कविताएँ ये धरती ये धरती है रहीम की, ये धरती है राम की, ये धरती रहमान की, ये धरती हिन्दोस्तान की मानवता की सम्मान की, शहीदों के बलिदान ...
कविताएँ
ये धरती
ये धरती है रहीम की, ये धरती है राम की,
ये धरती रहमान की, ये धरती हिन्दोस्तान की
मानवता की सम्मान की, शहीदों के बलिदान की,
शेख सिंह अनजान की, शांति के फरमान की,
समझ सको तो समझ लो,
क्या जरूरत है कोहराम की,
जब बंटता नहीं है आसमान,
क्यों बांटे धरती इन्सान की
माँ-माँ होती है सिर्फ माँ
भले बेटा हिन्दू, मुस्लिम या सिख-इसाई,
साधु-संत हो या कसाई
कभी लीक न तुम लांघो मर्यादा की,
कि शर्मिन्दा हो ये ’’भारत माँ’’ जग जाई।
रंग जिन्दगी के
कितने रंग जिन्दगी के देखे मैंने,
कुछ माँ की गोद में,
कुछ पापा की बांहों में,
दिखाये दोस्तों को भी,
अपने-अपने रंग वक्त
आने पर, वक्त पड़ने पर
सब सहन हो गये, चूंकि
वक्त की रफ्तार ने उन्हें
कभी मिटा दिया कभी
धूमिल किया।
पर चढ़ गये रंग दिल के
दिल पर
जो उतारे भी उतरे नहीं
पायेंगे, उनके निशान कभी
मिट नहीं पायेंगे
जो रंगे मुझ संग कुछ
अपनों ने दिए, जो जानते थे
कि मेरी जि़न्दगी की चुनर
कब और कैसे रंगनी है।
नन्हा
खुश होकर इक गीत बनाया,
उसने सबको मन हर्षाया,
पहन के जूते, लगा के चश्मा
वो दादा-दादी को लेने आया
उलटी-सुलटी बातें बोले
प्यार के वो हर राज़ खोले
देख के गाड़ी, बजाये ताली
खुशी है मन में इक मतवाली
दादा-दादी उतरे गाड़ी से
नन्हा देख उन्हें है भाया
लेकर गोद में खूब दुलारा
उनका नन्हा सबसे प्यारा
नन्हें ने है गीत सुनाया
सबकी आँखों को छलकाया,
मटका-मटका कर हाथ वो उसने
जोर-जोर से गीत ये गाया
रेल आई - रेल आई
मेरे दादा-दादी को लेकर आई
नन्हा बेटा सबको भाया।
जि़न्दगी
जो जि़न्दगी जी नहीं
वही जीना चाहती हूँ
चाहती हूँ देर से उठना,
जल्दी सोना,
आइसक्रीम और गरम खाना खाना
और कभी-कभी पिक्चर देखना
और तुम्हारे पापा के संग
किसी बाग के कोने में
बैंच पर बैठना।
जब जी चाहे घर जाना,
और किसी भी काम के
लिए कोई चिन्ता ना होना।
कोई कभी सुबह हमें भी
कहे, उठो चाय तैयार है
नहा लो, नाश्ता भी लगा है।
जो भी जि़न्दगी भर जिया, किया
उसका ब्याज खाने को जी चाहता है
सुने छोटे लोरियाँ
लें बड़े सलाह,
आकर बैठें चन्द लम्हे
हमारे संग।
ले लें वो खजाने जो संभाल कर
रखे हैं
सब सामने ही संभाल लें
जी चाहता है।
कहानियाँ
26 जनवरी
आज नया साल चढ़ा है। अभिमन्यु को गये पूरे तीन साल हो गये। वीराँ हर रोज़ घर का सारा काम निबटाकर बाहर आँगन में बैठ जाती। जैसे ही उसे कोई साईकिल की घंटी बजती सुनाई देती, उचक कर देखती। डाकिये के आने का समय है। सरकार ने अभिमन्यु को वीर चक्र देने की घोषणा की थी। पूरा सप्ताह बीत गया। वीरां की उत्सुकता बढ़ने लगी। आज इतवार है, कल मेरा संदेश जरूर आयेगा। सोच-सोचकर उसका दिन काटे नहीं कट रहा था। बैठे-बैठे उसकी आँखें छलछला उठीं। वह अतीत के घेरे में घिरी पाँव से ज़मीन खोदने लगी। यही आँगन, यही घर, वो सामने वाला बड़ा पीपल का पेड़, जहाँ से घर तक वो लाल जोड़े में सिमटी सी धीमे-धीमे कदमों से घर की दहलीज़ पार करके आई थी। घूंघट की ओट से उसने अभिमन्यु को सफेद कुरते पजामें में गुलाबी पगड़ी बांधे देखा था। लम्बा चैड़ा, सुन्दर राजकुमार सा युवक। बस देखते ही रह गई थी। 