भगवान गौतम बुद्ध के जीवन के प्रारंभ सिद्धार्थ के मन में जो घटना घटित हुयी वह तो सर्वविदित ही है | अत्यंत प्रिय पत्नी यशोधरा, वात्सल्य पुत्र ...
भगवान गौतम बुद्ध के जीवन के प्रारंभ सिद्धार्थ के मन में जो घटना घटित हुयी वह तो सर्वविदित ही है | अत्यंत प्रिय पत्नी यशोधरा, वात्सल्य पुत्र राहुल के साथ ममता व प्रेम की मूर्ति माता-पिता के संरक्षण में रहते हुए राजभोगों के धन, कनक, विलासितापूर्ण वातावरण के साथ वाहन सुख इत्यादि को एकाएक-अनायास ही छोड़ते हुए पता नहीं क्यों उनके मन में आया कि आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए जंगल की ओर चला जाय | महल में कुछ विद्वानों के साथ संभवतः कुछ इसके बारे में वार्तालाप अवश्य ही किये होगें- वाक रूपी वेदान्त उनकों तृप्त नहीं कर सका | इसके बाद वृद्धावस्था एवं म्रत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए उन्होंने दृढ संकल्प ले कर कई ज्ञानियों और पंडितों से इस भव-सागर से पार तारने का उपाय बताने की भी प्रार्थना किये | ... तृप्ति नहीं हुयी होगी तो हार कर स्वयं उपरोक्त प्रश्नों का ज़वाब खोज़ने के लिए प्रयत्न करने लगे | एकाग्रचित्त हो कर क्रमश: तपस्या प्रारम्भ कर दिए | यम, नियमों का पालन करते हुए उन्होंने आसन सिद्धि के साथ हस्त-मुद्राओं का अभ्यास अर्जुन की तरह निद्रा पर विजय प्राप्त करते हुए क्रमश: आगे बढ़ते गए | स्व-ज्ञान होता गया | प्राणायाम द्वारा धारणा से ध्यान में परिपुष्टता होता गया ...फिर मन में आया कि आहार लेना भी बंद कर दें | परिणामस्वरूप अधिक दिनों तक आहार न लेने पर शरीर का रक्तमांस क्षीण होने लगा | फिर भी सिद्धार्थ साहस नहीं छोड़ें | ऐसी कठोर तपस्या से कुछ आत्म-साक्षात्कार प्राप्त नहीं हुआ | हाँ कुछ महिमायें प्राप्त होने लगी | यही महिमायें हम साधकों के लिए घातक सिद्ध होता है, जिससे ढलान पर गिरे मिट्टी वारिस में गायब हो जाते हैं | हम फिसल जाते हैं और आत्म=साक्षात्कार से वंचित हो जाते हैं | सिद्धियाँ प्राप्त कर सांसारिक सुख की ओर मन ललचाने लगता है | सिद्धार्थ इन अंतिम सोपान को चढ़ कर साधना में लीन रहें |
इसी बीच स्वर्ग से स्वर्गाधिपति, महाराजा इंद्र की दृष्टि संयोग-वश सिद्धार्थ पर पड़ गयी, इन्द्रासन जाने के भय से उन्होंने एक माया रची .. | उसी वन मार्ग के द्वारा कुछ गायिकाएं नगर के उस्तवों में भाग ले कर अपने गाँव गीत गाते हुए आनंद से जा रही थी | माया रच तो दी, हाँ माया उलटा हो गया, तथा वे चलते-चलते ये गीत गाने लगी- “वीणा की तंत्रियों को ढीली मत रखो | ढीली रहती है तो उनसे मधुर संगीत उत्पन्न नहीं होगी | उन तारों को खूब खींच कर भी नहीं रखना चाहिए | क्योंकि टूट जाने की भी संभावनायें आ सकती हैं |” गीत का यह चरण सिद्धार्थ के कानों में पडा | उन्होंने उस गीत का अर्थ बखूबी समझ लियें | उनके मन में एक विचार उठा कि मिताहार, निद्रादि