनवलकर के विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं. वे मानते हैं कि साहित्य जगत में व्यंग्य की भूमिका को नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता. एक ओर “जबतक असंगति और विषमताएं हैं, अन्याय और शोषण है, कथनी और करनी का फर्क है”2, और दूस्ररी ओर, “जबतक मनुष्य होने का अहसास बाक़ी है, जबतक ईमानदारी और न्याय से लड़ पाने की कचोट उठती है, जबतक हम पूरी तरह से मुर्दा नहीं हो गए हैं व्यंग्य लिखे जाते रहेंगे.”3. (सभी उद्धरण,”व्यंग्य क्या व्यंग्य क्यों” से, पृ,56, 53, 55) व्यंग्य ही वह अस्त्र है जो लोगों को उनकी असली शक्ल दिखाता है. जो भ्रष्ट सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार करता है. अतः सोनवलकर का स्पष्ट मत है कि “व्यंग्य लिखना दर- असल कड़वा सच कहने की जोखिम उठाना है.” जो घर फूंके आपनो सो चले हमारे साथ यों तो हम अपने सामाजिक जीवन में एक दूसरे के साथ व्यंग्योक्तियां कसते ही रहते हैं लेकिन एक साहित्यिक-कर्म के रूप में व्यंग्य लिखना कोई आसान काम नहीं है. इसके लिए “गहरी अंतर्दृष्टि और निर्भीक अभिव्यक्ति” चाहिए. व्यंग्यकार एक सतत जागरूक रचनाकार होता है. लेकिन सामाजिक विसंगतियों के प्रति केवल जागरूकता ही काफी नहीं है. व्यंग्यकार का चरित्र भी “ईमानदार, बुलंद, निडर और अपरिग्रही” होना आवश्यक है. उसकी प्रतिबद्धता सिर्फ “मनुष्य के प्रति, मनुष्य के लिए ही होती है.
दिनकर सोनवलकर एक ऐसे ही व्यंग्यकार हैं. जागरूक और निडर. विसंगतियों के प्रति जागरूक और अभिव्यक्ति में निडर. श्रीकांत जोशी ने उनके बारे में ठीक ही कहा है,
“दिनकर सोनवलकर का काव्य अपने समय की चेतना का वाहक है. परिस्थिति और व्यक्तियों को खुली आँखों से देख सकने की विशेष क्षमता ही नहीं अपने निर्णयों और अनुभवों को विशेष साहस के साथ प्रकट करने का कौशल भी उन्हें प्राप्त है.”
दिनकर सोनवलकर के पहले कविता-संग्रह ने ही (“अंकुर की कृतज्ञता”) पाठकों/ लेखकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था. डॉ. हरिवंश राय बच्चन कहते हैं, “पूरी पुस्तक का प्रभाव मुझ पर यह पड़ा कि मैं एक भाव-प्रवण, युग संयत, निर्भीक एवं उत्तरोत्तर समर्थ कवि से मिला हूँ.” इसी प्रकार भगवतशरण उपाध्याय भी इस संग्रह को पढकर “गहरे तृप्त” हुए थे. वे कहते हैं, “ गहरी अभिव्यक्ति, व्यंग्य का चुटीला दंश क़लम का राज़ छिटपुट जाना था, वह यहाँ एकत्र मिला. इस संग्रह में जिसकी पंक्ति-पंक्ति बोलती है, शब्द-शब्द स्वानुभूति की गहरी अभिव्यक्ति है. यह नई कविता का दृष्टांत संग्रह है.”
दिनकर सोनवलकर की व्यंग्य कविताओं का संग्रह, “अ से असभ्यता” एक महत्व पूर्ण संग्रह है. इसमें संकलित कविताओं के बारे में वे लिखते हैं, “जी/ ये कविताएं/ कुछ अजीब ही हैं/ ये पुरानों का दम्भ ही/ चूर नहीं करती/ नयों का नक़लीपन भी/ उभाड़ती हैं.” इस संग्रह में उन्होंने भारत की मौजूदा स्थितियों पर जमकर कटाक्ष किया है -
जय जय भारत देश
पल पल बढती मंहगाई
दिन दिन बढता क्लेश! (पृ. 51)
आज के संदर्भ में वे गीतांजलि की स्वदेश वंदना कुछ इस अंदाज़ में करते हैं –
चित्त जहां कायर है युवक जहां निरुद्देश्य
शीश जहां झुका हुआ दिग्भ्रमित घूम रहा कुंठा की गलियों में
ज्ञान जहाँ चाटुकार नेतृत्व जहाँ उलझा है
डाक्टरेट की सीमा पर रुका हुआ सत्ता की अंत-हीन तृष्णा में
मंच पर असत्य जहाँ व्यस्त है चिपका है.. कुरसी से ..
