शहर का नक्शा बिलकुल वैसा था जैसा (एक सामन्तकाल से पीछा न छुडा पाने और) पौराणिक इमारतों/कहानियों के अवशेषों को ढोते हुए साथ लिए चलने वाली कि...
शहर का नक्शा बिलकुल वैसा था जैसा (एक सामन्तकाल से पीछा न छुडा पाने और) पौराणिक इमारतों/कहानियों के अवशेषों को ढोते हुए साथ लिए चलने वाली किसी एतिहासिक धरोहर का होना चाहिए। ...और ज़माना ...? जब बूढ़ी परम्पराएं देहरी पर ठिठकी हुई खडी हों और कमसिन आधुनिकताएँ अपनी सम्पूर्ण उजस्विता ,ऊर्जा और फैशन के साथ उनके बरक्स ठाठ से खिलखिला रही हों। गालव ऋषि के इसी पुरातन शहर में बसे क्षेत्र जिसे दानाओली कहा जाता था जो चौड़ी – तंग गलियों कूचों में आबाद था गोया शहर की झुर्रियों भरी देह की धमनियों में दौड़ता हुआ लाल चमकीला लहू। वहीं एडवोकेट मनमोहन चतुर्वेदी के दुमंजिला पुश्तैनी मकान में खूब राग रंगत जमी थी। वकील साहब की सबसे छोटी बेटी सरिता की शादी थी। बड़े बेटे पलाश और बेटी रीता की शादी पहले ही हो चुकी थी। घर की आख़िरी शादी थी सो इस बार मेरठ से बेटी रीता की सास ‘’अम्माजी’’और झांसी से बहू पंखुरी की माँ ‘मम्मीजी’’को भी विशेष आग्रह से आमंत्रित किया गया था और भी खूब मेहमान जुटे थे। लड़की की शादी में यूँ भी रौनक कुछ ज्यादा ही होती है। युवा लड़कियों के अलग और अधेड़ औरतों के अलग गुट बन गए थे। नवयौवनाएं अपनी चुहलबाजियों में मस्त थीं तो घर की अधेड़ औरतें और बहुएं व्यवस्थाएं व् नेगचार करवा रही थी। बुजुर्ग औरतों को ‘’परम्परा की सजावट ‘’ की तरह एक कमरे में बाइज्ज़त बैठा दिया गया था। बीच बीच में कोई घर की अधेड़ औरत एक कमरे में बैठीं किसी बुजुर्ग से रस्म पूछ जाती ‘’ अम्मा जी भांवरों में कलस कितेक रखे जात हैं ‘’ फिर अम्मा जी बतातीं कि अपने इहाँ तो दुल्हिन तीन तीन कलस चारों कोनों में धरने को रिवाज़ है री। ‘’ना जबलपुर वारी , तीन ना रखते ..बहुरिया पांच पांच कर दे री ..कोई दूसरी बूढ़ी बीच में टोकती। अन्य बूढ़ी औरतें एक कोने में बैठीं सब माजरा देख रही थीं। ‘’अम्माजी ‘’ और ‘’मम्मीजी ‘’ घर की ‘’मान-दान ’’(ख़ास मेहमान ) थीं अतः उनका विशेष ख्याल रखा जा रहा था। घरौती स्त्रियाँ उन्हें उठने ही न देतीं। खाना नाश्ता सब ठिकाने पर ही .... ‘’ना ना अम्मा जी आप यहीं बैठो हम सब हैं तो करनहारे !’’ लड़की की माँ और मौसी कहतीं।
