महाभारत में एक रोचक कथा आती है. दस हजार हाथियों का बल रखने वाले भीम को अपने पर घमण्ड हो गया था कि उस जैसा बलशाली दुनिया में कोई नहीं है. उस...
महाभारत में एक रोचक कथा आती है. दस हजार हाथियों का बल रखने वाले भीम को अपने पर घमण्ड हो गया था कि उस जैसा बलशाली दुनिया में कोई नहीं है. उसके इस घमण्ड को चूर करने के लिए महावीर हनुमान ने एक चाल चली. दौपदी के माध्यम से उन्होंने भीम से कहलवाया कि यदि वह मुझे( दौपदी) खुश देखना चाहते हैं तो मुझे ब्रह्मकमल लाकर दीजिए.
घमण्ड में चूर बलशाली भीम हिमालय क्षेत्र में जा पहुंचे. वे फ़ूलों की घाटी में प्रवेश लेना ही चाहते थे कि उन्होंने देखा कि, रास्ते में एक बन्दर अपनी लम्बी पूंछ फ़ैलाए आराम से सो रहा है. चुंकि उस समय समाज में यह आम धारणा बनी हुई थी कि किसी को लांघकर आगे नहीं बढ़ना चाहिए, अन्यथा वह पाप का भागी होता है.
भीम जल्दी में थे. वे चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके वे पुष्प लेकर दौपदी के पास लौट जाएं. लेकिन रास्ते में पड़े बन्दर को देखकर वे उसे लांघकर आगे नहीं बढ़ सकते थे. उन्होंने क्रुद्ध होते हुए उस वानर से कहा कि वह अपनी पूंछ रास्ते पर से हटा ले. वृद्ध बन्दर के रूप में, एक पेड़ के नीचे आराम कर रहे हनुमानजी ने वहीं से पड़े-पड़े कहा-“ भाई, मैं बूढ़ा हो चुका हूँ और अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं बची कि मैं अपनी पूंछ उठा सकूं. तुम इसे एक तरह उठाकर रख दो और आगे बढ़ जाओ.”
उत्तर सुनकर भीम के क्रोध का पारावार बढ़ने लगा था. लेकिन पूंछ उठाकर एक तरफ़ करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था उनके पास. उन्होंने अपनी गदा एक तरफ़ रखी और दोनों हाथों से पूंछ उठाने का उपक्रम करने लगे. वे जितना ज्यादा जोर लगाते, पूंछ हिलने का नाम तक नहीं लेती थी. काफ़ी श्रम करने के बावजूद भी वे पूंछ को एक इंच भी नहीं सरका पाए. ज्यादा परिश्रम करने से भीम पसीना-पसीना हो उठे थे. गला सूखने को हो आया था. दिल की धड़कने तेज होने लगी थी और अब आँखों के सामने अन्धेरा सा भी छाने लगा था.
दस हजार हाथियों का बल रखने वाला भीम इस छॊटॆ से उपक्रम में हार रहा था और मन ही मन ग्लानि का शिकार भी हो रहा था. हताश होकर वे धम्म से एक जगह बैठ गए. बैठते ही उनके मन में विचार आया कि यह बूढ़ा वानर कोई साधारण वानर नहीं है. निश्चित ही वे एक सिद्ध पुरुष हो सकते हैं.
अपनी ग्लानि को परे हटाते हुए वे उस वृद्ध वानर के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और कहा-“ भगवन ! आप कोई साधारण वानर नहीं हैं. कृपया अपना दिव्य रूप प्रकट कर दर्शन देने की कृपा करें”
निदेवन सुनकर वीर हनुमान अपने दिव्य रूप में आकर प्रकट हो गए. जैसे ही भीम ने अपने आराधक को सामने देखा, फ़ौरन चरणॊं में गिर पड़े और उनकी आँखों से पश्चाताप के आँसू छलछलाकर बह निकले.
श्री हनुमानजी ने रोते हुए भीम को उठाया और उपदेश देते हुए कहा _” भीम ! तुम्हें घमण्ड हो गया था कि तुमसे बलशाली इस दुनिया में कोई नहीं है. घमण्ड करना अच्छी बात नहीं है. घमण्ड रखने से मनुष्य किसी का भला तो नहीं करता, हाँ किसी को अकारण परेशान तो कर ही सकता है. अतः हमे घमण्ड नहीं करना चाहिए. इसलिए मैंने तुम्हारा घमण्ड चूर करने के लिए ही यह माया रची थी.” इतना कहकर वे अदृष्य हो गए.
