मुझे पता नहीं कि राजकुमार कुम्भज ‘हाइकु’ लिखते हैं या नहीं, लेकिन ‘दृश्य एक घर है’ (रमणिका फ़ौंडेशन,दिल्ली, २०१४}) के समर्पण पृष्ठ पर उन्हों...
मुझे पता नहीं कि राजकुमार कुम्भज ‘हाइकु’ लिखते हैं या नहीं, लेकिन ‘दृश्य एक घर है’ (रमणिका फ़ौंडेशन,दिल्ली, २०१४}) के समर्पण पृष्ठ पर उन्होंने एक हाइकु-नुमा कविता-सी कह डाली है -
दृश्य में हैं
जो नहीं बाज़ार में
उनके लिए
समर्पण से स्पष्ट है की कवि की चिंता में वे लोग हैं जो खुले बाज़ार में खरीदे नहीं जा सकते, लेकिन बावजूद इसके जो बाज़ार के दृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज किए हुए हैं. वे बाज़ार से मोर्चा लेना चाहते हैं और ऐसे लोगों का दृश्य में बने रहना ज़रूरी है.
दृश्य में बाज़ार है, बाज़ार में दृश्य है
बाज़ार के दृश्य में स्त्री है, बच्चे हैं, बूढ़े हैं
बूढ़े की लाठी है, बच्चों की गेंद है
स्त्री का घर है ..
लेकिन मुश्किल यह है कि ‘घर में डर (भी) है’. अगर तानाशाही होती तो इस डर को समझा जा सकता था. कहने को तो हम लोकतंत्र में जी रहे हैं, फिर यह ‘डर’ क्यों? कारण स्पष्ट है. लोकतंत्र में निहित स्वतंत्रता और समानता के ‘विचार’ को हम आज भी आत्मसात करने में असफल रहे हैं. राजकुमार कुम्भज की कविता में राजनैतिक लड़ाई बस यहीं से आरम्भ होती है.
मैं राजकुमार कुम्भज को १९७० के दशक से जानता हूँ. मैं तब इंदौर के शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय में नया-नया पदोन्नत होकर १९६८ में दर्शन-शास्त्र का प्रोफ़ेसर होकर आया था. कुम्भज जी उन दिनों इसी महाविद्यालय में हिन्दी के छात्र थे. कवि और एक ‘एक्टिविस्ट’ के रूप में वे अपनी पहचान बना रहे थे. भारत में बदनाम आपातकाल लगा तो कुम्भज को कविता में राजनीति करने का एक अच्छा अवसर मिल गया. मेरे पास वे अक्सर आया करते थे. कविता पर चर्चाएँ हुआ करती थीं. उनमें कुछ नया कर गुज़रने का एक जज्बा था. वे कविता में भी कुछ नयापन लाने के हमेशा हिमायती रहे. उनका ‘वायवी’ की बजाय ‘ठोस’ कविता की ओर रुझान था. कुछ तो भी नया होना चाहिए. मैं लगभग ११ वर्ष इंदौर रहा. तबतक कुम्भज जी ने कवि के रूप में काफी प्रसिद्धि पा ली थी. वे जगदीश गुप्त द्वारा संपादित ‘नई-कविता’ और अज्ञेय द्वारा संपादित ‘नया प्रतीक’ में स्थान पाने लगे थे. इंदौर छोड़ने के बाद मेरा उनसे संपर्क छूट सा गया. लेकिन मैं उनकी यत्र-तत्र प्रकाशित कवितायेँ पढ़ता रहा. पिछले वर्ष उन्होंने मुझे याद किया और अपनी नवीनतम कृति, ‘दृश्य एक घर है’ मुझे उपलब्ध कराई.
