परमात्मा का दिया हुआ दुर्लभ मानव शरीर ही हमारा वह साधन-पात्र है जिसके माध्यम से हम पहले दिव्यत्व और उसके बाद दैवत्व की सिद्धि प्राप्त कर ...
परमात्मा का दिया हुआ दुर्लभ मानव शरीर ही हमारा वह साधन-पात्र है जिसके माध्यम से हम पहले दिव्यत्व और उसके बाद दैवत्व की सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
हालांकि अधिकांश लोगों को जन्म लेने के बाद संसार की माया इस कदर अपने पाशों मेंं जकड़ लिया करती है कि उन्हें यह तक पता नहीं होता कि वे क्यों आए हैं, उनके जन्म का मकसद क्या है और इसके लिए क्या करना चाहिए।
जब तक मनुष्य माता के गर्भ में जकड़ा रहता है तब वह भगवान से अनुनय विनय करता है, यह संकल्प जताता है कि बाहर निकलते ही जीवात्मा के कल्याण के सिवा कुछ नहीं करेगा, वह परमात्मा को पाने के लिए सारे जतन करेगा।
मगर जैसे ही प्रसूत होता है, कुछ माह तक तो ठीक रहता है पर जैसे ही माँ का दूध छूट जाता है, बाहरी दूध और उसके बाद अन्न ग्रहण करना शुरू कर देता है, उसमें सांसारिक माया-ममता के अंश अंकुर जमने लगते हैं जो समझदार होने तक साकार हो जाते हैं।
जिन कुछेक लोगों पर भगवान की अहैतुक कृपा होती है उन लोगों को छोड़कर सारे के सारे अपने-पराये के चक्कर, उदरपूर्ति के साधनों की आपाधापी और अपने ही अपने लिए कुछ न कुछ करने की दौड़ में शामिल हो जाते हैं।
ज्ञानवान, सिद्धान्तवादी, आदर्शों और नैतिक चरित्र से सम्पन्न तथा धर्म, सत्य, न्याय तथा ईश्वर में आस्था रखने वाले संस्कारित लोगों का भगवान और भक्ति की ओर रुझान बना रहता है लेकिन उन्हें सही दिशा और दृष्टि या तो कोई गुरु ही दे सकता है अथवा ईश्वरीय प्रेरणा।
मनोकामनापूर्ति के लिए भी लोग ईश्वरीय माध्यमों का सहारा लेने लगते हैं। इनमें दो प्रकार के लोग होते हैं। एक वे हैं जो जिन्दगी भर जब कभी कोई कामना सामने आती है, भगवान की पूजा-उपासना और अनुष्ठान आरंभ कर देते हैं। भगवत्कृपा से इनकी कामनाएं पूरी भी होती रहती हैं। लेकिन इन लोगों का शरीर दिव्यता प्राप्त नहीं रह सकता। कारण कि जो कुछ यजन ये लोग करते हैं उससे सृजित पुण्य की ऊर्जा कार्य पूर्णता से अपने आप समाप्त हो जाती है।
इसलिए इनके जीवन में पुण्य की ऊर्जा का संचय कभी नहीं हो पाता। इन लोगों को इसी में प्रसन्नता और आत्मतोष रहता है कि भगवान उनके काम पूरे कर देता है, सुखी रखता है और संकटों से मुक्ति दिलाता है। इनकी स्थिति रोज कूआ खोदो, रोज पानी पिओ जैसी होती है।
कुछ लोग ऎसे होते हैं जो कामना शून्य होकर भगवान की उपासना करते हैं। इन लोगों का विश्वास होता है कि हरेक काम के लिए अलग-अलग प्रकार की साधना क्यों की जाए। केवल भगवान की कृपा पाने की साधना की जाए ताकि सारे काम हो सकें।
जिन पर भगवान मेहरबान होता है उन्हें अपनी मनोकामनाओं के लिए टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र और अनुष्ठान करने की कोई आवश्यकता कभी नहीं पड़ती। इनके सारे काम भगवान की कृपा से अपने आप होने लगते हैं। इन लोगों का जीवन गीता के श्लोक पर केन्दि्रत रहता है जिसमें भगवान स्वयं इनके योगक्षेम को पूरा करते हैं।
इसलिए इस प्रकार के सर्वश्रेष्ठ भगवद्भक्त अपने जीवन की सारी चिन्ताओं से मुक्त होते हैं। उन्हें भगवान पर पक्का भरोसा होते हैं। इन लोगों की भक्ति और दैवीय ऊर्जाएँ लगातार संचित होती जाती हैं और जब ये परमधाम सिधारते हैं तब इनकी आत्मा अखूट पुण्य साथ लेकर जाती है।
इसी प्रकार के भगवद्भक्तों की एक श्रेणी वह है जो योगाभ्यास के माध्यम से कुण्डलिनी जागरण और मूलाधार से लेकर सहस्रार तक के सभी चक्रों का जागरण चाहते हैं। इन सभी श्रेणी के साधकों के लिए सबसे पहली शर्त है खान-पान, वाणी और व्यवहार में पवित्रता रखें और अपने नित्यकर्म तथा निर्धारित साधना क्रम को अखण्ड बनाए रखें।
इसके साथ ही कंदराओं व सिद्धों के आश्रम में रहकर तपश्चर्या करने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचारियों को छोड़कर संसार में रहने वाले सभी लोगों के लिए जरूरी है कि वे शरीरधर्म का पूरा पालन करें। जो लोग बचपन से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उनके लिए इन्दि्रयों का दमन सहज हो सकता है लेकिन गृहस्थ बन जाने के बाद यदि भगवान या सिद्धि को प्राप्त करना है तो शरीर के सुखों की परितृप्ति प्राप्त करनी नितान्त जरूरी है।
दुःखों से प्राप्त वैराग्य कभी भी मोहग्रस्त करा कर अधोगामी बना सकता है। इसी प्रकार इन्दि्रयजन्य सुखों का आधा-अधूरापन और अभाव भी घातक है और यह सिद्धावस्था पाने में बाधक है। इसलिए देह की इच्छाओं का दमन न करें, वेगों को न रोकें बल्कि इनमें तृप्ति प्राप्त करने की कोशिश करें। जो भोगाग्नि या कामाग्नि होती है वही योगाग्नि में परिवर्तित होती है।
देह तृप्त होने के बाद ही साधना में सफलता और इससे सिद्धावस्था, आनंद और समाधि प्राप्त हो सकती है। देह तृप्ति के बगैर इनकी प्राप्ति पूरी तरह बेमानी है चाहे साधन-भजन कितना ही उच्च स्तर का क्यों न हो।
स्थूल देह से संबंधित इन्दि्रय सुखों में परम तृप्ति के बाद चरम विरक्ति का भाव आना चाहिए। इसके बाद ही शुरू हो सकता है ईश्वरीय आनंद प्राप्ति का मार्ग। इस भ्रम मेंं न रहें कि शरीर अतृप्त रहे और भगवान या सिद्धि भी प्राप्त हो जाए, ऎसा कभी संभव नहीं।
दैहिक आनंद से विरक्ति और सर्वकामना शून्यता के बाद ही शरीरस्थ षट्चक्रों का जागरण होना आरंभ होता है। शरीर को धर्म साधन की सीढ़ी मानकर इसका यथोचित और धार्मिक मर्यादाओं के अनुसार भरपूर उपयोग करें और देह को ही देवालय बनाने का यत्न करें।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
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