आदि नियमों का पालन करते हुए प्राणायाम, धारणा और ध्यानादि करना ही उचित होगा | इसी मार्ग से उन्होंने तपस्या करना आरम्भ कर दिया | बाहर से अन्दर जाने वाली और अन्दर से बाहर आने वाली वायु की एकाग्रता की सूक्ष्मता से जांच करने पर कुछ बोधित्व की प्राप्ति होती है | उसके बाद सिद्धार्थ के साधना से डरे इंद्र काफी प्रयत्न किये जो सर्व-विदित है, जैसे संत तुलसी दासजी तथा कबीर दास इत्यादि साधू-संत या सूफियों को | इनका प्रयोजन इन्द्रासन लेना या विश्व-विजयी होना तो था नहीं | क्रमश: बोधि-वृक्ष के निचे सिद्धार्थ बोधित्व की प्राप्ति करते हुए भगवान बुद्ध हो गये |
हमने देखा कि बुद्ध ने अपनी स्वयं की बुद्धि से संत से भी अंतिम स्थिति ‘भगवान’ की पदवी प्राप्त कर लिए | जो आजतक संसार में किसी ने भी नहीं किया, न कर पायेंगे | टामस-आ-केम्पिस की पुस्तक ‘ईसा-अनुसरण’ के हर पृष्ठ पर बुद्ध की मिसाल पेश की है | जो प्रायः हर संत ने इसी पर जोर दिया है | बुद्धि आवश्यक है, क्योंकि उसके बिना हम अनेक भ्रमों में पड़ कर गलतियाँ करते हैं, जो साधक के लिए ज़हर का काम करने लगता है | सहायता हमें भावना से और प्रेम से प्राप्त होती है | इससे हम किसी दूसरे के लिए ह्रदय से अनुभव करेंगे | इस प्रकार हम एकत्व के भाव से विकास करते रहेंगे | ईसा की तरह भावना करेंगे तो ईसा, बुद्ध की तरह तो बुद्ध | भावना ही जीवन है, भावना ही बल है और भावना ही तेज है | संसार में ईसा और बुद्धगणों का प्रमाण यही है कि हम-आप भी वैसा ही अनुभव करते हो | क्या ? कि यदि हम ईश्वर नहीं हैं, तो संसार में कोई ईश्वर ‘भी’ नहीं है और कभी होगा भी नहीं | जीसस ने स्पष्ट कहा कि ‘I’ God, उन्होंने स्वयं को ईश्वर तो कहा नहीं | मेरे अन्दर जो है, वह परमेश्वर है | वह ‘बोधित्व’ है | इस प्रकार सारा संसार बुद्ध का दासानुदास हो गया | उनके जैसा क्या दूसरा कभी हुआ? उन्होंने कभी भी एक भी कार्य अपने लिए नहीं किया | ऐसा ह्रदय जो सारी दुनिया को गले लगाता था ! इतने करुणामय कि राजकुमार और सन्यासी होते हुए भी एक छोटी-सी बकरी को बचाने के लिए अपने प्राण भी दे देते | इतने प्रेमी कि एक बाघिन की भूख मिटाने के लिए अपने-आपको समर्पित कर दिए ! एक चांडाल का भी आतिथ्य स्वीकार किया और उनसे प्रेम से आशीर्वाद की प्रेणना दी | इस प्रकार सारा संसार उनको प्रभु जाना |
बुद्ध ने कभी भी किसी की पूजा नहीं की | बाद में नेपाली, सिक्किम्मी, भूटानी, लद्दाखी, चीनी और जापानियों ने संभवत: पूजा में विश्वास की प्रथा चालू कर दिया | महायान वाले बुद्ध की पूजा नाममात्र करते हैं | तिब्बत वाले असल शिवभूत हैं, वे सब हिन्दू के देवताओं को मानते हैं, डमरू बजाना, मुर्दे की खोपड़ी रखना, हड्डियों का भोंपू बजाना तथा मन्त्र पढ़-पढ़ कर रोग, भूत और प्रेत को भगाना प्रारम्भ कर दिए | इस प्रकार नज़र डाले तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सनातन