उधेड़बुन काव्य संग्रह राहुल देव अंजुमन प्रकाशन इलाहाबाद मैं और मेरा अकेलापन, एक ‘उधेड़बुन’, जीवन के प्रति, समाज के प्रति, एक खोज...
उधेड़बुन
काव्य संग्रह
राहुल देव
अंजुमन प्रकाशन
इलाहाबाद
मैं और मेरा अकेलापन,
एक ‘उधेड़बुन’,
जीवन के प्रति,
समाज के प्रति,
एक खोज खुद की,
ईश्वर के प्रति...!!
प्रकाशक :
अंजुमन प्रकाशन
९४२, आर्य कन्या चौराहा
मुठ्ठीगंज, इलाहाबाद - २११००३,
उत्तर प्रदेश, भारत
प्रकाशक / लेखक की अनुमति के बिना इस पुस्तक को या इसके अंश को
संक्षिप्त, परिवर्धित कर प्रकाशित करना या फ़िल्म आदि बनाना कानूनी अपराध है ।
रोशनी के कवि हैं राहुल देव - अजामिल
कविता उग आती है
बग़ैर कुछ कहे
बग़ैर किसी भूमिका के
मेरे मस्तिष्क में
और मैं उसे सजा लेता हूँ
क़ागज़ के किसी पन्ने पर
-‘कविता और कविता’ से
राहुल देव की कविताओं के बीच से गुज़रते हुये मुझे लगा कि बिना किसी ‘उधेड़बुन’ के उनकी कविताओं की रचना प्रक्रिया उतनी ही सरल सहज है जितनी कि वह अपनी कविता ‘कविता और कविता’ में महसूस करते हैं।
जटिलता से दूर, प्रतीकों और बिम्बों के जरिये राहुल एक ऐसे काव्य संसार की रचना करते हैं जिसमें मनुष्य की तकलीफों का जानने समझने और महसूस करने की ललक दिखायी देती है। अपनी छोटी कविताओं में राहुल कहीं ज्यादा सशक्त हैं, अपेक्षाकृत अपनी थोड़ी बड़ी कविताओं के। राहुल कविता में अपना ‘कहा अनकहा’ कहने के बाद सारे निर्णय के अधिकार पूरे भरोसे के साथ कविता के पाठक पर छोड़ देते हैं। शायद यही वजह है कि राहुल की कविताएँ एक नयी रचनात्मक ऊर्जा से पाठक की चेतना को एक अलग ‘सोच’ से जोड़ती है बल्कि नये सृजन के लिये प्रेरित करती है। राहुल कई बार अपनी कविताओं में काव्य सूत्रों की रचना करते हैं ओर अनावश्यक काव्य विस्तार से बचते हैं, जिसकी वजह से राहुल की कविताएँ ‘उधेड़बुन’ की घोषणा के बाद भी कोई उधेड़बुन पैदा नहीं करतीं।
राहुल की कविताओं में जहाँ विषयगत विविधता है, वहीं उनका भावबोध और अनुभूतियाँ इतनी घनी हैं कि वह मन और मस्तिष्क पर ‘हॉण्ट’ करता है और कविताओं के अर्थ को एक बड़े विस्तार में ध्वनित करता है।
राहुल की कविताएँ पाठक के भीतर गूँजती हैं। पाठक को साथ ले कर समय की शिनाख्त करती है और विनम्र बेचैनी के आलम में पाठक से कुछ अपेक्षाएँ सुनिश्चित करने की माँग करती हैं। ये बात राहुल की कविताओं को भीड़ से अलग ले जाती है।
राहुल की कविताओं का मुहावरा, प्रतीक और रूपकों से निर्मित नहीं है, बल्कि यह ज़िन्दगी का अविकल अनुवाद है इसीलिये राहुल की कविता विश्वस्नीयता के बेहद करीब है। सीधे-सीधे साफ-साफ कहने की कला के तो राहुल ‘कलाकार’ दिखते हैं।
राहुल की कविताएँ सच मानिये तो ज़िन्दगी के साथ संवाद की कविताएँ हैं। राहुल प्रत्येक दशा में कविता में जीवन को बचा लेना चाहते हैं। कविता में आलोचना उन्हें प्रिय नहीं, वे कविता को नये ‘आकार’ में ढालकर
सलाह-मश्विरा की मुद्रा में होते हैं।
राहुल रोशनी के कवि हैं। वे अंधेरे में दाखिल भी होते है तो कविता की रोशनी के साथ। राहुल की कविताएँ रोशनी की कविताएँ हैं जो अंधेरे की मुखालफ़त और नये जीवन का संचार करती हैं। राहुल की कविताएँ जीत का उत्सव हैं। पराजय की दुःखदायी स्मृतियाँ नहीं, इसीलिये राहुल की कविताओं को बार बार पढ़ने का मन करता है।
राहुल की कविताएँ भरोसा दिलाती हैं कि अभी कवि को लम्बा रास्ता तय करना है।
- अजामिल (कवि, साहित्यकार)
तलदर्शी अनुभूतियों का समुच्चय : उधेड़बुन
- रविनन्दन सिंह
राहुल देव की उन्चास कविताओं का यह संग्रह ‘उधेड़बुन’ मनुष्य की विविध मनःस्थितियों का सूक्ष्म रेखांकन है। कविताएँ विविध कोणों से ली गयी ज़िन्दगी की तस्वीरें हैं। कह सकते हैं कि यह काव्य संग्रह अनुभूतियों का समुच्चय है। कविताओं के माध्यम से राहुल देव ने परिवर्तनशील मानव मूल्यों तथा मनवीय चेतना की गहरी पड़ताल की है।
मन-मस्तिष्क में चल रहे भावों, विचारों के झंझावती चक्रव्यूह में हर व्यक्ति अभिमन्यु की तरह जूझ रहा है और जूझते हुये अपने खोये हुए व्यक्तित्व की तलाश भी कर रहा है। इस उधेड़बुन में ज़िन्दगी एक पहेली
बन गयी है। उलझी हुयी गुत्थी को कोई छोर समझ में नहीं आ रहा है।
मनुष्य की आन्तरिक एवं वाह्य व्यवस्था खण्डित हो चुकी है, ज़िन्दगी छंदहीन हो चुकी है। ऐसी स्थिति में जीवन की समालोचना के लिये मुक्त छंद ही साथ देते हैं। राहुल देव ने इसी मुक्त छंद को जीवन की व्याख्या का माध्यम बनाया है और इसे साधा भी है।
इस संग्रह में जीवन की पेचीदगी के कई कोण हैं। मनुष्य की ज़िन्दगी के विरोधाभासों को भी इन कविताओं में सफाई के साथ उभारा गया है जिसमें मानव जीवन के अनेक कटु यथार्थ भी उद्घटित होते हैं।
संग्रह की दूसरी कविता ‘छद्मावरण’ में कवि या रचनाकार के जीवन की विडम्बनाओं की, अन्तर्विरोधों को बारीकी से उरेका गया है।
कितना अच्छा लगता है
अपना मनचाहा होना
कविता, कहानी रच लेना
खूब पैसा होना
खूब लम्बी-लम्बी बातें
और नैतिक शिक्षा के विषयों पर
बड़ी-बड़ी बहसें करना।
और मैं हाय हाय करता पृथ्वी पर
धम्म से आ गिरा,
मेरे मुंह ने यमदूतों को नवाजा,
साले काले-कलूटे बैंगन लूटे
अब कहीं और जाने की
मुझमें शक्ति ही कहाँ थी
मुझे आश्चर्य हो रहा था
कि मैं बच कैसे गया?
संग्रह की कविता ‘सपने की बात’ में स्वप्न के अतार्किक मनोविज्ञान का सूक्ष्म रेखांकन किया गया है। व्यक्ति मन की फैंटसी और युटोपिया एक समानान्तर दुनिया है जो बहुत खूबसूरत है, किन्तु जब समय टूटता है तो क्या होता है, राहुल देव इस तरह बयान करते हैंसंग्रह की कविता ‘पतझड़ के बाद’ में जीवन की क्षणभंगुरता की ओर संकेत है तो ‘ओह कामना वह्नि’ शीर्षक कविता में मानवीय स्वभाव की दुर्बलता को रेखांकित किया है। मौन व्यथा कविता के चकाचौंध और नुमाइश के भीतर पल रही नीरवता को उद्घाटित करती है, वहीं ‘चिन्तन’ कविता में कवि आत्मचिन्तन, आत्मावलोकन की स्थिति में दिखायी देता है। संग्रह की छोटी कविताएँ - ‘कविता’, ‘नायक’, ‘विनश्वर से’, ‘कर्म’, ‘नवजीवन’, ‘अन्तद्वन्द्व’, ‘प्रतीक’, ‘सेज’, ‘ओस की वह बूँद’, ‘परख’, ‘पाप’, ‘रहस्य’, ‘सौन्दर्य’, ‘बकरी बनाम शेर’, ‘कविता और कविता’, ‘मेरे मन’, ‘नशा’, ‘कौन तुम’, ‘मेरे सृजक तू बता’ आदि में भावनाओं की तीव्रता और आवेग अत्यन्त सांद्रता के साथ उपस्थित है।
इस संग्रह की कविताएँ किसी वाद या किसी विशेष स्कूल के सीमित दायरे में कैद नहीं है। कवि स्वतन्त्रता का आग्रही है, उसका स्वछंद मन लगातार उड़ान भरता है। कभी मन की गहराई में उतरकर ठहरता भी है
और कभी बाहर निकलकर चिल्लाता भी है। दुनिया, समाज के छोटे छोटे अन्तरविरोधों को आत्मीयता के साथ अपनी निजता में समेट लेता है।
दुनिया के सभी चेहरे कवि के अपने चेहरे हैं। प्रत्येक कविता का अपना आन्तरिक संसार है। प्रत्येक कविता कवि मन का आत्म साक्षात्कार है।
‘हारा हुआ आदमी’ कविता की आरम्भिक पंक्तियाँ इस आत्म-साक्षात्कार का अहसास कराती है
बस एक ही काम
सुबह से शाम
और शाम से सुबह तक
एक यथास्थितिवादी की तरह
अपनी क्षमताओं का आकलन
देना योगदान समाज को
अपने होने का एहसास
खुद की पहचान का सीलबन्द प्रस्तुतिकरण..
इस संग्रह की अधिकांश कविताओं में मन के तलदर्शी यथार्थ की व्यंजना है। वेदना का अन्तःपक्ष वेदना के सामाजिक पक्ष की तुलना में ज्यादा पेचीदा होता है। अन्तरचेतना के स्थितिजन्य यथार्थ वस्तुवारी आग्रहों से अधिक गहन होते हैं। वस्तु सत्य की एकांगिता और खोखलापन के बरअक्स कवि ने फ्रायडीय आत्मतत्व, अस्तित्ववादी प्रवृत्तियों को उजागर करने में गहरी रुचि ली है। यह कवि की यात्रा का आरम्भिक दौर है जिसमें कविता को उसकी काव्यात्मा के साथ साधने की कोशिश की गयी है। इस प्रयास में कवि मनोलोक की जटिलता को पकड़ने के क्रम में शिल्प से कई बार टकराता है और उसे पकड़ने की कोशिश करता है। कवि का सबसे सशक्त पक्ष है उसकी आशावादिता जो आगे चल कर रचनाकर्म को अधिक प्रशस्त, व्यापक और बेधक दृष्टि सम्पन्न बनायेगी। कुल मिला कर यह एक संग्रहणीय और पठनीय संग्रह है। कवि को साधुवाद।
रविनन्दन सिंह
समीक्षक
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कुछ अपनी ...