उस दिन तेल की रस्म हुई थी। सामने पटीयेदार बरामदे में गाना बजाना चल रहा था। बन्नियाँ ,बधाये,गाये जा रहे थे। ‘’बन्नो तेरी अँखियाँ सुरमेदानी ‘’...| ढोलक की लयबद्ध थाप के संग पकवानों की तीखी गंध मुहल्ले छतों तक उड़ रही थी|घर के पिछवाड़े में मैला सा तहमद और पसीने से लथपथ चीकट बनियान पहने एक हलवाई भट्टी पर चढ़े विशाल कढाही में से गर्मागर्म इमरतियाँ छान रहा था|वो अपने कंधे पर पडी स्वाफी से बार बार उलटे हाथ से माथे पर चुहुआई पसीने की बूंदों को पोंछता । वहीं पास में ज़मीन पर बिछी दरी पर कुछ औरतें घूँघट काढ़े बधावे गाती हुई पूरियां बेल रही थीं। पूरियां एक दूसरी भट्टी पर चढी कढाही में एक और हलवाई द्वारा तली जा रही थीं। शादी तो अगले दिन थी। ये तो आज के घरू मेहमानों के भोजन की तैयारी थी। जवान खिलखिलाहटों की आवाजें घर भर में सुगन्धित परफ्यूम के साथ २ हवा में तैर रही थी। जबकि बुजुर्ग औरतें अपने कमरे में से ऊबी हुई सी सारे माहौल का जायजा ले रही थी।
जवान और अधेड़ औरतों की तुलना में बुढियों के पास बातचीत के विषय तो इफरात होते हैं। आखिर एक लंबा जीवन जी चुकी होती हैं वो लेकिन ऐसे मौकों पर अपने दुःख दर्द या खुशियाँ आपस में बांटती कम ही हैं। सों ये सब वृद्धायें भी चुपचाप शादी की गतिविधियाँ देखते हुए सामने रखा नाश्ता यथा सामर्थ्य चुग या खा रही थीं। इस उम्र में जवानों जैसे जो सामने आ गया तीखा, मीठा, कड़क, मुलायम सब तो खाने लायक दांत और आंत बचती नहीं लिहाजा चुन चुनकर खाना पड़ता है। मीठा नहीं क्यूँ कि शुगर , कडा नहीं क्यूँ कि दांत नहीं ,तीखा नहीं क्यूँ कि आँतों में जलन, आलू नहीं ‘’वाय’ होती है , ससुरी हजार लचेड़ें हैं। अम्माजी और मम्मीजी यहाँ पहली बार ही मिली थीं और कुछ घनिष्ठता हो गयी थी उनमें। बहुत ध्यान से वो दोनों भागती दौड़ती मस्ती करती जवान छोकरियों और बहुओं को इठलाते इतराते देख रही थीं। उन्हें अपने ज़माने शिद्दत से याद आ रहे थे। उनकी नज़र उन अल्हड़ नवयुवतियों पर थी जो शोपिंग करके अभी २ लौटी थी। इनमें मेरठ वाली अम्मा की नखरेली बहू रीता और झांसी वाली मम्मीजी की बेटी पंखुरी भी शामिल थी। सामने के बरामदे में तखत पर बैठी वो नव यौवनाएं बाजार से लाई सब चीज़ें खोल खोलकर दिखा रही थीं। उनके आसपास लड़कियों बहुओं की भीड़ लगी हुई थी। ’’हाय भाभी कित्ती सुन्दर साड़ी लाइ हो?’’ ..अरे जिज्जी ये बुँदे तो महंगे दिख रहे हैं ..कित्ते के हैं?’’ पर्स का कलर बहुत कूल है ,दुल्हन ये सूट कित्ते का पड़ गया ?