मिथ्या आश्वासन में .. ओ मेरे प्रभु
अकर्मण्य आलस्य जहाँ देखता है (जो दलबदल शैतान के साथ होंगे)
दिवास्वप्न भ्रष्टाचारी नशे में
प्रगति के विकास के .. निद्रित कर मेरे इस देश को !
पृ. 68-69
प्रजातंत्र की एक मान्य परिभाषा है – जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन. लेकिन भारतकी संसद / विधान-सभाओं में जनता को जो दृश्य देखने को मिलता है वह ठीक इस परिभाषा के विपरीत है. जनता के कल्याण के नाम पर
विधान सभाओं के भीतर / गाली गलौज कर रहे हैं
जनता के चुने हुए प्रतिनिधि / कुर्सियां उछाली जा रही हैं
प्रस्ताव फाड़े जा रहे हैं / सदस्यों के बीच जम रही है
फ्री स्टाइल कुश्ती / किस लिए?
विधान-सभा के बाहर / जनता के हिमायती
दुकाने चला रहे हैं / सम्पत्ति लूट रहे हैं
दंगे करा रहे हैं / किसलिए ?
“जनता के कल्याण के लिए”
अजब यह जनता / क्या इसे ख़ुद
कुछ भी करते नहीं बनता ?
बेचारी दूसरों के भरोसे रहती है
भूख से / गोली से / मरती है ! (पृ. 16)
हम सब इतने निकम्मे और आत्मकेंद्रित हो चुके हैं कि हमें किसी दूसरे की कोई चिंता ही नहीं है. बस अपना अहम् भर सुरक्षित रखना है –
एक मन था गीतों भरा / तुम्हारे जूड़े में सजा दिया / खिले गुलाब सा
एक तन था उत्साह भरा / शासन को सौंप दिया / आज्ञाकारी सेवक सा
और धन / वह तो सिर्फ पहली को दिखता है
स्टेट बैंक की खिड़की पर / बिजली की चमक सा
अब / ले दे कर मेरे पास / बचा है सिर्फ एक अहम्
इसी को पालता हूं / इकलौटे बेटे सा.. (पृ. 42, अ से)
मूल चीज़ / बस एक ही है – अहम्
उसी के रूपांतर हैं सभी व्यक्ति
कभी भ्रम / कभी विभ्रम / कभी चतुर, कभी चक्रम
कभी विदूषक कभी विक्रम.
अंतहीन क्रम ... (पृ. 75, अ से)
अपने दार्शनिक अंदाज़ के साथ दिनकर सोनवलकर सभी बुराइयों की जड़ में बस मनुष्य के अहम् को ही पाते हैं. यह अहंकार ही है जो मनुष्य को आत्मकेंद्रित बनाता है, और स्वार्थी भी. यदि हम अपने इस अह्म् को पीछे रखकर आम-आदमी के लिए करुणा विकसित कर सकें तो अनेकानेक विसंगतियों का हल हम आसानी से ढूंढ सकते हैं.
यह दुर्भाग्य है कि साहित्य में आम आदमी एक अजूबे की तरह खड़ा कर दिया गया है. जिसको देखो वह आम आदमी की तलाश कर रहा है. लेकिन कवि कहता है –
आम आदमी की तलाश / का प्रपंच
मै क्यों खड़ा करूं / मैं उससे दूर ही कब रहा
मैं / तुम / वे – हम सब / आइने की तरह
खड़े हैं एक दूसरे के सामने
और प्रतिबिम्बित हो रहा है / हमारा प्यार ! (पृ. 25, शीशे का..)