कविता का प्रधान उद्देश्य व्यापक जीवन दृष्टि प्रदान करना है । आचार्य शुक्ल ने तभी तो लिखा है कि-
‘कविता शेष सृष्टि के साथ हमारे रागात्मक सम्बन्ध की रक्षा और निर्वाह का साधन है। यह इस जगत के अनंत रूपों,अनंत व्यापारों और अनंत चेष्टाओं के साथ हमारे मन की भावनाओं को जोड़ने का कार्य करती है ।’
मेरी कविताएं मेरे समय समय पर आस-पास के परिवेश से उपजे भावों की प्रतिक्रियाएं हैं। वास्तव में मैं कविता लिखता नहीं बल्कि स्वयंमेव ही लिख जाती है। कई बार पहले से मन बनाया तो न लिख सका और जब कोई भूमिका न होती तो अक्षर अपने आप पन्नों पर उतरते जाते, पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणास्वरुप! अब तो कविता के बगैर एक रीतापन लगता है, जैसे कुछ है ही नहीं।
कविता मेरा प्राण है, मैं कविता में जी लेता हूँ। इस संसार में हम जब तक रहें अपने तरीके से जियें। हम जहाँ भी रहें सही करने का प्रयास करें। सही सोचें, जीवनोपरांत इसके अलावा भी कुछ शेष है। सब कुछ तो अपनी गति से गतिशील है ।
मेरा कविता से लगाव काव्यगत जीवन से मेरी साँसों का प्रत्यावर्तन ही है। किसी अन्य विधा में इतना आनंद क्यों नहीं मिलता? काव्य के सैद्धान्तिक रूप की मुझे परख ही नहीं है तो इसके सम्बन्ध में मैं क्या कहूँ? यह तो पाठकों की बात है । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं- ‘कविता करने से ही कवि की पदवी नहीं मिलती । कवि के ह्रदय को, कवि के काव्य मर्म को जो जान सकते हैं, वे भी एक प्रकार के कवि हैं ।’
इसलिए भावों का प्रथम संकलन सदाशयी कवियों के समक्ष प्रस्तुत है। अपने परिवार, मित्रों, गुरुजनों एवं शुभचिंतकों के समय-समय पर दिए गये सुझाव, सहयोग एवं उत्साहवर्धन के लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ साथ ही पुस्तक के प्रकाशक ‘अंजुमन प्रकाशन’ को आभार के साथ शुभकामनाएँ कि वह अत्यंत कम मूल्य में पाठकों को सुलभ साहित्य उपलब्ध करा रहें हैं । हिंदी साहित्य को आज ऐसे प्रकाशकों की नितांत आवश्यकता है। सीखने की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। सुझावों का स्वागत है, त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।
लखनऊ
३०-११-२०१३
आपका ही
राहुल देव
अनुक्रमणिका
१. अपने अंतर में ढालो
२. छद्मावरण
३. सपने की बात
४. पतझड़ के बाद
५. ओह कामना वह्नि!
६. मौन-व्यथा
७. चिंतन
८. कविता
९. नायक
१०. विश्व्नर से
११. कर्म
१२. नवजीवन
१३. अन्तर्द्वन्द
१४. प्रतीक
१५. सेज
१६. ओस की वह बूँद
१७. परख
१८. पाप
१९. रहस्य
२०. पथिक भ्रमित न होना
२१. बच्चे और दुनिया !
२२. सिर्फ कविता के लिए
२३. सौन्दर्य
२४. बकरी बनाम शेर
२५. आधा सच
२६. भ्रष्टाचारं उवाच!
२७. अक्स में मैं और मेरा शहर
२८. कविता और कविता
२९. हारा हुआ आदमी
३०. अनिश्चित जीवन : एक दशा दर्शन
३१. मेरे मन!
३२. प्रेम पथ का पथिक
३३. अंतिम इच्छा
३४. नशा
३५. अपराधी
३६. सज्जनों के लिए
३७. कौन तुम ?
३८. मेरे सृजक तू बता !
३९. ये दुनिया : ये जिंदगानी
४०. एक टुकड़ा आकाश
४१. राजस्थान की एक लड़की
४२. शहर की सड़कें
४३. महाप्रलय
४४. अनहद नाद
४५. गाँव से शहर तक
४६. कवि ऐसा होता है
४७. परिवर्तन
४८. दलदल
४९. एक आस्तिक की स्वीकारोक्ति!
अपने अंतर में ढालो !
मेरे अंतर को
अपने अंतर में ढालो
हे इतिवृत्तहीन
अकल्मष !
मेरे अंतस के दोषों में
श्रम प्रसूति स्पर्धा दो
बनूँ मैं पूर्ण इकाई जीवन की
गूंजे तेरा निनाद उर में हर क्षण
विश्वनुराक्त !
तम दूर करो इस मन का
अंतर्पथ कंटक शून्य करो
हरो विषाद दो आह्लाद
मैं बलाक्रांत, भ्रांत, जड़मति
विमुक्ति, नव्यता, ओज मिले
परिणीत करो मेरा तन-मन
मैं नित-नत पद प्रणत
निःस्व
तुम्हारी शरणागत !
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छद्मावरण
कितना अच्छा लगता है
अपना मनचाहा होना
कविता, कहानी रच लेना
खूब पैसा होना
खूब लम्बी-लम्बी बातें
और नैतिक शिक्षा के विषयों पर
बड़ी-बड़ी बहसें करना,
समय बदला है इसलिए आदमी बदला है
यह तो तुम्हारा पुराना बहाना है
कभी-कभी बहुत घृणित हो जाते हो तुम
जो कभी सोचते नहीं
आख़िरकार करते वही हो
अपने दृष्टिकोण की व्यापकता समझा कर
अपने बारे में ही सोचते हो
क्यों, क्या तुम यह नहीं सोचते
कि लोग तुम्हें खूब पढ़ें
तुम प्रसिद्ध हो जाओ
कवि सम्मेलनों में वाह-वाही लूटो !
अपने आस-पास के वातावरण से
अलिप्तता नहीं पा सकते तुम
कोशिशें तो जीवन भर चलती रहेंगी
एक दृढ निश्चय जो तुमने किया
माना सच में नहीं स्वप्न में ही किया
उसे तो पूरा किया होता;
इधर मैं कई दिनों से देख रहा हूँ
कि तुम बहुत कुछ बदल गये हो
बहुत सोचते हो न तुम
लेकिन सिर्फ सोचने से क्या होता है
तुम सोचते होगे
कि फिर मैं क्या कर सकता हूँ
तुम्हें लोगों की हंसी का पात्र बनने का
डर नहीं होना चाहिए
तुम्हारे घर में तुम्हारी बीवी है
तुम्हारे बच्चे हैं
उनकी क्या अपेक्षाएं हैं
कार्य क्षेत्र से भागना तुम्हारी वीरता नहीं है
और भोग में लिप्त रहना तुम्हें अच्छा नहीं लगता।
चूल्हे की दो मोटी रोटियां
और तनिक नमक के साथ
लोटा भर ठण्डा पानी
तुम्हारे आगे रखा है
और तुम्हारे सामने एक कविता भी लिखी रखी है
जिसे तुमने आज तड़के ही लिखा था
कविता तुम्हें संतुष्ट करती है
और तुम कविता को
ऐसा तुमने कहा था,
रोटियाँ खा लेने के बाद
जब तुमने कविता पढ़ी
तो वह पहले से ज्यादा अच्छी लगी
तुमने उसे और सुधारा
कुछ विचार आये तुम्हारे दिमाग में
पनपे बहुत तेजी से
जो चूल्हे की राख के साथ
तुम्हारे पेट में चले गये थे
कविता का काम सिर्फ अनुभूति से नहीं चल सकता
उसकी पूर्णता विचारों से होती है
भूखे होने पर तुम कविता लिखते हो
खा चुकने पर उसे पढ़ते हो
कविता में जीते हो
कविता पे मरते हो
कितनी अच्छी बात है
परिवार भी जी रहा है
जीवन भी चल रहा है ।
तुम्हारे मरने के बाद लोग कहते हैं-
’कैसा बीहड़ था
खूब पढ़ा, खूब लिखा
‘निराला’ का बाप निकला ।’
पूरे जीवन भर तुमने अपनी कलम घिसी
किसी तरह जीवित रह अपनी कविता लिखी
अब शोधार्थी तुम्हारी कविताओं के अर्थ निकलते हैं
तुम्हारी भली-बुरी बातों को याद करते हैं
तुम्हारी अक्ल की दाद देते हैं
तब तुम ऊपर से देखते होगे अपनी कलम की धार
नीचे तुम्हारे खण्डहर हो चुके मकान पर स्मारक बनेगा
होगा तुम्हारा सपना साकार
तुम्हारे बच्चे जो तुम्हें कोसते थे
जिंदगी भर अभावों में पले
वे भी हो जायेंगे मालामाल
तुम्हारे विचारों का कच्चा चिट्ठा छपेगा
तुम्हारी कृतियों के कॉपीराईट
और रॉयल्टी पर मचेगा बवाल,
चयन समिति की बैठक में
मरणोपरांत पुरस्कार देने पर भी होगा विचार
तब विरोधी भी गायेंगे तुम्हारा प्रशस्तिगान
हर वर्ष याद किये जाओगे तुम
और तुम्हारा साहित्यिक अवदान
इधर भारत में बेरोजगारी बहुत बढ़ गयी है
तुम ऊपर खूब लड्डू-पेड़े उड़ाओगे
तुम्हारी लार की बूँदें नीचे गिरकर स्वर्ण उपजाएँगी
हिंदी साहित्य का वह युग
तुम्हारे नाम से जाना जायेगा!
लोग कहते हैं मानवता का वह पुजारी
बड़ा सीधा था, सच्चा था
मर गया नहीं तो बड़ा अच्छा था!
तुमने पुनः जन्म लिया
लेकिन इसे तुम्हारा दुर्भाग्य कहें कि सौभाग्य
तुम्हें मिला कवि-परिवार फिर से
इस बार कविता का ककहरा सीखने की
तुम्हें आवश्यकता नहीं पड़ी
तुम्हारी शादी हो गयी, बच्चे हो गये
अब तक कविता से तुम बहुत ऊब चुके थे
लेकिन कविता थी कि तुम्हारा पीछा ही न छोड़ती थी
कविता और कवि का कैसा नाता
तुम कुछ नया करने की झोंक में
सिद्धार्थ की तरह एक रात
घर से भाग खड़े हुए
पुरानी आदत जो थी
और जाकर एक खेत में बिजूका बन गये
रात भर तुम सो न सके
सुबह जब पक्षियों ने तुम्हारी खोपड़ी पर
अपनी चोचें रगड़ी तो तुम्हें
अपनी लघुता का एहसास हुआ
तुम वहां से भागे
और चौराहे पर खड़े बुत को हटाकर
उसकी जगह खड़े हो गये
यह इन्तहा थी तुम्हारे सब्र की भी
एक पूरा साल बीत गया
किन्तु तुम्हारा अनावरण करने
किसी मंत्री, अधिकारी की कार की धूल भी
तुम्हें उड़ती नज़र नहीं आई
अब तुम और अधिक परेशान थे
सोचते हुए कि तुम्हें अब क्या करना होगा ?
दो जन्म लेकर भी तुम कुछ उखाड़ न सके
भागकर वहां से तुम एक बहुत बड़े मंदिर में चले आए
ईश्वर की शरण में!
और एक रात चुपके से
ईश्वर की जगह खुद बैठ गए
तुम भूखे थे, लेकिन कुछ राहत में थे
क्या ये संभव था
अगले दिन पर्व था
भक्तों की बड़ी भारी भीड़
अपने सामने देख तुम खुश थे
लेकिन यहाँ पर भी तुम्हारे दुर्भाग्य ने
तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ा
पंडितों ने तुम्हें लंगड़ी मार दी
प्रसाद रुपी मिष्ठान तुम्हें सिर्फ सुंघाया गया
और तुम लार घोट कर ही रह गए
पृष्ठभूमि में भगवान को तुमने हँसते देखा
तुम कुछ नहीं कर सकते थे
खड़े रहने के सिवा
उस रात तुम्हें भूखा ही रहना पड़ा
भरी भरकम मालाओं के बोझ तले दबे रहे तुम
सूंघ-सूंघ कर पेट की आग शांत करने का व्यर्थ प्रयत्न!
लोग धीरे-धीरे चले गये
पुजारी ने तुम्हें बंद कर दिया
कहीं तुम भाग न जाओ
तब तुम्हारी आँखों से दो बूँदें ढुलकीं
कितना भद्दा मजाक यह
ईश्वर को तुम पर दया आई
और दरवाज़ा खुल गया
मौका पा तुम भागे
तुममें शक्ति शेष न थी
फिर भी तुम भागते रहे
अब कहाँ जाऊं ?
यह सोचकर
थोड़ी देर बाद तुम्हारे कदम
उस सड़क की ओर मुड़ गए
अपने आप ही
जो तुम्हारे घर की ओर जाती थी
जहाँ तुम्हारी चिंताओं का हल हो सकता था
वह तुम्हारा अपना घर था
बाहर इतना भटकने के बाद
आखिरकार तुम अपने घर आ गए
जहाँ पत्नी तुम्हारा अब भी इंतज़ार कर रही थी
बच्चे अभी तक सो रहे थे
सूरज निकल आया था
चिड़ियाँ चहचहाने लगीं थीं
सुबह हो गयी थी !!