कमरे में बैठी बुढ़ियाँ बात करने के विषय खोज रही थीं ‘’बहन जी भांवरों का क्या टेम है? दूसरी कह रही थीं हमारे यहाँ तो जयमाला नहीं पड़ती बस लड़की तेल हल्दी के कपड़ों में ही द्वार चार के वक़्त लड़के पर पीले चांवर फेंकती है। ’’टाईप बातें। ‘मम्मीजी ’ को शॉपिंग का सामान देखकर अपने अपने दिन याद आ रहे थे ...’’जिज्जी , ये अन्नू की दुल्हन साडी लाई है न इस कलर की हमारे पास भी थी ..बस उसका छापा और बाडर कुछ अलग था। ’’ अच्छी चीज़ें लाइ है दुल्हन . अम्माजी ने कहा।
शाम को गाने फिर शुरू हो गए थे। चौतरफा कमरों के बीच बड़े आंगन में कुछ देर ढोलकी पर बन्नियाँ चलती रहीं लेकिन कुछ ही देर में फ़िल्मी गाने बजने लगे और घर के जवान लड़के लड़कियां उन पर थिरकने लगे। यौवनाएं एक दूसरे के कानों में कुछ कहकर जोर जोर से हंस रही थीं इतरा रही थीं। युवक भी सजे धजे कनखियों से लड़कियों की और देख रहे थे और कुछ उनसे मज़ाक भी कर रहे थे। युवतियां शरमा शरमा कर दोहरी हो रही थीं। कनफोडू संगीत बज रहा था| जोड़े थिरक रहे थे। थिरकते जोड़ों में अविवाहित लड़के लड़कियों के साथ वकील साहब का बेटा बहू और बेटी - दामाद भी शामिल थे। सामने दर्शक बने बैठे मेहमान उन्हें देख -सराह रहे थे, तालियाँ बजा कर उनका हौसला बढ़ा रहे थे। नौकर चाकर मेहमानों की दौड़ दौड़ कर आवभगत कर रहे थे। तभी सब युवक युवतियों ने डी जे से कोई ख़ास ‘’फड़कता हुआ’’ नया फ़िल्मी गाना लगाने की फरमाइश की और फुल वोल्यूम में गीत बजते ही एक गोला बनाकर सब नाचने मटकने लगे। बड़ा मस्ती भरा माहौल था। उन युवक युवतियों की माएं जिनकी तेज़ तर्रार नज़र बेटी के घर से बाहर जाने पर भी उससे बंधी रहती है वे अभी अपनी सजी धजी लड़कियों को लड़कों के साथ नाचते देख देखकर निहाल हो रही थीं। पिता फोटो खींच रहे थे। मम्मीजी कमरे से बाहर निकल आईं और बाहर लाँन में पडी एक कुर्सी पर बैठ गईं। तभी अम्माजी आ गईं
‘’भाई हमसे तो इतना शोरगुल सहनई नहीं होता .. मम्मी जी ने कहा
सोई हमसे .... हमारी भी धड़कन बढ़ जाती है .. अम्माजी ने हामी भरी। कुछ देर वो दौनों चुपचाप बैठी रहीं।
देखो ये नई उमिर की छोरियां तो हमें कुछ समझती ही नहीं। सब मज़े से बाजार कर आईं। अब कल फिर बूटी पार्ले (ब्यूटी पार्लर ) जायेंगी। खूब संज संवर के आयेंगी और एक हम हैं ,कोई ये पूछने वाला भी नहीं कि मम्मीजी जी सादी में कौन सी साडी पहरोगी ?साड़ी के मेचिंग की चूड़ियाँ लेने की सोच रहे थे झांसी में टेम ही ना मिला। ..अब दुल्हन या बिटिया हमें बताकर बाज़ार जाती तो मंगा न लेते ?जैसे हमारा तो मन ही नहीं। बूढ़े होने से पहले ही ये लोग बूढा कर देते हैं सच्ची। मम्मीजी ने अफ़सोस जताते हुए कहा
सही कह रही हो जिज्जी ...जाने कब बूढ़े हे गए पतों ही ना पड़ो हमें तो ..|तेरेह बरस में ब्याह गए। फिर बच्चा होने सुरु ..और बाके बाद सीधे बूढ़ेई हे गए..बीच की उमिर तो जाने कब आई और निकर गयी। अम्माजी की मुस्कराहट पनीली थी
देखो इन शहरों में सही संझा भी कितनी रौनक रहती है न ? मम्मीजी ने सड़क की और इशारा करते हुए कहा
