महेंद्रभटनागर हमारे समय के एक बड़े रचनाकार हैं. उम्र के जिस पड़ाव पर वे हैं, वहाँ तक आते-आते अनेक लोग चेतनाशून्य हो जाते हैं, या गोलोकवासी ...
महेंद्रभटनागर हमारे समय के एक बड़े रचनाकार हैं. उम्र के जिस पड़ाव पर वे हैं, वहाँ तक आते-आते अनेक लोग चेतनाशून्य हो जाते हैं, या गोलोकवासी हो जाते हैं, पर महेंद्रभटनागर जी स्वस्थ-सानन्द रहते हुए सहित्य की सेवा में संलग्न हैं। ये हम सबके लिए संतोष की बात है। साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते मैं एक अर्से से महेन्द्रभटनागर जी को पढ़ रहा हूँ। उनका विविधवर्णी लेखन हमें आकर्षित करता है और उनके जैसा ही लिखने की प्रेरणा भी देता है. वे जनकवि है। उनकी कविता बनावटी नहीं है. वह पीड़ा से उपजे गान की तरह हैं उनकी कविताएँ कल्पना-लोक की सैर नहीं करातीं, वरन जीवन की कड़वी सच्चाइयों से दो-चार होती हैं. हम कह सकते हैं कि यथार्थवादी कविताओं के कवि हैं महेन्द्रभटनागर जी. मानवीय मूल्यों के उन्नयन की चिंता करते हुए कवि ने अपना समूचा जीवन खपाया है। वे केवल लिखने के लिए नहीं लिखते, वरन समाजिक परिवर्तन की तड़प लेकर शब्दों को आकार देते हैं. हिंदी और अंग्रेज़ी में समान रूप से लिखने में सिद्धहस्त कवि महेन्द्रभटनागर की आत्मा हिन्दी में ही बसती है. उनकी पहचान हिंदी-कवि के रूप में ही है.
कवि की जनवादी तेवरों वाली कविताओं का एक संग्रह 'जनकवि महेंद्र भटनागर' मेरे सामने है। इसके सम्पादक डॉ॰ हरदयाल हैं। हरदयाल अपनी भूमिका में सही कहते हैं कि ''महेन्द्रभटनागर जी में काव्य-सृजनशीलता के जीवाणु बहुत प्रबल हैं.... उनकी यह काव्य-जिजीविषा नि:संदेह प्रशंसनीय है और बहुतों के लिए ईर्ष्या का विषय भी हो सकती है''. सचमुच जब हम कवि की काव्य-यात्रा का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि गत छह दशकों भर वे कविता को जीने में ही रत रहे। उनकी प्रथम प्रकाशित कविता का शीर्षक था- 'हुंकार'. इससे कवि की सोच पता चलती है कि उसने कविता की दुनिया में अपनी उपस्थिति एक हुंकार के साथ दर्ज़ की और आज तक वे हुंकार रहे हैं अन्याय के विरुद्ध, अत्याचार के विरुद्ध, विसंगतियों के विरुद्ध। महेन्द्रभटनागर जी कवि का जो मूल कर्म है, वही कर रहे हैं। इसीलिये उनकी कविताएँ लोग पसंद करते हैं। उनकी कविताओं के कुछ शीर्षकों को मिला कर ही अगर मैं कहूं तो एक सुन्दर वाक्य बन जाता है. देखें —
कवि 'विहान' के लिए एक 'अभियान' चलाता है जिससे अनेक 'शृंखलाएँ टूटती' हैं, . कवि 'बदलते युग' का साक्षी है और हर घड़ी 'नई चेतना' के लिए समूची 'जिजीविषा' के साथ काव्य-'मधुरिमा' बाँटता है। अपने समय से 'जूझते हुए' कवि यही 'संकल्प' लेता है कि 'राग-सवेदन' को मरने नहीं देगा, और 'आहत युग' पर काव्य-मरहम लगाएगा. कवि 'मृत्यु-बोध : जीवन-बोध' को समझते हुए 'तारों के गीत' गाता है।
ऐसे समर्पित कवि का होना हम सभी के लिए सौभाग्य की बात है.
कवि महेन्द्रभटनागर कविता को जीते हैं और संवेदना से लबरेज़ हो कर आत्मलांछन के बहाने समाज को झकझोरते हैं —
काश, आँसुओं से मुँह धोया होता,
बीज प्रेम का मन में बोया होता ,
दुर्भाग्यग्रस्त मानवता के हित में,
अपना सुख, अपना धन खोया होता.
(संवेदना)
समाज का चरित्र निपट स्वार्थी हो चला है। आत्मकेंद्रित समय में कवि इस हालत को देख कर मौन नहीं रह सकता। वह बेचैन हो कर कहेगा ही कि
कैसी चली हवा!