धर्म को छोड़ कर संसार में कोई भी धर्म ऐसा नहीं है, जो कि अपने क्रिया-कलाप को बरकरार रखा हो | बुद्ध ने स्पष्ट उपदेश दिए हैं कि “इस आदिभौतिक दुःख का कारण भेद ही है | अर्थात जन्मगत, गुणगत या धनागत | सब तरह का भेद इन दुःख का कारण है | आत्मा में लिंग, वर्ण या आश्रम या इस प्रकार का कोई भेद नहीं होता, जैसे कीचड के द्वारा कीचड को साफ नहीं किया जा सकता, इसी तरह में भेदभाव से अभेद की प्राप्ति होनी असम्भव है |” यही बात हम कृष्णा अवतार में भी देखते हैं कि सब दु:खों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है | हाँ ‘कीं कर्में किम्रकर्मेति’ आदि | कर्म क्या है और अकर्म क्या है, इसका निर्णय करने में महात्मा भी भ्रम में पड़ जाते हैं (गीता) | “वाल्मीकीय रामायण को अनेक बार पढ़ने के पश्चात् भी कुछ दिनों पूर्व प्रसंग-वशात् पुनः उसके पृष्ठ पलटने की आवश्यकता हुई। युद्ध काण्ड में रावण और विभीषण की चर्चा के प्रसंग में निम्नलिखित श्लोकों ने मन और मस्तिष्क को कुछ क्षणों के लिए अपने में बाँध लिया !
यथा पुष्करपत्रेषु पतितास्तोयबिन्दव:।
न श्लेषमभिगच्छन्ति तथा नार्येषु सौहृदम्ब।।
यथा शरदि मेघानां सिंचतामपि गर्जताम्।
न भवत्यम्बु-संक्लेदस्तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा मधुकरस्तर्षाद् रसं विन्दन्न तिष्ठति।
तथा त्वमपि तत्रैव तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा मधुकरस्तर्षाद् काशपुष्पं पिवन्नपि।।
रस-मात्र न विन्देत तथा नार्येषु सौहृदम्।।
यथा पूर्वं गज: स्नात्वागृह्य हस्तेन वै रज:।
दूषयत्यात्मनो देहं तथा नार्येषु सौहृदम्।।वा.रा.6.16.11-15
रावण को आनार्यों के हृदय में सहृदया के अभाव की बात इतनी अधिक खटकती थी कि वह अपने भाई को भी इस स्थिति में देखना सहन नहीं कर सका। अनार्यों की गुणहीनता का रावण ने कभी आदर नहीं किया। उसके पश्चात् युद्ध काण्ड में ही कतिपय अन्य प्रसंगों पर भी दृष्टि पड़ी। रावण- वध के अवसर पर राक्षस स्त्रियाँ ‘हा ! आर्यपुत्र’ कहकर विलखती रही थीं। तथा विभीषण ने कहा था।
गत : सेतु: सुनीतानां गतो धर्मस्य विग्रह :।
गत: सत्त्वस्य संक्षेप: सुहस्तानां गतिर्गता।।
आदित्य: पतितो भूमौ मग्नस्तमसि चन्द्रमा।
चित्रभानु : प्रशान्तार्चि र्व्यवसायो निरुद्यम:।।
अस्मिन् निपतिते नीरे भूमौ शस्त्रभृतां वरे।।- वा.रा.6.109.6-7
शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ रावण के धराशायी होने पर नीति पर चलने वालों की मर्यादा टूट गयी, धर्म का मूर्तिमान विग्रह चला गया, सत्त्व-संग्रह का स्थान नष्ट हो गया, शस्त्र संचालन में कुशल वीरों का सहारा चला गया, सूर्य पृथ्वी पर गिर पड़ा, चन्द्रमा अँधेरे में डूब गया, प्रज्वलित आग बुझ गयी और सारा उत्साह निरर्थक हो गया। (स्रोत:- “रामायण का आचार-दर्शन”- अम्बा प्रसाद श्रीवास्तव)”
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