कहानी / लाश / सुशांत सुप्रिय

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घर के ड्राइंग-रूम में उनकी लाश पड़ी हुई है । उनकी मृत्यु से मुझे गहरा झटका लगा है । मैं सदमे में हूँ । बुझा हुआ हूँ । मेरी वाणी को जैसे लकव...

घर के ड्राइंग-रूम में उनकी लाश पड़ी हुई है । उनकी मृत्यु से मुझे गहरा झटका लगा है । मैं सदमे में हूँ । बुझा हुआ हूँ । मेरी वाणी को जैसे लकवा मार गया

है । हाथ-पैरों में जैसे जान ही नहीं रही । आँखों में जैसे किसी ने ढेर सारा अँधेरा झोंक दिया है । वे नहीं गए । ऐसा लगता है जैसे मेरा सब कुछ चला गया है । जैसे मेरी धमनियों और शिराओं में से रक्त चला गया है । जैसे मेरे शरीर में से मेरी आत्मा चली गई है । जैसे मेरे आसमान से सूरज, चाँद और सितारे चले गए हैं । सुबह का समय है लेकिन इस सुबह के भीतर रात की कराहें दफ़्न हैं । लगता है जैसे मेरे वजूद की किताब के पन्ने फट कर समय की आँधी में खो जाएँगे ...

मेरे घर में मेरी पत्नी , मेरा बेटा और मेरी बेटी रहते हैं । और हमारे साथ रहते थे वे । वे मेरे यहाँ तब से थे जब से मैंने इस घर में आँखें खोली थीं । बल्कि इस से भी कहीं पहले से वे हम सब के बीच थे । मेरे पिताजी , दादाजी -- सब उनकी इज़्ज़त करते थे । वे हमारे यहाँ ऐसे रहते थे जैसे भक्त के दिल में भगवान रहते हैं । जैसे बादलों में बूँदें रहती हैं । जैसे सूर्य की किरणों में ऊष्मा रहती है । जैसे इंद्रधनुष में रंग रहते हैं । जैसे फूलों में पराग रहता है । जैसे पानी में मछली रहती है । जैसे पत्थरों में आग रहती है । जैसे आँखों में पहचान रहती है ...

उनकी उँगली पकड़ कर ही मैं जीवन में दाख़िल हुआ था । मेरी सौभाग्यशाली उँगलियों ने उन्हें छुआ था । पिताजी, दादाजी -- सब ने हमारे जीवन में उनके महत्व के बारे में हमें बार-बार समझाया था । उनका साथ मुझे अच्छा लगता था । उनकी गोदी में बैठकर मैंने सच्चाई और ईमानदारी का पाठ पढ़ा । उनकी छाया में मैंने जीवन को ठीक से जीना सीखा । सही और ग़लत का ज्ञान उन्होंने ही मुझे करवाया था । और मैं इसे कभी नहीं भूला । उनके दिखाए मार्ग पर चल कर ही मैं आज जहाँ हूँ , वहाँ पहुँचा । फिर मेरी शादी हो गई । और यहाँ से मेरे जीवन में मुश्किलों ने प्रवेश किया ।

मेरी पत्नी पढ़ी-लिखी किंतु बेहद महत्वाकांक्षी थी । उसकी मानसिकता मुझसे अलग थी । वह जीवन में सफल होने के लिए किसी भी हद तक जा सकती थी । और ' सफलता ' की उसकी परिभाषा भी मेरी परिभाषा से बिलकुल मेल नहीं खाती थी । झूठ बोलकर , फ़रेब करके , दूसरों का हक़ मार कर आगे बढ़ने को भी वह जायज़ मानती थी । उसके लिए अवसरवादिता ' दुनियावी ' होने का दूसरा नाम था । ज़ाहिर है , मेरी पत्नी को उनका साथ पसंद नहीं था क्योंकि वे तो छल-कपट से कोसों दूर थे ।

फिर मेरे जीवन में मेरे बच्चे आए । एक फूल-सा बेटा और एक इंद्रधनुष-सी बेटी । मेरी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं रही । मैंने चाहा कि मेरे बच्चे भी उनसे सही जीवन जीने की शिक्षा ग्रहण करें । जीवन में सही और ग़लत को पहचानें । उनके द्वारा सिखाए गए मूल्यों और आदर्शों का दामन थाम लें । किंतु ऐसा हो न सका । बच्चे अपनी माँ पर गए । उन्होंने जो सीखा , अपनी माँ से ही सीखा । इन बीजों में मैं पर्याप्त मात्रा में अच्छे संस्कारों की खाद न मिला पाया । बुराई को नष्ट कर देने वाले कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं कर पाया । नतीजा यह हुआ कि इन पौधे-रूपी बच्चों में बुराई का कीड़ा लग गया । मेरे बच्चे उनकी अच्छाइयों से कुछ न सीख सके । जब मैं घर में नहीं होता , वे घर के एक कोने में उपेक्षित-से पड़े रहते । मेरे बीवी -बच्चे उनसे कोई वास्ता नहीं रखते । कई बार मुझे लगता कि इस सब से आहत होकर कहीं वे मेरा घर छोड़ कर कहीं और न चले जाएँ । शायद वे मेरे घर में केवल मेरी वजह से रहते चले आ रहे थे ।