राज कुमार कुम्भज का कविता करने का अंदाज़ बिलकुल निराला है. वे शब्दों से खूब खिलवाड़ करते हैं. शब्दों और पदबंधों को बार बार दोहराते रहते हैं. ऐसा केवल वे आग्रह के लिए नहीं करते. थोड़ा विनोद थोड़ी गंभीरता रहती है. ध्यान आकर्षित करने का लालच भी है. कथ्य को कुछ अलग हटकर प्रस्तुत करने का चाव है. वे किसी भी गंभीर मुद्दे के आसपास एक ऐसा अनर्गल वातावरण बना देते हैं कि मुद्दा उसमे ढँक जाता है. जब वे बहुत गंभीर मुद्रा बनाते हैं तो ज़रूरी नहीं की वे गंभीर हों, हो सकता है वे मज़ाक उड़ा रहे हों और जब वे हलके फुल्के ढंग से बात करते हैं तो हो सकता है वे बहुत गंभीर बात कह रहे हों और आप उसकी गंभीरता ग्रहण करने से चूक जाएं. राजकुमार की कवितायेँ पढ़ने के लिए इसलिए बड़ा धैर्य चाहिए. यदि आपमें यह धैर्य नहीं है तो आपको ये कविताएं नि:सार लग सकती हैं. कविता का क्या सार है एकदम समझ में नईं आता. लेकिन दो-एक बार ध्यान से पढ़ने पर वह साफ़ होने लगती है. यह उस पहेली-चित्र की तरह होता है जिसमें कुछ सार्थक बात लिखी गई है लेकिन दिखाई नहीं देती. परन्तु यदि आप उसे कुछ देर देखते रहें तो वह स्पष्ट दिखाई देने लगती है और सारा भ्रम मिट जाता है. चित्र अचानक प्रासंगिक हो उठता है.
राजकुमार कुम्भज की कवितायेँ करुणा से ओतप्रोत, तरल कवितायेँ हैं. लेकिन वे जहां नाइंसाफी देखती हैं गुस्से से तमतमा उठती हैं.
तरल होने के नाते कुम्भज की कविताओं में दुःख है, प्रेम है. –
आँखें झरती हैं
तो झरते हैं शब्द और आँखों से
पूछते हुए पता कविता का...
आँखें झरती हैं, झरती हैं, झरती हैं आँखें
जैसे कविता में दुःख और प्रेम
आवाज़ में उनकी अकेला व्यक्ति नहीं है, समष्टि है. और वे भी हैं, विशेषकर वे भी हैं जो दरिद्र, असहाय और निर्बल हैं -
मेरी आवाज़ में
सिर्फ मैं ही, मैं ही नहीं हूँ
तुम्हारी आवाज़ में
सिर्फ तुम ही, तुम ही नहीं हो
मेरी आवाज़ में
वे भी हैं, वे भी हैं और वे भी हैं...
मेरी आवाज़ में
सिर्फ मैं ही, मैं ही नहीं हूँ
वे भी हैं जो निर्बल
जिन्हें हम छोटी-छोटी बातें कहकर टाल जाते हैं, राजकुमार के दृष्टिकोण में वे छोटी बातें नहीं हैं बड़ी बातें हैं जिनमें जीवन का मर्म और सौन्दर्य छिपा है, और जिन्हें बड़ी चीजें समझा जाता है, उनके लिए भी ये छोटी-छोटी चीजें आधारभूत हैं. –
छोटी-छोटी चीज़ें देखता हूँ
तो मुझे छोटी-छोटी चीजों में हरदम
बड़ी बड़ी बातें नज़र आती हैं
मैं एक बच्चा देखता हूँ हंसता हुआ
और मुझे जीवन नज़र आता है
मैं एक फूल देखता हूँ खिलता हुआ
और मुझे अंतरिक्ष नज़र आता है
मैं एक झरना देखता हूँ झरता हुआ
और मुझे बच्चा नज़र आता है
राजकुमार कुम्भज की यही दृष्टि है. उनके दृश्य में ‘स्त्री है, बच्चे हैं, बूढ़े हैं/ बूढ़े की लाठी है, बच्चों की गेंद है,/ स्त्री का घर है’. इन्हीं को बचाने में वास्तविक रचनात्मकता है. जो रचता नहीं वह बूढा हो जाता है.