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सपने की बात
जो ढूंढता हूँ मैं किताबों में
वह मिलता नहीं
आदमी की असलियत
उसकी परिभाषा हम नहीं जानते
जो दिखता है
वह हमेशा सच होता नहीं
सपने कितने विशाल होते हैं
सोचो सपनों की एक दुनिया होती
तो कैसा रहता
सपने देखने वालों पर
कोई टैक्स नहीं लगता
लोग हँसते हैं
शायद वे नहीं जानते
सपनों में जी लेना
कितना सुकून देता है
यह उतना कठिन भी नहीं
जितना कि हाड़तोड़ मेहनत करके
दो रोटियों का जुगाड़ करना
लोग यह भी कह देते हैं
सपने कभी सच नहीं होते
लेकिन जो आज सच है
वह भी तो कभी सपना रहा होगा
सपनों के आगे हमारी पहुँच नहीं
कोई उन पर विश्वास नहीं करता
विज्ञान प्रैक्टिकल मांगता है
आत्मा का तोड़ अभी विज्ञान नहीं ढूंढ सका
सपनों के आगे क्या है कुछ ?
खैर ये तो अपनी अपनी मान्यता है
मुझे इससे क्या
सपना ही सही कल्पना मेरी पूँजी है
कभी रात को तो कभी दिन में ही
देख लेता हूँ मैं कोई हसीन सा सपना
इस आशा में कि कभी तो होगा अपना
कल रात मैंने देखा कि
मैंने अपनी सब बहनों की शादी कर दी है
में बहुत अमीर बन गया हूँ
बहुत सारे रुपये मुझे पता नहीं कहाँ से मिल गये
मैंने एक गाड़ी भी खरीद ली
मेरी चार-पांच किताबें भी
एक साथ छप गयीं
मैं अपने नए नवेले मकान के
बड़े से चबूतरे पर खड़ा होकर
बड़े-बड़े अक्षरों में लिखवा रहा हूँ-
’साहित्य-सदन’
नया टी.वी., नया फ्रीज़
सारी समस्याओं का हल
एक पल में हो गया,
घर में पकवानों की सुगंध उठ रही है
उधर पड़ोसी यह देख-देख कर जले जा रहे हैं
जो हमारी गरीबी का ताना मारते थे
वे तो नज़र नहीं आ रहे
हाँ चीटियों की पंक्ति की तरह
रिश्तेदारों की जमात चली आ रही है
आज पूरा घर भर गया है
आदमी को जब पैसा मिलता है
तो वह अपना हर शौक
पूरा कर लेना चाहता है
मैं भी इससे बच नहीं पाता
पता नहीं क्या सोचकर
झूठे आदर्शवाद का ढोल पीटना
मेरी फितरत में नहीं
अब आप ही देखिये -
मेरी शादी के लिए पता नहीं कहाँ से
एक लड़की प्रगट हो गयी
और मैंने भी बगैर कुछ सोचे-समझे
उसके गले में वरमाला डाल दी
सपनों ही सपनों में समय कैसे बीत गया
पता ही न चला
और मैं दो बच्चों का बाप बन गया
सपने भी बड़े विचित्र होते हैं
कहाँ की बात कहाँ घुस जाती है
दिमाग का क्या है
अपने आप पर मैं भरोसा रखूँ
तो भी दृढ़ नहीं रह पाता
मेरी भूलने की आदत ने
मुझे कहाँ ला पटका !
पता चला मुझे सातवें आसमान पर
यमराज ने डिनर पर बुलाया है
मैं जब तक वहां पहुँचता
छठे आसमान पर अमरावती में
अप्सराओं का नाच देखने रुक गया
जैसा कि आमतौर पर लोग बीच चौराहे पर
तमाशा होते देख रुक जाते हैं
नाच देखते-देखते भोर हो गयी
मैं भागा-भागा सातवें आसमान पर लपका
जहाँ दो भारी-भरकम शरीर वाले यमदूत
मेरे स्वागत के लिए तैयार खड़े थे
उन्होंने बगैर कुछ कहे सुने ही
मुझे वहां से धक्का दे दिया
और मैं हाय हाय करता पृथ्वी पर
धम्म से आ गिरा,
मेरे मुंह ने यमदूतों को नवाजा,
साले काले-कलूटे बैंगन लूटे
अब कहीं और जाने की
मुझमें शक्ति ही कहाँ थी
मुझे आश्चर्य हो रहा था
कि मैं बच कैसे गया?
थके-हारे क़दमों से मैं घर पहुंचा तो देखा
वहां मेरे क्रिया कर्म की तैयारियां चल रहीं हैं
मेरा पारा चढ़ गया
मैंने सबको डांटा
अपने जिंदा होने का सर्टिफिकेट देने के लिए
मैं अपने शरीर में घुसा
और लोग भूत-भूत चिल्लाते हुए भागे...!
और भी पता नहीं क्या-क्या
देखता गया मैं कल रात
जो भी हो लेकिन नींद बहुत अच्छी आयी थी
और सुबह जब मैं मैदान गया
तो सारे सपने मेरी आँखों के सामने तैर रहे थे
लोग कहते हैं कि-
सुबह के समय देखे गये सपने
कभी-कभी सच भी हो जाते हैं !!
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पतझड़ के बाद
झड़पड़ झड़पड़ पतझड़
सतत रूप से प्रवाहमान
आधी ज़िन्दगी के बाद
तेरा आना
भला हो तेरा
उससे ठीक पहले
सौन्दर्य आकर्षित करता था
तब क्या समझा
चलो अभी सोचा
बरसों पहले तेरी याद न आई
और अचानक आज तुमसे मिलकर
मैं खुश हो लेता हूँ
सच पूछो तो अंतर से दुखी हूँ भाई !
हर बहार के बाद तेरा आना
एक उजाड़ सी जिंदगी
फिर उठने की कोशिश में
स्थिर होकर भी चलने को इच्छुक
आज मैं तुमसे कहने की हिम्मत करता हूँ
इसके बाद मैं खुश होना चाहता हूँ
उससे पहले तुम मेरे साथ नहीं थे
केवल हँस रहे थे एक बेबसी पर
तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं है मेरी ख़ुशी में
मेरी अपनी ख़ुशी में
तुम फिर हंसोगे तनिक
मैं जानकार भी चुप हूँ, क्यों
क्योंकि इस जगत में
सर्वस्व है क्षणिक
सब कुछ है क्षणिक !
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ओह कामना वह्नि !
ओह कामना वह्नि !
तेरा परिहास होता रहता
तू तो प्रस्फुरित होती रहती
जन्म लेती बिना अनुमति
सुमधुर झोंके से सराबोर करती तुम
इस लोक का आनंद देने आती
कल्पना तेरा ले आश्रय
संतुष्ट कर जाती
मनुज को बांधती
यद्यपि यह रेखा मेरे लिए ही है,
कल्याण के लिए
तू मिथ्या नहीं क्षणिक है
कभी प्रण करता अवचेत
निश्चय भी होता
पर अगले ही दिवस
प्रत्यूषा में सब धुल जाता
क्यों तोड़ता ’मैं’
तुम्हारा वादा
लांघता सीमा रेखा;
कह दो इनसे
जो मेरा हो मुझे दे दो
मैं निर्वेद में जाना चाहता हूँ
नहीं भटकूँगा यहाँ-वहां,
क्या नहीं संभव
शीघ्र तेरी प्राप्ति
मैं हूँ बहुत आकुल
निरंतर प्रयासरत
मजबूर हूँ मैं प्रकृति से
मानव की कमजोरी मानव को
तृषा पीड़ित कर रही है
निरुपाय-अतृप्त
मेरे सृजक !
मुझे क्षमा करना।
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मौन-व्यथा
किसी ब्लैक-होल के समान
सिकुड़ी हुई गहराई
अरे यायावर !
तू महान है
तेरी व्यथा, तेरी खुशी
रूप में सब कुछ की तरह
समाई सारतत्व गीता की तरह
तेरी क्रिया का मूल है जो
तेरे हिया का शूल है जो
है नहीं रूकती ये महफ़िल
और न रुकता कारवां,
ठहरता नहीं तू इक जगह
घुमक्कड़ है बड़ा पक्का
न झांकता इधर-उधर
न निंदा करता
कुतरता भ्रम तुझे सत्य जान
पर तेरी पहचान को नकार नहीं पाता
निश्चित कर लेता तेरी नियति
चुपचाप अपने झोपड़े में
चला आता तू
जो मिलता खाता-पीता
न मिलता, चुप रहता
एक सांस भरता
नभ की और मुख कर देखता अपलक
रोशनियों की दीपमालिका
कुछ देर और घूमता, थक जाता
लौट पड़ता प्रत्यूष दिवस की आस में
खो जाता घर आकर देखता
सभी सोये हैं;
वह भी नीरव एक ओर पसर जाता
और सो जाता!
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चिंतन
मैं कभी यह सोचता हूँ
स्वयं से यह पूछता हूँ -
कौन तू कब तक रहेगा
बोझ यह कब तक सहेगा
नैराश्यता की बात सुनकर
आवाज़ आती है निरंतर
माया के इस सघन वन में
सत्यता लेकिन नहीं है
जी रहा है जीव तब तक
भोग-कर्म का चक्र जब तक
जिंदगी आशा विमिश्रित
वेदना की मृदुल छवि है
दूर होंगे कष्ट तेरे
सिद्धियाँ सब सिद्ध होंगी
उद्योग के इस विपुल रण में
जोश से बढ़ना तो लेकिन
रुक न जाना, खो न जाना
भीड़ है विस्तृत जमीं पर
मेरी बातें मान यदि लो
क्लांत जीवन छोड़ यदि दो
नवकिरण का भास होगा
जेठ में मधुमास होगा
फल रहित वह साधना
कर्म की अवधारणा
ज्ञान अनुपम, तेज अद्भुत
सदभाव का उल्लास होगा;
तब न होगी शेष कोई कामना
भावना अंतिम यही है
याचना अंतिम यही है !
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कविता
मैं सोचता हूँ क्या है कविता ?
भर कर जो मन में घर कर जाए
सोच जगाये, भाव उठाये
कल्पना के घोड़े पर सवार
चलती जाए, मुदित बनाए
हृदय को निर्मल बना कर
भावनाओं को जगा कर
शांत हो जाए
वह कवि की कविता बन जाए !
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नायक
मेरे चारों ओर चलता
वहशीयत का नंगा नाच
मानवता का हो रहा चीरहरण खुलेआम
कोई नहीं यहाँ पर मुझे बचाने को
सुनो मेरा आर्त स्वर मेरी पुकार
मैं हुआ संज्ञा शून्य
वेदना है असीमित
कोलाहल कर रहा है मुझे मरणासन्न
हाय ! यह कैसा जगत दर्शन
जहाँ होता राक्षसी नर्तन;
ले चलो मुझे यहाँ से दूर कहीं
जहाँ हों निर्विकार
मिले शांति बच सकें सबके प्राण
आये कोई नायक
करे परिवर्तन, उपसंहार
मिट्टी की सोंधी खुश्बू लौटे
लौटे हरियाली
आये वही बहार !
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विश्वनर से..
अरे तुम शीघ्र लौट आये
विश्वनर !
उस देवभूति का दर्शन कर आये
अभिनव दृश्य दिखा क्या तुमको
या नयनाभिराम चेतन को देखा
कुछ तो बोलोअखिल विश्व के प्रतिनिधि
संसृति ईश से भेंट कर आये
शेषशय्या पर समासीन
प्रभु मिले नहीं क्या?
तुम संसार जलधि दुस्तर में भटक गये या
मार्ग भूले कि विस्मृत हुआ उद्देश्य;
जीवन सुधा की खोज में
अंगार शय्या से विकल
उच्छ्वास में सब छोड़ आये
क्यूँ निस्पंद भ्रू भंगिमा
सिरहन व्यथा यह श्रांति क्यों
तेरे वपु की म्लानता
मेरे सदन को दिख रही है
क्यों फंसा है वर्म सुर धनु लोल में
नीड़ है क्षणि सृष्टि का
है विजन मरुभूमि सा,
प्रयास कर तू हाँ मगर
यह सत्य है विभ्रम नहीं
विरह वेला है मगर
स्वर्णिम सुअवसर मिलन के
भूत-हित-रत ईश का
होगा तुझे तब भान
देख ले तू देख ले
इस जगत के पार;
चला चल अविरल अचल
मिलेगी तुझको कभी
इस राह की मंजिल।
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कर्म
मैंने देखा उसको हाड़तोड़ मेहनत निरंतर
निःशब्द जुटता वह मजदूर
पता नहीं किस भांति वह
चलता, उठता
गिरता, पड़ता
फिर जुट जाता निःश्वास वह
प्रताड़ित होते देखा उसको
शोषण की सीमा से परे
वह संतुष्ट दिखा जीवन से
मैंने पूछा तुम सुबह से शाम
इतना सारा काम कैसे कर पाते हो
इतने कम में कैसे जीवन चलाते हो ?