2-4 दिन रसमें निभाकर वो दोनों मसूरी घूमने निकल गये थे। शान्त स्वभाव, मुस्कुराते चेहरे के साथ सप्ताह भर बिता कर घर वापस आ गई थी। अभिमन्यु मात्र 20 दिन की छुट्टी लेकर आया था। कब बीत गई पता ही न चला। फिर वह अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गया था। अपनी बटालियन का मुखिया था वह। उसने घर से ज्यादा समाज व देश को महत्व दिया। वीरां पूरे 6 माह घर पर रही। घर का सारा काम सीख, सबको पहचानने की पूरी कोशिश की। फिर अभिमन्यु आया व उसे अपने साथ ले गया। इस बीच उनका नन्हा वंश आया। दुनिया ही बदल गई। दिन-रात अपनी रफ्तार से बीतने लगे। वीरां वंश को सुलाने दूसरे कमरे में गई। घंटे भर बाद जब वापिस आई तो अभिमन्यु अपना सामान बांध रहे थे। वीरां ने मज़ाक किया, ‘‘कहाँ जा रहे हो इतनी रात में?’’ उसने वीरां की आँखों में आँखें डालकर कहा, ‘‘माँ का संदेशा आया है, बस निकल रहा हूँ।’’ ‘‘अकेले ही?’’ वीरां ने कहा। ‘‘हाँ, वहां तुम्हारा क्या काम? मैं कारगिल जा रहा हूँ।’’ बात पूरी भी न हुई थी कि घंटी बजी। बाहर गाड़ी थी। हाथ हिलाता हुआ, मुस्कुराता हुआ अभिमन्यु गाड़ी में बैठ चला गया। वीरां बुत सी बनी दरवाज़े पर खड़ी जाती गाड़ी को देखती रही।
बस वो उनका आखिरी मिलन था। ठीक 22 दिन बाद अभिमन्यु तिरंगे में लिपटा घर आ गया। उसने आतंकवादियों के ठिकानों को ढूंढा व उड़ा दिया था। उसके दाहिने हाथ में गोली लगी थी। उसके बावजूद भी उसने 3-4 और लोगों को मौत के घाट उतार दिया। सरकार ने उसकी इस शहीदी पर उसे ‘‘वीर चक्र’’ देने का ऐलान किया था।
उसकी तन्द्रा भंग हुई। छोटा देवर अंकुर पास खड़ा था। बोला, ‘‘भाभी क्या सोच रही हो? माफ करना, कल रात मुझे घर आने में देर हो गई। जब मैं कल दोपहर में खाना खाकर जा रहा था तो मुझे हरिया ने यह पत्र दिया था। रात आप सो चुकी थीं।’’ वीरां ने पत्र खोला, पढ़ा। अभिमन्यु का वीरचक्र लेने के लिये उसे दिल्ली बुलाया गया है। उसकी आँखें बुरी तरह छलछला उठीं, वह कमरे में जाकर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, कि एक आवाज़ ने उसके सारे आँसू सुखा दिये। ‘‘उठो, वीरां तुम एक आम औरत नहीं, भारत माँ के वीर शहीद बेटे की पत्नी हो।’’ वह उठी उसने आँखें पोंछी, मुँह धोया व तैयारी करने लगी दिल्ली जाने की जहाँ उसकी सफ़ेद साड़ी पर रंग-बिरंगे गुलाल बिखरेंगे।
समझदारी
नीमा की शादी की तारीख तय हो गई थी। वह दिल्ली में नौकरी करती थी। माँ-बाप ने उसे बताया व कहा कि वह शादी से हफ्ता भर पहले घर आ जाये और अपने लिये अपनी मनपसंद के शादी के जोड़े खरीद ले। उसने बताया कि आॅफिस में उसे बहुत काम है, 2 दिन पहले आयेगी और फिर बाद में 10-15 दिन ससुराल की रसमें निभाएगी। माँ ने अपना मन मसोस लिया, पर उसे अच्छा लगा कि उनकी बेटी संस्कारी है, अपने कत्र्तव्यों के प्रति सजग है। उन्होंने कुछ पैसे बेटी के खाते में भेज दिये और कहा वक्त निकालकर अपनी किसी सहेली के साथ जाकर खरीददारी कर ले।
शादी का समय नज़दीक आ गया। दो दिन पहले नीमा घर पहुँची। माँ की उत्सुकता का ठिकाना ना था। उसने नीमा को शादी के जोड़े दिखाने को कहा। नीमा ने सूटकेस खोला, उसमें से एक सादा सा लाल रंग का कुरता, एक सुन्दर सी चुनरी निकाली व माँ को दे दी व बोली, ‘‘माँ, शादी का दिन सिर्फ एक ही है और बस फेरे व विदाई ही तो है। यह मैंने उस वक्त के लिये मात्र 2500/- रू. में ले ली और विदाई पर मैं अपना सगाई वाला सूट पहनूंगी।’’ माँ के मुँह से निकला, ‘‘ऐसा क्यूँ? मैंने तो तुझे काफी पैसे भेजे थे।’’ नीमा बोली, ‘‘हाँ माँ, भेजे थे, पर एक दिन के लिये इतने पैसे खर्चना कौन सी अकलमन्दी है। मुझे बाद में काफी चीज़ों की ज़रूरत होगी, मैं उन पैसों से खरीद लूँगी। और आपका इतनी मेहनत से कमाया पैसा अच्छे से व्यवहार में लाऊँगी।’’ उसकी ये बातें सुनकर माँ उसे देखती रह गई और उसे गले से लगा लिया।
शबनम शर्मा
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