पी. रविकुमार मलयालम के लब्ध-प्रतिष्ठित पत्रकार एवं कवि हैं. ‘नचिकेता’ खंड-काव्य उन्होंने अपनी मातृ-भाषा मलयालम में ही लिखा है. एषुत्तु अकाद...
पी. रविकुमार मलयालम के लब्ध-प्रतिष्ठित पत्रकार एवं कवि हैं. ‘नचिकेता’ खंड-काव्य उन्होंने अपनी मातृ-भाषा मलयालम में ही लिखा है. एषुत्तु अकादमी पुरस्कार से यह 2010 में सम्मानित भी हो चुका है. इसका हिंदी अनुवाद भी अब आ गया है. अनुवाद प्रो. डी. तंक्प्पन ने किया है. तंकप्प्न मलयालम, हिंदी, और अंग्रेज़ी के प्रकांड पंडित और जाने-माने अनुवादक हैं. उनका अनुवाद लगता ही नहीं अनुवाद है.
नचिकेता की मूल-कथा हमें कठोपनिषद में मिलती है. नचिकेता नामक बालक अपने पिता वाजस्रवा द्वारा यम-लोक भेज दिया जाता है. वहां नचिकेता अमरत्व की खोज में मृत्यु के अधिपति, यम, से मुंह-दर-मुंह बात करता है और जन्म, जीवन, मरण, देश, काल, अस्तित्व आदि, के संदर्भों को नए सिरे से समझने की कोशिश करता है. पी. रवि- कुमार ने बस इसी कहानी को काव्यात्मक रूप प्रदान किया है. नचिकेता ने यम से जो प्रश्न पूछे थे वे कवि के मन में उथल-पुथल मचाते हैं और इसी के परिणाम स्वरूप उनकी यह रचना सामने आई है. कवि ने मृत्यु और जीवन के तानों-बानों को जोड़कर एक कलात्मक कृति का सृजन किया है. बेशक नचिकेता की मूल-कथा तो कठोपनिषद से ही प्राप्त की गई है लेकिन रविकुमार ने इसे अन्य उपनिषदों, तथा भागवत, योगवाशिष्ट आदि में आए कथा संदर्भों से समुन्नत किया है और अपनी बात को कुछ इस तरह समायोजित किया है कि पता ही नहीं चलता कि कब, किस ग्रंथ का शब्द/भाव इसमें समाहित हुआ है
नचिकेता हमें एक पूरा जीवन-दर्शन देता है. मनुष्य का जन्म क्यों होता है, यह किस तरह विकास करता है, उसकी गति-विधियां किस ओर उन्मुख होती हैं, या कि, उन्मुख होना चाहिए,आदि. सभी प्रश्नों को कर्म से जोड़ा गया है. पढकर ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य मानों अपने कर्मों के अनुसार मृत्यु की ओर दौड़कर पहुंचने के लिए ही जन्म लेता हो. गर्भ-पात्र में पहुंचकर सूक्ष्म पुरुष-बीज एक चैतन्य-बिंदु बन जाता है जिसमें से रेखाएं और आकृति – अंग-प्रत्यंगों के रूप में- प्रकट होती हैं और
जन्मांतर के पालने में/ नचिकेता नेत्र खोलता है (पृ. 29)
एक नया जीवन आरम्भ होता है. किंतु यह जीवन पिछले जीवन से मिलता-जुलता ही तो है – वही व्याकुलता, संभ्रांति, दुःस्वप्न और अंतहीन कामनाओं का संघात. इन्हीं की पूर्ति के लिए आदमी क्या क्या पाप नहीं कर बैठता! ये पाप-कर्म ही उसे न तो मुक्त होने देते हैं न ही इनके दुष्परिणामों को भोगने से वह बच पाता है. यही नरक-भोग है.
नचिकेता में अनेक प्रकार के नरक बताए गए हैं – तामिस्र, अंधतामिस्र, रौरव, महारौरव, कालसूत्र, शूकर-मुख, अंधकूप, यमकिंकर, वज्रकंटक, शाल्मलि, ऐतरणी, पूयोदम्, प्राण-रोध, विषसनम, सारमेयादनम्, अबीच, रक्षोगण भोजन, शूलप्रोत, दंडशुकम, अवट-निरोधम्, पर्यावर्तन, सूचीमुख, इत्यादि. ये सारे नरक अलग-अलग पापों के दंड हैं. नरक- भोग के सारे चित्र डरावने और दिल दहलाने वाले हैं.