आखिर शक्ति कहाँ से लाते हो ??
कुछ समय पश्चात
उत्तर मिला मुझको बाबू ! मैं खुश हूँ इसी में
मुझे न पीड़ा न चिंता न कोई क्लेश है
मस्त हूँ मैं काम में जानकर अनजान हूँ
जो मिला भगवत्कृपा से शोक क्यों फिर
आज अच्छा हो कल की बात कल फिर,
यों सुना वह लग गया निज कार्य में
मैं था स्तब्ध-सोचा वाह !
क्या विचार है
क्या यही अज्ञान है
गलतियों को न समझना
मूर्ख की पहचान है
सोचता मैं बढ़ा आगे
नहीं, वो विद्वान था
फल की चिंता छोड़ कर
कर्म में रत ध्यान था!
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नवजीवन
आज किसे है फुर्सत
कहाँ है समय
वे भावनाएं
मानवोचित संवेदनायें
नभ का कोई किनारा खाली नहीं,
कुछ हो समय बीत जाता है
जीवन कट जाता है
लेकिन, जीवन को काटना
समय को यूँ बिताना
फितरत नहीं इंसान की
कहाँ है उत्कृष्ट जीवन
नहीं-नहीं ये मनुष्य नहीं
कड़ी है वो बीच की
जो ले जाती है उसे सीमा तक
शाश्वत सत्य से परे
जो धकेलती है उसे पशुत्व की तरफ
कच्चे धागों से भी कमज़ोर हो गयी है
जीवन की डोर
प्रत्याशा बढ़ चली है
अपने अंत की ओर !
हे प्रभु ! इन्हें बचा
तू फिर इन्सानों को बना
कर रचना नवसृष्टि की
नवग्रह-नवजीवन रचा
नवचेतना-नवप्राण
नवगीत-नवसंगीत
नववायु-नवजल-भू-धरा
नवविधि बना विश्राम ले
उस नवेली सृष्टि में न हों कदाचित
अन्धकार, जलन, ईर्ष्या
क्रोध, भय का लेश मात्र
गौरवान्वित लौट आये
नित नव नवल नव मानव
हाँ-हाँ मैं बनूं वही मानव
केवल मानव,
आये सुप्रभात !
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अन्तर्द्वन्द
जगती और मनुज के मध्य मचे
द्वंद को देख कर
मन हो रहा व्याकुल बहुत
कभी मौन स्वर में सोचता
कभी तीव्र स्वर में पूछता,
बता कर दिला चिरशांति
लौट कर आती मेरी प्रतिध्वनि
गूंगी हुई जब
कौन है जो दे सके इन प्रश्नों के उत्तर
बताये हो रहा है क्या निरन्तर
जगत में तीव्र परिवर्तन!
क्या है इस शुरुआत का अंत ?
अन्तर्द्वन्द मन में हो रहा है
मेरे उर की भावनाएं
गगन चूमना चाहती हैं,
स्वछंदता के मार्ग पर
संयम बरतना चाहती हैं
भाग जाना चाहती हैं
दूर किसी अन्य ग्रह पर
जहाँ हों वे मूल्य
दूर सारे गम मानवीयता एहसास हो
मैं रहूँ एकल
अलौकिक रूप का आभास हो
द्वंद का आधार तब
भक्ति औ श्रृंगार हो
आएगा वह क्षण कभी फिर
सोचकर रोमांच होता
मन से बोझिल जग स्वयं
सुप्त होकर भी अड़ा है
मार्ग को रोके खड़ा है;
जगता जगत जग जाए फिर से
बने वह संवाद फिर से
आये वह आवाज़ फिर से!
-----------
प्रतीक
वह चलतीं
गिरती
उठती
हांफती
किसी तरु का ले सहारा
ठहरतीं,
रुक जातीं
पूछने पर बतातीं मैं शक्ति हूँ
प्रदूषण व वैमनस्य से क्षीण हो
विश्राम चाहती हूँ;
इस गंदगी को देखकर
मैं बहुत ऊब गयी हूँ
हाँ शक्ति होकर भी अब मैं
दुर्बलता का प्रतीक बन गयीं हूँ !
-----------
सेज
वह सहमी बैठी सेज पर
इंतज़ार में उसके
जिसे थमाया गया उसका दामन
दामन ज़िन्दगी भर के लिए
वह है मजबूर
पर क्यों ?
झुक जाने के लिए
आश्रय पाने के लिए
दबा दी गयी हैं जिसकी कामनाएं
सुन्दर भविष्य की अप्रतिम इच्छाएं
क्या पिया की चौखट ही है उसकी तकदीर
इसके आगे क्या है शेष
प्रताड़ना या द्वेष,
आखिर क्या है
उसके जीवन का अनुक्रम ?
इस द्वंद्व को लिए उर में वह बैठी है
विश्व की सेज पर
अविकल, अविचल और अकिंचन !!
-----------
ओस की वह बूंद
सहसा दृष्टि पड़ी उस पर
वह ओस की बूंद!
सूक्ष्म क्षेत्र में सिमटी
शून्य से अनंत की ओर
अवगुंठन से विकल हो
अश्रुओं के क्षेपण से मानो
लाज के घूंघट में सिमटना चाहती हो;
छिपाना चाहती हो
अपना अव्यक्त स्वरुप
रात्रि के अवसान पर
प्रभातकरों के स्पर्श से
हर्षातिरेक में झूमना चाहती हो,
बजना चाहती हो वह
घुन्घरूवों की तरह
बूंद ! पूर्ण है स्वयं में
समेट सकती है
विश्व को स्वयं में
स्त्रोत है भक्ति का नवशक्ति का
वह ओस की बूंद
प्रतीक है जीवन का
गति का!
-----------
परख
इंसान की परख क्या है
परख प्रवृत्ति की
परख कर अंकुश लगाना
दिलाना खुलापन
अभिप्राय क्या है ?
जिल्लत की अनुभूतिकष्ट है, सजा है
क्यों नहीं समझते
क्षणिक उन्माद के वश में हैं
न जाने क्यों सब?
चाहते हैं क्यों उजाड़ना सबको
सिवाय अपने !
अनजान हैं सब आ चुके दूर हैं
वास्तविक परख से परे
बाह्य परख के तले
सीमित हो गयी है सोच
मस्तिष्क हो गया है संकुचित
बदल गये हैं मानक
पहचान की प्रतीक सभी परम्पराएं
हो गयी हैं अभिभूत
आज के मानव की परख के वशीभूत!
-----------
पाप
पाप
निश्चित, नियोजित
मन से इच्छित भूल की व्याख्या करता
एक शब्द,
शब्द मात्र नहीं ।
है, मनुष्य मात्र की इच्छाओं
जिजीविषाओं का दमनात्मक परिणाम
उद्वेग का, क्लेश का अंतिम फल
कुछ ऐसे कर्म
जो परिणत होते हैं पाप में,
पुष्ट होकर झूठ से
बन जाता है बड़ा
छोटे-छोटे पापों का
जब भरता है घड़ा
तब शेष होती है केवल
दुःख, पीड़ा, जलन
दिखता है मार्ग
सिर्फ प्रायश्चित का !
-----------
रहस्य
चारों ओर हरीतिमा
धवल कांति से शोभित
कुछ दृश्य !
अद्भुत, अलग
जो पूर्ण हैं स्वयं में
भाव-भंगिमा है असीमित
अभिव्यक्ति से परे;
प्रकाश का उद्गम
उल्लसित करता है मन को
स्रोत क्या है
ज्योतिपुंज के आलोक का ?
क्यों नहीं दिखते दोष
सर्वत्र गुण ही गुण
मधुमिता का गुणगान
सरस-सहज प्रकृति का एकालाप
दिखती है कभी धुंधली सी आकृति
धुंधला आभास
छिपाए क्या है आँचल में,
शाश्वत जगत क्यूँ लिए है जड़ता
क्या है अर्धसत्य
बताओ मुझको समस्त
क्या है प्रकृति का रहस्य !
-----------
पथिक भ्रमित न होना !
राहें ख़त्म होंगी कब
कब आएगा ठिकाना
जिधर से गुजरता हूँ
सौ राहें फूटती हैं
कहाँ बनाऊ आशियाना
थक गया हूँ मैं चलते-चलते
मध्यांतर से पहले कुछ कहो न
हाँ मेरी आवाज़ कुछ यूँ गूंजती है
प्रश्न करती है साक्षात वर्तमान में जीता हूँ लेकिन
बाधाएं कम नहीं
कैसे न ठिठके पग भला कैसे बढूँ आगे
अन्जान गर बन जाए तो फिर
ये सद्गुण क्योंकर रहा
अपनी आँखे फाड़ ताके
स्वार्थ मुझमें हो रहा
समय यूँ ही चले आगे
जगत यूँ ही बढ़े, भागे
शायद अकेली बातें
कुछ कर नहीं पातीं
युग को धक्का दो नहीं
उसकी गति अविराम है
देखो प्रकृति सबकी अलग
सब भिन्न-भिन्न अध्याय हैं
इस जगत में स्वयं शोधो
समन्वित कर चलो प्रकृति-पुरुष
आशियाना बन जायेगा
ठिकाना मिल जायेगा
राहें हो जाएँगी सीमित
सफ़र हो जायेगा आसान
पथिक! मत सोच ज्यादा
बढ़ चला चल
अकेला चल चला चल...!!
-----------
बच्चे और दुनिया
देखना कहीं
झरने के मानिंद गिरता चढ़ता
आसमान को छूने की चाह रखने वाला
अपनी दुनिया का बादशाह
कहीं रूक न जाए
समय का पहिया
कहीं उसके सपनों को बींध न दे
एकलव्य की तरह
कहीं उसकी प्रतिभा
दबा न दी जाए
अनंत चेहरे अगणित रचनाएं
हर कोई विशेष है यहाँ
बचपन के सुनहरे दिन
किशोरावस्था की सपनीली रातें..
युवा मेरे! भटक न जाना,
काल खंड
तुम्हारे स्वागत को प्रतीक्षारत है
इस दुनिया के कायदे इतने आसान नहीं
यह छीन लेगा तुमसे तुम्हारी मोहक हसीं
बचाकर रखना तुम सब अपने आप को
लोगों ने ईश्वर की इस आसान दुनिया को
बहुत कठिन बना दिया है
इसलिए
संभल कर चलना..
तुम्हीं से रौशन है यह दुनिया
ईश्वर ने कहा था-
’मैं तुम्हारे साथ हूँ...!’
-----------
सिर्फ कविता के लिए
कविता कविता क्या होती है
कविता आईना होती है
कविता जीवन होती है
कविता बहुत कुछ हो जाती है
जब हम कविता पढ़ते हैं
कविता में गहराई तक उतरते हैं;
लोग कहते हैं- कविता क्यों ?
तो भई सबके लिए
कविता के अलग-अलग मायने होते हैं
कुछ लोग कविता में जीते हैं
कुछ लोग कविता की खाते हैं
कुछ लोग खुद ही कविता बन जाते हैं
कविता संतुष्टि देती है
कविता जीवित कर सकती है
एक बारगी मृत को भी
कविता ठंडी होती है, बर्फ से भी ज्यादा
तो कविता गर्म भी होती है
जलते तवे सी
कविता लम्बी होती है, कविता छोटी होती है
कविता का एक-एक शब्द
एक-एक अक्षर, पूर्ण होता है स्वयं में
कविता बाँधी नहीं जा सकती
मिलने को भावों के सागर में
वह बहती रहती है अविरल,
कविता के पीछे कवि खड़ा होता है
कविता व्यक्तित्व लिए होती है
कविता शब्दों का जाल भी बुनती है
और कभी-कभी
एकदम सपाट हो जाती है कविता;
कविता खुली भी होती है और बंद भी
कविता सरल होती है, कविता कठिन भी
कविता ख़ुशी दे सकती है कविता दुःख भी
कविता चुप रहती है
कविता चीख भी सकती है
कविता सब कुछ कर सकती है
मैं मानता हूँ कविता सर्वश्रेष्ठ माध्यम है
खुद को अभिव्यक्त करने का
जीने का फ़लसफ़ा बताती है कविता
अब तो कविता के बगैर
एक रीतापन लगता है
जैसे कुछ है ही नहीं
कविता में गति होती है
कोई भी कविता कभी भी ख़त्म नहीं होती
कविता अमर होती है
कविता के रहते हुए
आप कभी अकेले नहीं हैं
क्योंकि कविता बातें भी करती है !