हम्बे जिज्जी
...सडकों पर खूब गाड़ियां चलती हैं ...हमारे ज़माने में तो कोई इक्का दुक्का मोटरें दिखाई देती थी सडकों पर ..अब तो भैया पूछो ही मत
दोनों बुढ़ियाँ अभी तक प्लास्टिक की कुर्सी के ऊपर पैर सिकोड़कर बैठी थीं तभी अम्माजी ने प्रस्ताव रखा ‘’चलो बहनजी बाहर टहल के आते हैं थोड़ी हवा खा आवे..घुटन सी होने लगी कमरा में तो।
चलो ... मम्मीजी ने कुछ सोच समझकर हामी भर दी। वो दोनों कुर्सी से उठ खडी हुईं। एक मिनट ठहरो..भीतर से पर्स ले आवें ..मम्मीजी ने उत्साहित होकर कहा और जाकर कंधे पर पर्स लटका कर आ गयी।
चुप्पचाप पीछे से निकर चलो बहन जी .. ये नाच वाच रहे हैं उसके पहले लौट आयेंगे .... अम्माजी ने कहा और वो दोनों सबकी नज़रें बचाकर पीछे के गेट के बाहर निकल आईं। ‘’
अरे इधर आ बेटा ...मम्मीजी ने एक हलवाई लड़के को बुलाया
हाँ माताजी बोलो
बज़ार कित्ती दूर है यहाँ से
ज्यादा नहीं ..बस ये सामने वारी गली पार करके नईयां फिर उलटे हाथ को मुडक जइयो और फिर ज़रा सो सूधे हाथ को ... बस बज़ार आ जाएगो
लड़का चला गया।
भीतर से फ़िल्मी गानों की जोरदार आवाजें सड़क तक आ रही थीं। ‘’मेरे हाथों में नौ नौ चूड़ियाँ हैं’’.....। जैसा कि लड़के ने बताया था ,उन्होंने उस दिशा में चलना शुरू कर दिया। जैसे जैसे वो दोनों आगे बढ़ रही थीं गाने की आवाजें और दिन दोनों डूबते जा रहे थे। सडकों पर लगी लाइटें जल उठी थीं।
‘’बहन जी जाने कित्ते बरसों बाद अकेले घूमने निकरे हैं अम्मा जी ने सहारे के लिए मम्मी जी का हाथ पकड़ते हुए कहा ..
सही है...|हमें तो शुरू से घूमने फिरने का खूब शौक रहा बहन जी लेकिन घर में इतना पर्दा था और सास की इतनी हुकम बजाहट थी कि कहीं ना जा पाए ..और जब फिरी हुए तो नाती पोतों से फुर्सत नहीं ...मम्मीजी ने मन की बात कही
... कहो तो कहीं बैठ जावें ...सुस्ता लें .. अम्माजी ने कहा
हाँ हम भी सोच तो रहे थे लेकिन कहीं जगह भी तो दिखे ...सड़क ससुरी खत्मई ना हे रही ..मम्मी ने इधर उधर देखते हुए कहा
अम्माजी अचानक चलते २ रुक गईं ..’’ तनिक थम जाओ बहन जी घड़ी भर सुस्ता लें ....
वो दौनों खडी हो गईं।
‘’अरे भैया ...कोई ऑटो वगेरा मिलेगा क्या यहाँ ?मम्मी जी ने एक राहगीर से पूछा
वो रुक गया ..’’माताजी किते जानो है आपखों?
बस बाजार तक जाना है
कोंसों बाज़ार ?झें तो मुक्ते बाजार हैं अम्मा। बाडा ,कम्पू ,गोरखी ,सुभाष मार्केट, गेंदे बाली सड़क, सराफा.....
..अरे भैया ऑटो पूछ रहे हैं मिलेगो का ...गवालियर को नक्सा नाय पूंछ रहे . मम्मी जी ने खीझकर कहा
ना माजी ..या बखत साडे सात को समय हे रह्यो है ...अब ना मिलेंगे ऑटो फाटो
वो जा तो रहे हैं ? एक ओटो की तरफ इशारा करके अम्माजी ने कहा
अरे बे तो हजीरा और टेसन की सबारी हैं। कहकर वो आदमी चला गया।
बहन जी हम कह रहे हैं लौट चलें ..देखो देर हो रही है ..किसी से कह के भी नहीं आये। ढूंढ मचेगी ...अम्माजी घबराई हुई सी थीं ..रीता दुल्हिन को गुस्सा ना देखो तुमने अभी। बेटा भी नहीं आया है ब्याह में जो बचा लेता ...