॰
हर कोई
केवल हित अपना सोचे,
औरों का हिस्सा हड़पे,
कोई चाहे कितना तड़पे।
॰
घर भरने अपना
औरों की
बोटी-बोटी काटे, नोचे।
(बचाव)
कवि बेचैनी का ही दूसरा नाम है. महेंद्रभटनागर की कविताओं में बेचैनी दिखती है. वे परिवर्तनकामी कवि हैं. इसलिए जनकवि के रूप में चर्चित हैं. उनकी कविताएँ जन-जाग्रत करने का काम करती हैं. समाज की विसंगतियां, अराजकताएँ कवि को सपने में भी बेचैन करती हैं और सपने में वे देखते हैं कि
पागल सिरफिरे किसी ‘भटनागर’ ने
माननीय प्रधानमंत्री ...की हत्या कर दी,
भून दिया गोली से।
खबर फैलते ही
लोगों ने घेर लिया मुझको —
'भटनागर है,
मारो ...मारो. ..साले को
हत्यारा है ...हत्यारा है।
(स्वप्न)
इस पूरी विद्रोही तेवर वाली लम्बी कविता में कवि समाज की तमाम बुराइयों से विचलित है, पथभ्रष्ट मानव समाज से परेशान है. उनकी अन्य कविताओं में भी ऐसी ही पीड़ाएँ नज़र आती हैं। मनुष्य के संघर्ष को देखना-समझना हो तो महेन्द्रभटनागर जी की कविताओं को देखा जा सकता है. कविता वही है जो हमारे अंतस के दर्द को समझ सके और शब्द देकर हमे सहलाए। कविता बौद्धिक अय्याशी नहीं है , वह जीने का प्रकल्प भी है। जब हम कवि महेन्द्रभटनागर के रचनाकर्म को देखते हैं तो संतोष होता है कि वे कविता-आंदोलन के अनेक पड़ावों से गुज़रने के बावजूद सार्थक कविता के साथ खड़े हैं. उनकी कविताओं में कलावादी तड़का नहीं है, वरन यथार्थ का उन्मेष है. उनकी काव्य-प्रविधि कठिन नहीं है. उसमे पेचोखम नहीं हैं। वे मनुष्य की संवेदना को समझती हैं और तद्नुरूप रचना करती हैं. वे 'अनुभव-सिद्ध' कवि हैं। वे आस्थावादी भी है. अपनी एक और कविता में वे कहते हैं —
तय है कि
काली रात गुज़रेगी ,
भयावह रात गुज़रेगी,
असफल रहेगा
हर घात का आघात,
पराजित रात गुजरेगी।
॰
तय है —
अँधेरे पर उजाले की विजय
तय है!
पक्षी चहचहाएंगे,
मानव प्रभाती गान गाएंगे।
उतरेंगी
गगन से सूर्य-किरणें
नृत्य की लय पर,
धवल मुस्कान भर।
(‘अनुभव-सिद्ध’)
कवि महेन्द्रभटनागर की हर कविता पर लम्बा लेख लिखा जा सकता है. अनेक लोगों ने उनके काव्य-लेखन पर शोध कार्य किया है और सिलसिला अब तक जारी है. उनकी कविताएँ विमर्श की माँग करती हैं. समकालीन कविता में एक तरह का ठहराव है, दुरूहता भी है। कविता का रूपवादी संस्पर्श कविता की प्रभविष्णुता यानी सम्प्रेषणीयता को बाधित करता है। कलावादी कविताओं के लेखन के इस आभिजात्य युग में सार्थक कविता की तलाश करनी हो तो हमें महेंद्रभटनागर जैसे जनकवि के पास ही आना पड़ेगा।
महेन्द्रभटनागर जी ने अतुकांत कविताएँ भी लिखी हैं तो छान्दसिक भी। दोनों में वे सहज-सरल हैं. दोनों कविताएँ मानस-पटल पर अंकित होने लायक हैं. छंदबद्ध कविताएँ तो वैसे भी यादगार बन जाती हैं। एक कविता देखें, जो लम्बे समय तक याद रहेगी —
सखि , दीप धरो!
काली-काली अब रात न हो
घनघोर तिमिर बरसात न हो
बुझते दीपों में हौले-हौले ,
सखि, स्नेह भरो!
(‘दीप धरो’)
जीवन के नाना संघर्षों और परेशानियों के विरुद्ध जागरण का मंत्र फूँकते हुए कवि कभी निराश नहीं होते। सच्चा कवि अपनी आस्था के साथ कविता को और तेजस्वी भी बनाता है, इसीलिये वह कहता है —
अब नहीं छाया रहेगा
काला कफ़न.
कुछ पलों में रंग बदलेगा गगन.
दे रहा संकेत मलयानिल थिरक
हर डाल पर, हर पात पर
नव-जागरण आभास ,
मोड़ लेता विश्व का इतिहास।
(‘रंग बदलेगा गगन’)
जनकवि महेंद्रभटनागर का होना हिन्दी-कविता का मज़बूत होना है। आजकल जैसी सारहीन, दुर्बोध या कहें कि कविता की अर्थी उठा कर चलने वाली अर्थहीन कविताएँ लिखी जा रही हैं. ऐसे दौर में महेन्द्रभटनागर लिख नहीं रहे, रच रहे हैं; क्योंकि कविता लिखी नहीं, रची जाती है — वह हृदय की पीड़ा है, वह दुखी मानवता का दस्तावेज़ है। हलफ़नामा है। महेन्द्रभटनागर जी की कविताएँ वंचित समाज का प्रतिनिधि स्वर बन कर हमारे सामने मौजूद होती है, इसलिए वे सामयिक हैं, कालजयी हैं। हमारा यह कवि निरंतर सृजनशील रहे. शतायु तो होगा ही, उसके बाद की शताब्दी में भी सक्रिय रह कर समाज को दिशा देता रहे, यही शुभकामना है।
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गिरीशपंकज
संपादक, सद्भावना दर्पण
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