-----------
सौन्दर्य
सौन्दर्यबोध-
कुत्सित विचारों से दूर
शीतलता का एहसास
मन स्वच्छ, खुला, निष्कपट
अलग हैं विकारों से
शत सम्मिलित वे दस व्यक्ति
कहाँ हैं ?
ढूंढो उन्हें
बिखेर दो जगह-जगह
ताकि फैले मानवीय सौन्दर्यालोक जग में
हो भू की इच्छा साकार
कल्पना ले सहज आकार
बने सात्विक मानवों का संसार
हृदय में तब आये चिर शांति
यही है प्राकृतिक सौन्दर्य का आधार
दोष न होंगे कहीं
होगा आनंद का पारावार !
बकरी बनाम शेर
पहले बकरियाँ मिमियाती थीँ
और शेर दहाड़ते थे
अब बकरियाँ दहाड़ती हैँ
और शेर मिमियाते हैं
क्योँकि जंगल बदल गया है
अब बकरियाँ शेर
और शेर बकरियाँ हो गए हैं
कुछ दिनों बाद शायद लोग
बकरियों की जगह शेर चरांएगे
और बेचारे शेर
बकरियों के लिए
शिकार मार कर लाएंगे।
-----------
आधा सच
आधी दुनिया के तमाम पट्ठे
इकट्ठा होकर शोर कर रहे हैं
बाकी आधों को बेमतलब बोर कर रहे हैं
उनका लीडर मुन्ना भाई है
जिसने नकल कर के सारी डिग्रियाँ पांई हैं
दो नंबर के सारे धन्धे
उसके अंडर में चलते हैं
पास में पैसा है आदमी और गुण्डे हैं
मोबाइल है कार है पास में हथियार है
गरीबों का दुश्मन अमीरों का यार है.
खैर ये तो हुआ उसका शार्ट में परिचय
अब चलो चल कर उससे बातें हैं करते-
’हाँ तो मुन्ना भाई जी,
क्या है आपका चुनावी प्रोपेगण्डा..?’
‘अपना प्रोपेगण्डा- नोट, लाठी, डण्डा
वैसे मेरे पास है
गरीबी को मिटाने का अचूक फार्मूला
हटानी है गरीबी तो
सबसे पहले गरीब को हटाना होगा’
हमें तो लग रहा था ऐसे
मानो शोरूम मैं टंगा हुआ माल
कह रहा हो हमसे
अबे चुप!
हम शोरूम का माल हैं
फुटपाथ की गर्द खाना
हमारी किस्मत में नहीं
संभल के आना
नाजुक हैं; धीरे से उठाना
और हाँ लेना न हो
तो हमें हाथ भी मत लगाना
हम तो दूर से देखकर मुस्कुराएँगे
जब चार आदमी तुम्हें लटी-पटी सुनाएँगे
रेट एकदम फिक्स हैं
ओरिजनल लोकल मिक्स है
एक के साथ एक फ्री का ऑफर है
अखबार में कीमत से ज्यादा का विज्ञापन है
जो करती है बालों की डाई की तरह
तुम्हारे सच को ढकने का असफल प्रयास
समझ गए तो अच्छा
नहीं समझे तो भी अच्छा
फैशन के इस दौर में
गारंटी की इच्छा न करें
ये दुनिया है दिखावे की
ओढ़ावे की पहनावे की
अब क्वालिटी की नहीं
क्वांटिटी की बात करो
नहीं तो पतली गली से
खंभा बचाकर चलते बनो
और घर आकर जैसे थे वैसे ही रहो
फिलहाल अपनी गति से अपना काम करते रहो!
-----------
भ्रष्टाचार उवाच!
जी हाँ मैं भ्रष्टाचार हूँ
मैं आज हर जगह छाया हूँ
मैं बहुत खुश हूँ
और होऊँ भी क्यों न..
ये दिन मैंने ऐसे ही नहीं देखा
मुझे वो दिन आज भी याद है जब
मैंने अपने सफेद होते बालों पर लालच की डाई
और कपड़ों पर ईर्ष्या का परफ्यूम लगाया
बातों में झूठ और व्यवहार में
चापलूसी के कंकर मिलाए
फार्मूला हिट रहा..
लोग मेरे दीवाने हो गए
मैंने सच्चाई के हाथ से समय की प्लेट छीनकर
बरबादी की पार्टी में
अपनी जीत का जश्न मनाया,
मेरी इस जीत में तुम्हारी
नैतिक कमजोरी का बड़ा योगदान रहा
तुम एक दूसरे पर
बेईमानी का कीचड़ उछालते रहे
और मैं कब घर कर गया तुम्हारे अन्दर
तुम्हें पता भी न चला
मैंने ही तुम्हें चालाकी और मक्कारी का पाठ पढ़ाया
सुस्त सरकार के हर विभाग में
फर्जीवाड़े संग घूसखोरी का रंग रोगन करवाया
घोटालों पर घोटालों का टानिक पीने के बाद
मैं यानी भ्रष्टाचार
अपने पैरों पर खड़ा हो पाया.
इस अंधी दौड़ में कुछ अंधे हैं
दो-चार काने हैं
जो खुली आँख वालों को, लंगड़ी मार रहे हैं
खुद जीत का मेडल पाने की लालसा में
अंधों को गलत रास्ता दिखा रहें हैं
सब सिस्टम की दुहाई है
ऊपर से नीचे तक समाई है
मेरी माँग का ग्राफ इधर हाई है
और हो भी क्यों न
ये गला काट प्रतियोगिता
आखिर मैंने ही आयोजित करवाई है
मैं बदनीयती की रोटी संग मिलने वाला
फ्री का अचार हूँ
पावर और पैसा मेरे हथियार हैं
मैं अमीरों की लाठी
और गरीबों पर पड़ने वाली मार हूँ.
तुम सबको खोखला कर दिया है मैंने
जी रहे हो तुम सब, जीने के मुगालते में
सत्य के प्रकाश पर छा जाने वाली
तुम्हारे अंदर की काली परछाई हूँ
आज के युग में मैं सदाबहार हूँ
जी हाँ,
मैं भ्रष्टाचार हूँ...!
-----------
अक्स में ’मैं’ और ’मेरा शहर’!
ठहर जाता है समय
कभी-कभी
ठहरे हुए पानी की तरह
तो कभी फिसल जाता है वह
मुट्ठी मेँ बंधी रेत की तरह
जब आँखे बन्द रहती है
और दिमाग जागा करता है
तब सोचता हूँ...
करता हूँ कोशिश सोने की
करवट बदलता हूँ
सुविधा,सुविधा-दुविधा
हाय रे ’सुविधा’!
मैं अपने खोखलेपन पर हँसता हूँ
खालीपन को भरने की
करता हूँ एक नाकाम कोशिश
दोहरेपन के साये में
दोराहे सी ज़िन्दगी का
अन्जान राही बन
आगे-पीछे चलता
फीकी हँसी-फीकी नमी
उन खट्टे-मीठे पलों की यादें
गूँजती आवाजें;
अपने पैदा होने के कुछ ही वर्षों बाद
मैंने जान लिया था
क्या है जीवन जीवन संघर्षों का नाम है
जिस पर चलते रहना
आदमी का काम है!
कल यूँ ही बाजार टहलने निकला
तो देखा-
ठेले पर धर्म, शांति और मानवता
थोक के भाव में बिक रही थी
फिर भी कोई नहीं था उसे लेने वाला
दूसरी ओर भ्रष्टाचार का च्यवनप्राश
सबको मुफ्त बँट रहा है
जिसे लेने के लिए
धक्का मुक्की मची है
जिन्हें मिल गया वे
दोबारा हाथ फैलाए हैं
कुछ आदमी पीछे लटक कर
बाँटने वालों से
साँठ-गाँठ कर रहें हैं
आँख उठाता हूँ तो
दूर-दूर तक दिखते हैं
कच्चे-पक्के चौखटे
और ऊपर भभकता सूरज
जिसकी तपिश से झोपड़े आग उगल रहे हैं
इसी शहर में कहीं दूर नैतिकता
ए.सी. में आराम कर रही है
दूसरी तरफ कुछ ईमानदार
सच्चाई के बोझ से थककर
बेईमानी की चादर तानकर सो गए हैं
आगे नुक्कड़ पर भूले बिसरे सज्जन
दुर्जनों को अपने पैसों की चाय पिला रहें हैं
यह इस शहर में आम है
क्रिकेट में चौका,
दीवाने खास में मौका
प्लस बेईमानी का छौंका
यह इस तीन सूत्रीय कार्यक्रम का
अपना एक अलग इतिहास है
पंचसितारा होटलों की सेफ में बन्द है
’परिश्रम’ की डुप्लीकेट चाभी
सिक्सर्स हँस-हँस कर ताली पीट रहें हैं
समाधान, समाधान समाधान !
हे. हे.. हे... सौ प्रतिशत मतदान
बन्द हो गई राष्ट्रीयता की दूकान
आमतौर पर यहाँ हर दूसरा आदमी
‘बाई पोलर ‘डिसऑर्डर’ से ग्रसित होता है
हर दुनियावी प्राणी का अक्स
उसकी परछांई से छोटा होता है !
-----------
कविता और कविता
कविता
फूट पड़ती है स्वतः
अपने आप ही
जैसे किसी ठूँठ में
अचानक कोंपले फूट पड़ें;
या किसी जंगल में
झाड़ियों का एकदम उग आना.
ठीक उसी प्रकार
कविता उग आती है
बगैर कुछ कहे
बगैर किसी भूमिका के
मेरे मस्तिष्क में
और मैं उसे सजा लेता हूँ
कागज के किसी पन्ने पर!
-----------
हारा हुआ आदमी
बस एक ही काम
सुबह से शाम
और शाम से सुबह तक
एक यथास्थितिवादी की तरह
अपनी क्षमताओं का आकलन
देना योगदान समाज को
अपने होने का एहसास
खुद की पहचान का सीलबन्द प्रस्तुतिकरण..
आज आदमी होने के मायने
कितने बदल गए हैं
भीड़ बढ़ती जाती है
दुनिया सिमट रही है
चहुँओर मनी और पॉवर की धूम है
जहाँ देखता हूँ एक तरफ
आदमी दुबका जाता है
दूसरी तरफ समय चलता जाता है;
शायद आदमी के लिए आदमी होना
कोई बड़ी बात नहीं
लेकिन मेरे लिए
आदमी को आदमी समझना
खुद के लिए शर्मनाक है
जिसकी आदमियत की डेट
कब की एक्सपायर हो चुकी है
लेकिन वो जीता जा रहा है, लाचारी से
जिन्दगी जीने के मुगालते में
किसी बन्द आवरण में लिपटी प्रतिमा की तरह
मूक है जिसकी मौलिकता
उसकी सम्वेदनाओं के शीशों पर
भौतिकता की मोटी परत चढ़ गयी है
आज वह जी रहा है अपने लिए
सोच रहा है तो सिर्फ अपने लिए
देख रहा है सिर्फ अपनी सुविधा,
जिनको पढ़ने वाला अब कोई नहीं बचा
ऐसी फिलॉसफी, इतिहास और साहित्य की किताबों को
दीमक पुस्तकालयों में बन्द अलमारियों में
मजे से खा रहें हैं
मानो सारा जीवन बगैर पटरी की रेल है
सारा सिस्टम ही फेल है.
कल क्या था और कल क्या होगा
इससे किसी को कोई मतलब नही
चर्चाओं का माहौल गरम है
गाँव के गलियारों से
शहर के चौराहों तक
हर एक जगह लगा हुआ है
इन हारे हुए आदमियों का
अट्ठहास लगाता हुआ मज़मा
विरोध के नेपथ्य में
एक आदमी बड़ा परेशान है
जी हाँ, वह कवि है,
कविता हैरान है!!
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अनिश्चित जीवनः एक दशा दर्शन
संसार सागर में
तमाम गुणों और
अवगुणों के वशीभूत
पृथ्वी की तरह
अनवरत घूमती ज़िन्दगी का
एकाएक रुक जाना...
जिन्दगी के दो ही रूप
थोड़ी छाँव और थोड़ी धूप
और मृत्यु,
मृत्यु संसार का एकमात्र सत्य
जीवन की सीमित अवधि
अन्त निश्चित हर एक जीवन का
ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या...