मेरे बच्चों को जो संस्कार मिले थे , उन संस्कारों ने उन्हें स्वार्थी और अवसरवादी बना दिया था । उनके ज़हन में सही और ग़लत की विभाजन-रेखा ख़त्म हो गई थी । वे परीक्षा में नक़ल करने लगे थे । उनका यक़ीन दूसरों का हक़ मारकर आगे बढ़ने और किसी भी तरह सफल होने में हो गया था , जो उन्होंने अपनी माँ से सीखा था । वे इतनी मतलबी हो गए थे कि यदि उन्हें मुझसे कोई काम नहीं होता तो उनके राडार पर मेरी यानी उनके पिता की उपस्थिति भी दर्ज़ नहीं होती । हर बात में केवल वे अपना फ़ायदा देखते थे और इसे ' दुनियावी ' होना कहते थे ।

इस बीच वे घर में बीमार रहने लगे थे । मैं उनके लिए जो भी कर सकता था , मैंने वह सब किया । किंतु उन्हें शायद इस युग की हवा ही रास नहीं आ रही

थी । आदर्शों के सीने पर पैर रखकर लोग मंगल ग्रह पर जाने की बात कर रहे थे । मूल्यों की हत्या करके लोग ' वाइफ़-स्वैपिंग ' की पार्टियों के मज़े ले रहे थे । शादी-शुद्ध महिलाएँ ' गिगोलोज़ ' को घर बुला कर ' एंजोय ' कर रही थीं । विकृत मानसिकता को खुलेपन और ' बोल्डनेस ' का नाम दिया जा रहा था ।

यह वह समय था जब लोग किसी भी तरह ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाने की सनक के पीछे पागल हुए जा रहे थे । जीवन में आगे बढ़ने के लिए , ऊपर चढ़ने के लिए लोग थूक कर चाट रहे थे , गधे को बाप और बाप को गधा बता रहे थे । चारों ओर छल-प्रपंच , बेईमानी और षड्यंत्रों का जाल बिछा हुआ था । कथनी और करनी में कोई मेल नहीं रह गया था । हर आदमी मुखौटों के पीछे छिपा था । अपने फ़ायदे के लिए भाई भाई के ख़ून का प्यासा हो गया था । पिता पुत्री से कुकर्म कर रहा था । बाज़ार की चकाचौंध में सब ने मनुष्यता की आभा खो दी थी । अफ़सोस तो यह था कि विकृतियाँ जीवन की मुख्य-धारा में आ गई थीं । इन्हें जीवन का सामान्य अंग मान लिया गया था । ऐसे समय में वे स्वयं को अवश्य ही एक

' मिसफ़िट ' महसूस करते होंगे ।

अब मेरे बच्चे बड़े हो गए थे । वे बुरी संगति में पड़ कर सिगरेट-शराब पीने लगे थे । पहले वे मेरे पर्स से रुपए चुराते थे । फिर एक दिन पुलिस आई और बेटे को किसी की जेब काटने के जुर्म में गिरफ़्तार करके ले गई । उसी दिन बेटी किसी सुनार की दुकान पर ' शॉप-लिफ़्टिंग ' करती हुई पकड़ी गई । बड़ी मुश्किल से मैंने उन दोनो की ज़मानत कराई । बुढ़ापे में मुझे ये दिन भी देखने थे ।

लेकिन क्लाइमेक्स तो अभी बाक़ी था । एक रात बेटी घर का सारा रुपया-गहना चुरा कर गली के किसी आवारा लड़के के साथ भाग गई । अगले ही दिन बेटे ने गली में किसी को छुरा मार दिया और फ़रार हो गया ।

इन घटनाओं से वे बेहद आहत हुए । मुझे कहने लगे -- " बेटा , अब तुम्हारा घर भी गया । अब और नहीं जिया जाता । " कल रात उन्होंने अंतिम हिचकी ली और दम तोड़ दिया । उनका सिर मेरी गोद में था । मुझे लगा जैसे मैं अनाथ हो गया था । मेरे जीवन के आकाश से वे ऐसे गए जैसे कोई बड़ा सितारा टूट कर गिर जाता है एक बहुत बड़ी ख़ाली जगह छोड़ कर ...

उनकी लाश ड्राइंग-रूम में पड़ी है । मैं स्तब्ध हूँ । मेरे भीतर एक चीख़ दफ़्न है । मेरे चारो ओर एक भयावह ख़ालीपन ज़ोर पकड़ रहा है । उनका जाना केवल उनका जाना नहीं है । यह जीवन से अच्छे संस्कारों का चला जाना है । यह जीवन से अच्छे मूल्यों और आदर्शों का चला जाना है । उनके गुज़र जाने से जैसे

सच्चाई और ईमानदारी का देहांत हो गया है । जैसे अच्छाई मर गई है । इक्कीसवीं सदी के मल्टी-नेशनल कल्चर और कारपोरेट जगत के षड्यंत्रों के छटपटाते माहौल में वे स्वयं को अजनबी और ' मिसफ़िट ' महसूस करते थे ...

दरअसल मेरे घर में इंसानियत की लाश पड़ी हुई है । कहीं आपके घर में भी ऐसी ही कोई लाश तो नहीं ?

------------०------------

प्रेषकः सुशांत सुप्रिय

A-5001 ,

गौड़ ग्रीन सिटी ,

वैभव खंड ,

इंदिरापुरम ,

ग़ाज़ियाबाद - 201014

( उ. प्र. )

मो: 8512070086

ई-मेल: sushant1968@gmail.com

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कहानी / लाश / सुशांत सुप्रिय
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रचनाकार
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