कहानी ममत्व पू० दिशा में जैसे ही सूर्योदय हुआ, वैसे ही मंदिर के घंटे बजने की ध्वनि सुनाई दी । मेरी नींद से बोझिल पलकों ने उठने से इंकार...
कहानी
ममत्व
पू० दिशा में जैसे ही सूर्योदय हुआ, वैसे ही मंदिर के घंटे बजने की ध्वनि सुनाई दी । मेरी नींद से बोझिल पलकों ने उठने से इंकार किया, लेकिन चाय बनने की सूचना मिलते ही बिस्तर छोड़ना पड़ा । ब्रश करते-करते छत पर पहुंच गई । पूर्व दिशा में सूर्य की लालिमा के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता था । पक्षियों के कलरव से सारा आकाश गूँज रहा था । सभी पक्षी अपने भरण-पोषण की चिन्ता में चारों दिशाओं में उड़ चले थे ।
तभी मेरी दृष्टि सामने लगे नीम के वृक्ष पर पड़ी जहाँ पर पक्षियों का जमघट अभी विद्यमान था । उन्हीं पक्षियों में कुछ कबूतर भी थे । जिनमें से दो कबूतर बार-बार एक घोंसले में जाते, अपनी चोंच घोंसले में डालते, फिर उड़कर कुछ देर आँखों से ओझल हो जाते । अपने चोंच में कुछ दबाकर लाते, पुन : घोंसले तक जाते । मैं समझ गई कि उस घोंसले में कबूतर के नन्हें शावक हैं ।
उस घोंसले और कबूतरों के प्रति मेरी रुचि बढ़ती गई । में नित्यप्रति उन कबूतरों को देखने लगी । रविवार का दिन था । मैं कुछ देर से ही सोकर उठी थी और अपनी आदत के अनुसार ब्रश करती हुई छत पर पहुंची । उन कबूतरों को मैंने चिंतित मुद्रा में पेड़ के ऊपर तेजी से आवाज करते हुए पाया । मैं पहले तो समझ ही नहीं पायी कि ये कबूतर इतनी तेजी से आवाज क्यों कर रहे हैं? अन्य पक्षी तो उड़ चुके हैं । तभी मेरी दृष्टि नीम के पेड़ के बगल में लगे आम के पेड़ पर पड़ी । जहाँ एक बाज पक्षी बैठा हुआ था । अब सारा मामला मेरी समझ में आ गया था । बाज को देखकर सभी पक्षी तो अपनी जान बचाकर उडकर दूसरे स्थान पर चले गये थे, पर कबूतरों का यह जोड़ा घोंसले में पल रहे उनके शावकों को छोड्कर कैसे उड़ सकते थे? अत : उनकी सुरक्षा हेतु वह अपनी जान जोखिम में डालकर वहीं गुटर-गूं, गुटर-गूं कर रहा था । जिनमें उनकी बेबसी और डर की झलक सुनाई पड़ रही थी ।
तभी वह बाज उड़ा और पेड़ के चारों तरफ मंडराने लगा । कुछ ही क्षणों में बाज ने घोंसले को तहस-नहस कर डाला । दोनों कबूतर तो उड़ गये लेकिन पिंजरे में मौजूद एक नन्हा शावक उड़ने की कोशिश में मेरी छत पर आ गिरा । मैं खड़े-खड़े यह तमाशा देख रही थी । मैंने बाज के डर से उस शावक कबूतर को जल्द ही अपनी गोद में उठा लिया और दौड़कर नीचे उतर कर अपनी माँ को बताया । मैंने और माँ ने घर में पड़े एक पुराने पिंजरे में बाज के डर से रख दिया ।
दो-तीन घंटे में ही मैंने उस शावक को खाने-पीने के लिए चावल, फल, पानी इत्यादि सामान पिंजरे में रख दिया । लेकिन डरे एवं सहमे हुए उस शावक ने किसी भी खाने के सामान पर अपनी चोंच नहीं लगायी और दुखित आवाज में मद्धिम स्वर में गुटर-गूं - गुटर-गूं करता रहा । उसकी आवाज करुणा से ओत-प्रोत थी ।
तभी वहाँ पर वह दोनों कबूतर आकर गिन के तार पर बैठ गये, जो कि शायद शावक के माता-पिता थे । थोड़ी ही देर में वह गुटर-गूं गुटर-गूं करते हुए पिंजरे के आस- पास घूमने लगे । वह अपनी चोंच से कभी पिंजरे की पत्ती को पकड़ते तो कभी शावक की चोंच को । ऐसा लगता था जैसे वह उसे प्रेम करते हुए सांत्वना दे रहे हों और कह रहे हों कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे, तुम्हें आजाद करा लेंगे ।