हमराहियों के साथ चलते-चलते
किसी अपने का अचानक
एकदम से चले जाना किसी भूकम्प से कम नहीं होता
अखण्डनाद मौनता बन जाती है
और समा जाती है वह अनन्त की गहराइयों
और अतीत की परछांइयों में
भर आता है हृदय
और आदमी की लाचारी
उसे स्मृति के सघन वन में
विचरने के लिए अकेला पटक देती है
विचारों का धुँधला अँकन गहरा जाता है
सांसारिकता और हम
हमारा वजूद बहुत छोटा है;
दो पक्षजीवन-मृत्यु
दो पाटों के मध्य पिसते हम
अजीब चक्र है..
हमारे आने पर होने वाले उत्सव
मनाई जाने वाली खुशियाँ
और जाने पर होने वाला दुःख
रिश्ते-नाते,दोस्त-यार,परिवार
सब का छूट जाना
धन-दौलत, जमीन-कारोबार
हमारा धर्म,हमारे कर्त्तव्य
हमारे अधिकार
अपेक्षाएँ और उपेक्षाएँ
रह जाता है सब यहाँ
और चली जाती है आत्मा
उस परमसत्ता से साक्षात्कार करने को..
नाहक इस देह के सापेक्ष
पूर्ण निरपेक्ष है प्राण
हमारी सीमा से परे का ज्ञान..?
सूक्ष्मजीव की आत्मा
मानवीय आत्मा
आत्मा एक है
सिर्फ शरीर का फर्क है...
गीता कहती है-
’कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्....!’
प्रकृति और पुरुष
कर्त्ता और कर्म
अनिश्चित जीवन तत्व का मर्म
फिर भी कालखण्ड मंच पर
कुछ अच्छी आत्माओं का
जल्दी चले जाना
एक विश्वासघात लगता है
इन्सानी फितरत देखिए
जब यह बात जेहन में
अनायास कौंध जाती है
और हमें एकमात्र दिलासा देती है
शायद!
ईश्वर अपने प्रियजनों को शीघ्र बुला लेता है
या नियति को यही मंजूर था
हम पुनः घर लौटकर
अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं
एक छोटे कौमा के बाद
अज्ञात पूर्ण विराम साथ लिए हुए
तमाम अनिश्चित जीवन
पुनः गतिशील हो जाते हैं
संसार चक्र इस भाँति
अनवरत चला करता है!!
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मेरे मन !
मेरा मन
क्यूँ तुम्हें चाहे
क्या तुममे?
पाना चाहूँ तुम्हें
सिर्फ तुम्हें
यही आस
तुम मिलोगी कभी
कहीं
मेरे प्यार!
तुम्हारा अभिसार
ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर
रहेगा तुम्हारा इंतज़ार!
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प्रेम पथ का पथिक
प्रेम पथ पर चल पड़ा हूँ मैं
खोजता ख्वाबों का बसेरा
खोल दो सब कुछ दिखा दो
जो भी अज्ञात है संज्ञान में मेरे नहीं
अंक में भर लूँ किसे जब
साथ में कोई नहीं
मेरी छाया मेरी छवि भी
अब नहीं दिखती मुझे
क्या हुआ मुझको
मैं भूला पथ या भूला आपको
याद न आये मुझे अब
क्या हुआ था, क्या हुआ है
और क्या होगा ?
मेरे उर में पाप नहीं
दिखावा नहीं हैं मेरे अश्रु
देखो न तुम भी मुझे
मेरे समर्पित भाव से
अनुभव करो संवेदनों को
मैं शलभ हूँ ज्योति से है प्यार मेरा
मैं तेरी चाह में ही हूँ बना पागल
और तेरी याद में है हृदय आकुल
व्यथा मेरी बस यही और कथा भी है
देख लेना मुड़ कर के ए प्रिये!
तुम हो जो भी
औषधि हो और हो मेरा जिया
तेरे बिन अब मैं अकेला जीर्ण हूँ
क्या करूँ तू ही बता
तू बता मुझको मेरा अपराध क्या है ?
विरह अग्नि में जल रहा हूँ मैं निरंतर
पाना चाहूँ क्यों तेरा ही आसरा
मैं तुझे ही मांगता वर में
तेरे लिए जीता हूँ मैं
स्पर्श तेरा प्यार तेरा याद है मुझको
पर क्यों भूले मुझे तुम
यह बात तो कहना
मैं देखूंगा राह
आस है आओ कभी तुम
पुकारो मुझे
समा जाओ मुझमें
और मैं तुममें विलीन हो जाऊँ !
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अंतिम इच्छा
मेरा अंतिम समय आ गया है
मिलन की इस अंतिम वेला में
मेरी इच्छा तुम्हारे हर अंग को
स्पर्श करने की है
तुम्हें कस के अपनी बाँहों में
भर लेना चाहता हूँ मैं
डर लग रहा है मुझे
तुम मुझसे दूर जा रही हो
ऐसा आभास होता है,
मैं चुप्पी तोड़ना चाहता हूँ
तुम कुछ बोलती क्यों नहीं ??
तुम कुछ कहना चाहती हो
लेकिन बात तुम्हारे होठों तक
नहीं आ पा रही
अब भी शरमाती हो!
सच मानो मेरी आदतों को तुमसे बेहतर
कौन जानता है
तुम आज भी उतनी ही कोमल हो
उतनी ही मोहक और ताज़ी
जितनी कि उस समय
जब मेरे नयन दीपों ने
तुम्हारा पहला दर्शन प्राप्त किया था;
में बहुत अकेला रहा, तड़पा
अब और न तरसाओ
कभी-कभी मुझे बहुत खराब खयालात आने लगते हैं
तब मुझे तुम्हारी जरुरत होती है
घर का सन्नाटा मुझे काटता है
मेरा कमरा अस्त-व्यस्त हो गया है
जिसे तुम्हारे सिवा
कौन व्यवस्थित कर सकता है,
ये अचानक आज तुम्हें क्या हो गया?
इतना तो तुम पहले कभी नहीं रूठीं थी;
इतने दिनों मैं चुप रहा
तब तुम्हारी जुबां बंद ही न होती थी
और आज जब मैंने दो शब्द कहने चाहे
तो तुम कुछ बोलना ही नहीं चाहती
क्यों-?
क्या सात जन्मों का रिश्ता
ऐसे ही निभाया जाता है ?
कितनी गन्दी बात है
तुम्हें कोसना तो जैसे
मेरी आदत बनती जा रही है
तुम इन पर ध्यान मत देना
मुझे लगता है कि
मैं किसी स्वप्नलोक में
विचरण करने वाला
जीव बन गया हूँ
मुझे भ्रम होता है
कि तुम गहरी निद्रा में लीन हो
और मैं तुम्हें आवाजें दे-देकर
अपना गला बैठा रहा हूँ
क्या पता तुम कैसे सपने देख रही हो
तुम शायद थक गयी हो !
सोते हुए भी तुम
कितनी अच्छी लग रही हो
सब कहते हैं कि तुम मर गयी
झूठ-एकदम झूठ
मैं मान ही नहीं सकता
आजकल के बच्चे बड़े शैतान हो गये हैं
अपने पापा से मजाक करते हैं
इतना भद्दा मजाक
मैं उन्हें डांटता हूँ
शायद उन्हें नहीं पता कि
उनकी मम्मी की पापा से
अलग बात हो चुकी है
जिसे कोई और भला
कैसे जान सकता है,
मैं बहुत थक गया हूँ चलते-चलते
फिर भी तुम्हारे अधरों की
जानी-पहचानी मुस्कान
मेरा सहारा बनती है
मैं एक नया सपना बुनना चाहता हूँ
आओ! हम-तुम फिर से
अपनी एक दूसरी
बिलकुल अलग तरीके की
ज़िन्दगी की शुरुआत करें
इसलिए मैं और कुछ नहीं जानता
और कुछ नहीं चाहता
बस तुम्हारी गोद में सर रख
मैं भी चिर निद्रा में सोना चाहता हूँ
तुमने तो अपनी कोई इच्छा बताई ही नहीं
लेकिन इसे तुम मेरी
अंतिम इच्छा समझ सकती हो
शब्दों से हीन हो गया हूँ मैं
भावधारा तुमको समर्पित
और मैं चुप होता हूँ !
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नशा
गा रहा गीत मग्न स्वयं में
वह अक्सर दिख जाता
पाँव लड़खड़ाते
किसी खम्भे के सहारे
ठहरते, चलते
फिर रुक जाते
गिर पड़ते,
किसी को सुध नहीं उसकी
वह बेसुध है
बेचारे का कोई पुरसाहाल नहीं !
अच्छी है मेरी हाला
तेरा इक प्याला
मिल जाए कोई साकी
में बड़ा ढीठ
बड़ा निर्लज्ज
मांग-मांग पीने वाला;
लड़खड़ाती आवाज़ सुनाई देती...
इधर-उधर घूमता रहता
टकरा जाता आने-जाने वालों से
मुंह बनाकर कहता है मुझको यारों माफ़ करना
मैं नशे में हूँ !’
और फिर वह
भीड़ में मिल जाता
न जाने कहाँ चला जाता?
एक दिन सुना वह मधुशाला की चौखट पर
सिर पटक-पटक कर मर गया
वह जिसे पीता था
वही उसे पी गयी
अब वह मुझे कहीं नहीं दिखता
पर मैं फिर भी एकटक
राहों को ताकता रहता !
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अपराधी
क़त्ल करना जानता है कोई भी कातिल
बड़ा हिंसक होता है कोई भी अपराधी
आतंकवादी जैसा शब्द
हमें सिहरने पर मजबूर करता है
खौफ के साए में जीना
सिर्फ एक शब्द से
एक शब्द काफी होता है
आदमी को रुलाने के लिए
और आदमी को हँसाने के लिए
एक शब्द बना देता है
आदमी को आतंकवादी
और आतंकवादी को आदमी
कातिल को क़त्ल करते देखते हैं
हम सब डरते हैं, मरते हैं
दूर भागते हैं उससे
लादेन हावी हो जाता है समाज पर
और हमें मसाला मिल जाता है
हम आतंकवादी पर कहानियां रचते हैं
चाव से सुनते हैं
कल्पना बड़ी भयंकर होती है
आतंकवादी के पीछे खड़ा आदमी हमें नहीं दिखता
यह साहित्य की बात नहीं
मनोविज्ञान की भी बात है
न्याय की बात है
ज़िन्दगी के ग्रामर के नियम तानाशाह नहीं जानते हैं
शायद इसीलिए वे भूख पे बन्दूक तानते हैं
कानून अंधा होता है
वह लटका होता है स्वयं
सबूतों और तारीखों के जाल में
हम खुद ही टांग देते हैं कानून को सलीब पर
फिर दुखड़ा रोते हैं
जूझते रहते हैं ज़िन्दगी भर;
हम अपना पिछला नहीं सोचते
और अगला नहीं देखते
हमारा ही भाई कातिल है
हमारा ही भाई आतंकवादी
क्या कहते हो...
अभी संभावनाएं ख़त्म नहीं हुई हैं
ज़रा सोचो, बगावत किसी को अच्छी नहीं लगती
दुनिया में तुम ही सबसे शरीफ नहीं हो
समाज और परिवार के सम्बन्ध
हमसे जुड़े हुए हैं, वर्तमान बहुत दूषित है
पुराने सन्दर्भों की ओर मत ताको
नयी बात है, नया युग है
हमारे बीच में विचरती गाँधी की आत्मा
आज कहती है बार-बार
पाप से घृणा करो, पापी से नहीं
नए रास्तों की ओर देखो
अब तो गर्दन सीधी कर लो
लीक न पीटो!
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सज्जनों के लिए
कुछ लोग होते हैं
जो कुछ नहीं करना चाहते
बैठ सकते हैं वे
भूखे-प्यासे भगवान भरोसे
देखते रहते हैं घर के छप्पर को
शायद कभी फटे;
तो कुछ लोग वैभवों में आकंठ डूबे रहते हैं
बेचारी लक्ष्मी!
सिसकती रहती इनके लाकरों में,
कुछ लोग न भोगी होते हैं न रोगी होते हैं
वे दोनों के बीच की कड़ी होते हैं
जो तेल देखते है
और तेल की धार देखते हैं
लेकिन हे सज्जनों!