सामाजिक दृष्टिकोण से यदि हम देखें तो ये नरक-भोग के चित्र एक सामान्य व्यक्ति को पाप कर्म से विरत करने के लिए ही बताए गए हैं. नरक की अवधारणा और नरक भोग के ये भयंकर चित्र जो हमें नीति-ग्रंथों में मिलते हैं और जिन्हें पी. रविकुमार ने अपने इस काव्य में उकेरा है, उनका आशय भी शायद यही है कि मनुष्य को एक अच्छा सामाजिक और सार्वजनिक जीवन जीने के लिए नैतिक आचरण बहुत आवश्यक है, नहीं तो अनैतिक व्यवहार के दुष्परिणामों को भोगने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए. पर क्या नरक-भोग के डर से मनुष्य सचमुच पाप-कर्म से विमुख हो सकता है, या, कभी विमुख हुआ है! अनुभव ऐसा नहीं बताता. सज़ायाफ्ता आदमी बार-बार वही अपराध करते देखा गया है जिसके लिए बार-बार यह सज़ा भुगत चुका है. कवि पूछता है –
संसार के सभी चराचर/ शोक से क्यों तप्त होते हैं
कोई पाप नहीं करना चाहता/ फिर क्यों पाप कर बैठता है! (पृ.56)
यहीं से यह खंड-काव्य पूरी तरह एक आध्यात्मिक मोड़ ले लेता है. वस्तुतः हमारी सारी गतिविधियां केवल हमारे भौतिक सुखों के इर्द-गिर्द घूमती हैं. उसी के कोलाहल में हम अपने वास्तविक स्वरूप को जो अनिवार्यतः ‘आत्मिक’ है, भुला बैठते हैं. मनुष्य का लक्ष्य इस कोलाहल से अपने को मुक्त करना है. उसे ‘एकांत, अद्वैत शांति भू’ की तलाश है और यह हर जीव के हृदय-स्थल में विराजमान है. यह अद्वैत लघु से लघु और गुरु से गुरु है. कठोपनिषद कहता है –
आत्मस्यजंतोर, महतोमहीयान/ आत्मस्यजंतोर निहितो गुहायां
तमक्रतुः पश्यति वीत शोको/ धातु प्रसादान महिमान आत्माना
यदि मनुष्य अपनी सांसारिक कामनाओं को छोड़कर स्वयं में छिपे इस गुह्य बिंदु को प्राप्त कर लेता है तो निश्चय ही वह वीतशोक होकर आनंद-भूमि पर स्थित हो जाएगा.
नचिकेता का यही संदेश है. नचिकेता काव्य मनुष्य को ‘भौतिक’ से उठाकर ‘नैतिक’ और नैतिक से उठाकर अपने ‘आध्यात्मिक’ स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए आमंत्रण है. –
बंधन और मोक्ष/त्यागकर
सुख और दुःख/त्यागकर
अस्ति एवं नास्ति का विचार तक/त्यागकर....
संकल्प कर/निश्चल महासमुद्र बनकर
निचिकेता जाग उठा (पृ. 62)
वर्षा की पहली बूंद/नचिकेता की मूर्च्छा पर गिरी
देखते-देखते वर्षा ज़ोर पकड़ती है....
समुद्र में वर्षा पड़ती है/वर्षा में समुद्र डूब जाता है
वनस्थलियों में वर्षा पड़ती है/वनस्थलियां वर्षा में डूब जाती हैं
स्थल और काल तिरोहित जाते हैं! (पृ.59-61)
अंततः कवि कहता है –
अब लोक व्यवहार करना/मेरे लिए सरल बन गया है
ओह!/मैं ईश्वर से एकात्म/ हो जाता हूं (पृ.67)
यहां यह ध्यातव्य है कि ईश्वर से एकात्म हो जाने का आध्यात्मिक आनंद मनुष्य को लोक व्यवहार से विमुख नहीं करता. लोक व्यवहार उसके लिए सरल हो जाता है. नचिकेता में व्यक्त यह सारा जीवन-दर्शन हमें उस आध्यात्मिक ऊंचाई पर ले जाता है जहां से हम अपने प्रतिदिन के जीवन को पाप से रहित, जीवन और मृत्यु से विमुख होकर, अधिक सुंदर बना सकते हैं.
नचिकेता काव्य को यदि हम कला की दृष्टि से देखें तो भी यह एक उदात्त और सुंदर कृति है. केरल के प्रसिद्ध शिल्पी कानावि कुंञिरामन कहते हैं – नचिकेता का माध्यम मुझे शब्द लगा ही नहीं. मुझे यह काव्य दृश्य बिम्बों के रूप में अनुभूत हुआ...उनमें से कुछ का ही चित्रांकन मै कर पाया.... और भी कुछ चित्र बनाने का विचार है. नरक को आधार बनाकर चित्रों की एक परम्परा बनाना चाहता हूं....चित्र रचना का समय मेरे लिए अनिर्वचनीय आनंद प्रदान करने वाला लगा. ये दिन चिंतन, ध्यान और बोध-उदयों के रहे |
कोई भी काव्य-कृति यदि किसी चित्रकार/मूर्तिकार को चित्रादि बनाने के लिए प्रेरित
करती है तो यह कृति की अतिरिक्त सफलता मानी जाएगी. नचिकेता से प्रेरित होकर कानावि कुंञिरामन ने जो पुस्तक में चित्र दिए हैं, सभी इतने आग्रही हैं कि उनपर पाठक का ध्यान जाए बिना नहीं रहता. इन चित्रों से पुस्तक अधिक मूल्यवान हुई है.
नचिकेता की भाषा सरल और सहज है. कृत्रिमता से दूर, बिम्बों से भरपूर है. इसमें जहां एक ओर वैचारिक गाम्भीर्य है वहीं काव्यात्मक आस्वाद भी है |
(नचिकेता / मूलकृति, पी रविकुमार / अनुवादक,प्रो. डी. तन्कप्पन नायर / जवाहर पुस्तकालय मथुरा / २०१२ /पृष्ठ १०४ / मूल्य रु. २२५/-)
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
केरल ज्योति, मार्च २०१३.
COMMENTS