मैं सामने बैठे-बैठे उनकी वात्सल्य में डूबी हुई क्रिया-कलापों को देख रही थी । मैंने उस शावक कबूतर को मुक्त करने के विचार से माँ की तरफ देखा । उनकी सहमति से मैंने पिंजरे के दरवाजे की छड़ निकाल दी और दूर हट गई । कुछ क्षण उपरांत वह दोनों कबूतर पिंजरे के पास आये और पिंजरे के दरवाजे को न जाने कैसे खोल दिया । वह शावक तुरंत ही बाहर निकल आया था । उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था । कबूतरों ने अपने शावक को तीन-चार बार उड़कर उड़ने की कला सिखाई । अगले ही पल उस शावक ने भी अपने पंखों को फड़फड़ाया और छत की मुंडेर पर जा बैठा और फिर दूसरी उड़ान में नीम के पेड़ पर । वह दोनों कबूतर भी उसके साथ उड़कर पेड़ पर पहुंच गये और पत्तों की हरीतिमा में कही छिप गये । दिखाई नहीं पड़ रहे थे । सिर्फ उनकी हर्ष मिश्रित गुटर-गूं गुटर-गूं की आवाज सुनाई पड़ रही थी । जो कि कुछ देर पहले की गुटर-गूं से भिन्न थी ।
मैं सोच रही थी, कौन कहता है कि स्नेह, प्रेम, अपनापन जैसे मनोभाव केवल इंसानों में ही होते हैं । इन बेजुबान पक्षियों में भी अपने बच्चे के प्रति कितना ममत्व है, यह मैं आज समझ सकी थी ।
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ममत्व
पू० दिशा में जैसे ही सूर्योदय हुआ, वैसे ही मंदिर के घंटे बजने की ध्वनि सुनाई दी । मेरी नींद से बोझिल पलकों ने उठने से इंकार किया, लेकिन चाय बनने की सूचना मिलते ही बिस्तर छोड़ना पड़ा । ब्रश करते-करते छत पर पहुंच गई । पूर्व दिशा में सूर्य की लालिमा के कारण प्राकृतिक सौन्दर्य देखते ही बनता था । पक्षियों के कलरव से सारा आकाश गूँज रहा था । सभी पक्षी अपने भरण-पोषण की चिन्ता में चारों दिशाओं में उड़ चले थे ।
तभी मेरी दृष्टि सामने लगे नीम के वृक्ष पर पड़ी जहाँ पर पक्षियों का जमघट अभी विद्यमान था । उन्हीं पक्षियों में कुछ कबूतर भी थे । जिनमें से दो कबूतर बार-बार एक घोंसले में जाते, अपनी चोंच घोंसले में डालते, फिर उड़कर कुछ देर आँखों से ओझल हो जाते । अपने चोंच में कुछ दबाकर लाते, पुन : घोंसले तक जाते । मैं समझ गई कि उस घोंसले में कबूतर के नन्हें शावक हैं ।
उस घोंसले और कबूतरों के प्रति मेरी रुचि बढ़ती गई । में नित्यप्रति उन कबूतरों को देखने लगी । रविवार का दिन था । मैं कुछ देर से ही सोकर उठी थी और अपनी आदत के अनुसार ब्रश करती हुई छत पर पहुंची । उन कबूतरों को मैंने चिंतित मुद्रा में पेड़ के ऊपर तेजी से आवाज करते हुए पाया । मैं पहले तो समझ ही नहीं पायी कि ये कबूतर इतनी तेजी से आवाज क्यों कर रहे हैं? अन्य पक्षी तो उड़ चुके हैं । तभी मेरी दृष्टि नीम के पेड़ के बगल में लगे आम के पेड़ पर पड़ी । जहाँ एक बाज पक्षी बैठा हुआ था । अब सारा मामला मेरी समझ में आ गया था । बाज को देखकर सभी पक्षी तो अपनी जान बचाकर उडकर दूसरे स्थान पर चले गये थे, पर कबूतरों का यह जोड़ा घोंसले में पल रहे उनके शावकों को छोड्कर कैसे उड़ सकते थे? अत : उनकी सुरक्षा हेतु वह अपनी जान जोखिम में डालकर वहीं गुटर-गूं, गुटर-गूं कर रहा था । जिनमें उनकी बेबसी और डर की झलक सुनाई पड़ रही थी ।