इस मायालोक में
क्या कुछ असंभव भी बचा है
लूट लेंगे तुझे
नोच-खसोट डालेंगे
वहशी और भूखे इंसान रूप में छिपे भेड़िये
इसलिए देख संभल कर चलो
हाथी की तरह
नहीं तो जब दूध से जलोगे
तब छाछ फूँक फूँक कर पियोगे
निष्काम कर्म में संलग्नता ठीक है
संतुलित-श्रेष्ठ जीवन का अचूक फार्मूला है
ऐसा मैं नहीं गीता कहती है
मैं तो आगे सिर्फ इतना जोड़ता हूँ
सरलता के साथ-साथ
आपको युग का भी ख़याल रखना चाहिए,
हे विचारकों!
मैं जानता हूँ तुम अपनी जगह पर सही हो
अपनी धुन के पक्के हो
लेकिन ये आईना है
हमारे चारों ओर का;
ज्यादा मत सोचो
वर्ना हो जाओगे उस पढ़ंकर लड़के की तरह
जिसके नयनदीप लालटेन हो गये हैं
मैं कोई कहानी नहीं सुना रहा
आपको मानवीयता के साथ-साथ
थोड़ी मात्रा में
दुनियादारी भी आनी चाहिए
बाकी सब ठीक है !!
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कौन तुम ?
तुम्हारी छवि
जो छाई है मेरे चारों ओर
अदृश्य, अद्भुत !
ऐसा लगता है
इन वातायनों में
तुम्हारी खुश्बू है,
तुम कौन हो ?
जिसके आगमन को जान
दसों दिशाएं मौन हैं
आनंद की सीमा से परे
मैं उत्सुक हूँ
तुम्हारा परिचय जानने को
तुम्हें पाने को !
मेरे सृजक तू बता !
कोई तो सुनो मेरा गीत
मैं कवि हूँ !
सुनो मुझे
सब कहाँ जा रहे हो
बैठो मेरे पास
कोई खाली नहीं
मैं पागल हूँ
सब कहते हैं;
मेरे सृजक!
तुम ही देखो और बताओ
मैं पागल
ये पागल
या तुम ??
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ये दुनिया : ये जिंदगानी
ये जिंदगानी
लगती है मुझे बिलकुल
साइकिल के ट्यूब की तरह
जिसका कोई भरोसा नहीं
कब पंक्चर हो जाए
या एल.पी.जी. के सिलिंडर की तरह
पता नहीं गैस कब ख़त्म हो जाए,
ये दुनिया छलावा है या नहीं
मैं नहीं जानता, कई बार में छला गया
लेकिन मैंने भी दुनिया वालों को नहीं छोड़ा
शठे शाठ्यम समाचरेत !
कईयों को ठगा/छला
इतराया, मुस्कुराया अपनी सफलताओं पर
तो कई अवसरों पर रोया भी
यही है मेरी परेशानी का सबब
लगता कभी इस दुनिया की चक्की में
कई निर्दोष घुन भी पिस जाते हैं
तो कभी निकृष्ट व्यक्ति पहुँच जाता है
जमीन से सीधे शीर्ष पर
पल में राजा रंक
और फकीर सेठ बन जाता है,
यहाँ आदमी, जो सोचता है
वो करता नहीं
और जो करता है वो सोचता नहीं
छुटपन में सोचे गये सपने
आगे चलकर भुंजे हुए पापड़ के समान
टूट जाते हैं
और हम उन्हें चबा जाते हैं
समय की चटनी की साथ
चुपचाप सह लेते हैं नियति की मार
जैसे कोई भोला-भाला लड़का
मास्टर के थप्पड़ों को सहन करता है
कमरतोड़ महंगाई और जनसँख्या
हम पर लदी हुई है
उस शरारती-नटखट बच्चे के समान
जो अपने पिता के ऊपर
घुड़इया लदा हुआ है
और टिगडिग-टिगडिग कर रहा है;
इस अंधी दौड़ में, हम दुनिया के
और दुनिया, हमारे पीछे चल रही है
इस समानांतर दुनिया का
बड़ा अनोखा जीव मानव!
खुद के भीतर की ज्वालाओं का मूल
मैं आज तक न समझ पाया
बहुत व्यस्त रहा जीवन भर
लेकिन अब और डिस्टर्ब मत करो
आगे फिर कभी सोचेंगे
रात बहुत हो चुकी है
इसलिए बकवास बंद करो
खुद सो जाओ और मुझे भी सोने दो !!
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एक टुकड़ा आकाश
टुकड़ों में बँटा हुआ सब-कुछ
टुकड़े-टुकड़े जिंदगी
टुकड़े-टुकड़े मौत
टुकड़े-टुकड़े खुशियाँ
टुकड़े-टुकड़े दुःख,
सभी को चाहिए होता है एक टुकड़ा आकाश
और एक टुकड़ा भूमि
इस दुनिया में जो भी दिखता है
उसमें भी एक टुकड़ा सच है
और एक टुकड़ा झूठ
एक टुकड़ा आग
तो एक टुकड़ा राख
टुकड़ों-टुकड़ों में
चलती है सरकार
टुकड़ों-टुकड़ों में
बढ़ता है व्यापार
टुकड़ों-टुकड़ों में उठते हैं
टुकड़ों-टुकड़ों में गिरते हैं
टुकड़े-टुकड़े पूर्वाग्रहों
और टुकड़े-टुकड़े विचारों से
हम ज़िन्दगी को टुकड़ों-टुकड़ों में जीते हैं;
किसी फटे हुए नोट रुपी इन टुकड़ों को
समय के ग्लू से जोड़-जाड़ कर
हम चलाने का प्रयास करते हैं
लेकिन एक न एक दिन
हमें उस बट्टे की दुकान पर जाना ही पड़ता है
जहाँ हमें उस नोट का
आधा मूल्य ही प्राप्त होता है
और हम हँसी-खुशी
घर वापस लौट आते हैं!
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राजस्थान की एक लड़की
वह लड़की
ख़ामोशी का लबादा ओढ़े चली जा रही है
कहाँ जाना है उसे खुद पता नहीं
बहुत पूछने पर वह इतना ही कहती है-
’मैं राजस्थान की बाला
मेरे बन्धु-बान्धव पाकिस्तान चले गये
सुबह के उजाले में मैं अकेली थी,
अकेलेपन के अन्धकार को कोसती हुई
जीना था, जीती रही...!’
कोई उस पर नज़र डालता ही नहीं
जैसे वह है ही नहीं
उसका अस्तित्व उसे खंगालता है
उसका व्यक्तित्व इतना क्षुद्र नहीं
शायद लोगों के मायने
सिकुड़ कर छोटे हो गये हैं
हवा चलती जाती है
अब दुनिया उसे बहुत बड़ी नहीं लगती
वह लोगों को ताकती है
खोजती है तमाम चेहरों में कोई अपना
उसका उद्देश्य नहीं रूकना
चलती जाती है न रूकती इक जगह
मंद बयार में भी चूता पसीना
कह जाता है कहनी
और बदबू खोल देती है पर्तें
खुशनुमा माहौल नीरव हो जाता है
जहाँ-जहाँ जाती है वह !
सब लोग व्यस्त हैं
अज्ञात भय और आशंका से त्रस्त हैं
ढूंढें से भी नहीं मिला उसे कोई अपना
जैसे सबके सब किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित
दमें के मरीज़ हैं
लेकिन वह राजस्थान की ही नहीं
पूरे भारत की बेटी है
यह नहीं सोच पाते !!
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शहर की सड़कें
सिसकी ज़िन्दगी
आहट पा सजग हुए सब
तेजी से दौड़ते छोटे-बड़े वाहनों पर
अंकुश स्वयं लगा
मानो समय दे गया हो तीव्र दगा
चुप-चुप-चुप
सन्नाटा बोलता है
रात्रि बढ़ने पर
गुप-चुप-गुप-चुप
पहले की तरह ही नहीं
हाँ आज की रात भयानक है
दीवार के उस पार नंगे पैर ही
उस पार कंटीली झाड़ियों में
फँस गया उसका पैर
वह चीख नहीं सकता
डर है उसे वह पकड़ा जाएगा
सब सोये हैं आराम की नींद
अपने-अपने घरों में
वह चलता है
गिरता है, उठता है
किसी संभाव्य की तलाश में;
सड़कें दिन होने पर
कैसी व्यस्त हों जातीं हैं
एक पल भी शांति नहीं
बहुत लोग उस पर दब-कुचल जाते हैं
बहुत बेमौत मारे जाते हैं
बहुत घायल हो जाते हैं
अपंग हो जाते हैं
सड़कें तेजी से भाग रहीं हैं
रुकतीं ही नहीं
कोई दुर्घटना उसे पिघला नहीं सकती
शायद यह उसकी नियति बन गयी है अब
सड़कें
जिन पर चल रहा है
आज का जहरीला आदमी
रोज की तरह
कल के अखबार की सुर्खियाँ
तैय्यार हो चुकीं हैं !!
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महाप्रलय
लाशें बिछी हुई हैं
जहाँ तक नज़र जाती है
सिर्फ लाशें ही लाशें
सुर्ख कफ़न में लिपटे शरीर
निश्चेष्ट पड़े हुए हैं
कोई हरकत नहीं
सन्नाटा चीखता है
बिलकुल निस्तब्धता
मानो यह दुनिया खाली हो गयी है
कहीं कोई आवाज़ नहीं
मेरे सिवा जाने सब कहाँ चले गये
बगैर पहचान के सब मिट गये
कोई रहने वाला नहीं बचा धरा पर;
या खुदा तेरी खुदाई
मरते वक़्त तेरे बच्चों ने
दो ग़ज जमीन भी न पाई
कोई टुकड़ा बचा ही नहीं
कहीं कुछ भी नहीं
इस चुप्पी में हजारों चीखें समाई हैं
आखिर ये दुनिया तेरी ही बनाई है
अचानक शरीर हिलने लगे
हलचल होने लगी
एक लाश का हाथ
कफ़न फाड़कर बाहर निकला
ईश्वर को शायद ये अच्छा न लगा
उसकी संताने यूँ ही मर जाएँ
अरे ! ..... यह क्या..?
सब के सब हाथ उठने लगे
कुछ चेतना बाकी थी इनमें शायद
मैं बना था मूक दर्शक
क्या करिश्मा है यह !!
या किसी विभीषिका का मूर्त
आने वाली आपदा का स्वरुप
लोग चिल्ला रहे थे हमें बचाओ... हम जीना चाहते हैं
जीवटता का चरम था यह
मैं सहन न कर सका,
अचानक देखा
एक लहर उठी
और सबको लील गयी
सब शांत हो गया
अब कोई भी हाथ नहीं उठा
सब स्थिर हो गया
जो कुछ जैसा था वैसा ही रहा
पूर्ववत!
सिर्फ इतना ही लिखने के लिए
मैं भी जिंदा रहा
फिर तड़पा
और मुक्त हो गया !!
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अनहद नाद
वह अक्सर मेरे उधर आता है
शरीर एकदम दुर्बल
कृशकाय त्वचा
धीमी आवाज़ में कुछ कहता,
भगा दिया जाता
फिर आता
अपने आप से लड़ता
अपने आप से खेलता
हँसता रोता
सुबह से शाम तक खटता
जीवन इसी तरह कटता जाता
और अंततः एक दिन
वह मर जाता है;
वे लोग जो उसके जिंदा रहने पर
आनंदोत्सव मनाते थे
उसके मरने की खबर सुनकर
क्षणिक शोक में डूब जाते हैं
फिर हमेशा की तरह
अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं,
मेरा दिल यह मानने को
तैयार नहीं होता
रह-रहकर मेरी दृष्टि
अटक जाती है नुक्कड़ के उस टीले पर
जहाँ वह घंटों एक ही मुद्रा में बैठा रहता
न चाहते हुए भी मेरी नज़र
इस सड़क से उस सड़क तक चली जाती
उसकी कराह अनहद नाद बनकर
मेरे आसपास गूंजती रहती
आज इतनी भीड़ होने पर भी
पता नहीं मुझे क्यों
सड़क सूनी नज़र आती !!
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गाँव से शहर तक
मद्धिम-मद्धिम रौशनी के बीच
टिमटिमाता गाँव !