सई कह रही हो जिज्जी ..पर अब तो आधी दूर आ चुके हैं। ऑटो से ही जा पाएंगे ...फिर से इतनी दूर वापस लौटकर पैदल जाना तो अब मुश्किल है
अम्माजी हांफ रही थीं। मम्मीजी ने इधर उधर देखा। एक बंद दुकान के सामने अँधेरे में छोटा सा टूटा हुआ तखत बिछा था। आ जाओ जिज्जी थोडा सुस्ता लें। वो दोनों बैठ गईं।
गला सूख रहा है प्यास से..अम्माजी ने गले पर हाथ फेरते हुए कहा
बस थोडा सुस्ता लें फिर वापस चलते हैं ..मम्मी ने ढाढस बंधाया
तभी उन्होंने देखा सामने से एक पति पत्नी और उनका छोटा सा बेटा हाथ में गुब्बारे लेकर आ रहा है।
‘’मम्मी कल फिर से मेले चलेंगे ‘’ बच्चा माँ से कहता हुआ जा रहा था
मेला? यानी यहीं आसपास मेला भरा है। जब तक वो पूछतीं बच्चा और उसके माता पिता जा चुके थे।
सुन रही हो बहन जी ....मेला लगा है यहाँ कहीं आसपास ...चलें का ?मम्मी जी की आँखों में चमक आ गयी थी
अरे अब हिम्मत नहीं भैया ..अब तो ऑटो मिल जाए तो घरेई चलो ..अम्मा किसी युद्ध में हारे हुए सिपाही की तरह निढाल थीं
दौनों चुप हो गईं। तभी एक विपरीत दिशा से आता हुआ टेम्पो दिखा। उसमें और भी सवारियां बैठी हुई थी। उसकी रोशनी दोनों बुढियों के चेहरे पर पडी ‘’आओ माजी ...मेला चलना हो तो ..टेम्पो वाले ने स्पीड थोड़ी कम कर दी
मम्मी जी उचक कर खडी हो गयी। हाँ हाँ भैया कित्ता लोगे ?
पांच रुपैया एक के ..टेम्पो रुक गया ..बस खड़ खड आवाज़ आती रही
भैया ..बूढ़ी औरतें हैं कुछ कमती करो न भाडा ..मम्मीजी ने निहोरे किये
देखो...डोकरी रात में मेला घूमने जा रही है और कह रही है...कहकर वो जाने को हुआ
अरे रुक जा भैया चलत हैं ...
आ जाओ बहनजी टेम्पू मिल गया ..मम्मीजी ने अम्माजी को टेरा जो अभी भी बंद दुकान के आगे के तख्ते पर पसरी बैठी अपने थके हुए पैरों को सहला रही थीं
अम्माजी जब तक कुछ कहती मम्मीजी टेम्पो में बैठ गयी। अम्मा भी कराहते पैरों के साथ बडबडाती हुई धीरे धीरे टेम्पो में चढ़ गयी। टेम्पो ने मेले के सामने उतार दिया। टेम्पो के पैसे देकर वो दोनों मेले की ‘’कनात’’ में घुस गईं
वो कोई कस्बाई सा मेला था। गाँव देहात के लोग ज्यादा दिखाई दे रहे थे। दुकानें ही दुकानें ,चाट पकौड़ी के खोमचे , बन्दूक के छर्रों से गुब्बारों में निशाना लगवाती गुमटियां ,झूले ,कानफोडू फ़िल्मी गीत,...दौनों की ऑंखें मेले की रौनक को देख जगर मगर ...|लाइटों के बड़े बड़े हंडे जो कनात की छत से रोशनी की बौछारें फेंक रहे थे। सामने विशालकाय झूले लगे हुए थे जिसपर बच्चों- बड़ों की चिल्लपों मची हुई थी। अपने वहां ‘’होने’’ के बीच वो दोनों कुछ देर के लिए अपना ‘’लौटना’’ भूल सी गईं। घुसते ही साज श्रंगार की चमचमाती दुकान थी। लाल ,हरी , पीली, नीली चूड़ियाँ . डिजायन दार झुमके . मालाएं ...
भैया ये लाल कलर की चूड़ियाँ कितने की दोगे .... मम्मीजी ने चूड़ी वाले से पूछा
पचास रुपैया दर्जन हतें माताजी
अय भैया लूट रहे हो तुम तो ..
तो हल्की वाली भी हैं माताजी
सुनो जिज्जी ...ये झुमके कित्ते सुगढ़ हैं न
हाँ भोत..कोन के काजे ? अम्माजी ने पूछ लिया
अरे अपने लिए और किसके ?