तभी वह बाज उड़ा और पेड़ के चारों तरफ मंडराने लगा । कुछ ही क्षणों में बाज ने घोंसले को तहस-नहस कर डाला । दोनों कबूतर तो उड़ गये लेकिन पिंजरे में मौजूद एक नन्हा शावक उड़ने की कोशिश में मेरी छत पर आ गिरा । मैं खड़े-खड़े यह तमाशा देख रही थी । मैंने बाज के डर से उस शावक कबूतर को जल्द ही अपनी गोद में उठा लिया और दौड़कर नीचे उतर कर अपनी माँ को बताया । मैंने और माँ ने घर में पड़े एक पुराने पिंजरे में बाज के डर से रख दिया ।
दो-तीन घंटे में ही मैंने उस शावक को खाने-पीने के लिए चावल, फल, पानी इत्यादि सामान पिंजरे में रख दिया । लेकिन डरे एवं सहमे हुए उस शावक ने किसी भी खाने के सामान पर अपनी चोंच नहीं लगायी और दुखित आवाज में मद्धिम स्वर में गुटर-गूं - गुटर-गूं करता रहा । उसकी आवाज करुणा से ओत-प्रोत थी ।
तभी वहाँ पर वह दोनों कबूतर आकर गिन के तार पर बैठ गये, जो कि शायद शावक के माता-पिता थे । थोड़ी ही देर में वह गुटर-गूं गुटर-गूं करते हुए पिंजरे के आस- पास घूमने लगे । वह अपनी चोंच से कभी पिंजरे की पत्ती को पकड़ते तो कभी शावक की चोंच को । ऐसा लगता था जैसे वह उसे प्रेम करते हुए सांत्वना दे रहे हों और कह रहे हों कि हम तुम्हारी रक्षा करेंगे, तुम्हें आजाद करा लेंगे ।
मैं सामने बैठे-बैठे उनकी वात्सल्य में डूबी हुई क्रिया-कलापों को देख रही थी । मैंने उस शावक कबूतर को मुक्त करने के विचार से माँ की तरफ देखा । उनकी सहमति से मैंने पिंजरे के दरवाजे की छड़ निकाल दी और दूर हट गई । कुछ क्षण उपरांत वह दोनों कबूतर पिंजरे के पास आये और पिंजरे के दरवाजे को न जाने कैसे खोल दिया । वह शावक तुरंत ही बाहर निकल आया था । उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था । कबूतरों ने अपने शावक को तीन-चार बार उड़कर उड़ने की कला सिखाई । अगले ही पल उस शावक ने भी अपने पंखों को फड़फड़ाया और छत की मुंडेर पर जा बैठा और फिर दूसरी उड़ान में नीम के पेड़ पर । वह दोनों कबूतर भी उसके साथ उड़कर पेड़ पर पहुंच गये और पत्तों की हरीतिमा में कही छिप गये । दिखाई नहीं पड़ रहे थे । सिर्फ उनकी हर्ष मिश्रित गुटर-गूं गुटर-गूं की आवाज सुनाई पड़ रही थी । जो कि कुछ देर पहले की गुटर-गूं से भिन्न थी ।
मैं सोच रही थी, कौन कहता है कि स्नेह, प्रेम, अपनापन जैसे मनोभाव केवल इंसानों में ही होते हैं । इन बेजुबान पक्षियों में भी अपने बच्चे के प्रति कितना ममत्व है, यह मैं आज समझ सकी थी ।
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लेखक परिचय
जन्म 15 मार्च 196०
शिक्षा एम. ए., पी-एच .डी. ( हिन्दी)
सम्प्रति - प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, म.ल.बा. कन्या स्नातकोत्तर ( स्वाशासी) महाविद्यालय
भोपाल ( म. प्र.)
सम्पर्क सूत्र : एफ- 113/23, शिवाजी नगर, भोपाल ।
प्रकाशन लग क्या 3० शो ध - पत्र एवं आलेख प्रकाशित विभिन्न
पत्रिकाओं में कविताएं एवं पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित ।
आकाशवाणी भोपाल से कविताओं का प्रसारण, वर्तमान
में स्त्री विमर्श ' विषय पर ' लघुशोध ' ।
सम्मान : अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान दलित साहित्य अकादमी,
नई दिल्ली ।
अम्बेडकर आदित्य सम्मान उज्जैन
मानद उपााधि- हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
सारस्वत सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग,
इलाहबाद
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