यों तो जो दुःखी, संत्रस्त और हताश लोग हैं, उनकी आस्था भले ही दरक गई हो लेकिन
मैं दुःखी नहीं / संत्रस्त कुंठित या हताश नहीं
आस्था है मेरी / आदमी पर अटूट
एक व्यंग्यकार होने के बावजूद और मौजूदा स्थितियों से अत्यंत असंतुष्ट होकर भी दिनकर सोनवलकर आदमी में अपनी आस्था को बरकरार बनाए रखते हैं. बल्कि उनकी कविताओं के अंतिम संकलन, “शीशे और पत्थर का गणित” में यह आस्था और भी मुखरित होकर प्रकट हुई है. उन्हें पूरा विश्वास है –
तुम कहीं भी रहो / किसी भी कोने में छिपो
या भीड़ में गुमराह होने की / कोशिश करो
मेरे शब्दों की पुकार / अनसुनी नहीं कर सकोगे (पृ. 7, शीशे..)
शब्द में बहुत शक्ति है और सोनवलकर ने इस शक्ति को पहचाना है, वे जानते हैं कि
राजा शब्द से डरता है / उसके महल के चारों तरफ
तैनाथ हैं मंत्री / बंदूके लिए हुए –
फिर भी शब्द से डरता है राजा.. (पृ. 10, शीशे..)
लेकिन मुश्किल तो यह है कि राजा (प्रकारांतर से व्यवस्था) अपने चाटुकारों से घिरा हुआ है और ये चाटुकार राजा के चारों ओर दीवार बनकर खड़े हो जाते हैं. अतः कवि कहता है,
मुझे बॉस से नहीं / बॉस के कुत्तों से
डर लगता है / जो / हर आने-जाने पर
बिना बात भौंकते हैं / अपनी ही जमात के लोगों की
पीठ में / छुरा भोंकते हैं / कुरसी का
आश्रय मिलते ही / गर्व से ऐंठ जाते हैं
ज़रा सा टुकड़ा मिलते ही / दुम दबाकर बैठ जाते हैं
ऐसे लोगों की / प्यार-पुचकार में भी
चौदह इंजैक्शनों का भय लगता है
मुझे बॉस से नहीं / बॉस के कुत्तों से / डर लगता है (पृ. 44, शीशे..)
दिनकर सोनवलकर मूलतः एक अध्यापक हैं. उन्होंने बेकार घूमते नौजवानों को देखा है. युवा छात्रों के नपुंसक क्रोध को देखा है. यह दिशाहीन क्रोध यदि कहीं सर्जनात्मक कार्यों की ओर मोड़ा जा सकता तो पूरे हिदुस्तान की तस्बीर बदल सकती थी. वे कामना करते हैं,
कि काश / तुम्हारे हाथों में / पत्थर की जगह क़लम होती
हँसिया-हतौड़ा होता / पेंटिंग का ब्रश
या सितार की मिरजात होती / सर्जरी के औज़ार
या पुल बनाने का नक्शा होता / जिनसे
तुम हिंदुस्तान की एक नई तस्बीर बनाते (पृ. 37 शीशे..)
शीशे और पत्थर के गणित को भली-भाँति समझते हुए भी सोनवलकर का स्वर अंत तक “सार्थक” बना रहा.
मशाल की तरह जलकर / रास्ता नहीं दिखा सकते /न सही
अगरबत्ती की तरह मँहक कर / सुगंधित तो कर सकते हो / परिवेश को
(पृष्ट, 64. शीशे)
डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने दिनकर सोनवलकर के काव्य में यह सर्जनात्मक स्वर उनकी पहली पुस्तक “अंकुर की कृतज्ञता” में ही खोज लिया था. वे उनकी कविताओं में झलकती “नवोन्मेषी प्रतिभा पर मुग्ध” हुए थे. तथा निःसंकोच भाव से कह सके थे कि “आपकी व्यंग्य मुद्रा स्वस्थ है. उससे समाज का कल्याण होगा.” प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. रमेश कुंतल मेघ का मत, इस संदर्भ में, बहुत महत्वपूर्ण है. वे कहते हैं “शायद भवानी प्रसाद मिश्र के बाद हिंदी में इतनी साफ और गहरी कविता को इतने स्वाभाविक ढंग से सोनवलकर ने ही प्रकाशित किया है. कवि ने इतनी सरल भाषा और इतने गम्भीर विचारों का सहयोग इस सीमा तक किया है कि उसने अपनी मुहावरेदारी का चमत्कार भी दिखाया है. नई कविता की शैली में भी अनूठे गीत लिखे जा सकते हैं, इस दृष्टि से वे अद्वितीय हैं.”
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