अरे दैया ...लोग का कहेंगे ? अम्माजी मुहं पर पल्लू रखकर हंसी
क्या कहेंगे?हमारे मन नहीं है क्या ? कल भांवरों में पहरेंगे न। सादी की सालगिरह भी आ रही है हमाई... बिल्लू के बाउजी को पहरके ......मुंह पे पल्लू रखकर शर्माती हुई मम्मी जी बोली ...दांत – आंत अबैय तो सब सलामत हैं जिज्जी ...कायके बूढ़े....
भैया कितने के हैं ये झुमके ..मम्मी जी ने पूछा
साठ के बहन जी
ना लेने भैया ...इत्ते महंगे
चलो पचपन दे देना ...लो आओ चलो पचास ..बस जासे कमती नहीं ..गोल चेहरा और खुलता कलर है न आपको..खूब फबेंगे ..आओ जे सीसा है पहर के नैयाँ देख लो ‘’दुकानदार ने देहाती अपनापे से कहा
मम्मी जी शरमा गयी। आँखों में अभूतपूर्व चमक आ गयी।
ठीक है तो अस्सी में चूड़ी को सेट और जा झुमका दोनों दे दो उन्होंने पर्स से पैसे निकालते हुए कहा
दुकान वाला कुछ देर सोचता रहा ..माताजी पांच रुपैया कमा रहे थे बो भी ...चलो दुकान बढ़ाबे को बखत है ... दे दो...
मम्मी जी ने पैकेट हाथ में लिया तभी उन्हें अम्मा की याद आई अरे जिज्जी कहाँ गईं ?
अम्मा जी अगली दूकान पर खडी थीं जो बर्तनों की थी।
भैया जे रोटी बेलने को चकला कित्ते को है ? अम्माजी दूकान दार से पूछ रही थी
पचास रुपैये को अम्मा
अरे ये तो बहुत ई महंगा है। कहकर अम्माजी जाने लगी
अरे सुनो तो अम्मा ..कित्ते का लोगी बताओ
अरे नहीं लेने भैया ..
अरे तो तुम्ही बता दो ना ...
तभी मम्मी जी वहां पहुँच गयी। ’’अरे मेला में आये है शापिंग करने , अपने शौक पूरे करने और तुम चकला ले रही हो जिज्जी ..। दौनों हंसने लगीं ..
कह तो सही रही हो बहन जी तुम। चटख गया है चकला सो रीता दुल्हन को रोटी बेलने में बड़ी परेशानी होती है। बिचारी को टेम भी नहीं मिलता नौकरी पे जाती है न !
अरे यहाँ तो तुम्हारी बहू दुनिया भर की शोपिंग कर रही हैं एक चकला नहीं खरीद सकती क्या ?और अभी तो इतने एब निकाल रही थीं बहू में कि ज़बान कतरनी सी चलती है रीता की। दस बजे तलक सोती है| बिना बांह का ब्लाउज पहनती है...
लौटते वक़्त अम्माजी के खरीदे हुए झोले में एक चकला बेलन, एक रोटी सेंकने का चमीटा ,पोते के दो पजामे ,पोती के लिए गुडिया और अपने लिए उज्जैन के सिन्दूर की डिबिया थी। मम्मीजी ने अपनी चूड़ी झुमके का पैकेट भी उसी झोले में रख दिया। जब वे मेले की चकाधौंध से बाहर निकलीं ,तो बाहर घना अन्धकार हो गया था।
अब कैसे घर जायेंगे बहन जी ? पता मालूम है क्या ?अम्माजी थोड़ी चिंतित थीं
नहीं हमें नहीं मालूम ..
ऑटो रिक्शा वाले को बताएँगे क्या कि कहाँ जाने है
अरे हाँ ये तो सही बात है ..मम्मीजी घबराकर बोली। एक मिनट...उन्होंने अपना पर्स टटोला। उनकी आँखों मे चमक आ गई। लो राम जी महाराज ने हमारी सुन ली। ये शादी का कार्ड इसी में पड़ा है। इसमें पता होगा ..लेकिन पैसे..? पैसे तो लगता है पूरे निबटा आये मेला में ?