इस तरह भीम का घमण्ड दूर हुआ. और अब वे प्रसन्नचित फ़ूलों की घाटी में जा पहुँचे और दिव्य पुष्प लेकर लौट पड़े.
आइए, हम ब्रह्मकमल के बारे में रोचक जानकारियां प्राप्त करते चलें.
ब्रह्म कमल
इस फ़ूल को लेकर धार्मिक मान्यता है कि यह (पुष्प) भगवान ब्रह्माजी को अत्यन्त ही प्रिय है. अतः इस पुष्प का नाम “ब्रह्मकमल” पड़ा. ब्रह्मकमल हिमालय के उत्तराखण्ड में करीब 3000 से 5000 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है. कहते हैं कि इसकी लगभग 61 प्रजातियाँ पायी जाती हैं, जिनमें से लगभग 58 तो अकेले हिमालयी इलाकों में पायी जाती हैं. यह अद्भुत पुष्प ताल-तलैया में या पानी में पुष्पित नहीं होता, बल्कि जमीन में खिलता है.
यह उत्तराखण्ड में पिण्डारी, चिफ़ला, रूपकुण्ड, हेमकुण्ड, ब्रजगंगा, फ़ूलों की घाटी तथा केदारनाथ में भी पाया जाता है. इसके अलावा सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश तथा कश्मीर में पाया जाता है. भारत के अलावा यह नेपाल, भूटान, म्यांमार, दक्षिण-पश्चिम चीन तथा पाकिस्थान में भी पाया जाता है. ब्रह्मकमल को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नामों से भी जाना जाता है. जैसे- उत्तराखण्ड में इसे ब्रह्मकमल, हिमाचल प्रदेश में दूधाफ़ूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर-पश्चिम में बरगनडटॊगेस के नाम से जाना जाता है. ब्रह्मकमल का वानस्पतिक नाम सोसेरिया ओबोवेलाटा (Saussurea obvallata ) है. यह एस्टेरेसी वंश का पौधा है. कहा जाता है कि यह पुष्प साल में सिर्फ़ एक बार ही फ़ूलता है.
इस पुष्प में राइजोम में एन्टिसेप्टिक गुण होता है, जिसे जले-कटे अंगों पर प्रयोग में लाया जा सकता है. यह भी कहा जाता है कि जानवर के बीमार पड़ जाने पर या मूत्र संबंधी बीमारी हो तो इस पुष्प को जौ के आटे में मिलाकर पिलाया जाता है. यदि इसे गर्म कपड़ों में लपेटकर रखा जाए तो कपड़ों में कीड़े नहीं पड़ते. इसका इस्तेमाल सर्दी-जुकाम अथवा हड्डियों के दर्द में भी प्रयोग में लाया जाता है. इसकी सुगंध इतनी तीव्र होती है कि मात्र हलके से छू भर लेने से ही लंबे समय तक इसकी खुशबू बनी रहती है. इसे सूंघ लिया जाय तो आदमी बेहोश तक हो सकता है. इसे सुखाकर यदि कैंसर के मरीज को दिया जाए तो व्याधि रहित हो जाता है. पुरानी खासीं में भी इससे लाभ मिलता है. भोटिया जनजाति के लोग, बाहरी व्याद्धियों से छुटकारा पाने की चाह में इसे अपने घर के दरवाजों पर टांग देते हैं. उनका अपना विश्वास है कि ऎसा करने से कोई बाहरी अकल्याणकारी शक्ति घर में प्रवेश नहीं करती. माह जुलाई-सितम्बर के बीच में यह फ़ूल खिलता है. रात के दस-ग्यारह बजे इसका खिलाना शुरु होता है और आधी रात के बाद इसकी पंखुड़ियां बंद होने लगती है और सुबह तक मुरझा जाता है. सितम्बर-अक्टूबर के आते-आते इसमें फ़ल लगने लगते हैं. इसका कुल जीवन 4-6 माह का ही होता है. कहा जाता है कि इस पुष्प को केवल नन्दाष्टमी के दिन तोड़ा जा सकता है. अपने अनेकानेक दिव्य गुणॊं के कारण इसे अत्यन्त ही शुभ माना जाता है. जब यह खिलता है तो इसमें ब्रह्मदेव की एवं त्रिशूल की आकृति उभर आती है.
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