जलते अलाव
जिन्हें घेरकर
ग्रामीणजन बतियाते रहते
सर्द हवाओं में भी गाँव बना रहा,
तपती दुपहरी की हवाएं भी
उसको बदल न सकीं
और गर्द उड़ाती पगडंडियों पर
धूल से सने बच्चे
जाने-पहचाने से ही हैं
लहलहाते खेत भी वहीं के वहीं रहे
अब मैं अपने गाँव लौटना चाहता हूँ,
कुछ सालों बाद गाँव जगमगाता रहता है उसी तरह ही
मगर कुप्पियों की जगह
बल्बों ने ले ली है
लोग अपने हाथ सेंकते हैं
अपने घरों में ही
क्योंकि अब लोगों के पास हीटर हो गये हैं;
अब लोग बतियाते तो हैं
मगर बहुत कम कभी-कभार ही
चमचमाती सड़कों पर राह चलते ही
इतिश्री कर लेते हैं अपने कर्तव्यों की,
सर्द हवाएं अब भी हैं
मगर उनके बीच से
मिट्टी की सोंधी खुश्बू गायब है
अब वहां के लोग
कुछ-कुछ बदलने लगे हैं
झोपड़ियाँ भी अब
पक्के आशियाने हो गये हैं,
चौंकिएगा नहीं
क्योंकि यह तो लाजिमी है
समय का चक्र है
अब तो रोना बंद कर दीजिये
और खुश हो जाइये
क्योंकि अब गाँव शहर हो गया है
मगर मैं शहर की जगह
अपने गाँव से दूर होता जा रहा हूँ!
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कवि ऐसा होता है !
कवि जब कविता लिखता है
तो उसके दिमाग को क्या हो जाता है?
तुमने मुझसे पूछा,
तो मेरा उत्तर सुनोकवि कायर नहीं होता
कवि बगलें नहीं झांकता
कवि पैसे नहीं गिनता
कवि सीधा नहीं सोचता
कभी एकदम चुप तो कभी
एकदम चिल्ला पड़ता है कवि
अब तुम ये न कहना
कि कवि पागल होता है
कवि को पागल कहने वाले भूल जाते हैं
कि कवि समाज में ही रहता है
तुम्हारी तरह कवि आदमी ही है;
कवि मन कोमल होता है
कवि निराला होता है
कवि यायावर होता है
कवि वी.आई.पी. नहीं होता
कवि क्षुद्र नहीं होता
कवि बीहड़ होता है
कवि सब की सुनता है
कवि अपने मन की करता है
और जब ऐसा कवि कोई कवित्त रचता है
तो उसके दिमाग को कुछ नहीं होता
बल्कि उसकी कविता पढ़ने वालों के
दिमाग को कुछ हो जाता है
जो शायद आप ही बता सकते हैं
आशा है आपको आपका उत्तर मिल गया होगा,
कवि हूँ न
कुछ नहीं मिलता तो
बातों की ही कविता बना डालता हूँ
फिलहाल आपको पकाने के लिए क्षमा चाहता हूँ।
-----------
परिवर्तन
बहुत सूनी हो गयी है बगिया फूलों की
पुष्पों की मुरझाहट क्यों करती है आकुल
मन को क्यों होती है पीड़ा
उनकी दशा पर..
स्पंदनों का अभाव
या कि शिशिर का प्रभाव
बगिया उजड़ न जाए;
अरे प्रसूनों !
यह तो है काल का तांडव नर्तन
कुछ दिनों बाद बसंत फिर आएगा
तब तुम फिर खिलना उसी तरह
हँसना पुनः
स्थिर नहीं पृथ्वी
स्थिर नहीं ऋतुएँ
तुम तो संगीत हो ख़ुशी का
सुगंधों की खान हो
विश्वास का,
आभा का नाम हो
चलो उठ जाओ !
यह तो है
चक्रीय विवर्तन
शाश्वत परिवर्तन !
दलदल
अनंत तक विस्तृत सागर कर्मशील होता है
झरनों का कलनाद हमें अच्छा लगता है
और नदियाँ बड़ी सुन्दर होती हैं
सदा अबाध गति से चलतीं हैं
लेकिन दलदल!
जहाँ समस्त जलचरों की उपस्थिति का
भय बना रहता है
संसार की सृष्टि में
दलदल की अपनी अलग सृष्टि होती है
बिलकुल अलग तरीके की
अलग तरह के लोग अलग-थलग जीवन
तरह-तरह की ध्वनियों का रहस्य दफ़न होता है
दलदल में हलचल होती है
हम दुबक जातें हैं
डर है वह हर वस्तु लील लेगा
क्या कुछ और भी है इसके पीछे
आवरण झीना है
जलाविष्ट निचले मैदान
भय के वातावरण में जी रहे हैं
मगर क्यों-?
परदे के पीछे छायाएं बनती हैं
लम्बी-लम्बी घासें
वायुवेग से सरसराती हैं
झुरमुट आपस में टकराते हैं
हल्के से झांकता है डरे हुए चाँद का चेहरा
बादलों के पार फिर छिप जाता है
रात की निस्तब्ध नीरवता
उसे डसे ले रही है
शांत कोहरा जो उसकी सतह पर
कफ़न की तरह पड़ा रहता है
या बड़ी कठिनाई से सुनाई दे सकने वाले
छपाके के स्वर!
जो बहुत ही कम, बहुत ही धीमा होते हुए भी
कभी-कभी बिजली की कड़कों
या तोपों की गड़गड़ाहटों से भी भयानक होता है,
इनमें से कोई तो कारण होगा
या कुछ और बात है
नहीं, इसमें कोई दूसरी ही बात है
कोई दूसरा ही रहस्य है शायद
वह सृष्टि का अपना ही इतिहास है
क्यों क्या यह बात नहीं कि निश्चित
एवं ठहरे हुए गंदले जल में
इस गीली भूमि की बेहद सील में
सारी निष्ठा, विष्ठा में मिल गयी
और पहले-पहल जीवों में
प्राणों का संचार हुआ
उसी के कारण यह स्थिति है
सब सहने की आदत पड़ती जा रही है
लिजलिजे हो एक दूसरे को ताक रहे हो
तुम एकदम मूढ़ हो गये हो
ऐसी कुछ बातें तुम्हारे दिमागों में
घुसपैठ कर गयीं हैं
जो इन दलदलों को
उन भयानक कल्पित देशों के
समानांतर ला पटकती हैं
जिनमें एक अज्ञेय
एवं भयानक रहस्य होता है
और तुम जड़ हो गये हो !
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एक आस्तिक की स्वीकारोक्ति
प्रकृति से हमारा कोई ठाना हुआ वैर नहीं है
प्रकृति स्वाभाविक शत्रुता करती है
हमें प्रकृति से सदा संघर्ष करना चाहिए
क्योंकि वह हमको निरंतर पशुवत अवस्था में
पहुंचाने की चेष्टा करती है
तुम्हें विश्वास होना चाहिए
की भगवान ने इस संसार में
कोई भी ऐसी वस्तु नहीं रक्खी
जो निर्मल, सुन्दर, शोभायुक्त
या हमारे आदर्शों से अधिक हो;
यह हमारा मस्तिष्क है
जिसने ऐसा किया
यह हमीं लोग हैं
जिन्होंने थोड़ी सी मृदुता
सुन्दरता, अलौकिक आकर्षण और रहस्य
इसके बारे में गा-गाकर
अनेकों अर्थ निकाल-निकालकर
कवियों की भांति इसकी प्रशंसा कर
कलाकारों की भांति आदर्श मानकर
और उन विद्वानों की भांति
जो गलती करते हैं
जो अवास्तविक कारणों, मृदुता और सुन्दरता को
किसी अलौकिक आकर्षण एवं रहस्य को
प्रकृति के कितने ही कार्यों में खोजते हैं
इसके अन्दर समावेश कर दिया है
मुझे अब घृणा होती है,
भगवान ने बीमारियों के कीटाणु भरे हुए
भद्दे जीव उत्पन्न किये
जो पशुओं के से आनंदों का
उपभोग करने के कुछ वर्षों पश्चात
दुर्बलता और शक्ति का अभाव लिए हुए
वृद्ध हो जाते हैं
मालूम पड़ता है भगवान ने
उन्हें केवल दो बार घृणित तरीके से
उनके ही सरीखा नमूना तैयार करने
और कीड़े-मकोड़ों की भांति
मर जाने के लिए बनाया है
प्राणियों को बार-बार पैदा करने से अधिक
नीच, कुत्सित एवं हास्यापद कार्य क्या है
जिसके विरुद्ध हर समझदार व्यक्ति ने
विद्रोह किया है और करता रहेगा
ये गुस्ताखी बड़ी कठिनता से कर रहा हूँ मैं
इस कंजूस और ईर्ष्यालु विधि ने
जितने भी साधन तैयार किये
वे दो काम करते हैं
उसने इस पवित्र सन्देश को
जो सबसे अधिक सज्जनता
और मनुष्य के कार्य में
सबसे अधिक प्रशंसापूर्ण कार्य है,
ऐसे योग्य व्यक्तियों को क्यों नहीं सौपा
जिन पर कोई बट्टा नहीं लगा सकता
चित्रण इस तरह कि-
पैदा करने वाले एक बहुत बड़े यंत्र की भांति
जिसका कि हम लोगों को कोई पता नहीं;
जो शून्य में करोड़ों सृष्टियों को
ठीक वैसे ही फेंकता है
जैसे एक मछली
अपने अण्डों को समुद्र में
वह सृष्टि करता है
भगवान के नाते उसका कर्तव्य है
किन्तु वह यह नहीं जानता
कि वह क्या कर रहा है..
वह मूर्खता से पैदा करने के
अपने काम में लगा रहता है
और अपने फैलाए हुए सब प्रकार के
अणुओं की मिलावट से अन्जान है,
सारा तंत्र ही भ्रष्ट है
समय का फेर है
यह उबाल कैसे न आता
जब नदी का पानी
खतरे की रेखा से ऊपर बह रहा हो !
मनुष्य की विचारधारा
कुछ भाग्यवान, कुछ स्थानीय
गुजरती हुई घटना मानी जाती है
जो कि बिलकुल नहीं देखी गयी थी
और जो पृथ्वी के साथ ही साथ
निश्चित अदृश्य कर दी जाएगी
और शायद फिर से यहीं या कहीं,
ऐसी ही या कुछ नए स्वर्गिक
मिलावट से युक्त इससे भिन्न
दुनिया प्रारंभ होती है
हम लोग इस छोटी सी घटना के कारण
जो भगवान की बुद्धि में घट गयी थी;
इस संसार में जो हमारे लिए नहीं है
हमें रखने, हमें टिकाने
खिलाने या प्राणियों को संतुष्ट करने के लिए
जिसका निर्माण नहीं हुआ
बहुत कष्ट का अनुभव करते हैं
और यह भी हमें उसी के कारण
विधि के विधान कहलाने वाली वस्तुएं
निरंतर संघर्ष करना पड़ता है
और तब जबकि हम लोग वास्तव में
सुसभ्य एवं सुसंस्कृत हो चुके हैं
मुँह जो सांसारिक भोजन करके
शरीर का पोषण करता है
भाषण एवं विचारों को भी प्रकट करता है
हमारा माँस, जो अपने आप ही को
नवचैतन्यता प्रदान करता है
तथा साथ ही साथ हमारे
अस्तित्व को भी व्यक्त करता है
नाक, जो हमारे फेफड़ों को
प्राणदायक वायु देती है
वही सारे संसार भर की सुगंधियों को
हमारे मस्तिष्क में पहुंचाती है
कान, जो हमारे मित्रों से
बातचीत करने की क्षमता प्रदान करते हैं
वही संगीत का आविष्कार करने
स्वप्नों, अनंत आमोदों-प्रमोदों का
और शारीरिक आनंदों का
ध्वनि द्वारा रस प्रदान करते हैं
चलो यह सब सुन्दर है, अच्छा है
किन्तु कोई यह भी कह सकता है
कि भगवान की इच्छा पुरुष को
स्त्री के साथ अपने व्यापार को
भद्र एवं आदर्श बनाए रखने की नहीं थी!
साथ ही साथ मनुष्यों ने भी
प्रेम प्राप्त कर लिया, जो उस चालाक विधि के लिए
अशोभनीय प्रत्युत्तर नहीं है
उसने इसको साहित्यिक कविताओं से
इतना अधिक सजा दिया है
कि स्त्री बहुधा अपने सम्बन्ध(स्पर्श) को
जिसके लिए वह बाध्य होती है,
भूल जाती है ।
हम लोगों में से जो लोग
अपने आप को धोखा नहीं दे सकते
उन्होंने बहुत बढ़िया और दूसरा ही
स्वभाव आविष्कृत किया है
जो कि सृष्टा के परिहास का दूसरा ढंग है
और वह है सुन्दरता का स्वागत मूर्खतापूर्ण स्वागत !
मैं कहूँगा तो आप हँसेंगे
लेकिन सच यही है कि मैं अभी आस्तिक हूँ !!
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उधेड़बुन
समाप्त
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