उसके बाद दौनों बूढ़ियाँ बची चिल्लर निकालकर गिनने लगीं।
‘’नौ रुपैया आठाने बचे हैं जिज्जी दौनों के मिलाके। ऑटो वाला जाने ले जाएगा की नहीं सुसरा ...मम्मीजी ने कहा
सड़क सुनसान हो चली थी। बीच बीच में कोई वाहन धड़धड़ाता हुआ सामने से गुज़र जाता। वो दोनों घिसटती हुई सी चली जा रही थीं। दो लोग खड़े बात कर रहे थे।
भैया एक पता पूछने है इस कार्ड में लिखा है बता दोगे क्या ?
आदमी ने कार्ड पढ़ा ...ये जगह तो यहाँ से काफी दूर है कैसे जाओगी। नई हो क्या माताजी ?
हाँ भैया ..एक ब्याह में आये थे ..बस ऐसे ही थोड़ा टहलने निकल आये थे तो भटक गए। कोई ऑटो वगेरह मिल जाए ....
नहीं अब इस समय कोई औटो नहीं मिलेगा
कुछ देर वो आदमी कुछ सोचता रहा फिर बोला ...आइये मेरे पास गाडी है। मैं वहीं से निकलूंगा। छोड़ देता हूँ आप लोगों को । वो दोनों सकुचाते हुए कार की पिछली सीट पर बैठ गईं। कार रफ़्तार से चल दी
अन्दर और बाहर के सन्नाटों को तोडती लता मंगेशकर की आवाज़ ‘’ मौसम है आशिकाना ‘’ कार में गूँज रही थी।
अनजानी जगह में ऐसे गैर की गाडी में बो भी रात के बखत नहीं बैठना चहिये जिज्जी,,अम्माजी ने मम्मी जी के कान में फुसफुसाते हुए कहा
सई के रही हो बहन जी ..पर ...रामजी का नाम लेकर चलो बस..
सुनो बहन जी ,कहीं और तो नहीं ले जा रहा ये अपन को? अम्माजी ने फुसफुसाते हुए कहा। ये प्रश्न सुनकर मम्मीजी बौखला गयी
‘’हाँ बड़ी कड़क जवान हो न जिज्जी जो तुम्हें भगाकर ले जाएगा ये
नहीं मतलब सामान भी तो है अपने पास .
हाँ हाँ ..चकला बिलना ..है न...और खीसा में नौ रुपैया की चिल्लर भी ...मम्मीजी की हंसी फूट पडी
कुछ देर चुप्पी छाई रही
जिज्जी चूड़ी का कलर बहुत सुन्दर है न ... कब से ढूंढ रहे थे हम ये कलर मम्मी जी ने बात पलटी
चकला बेलन भी अच्छे मिल गए यहाँ। मेरठ में तो मिलते ही नहीं ऐसे.... अम्माजी जी ने कहा
सई कह रही हो। मौक़ा लगा तो हमहूँ ले जायेंगे झांसी ..बढ़िया रेट में मिल गयी सब चीज़ें ...मम्मी जी प्लान बनाने लगीं। बातों की आड़ में उनके डर छिप से गए थे। यही वो चाहती थीं।
रात गहरा चुकी थी। दुकानें बंद थीं और सड़क पर गिनती के वाहन दिखाई दे रहे थे। कार उन बंद दुकानों , स्ट्रीट लाईट की कतारों और सड़क पर दौड़ते इक्का दुक्का वाहनों को पीछे छोड़ती बहराई सी भागी जा रही थी। अब रिहाइशी इलाके खत्म हो रहे थे और वहां विकट सन्नाटे पसरे थे। अँधेरे और स्ट्रीट लाईट के बिना और भी डरावना सा लग रहा था सब कुछ। दोनों बुढ़ियाँ खामोश थीं और घबराई सी कांच के बाहर अँधेरे सन्नाटों को देख रही थीं।
सुनो बहन जी ... अम्माजी ने फुसफुसाकर कहा
कहो
सुने हैं चम्बल इहाँ से पास ही है। बोही फूलन देबी डकैत ...सुनसान भी हे रही है। जे जाने कहाँ ले जाए भैया। हनुमान चालीसा मुंह जबानी याद थी बो भी बुढापे में भूल गए ...
मम्मी जी ने इसका कोई ज़वाब नहीं दिया।
कुछ कम संकरी गली के दो मोड़ों से मुड़ने के बाद कार एक टेंट लगे घर के सामने रुक गयी जहाँ छोटी छोटी रंग बिरंगी बत्तियां यथासामर्थ्य अंधेरों से मुठभेड़ कर रही थीं।
लीजिये आपका घर आ गया , सुनते ही उन दोनों की सांस ठिकाने पर आई। ..कार रुक गयी थी वहां भीड़ लगी हुई थी। वो यौवनाएं , बहू बेटियाँ जो कुछ देर पहले हुलक हुलक कर नाच रही थीं सब चिंता मग्न सी खडी थीं। अम्माजी का बेटा मुकुल यानी रीता का पति समेत पूरा परिवार घबराया सा खड़ा था। दो पुलिस के आदमी भी मौजूद थे। जैसे ही वो दोनों कार से बाहर निकलीं कुछ देर सब हतप्रद से खड़े उन्हें देखते रहे।
ठीक है माताजी यही घर है न आपका ? कार वाले ने हंसकर कहा लेकिन उन दोनों की तो घिग्घी बंधी थी कुछ ज़वाब नहीं दे पाइ। कार चली गयी।
कहाँ गयी थीं अम्माजी मटरगश्ती करने ? रीता ने अपनी सास से उबलते हुए कहा
अम्मा जी भय से कांपने लगी और आँखें नीची करके खड़ी रही
कुछ पूछ रही है रीता ? ज़वाब दीजिये ... मुकुल ने कहा
अरे बेटा हम ले गए थे ज़रा बाज़ार तक .. मम्मीजी ने बचाव किया
आप तो बड़ी जानकार हैं न ? सब पता है आपको शहर के बारे में है न ? मम्मी जी की बेटी पंखुरी जो घर की बहू थी ,ने कहा। पता है सब कित्ते परेशान हो रहे हैं। ..बताओ कित्ती बदनामी होती कहीं कुछ हो जाता किसी गाड़ी के नीचे आ जातीं
रीता जले पर नमक छिड़के जा रही थी ‘’पापाजी तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाते सच्ची भैया ,यदि इन्हें कुछ हो जाता ‘’ मुकुल क्रोध से काँप रहा था।
क्या है ये बताओ...रीता ने अपनी सास अम्माजी के हाथ से थैला ले लिया। देखों ज़रा ,ये मज़े करके आ रही हैं और हम यहाँ फ़िक्र में मरे जा रहे हैं।
शादी का सब मज़ा किरकिरा कर दिया मम्मी जी आप लोगों ने तो ...अरे हमसे कह दिया होता हम ले जाते बाद में आप लोगों को शोपिंग कराने। एन शादी के बीच इस तरह कोई मान दान घूमने फिरने जाता है क्या वो भी ओल्ड लेडीज़?बहू पंखुरी बोले जा रही थी। मुकुल ने रीता के हाथ से छीनकर थैले को जोर से फेंका। उसमें से चकला बेलन ,गुडिया ,चूड़ियाँ ,झुमके ,सिन्दूर सब मिट्टी में बिखर गए। लाल रंग की चूड़ियाँ दूर तक छितरा गईं गोया ये चूड़ियाँ नहीं उनके टूटे सपने हों
जब सबके पीछे पीछे वो दोनों बुढ़ियाँ घर के भीतर अपराधी सी घुस रही थीं तब अम्माजी की पोती यानी रीता की नन्ही बेटी कुहू जो अब तक माहौल देखकर सुबक रही थी , धूल में पडी गुडिया की धूल झाड़कर उसे गोद में उठा रही थी। उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी।
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वंदना देव शुक्ल
प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कहानियों का नियमित प्रकाशन |दो किताबें |कहानियों का कई भाषाओं में अनुवाद
गृह नगर भोपाल
सम्प्रति- शिक्षिका
मोबाईल -9928831511
कहानी का कथ्य बहुत प्रभावोत्पादक बन पड़ा है. अंत मार्मिक है. कुछ सोचने पर मजबूर करती कहानी...
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