बूढा होने हे बचना है तो
हंसना ज़रूरी है
हंसो और बचो, बूढा होने से बचो
बचना ज़रूरी है..
रचो और बचो
रचना ज़रूरी है.
कवि कहता है -
पानी बचाए रखना
पानी की लकीर बचाए रखना
प्यास बचाए रखना ...
प्यास का जज्बा बचाए रखना
कविता बचाए रखना
कविता की ताकत बचारे रखना ...
मैं बचूँ न बचूँ फर्क नहीं
दूब और पत्थरों में नमी बचाए रखना.
जी हाँ, वे पत्थरों में भी ‘नमी’ की बात करते हैं वे चाहते हैं कि पत्थर (-दिल) भी कच्ची मिट्टी बन जाएं और रचनात्मक दृष्टि अपना लें, इसके लिए भले ही कितना भी जोखिम क्यों न उठाना पड़े. –
करो, रद्दोबदल करो, बस सिरे से
नए सिरे से लिखेंगे नई इबारत
जान रहा हूँ, बीसवीं सदी पार करके आया हूँ
और इक्कीसवीं सदी है ये
पत्थर को कच्ची मिट्टी बना देने की खातिर
कुछ तो खतरे उठाने ही होंगे.
वे यह भी जानते हैं कि ‘किसी मुश्किल की तरफ / किसी मुश्किल से ही बढ़ते हैं कदम’. लेकिन ‘मानवता का उत्कर्ष’ इसी में निहित है. काम बेशक यह सरल नहीं है. परन्तु
सूरज से बड़ा है आदमी...
सूरज घटता है
बढ़ती है आदमी की परछाईं
अन्धेरा बढ़ते ही छोड़ देती है साथ
आदमी की परछाईं
आदमी की परछाईं से बड़ा है सूरज
नहीं, सूरज से बड़ा है आदमी .
अत: कवि कहता है, ‘परम्पराओं के फूस को लगाते हुए पलीता’ , ‘उदासी को एक बारगी रद्द करना होगा’. अब मौसम सीधी लड़ाई का आ चुका है. अब तो किसी भी कीमत पर अन्याय से लड़ना ही है. वे कहते हैं,
तुम दगा करोगे
तो मैं बदल जाऊँगा मौसम की तरह...
प्यासे कंठों की
प्यास बुझाने के लिए
कुछ सादा पानी चाहिए
वह सादा पानी इन दिनों उपलब्ध नहीं है तो क्यों?
जवाब चाहिए, हिसाब चाहिए
तुम दगा करोगे
तो मैं बदल जाऊँगा मौसम की तरह.
हालात आज ये हैं कि आम आदमी को रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुएं तक सरलता से उपलब्ध नहीं हो पातीं. उसे साफ़ पानी तक उपलब्ध नहीं है और शासन और राज्य इन सारी कठिनाइयों से पूरी तरह उदासीन है. आम आदमी की तकलीफों से उन्हें कोई मतलब नहीं है –
मिनरल वाटर की बोतल
एक बोतल ,पन्द्रह रूपए में आती है
तो आए, हमें क्या?
आइस्कीम की कोन
एक कोन, बीस रूपए में आती है
तो आए, हमें क्या?
हम मंत्री हैं, हम सरकार हैं
हम टेक्स लगा देंगे ...
ऐसे में आम-आदमी आखिर क्या करे? उसके खिलाफ बदहवास आंधियां चल रहीं हैं
बदहवास आदमी
बदहवास आंधियां हैं इन दिनों
इन दिनों के जीवन पर बहुत बहुत भारी हैं
... गरीब कहो या कहो आम-आदमी !
राजनीति की जादूगरी में बन्दर बना बैठा है...
राजकुमार कुम्भज के यहाँ बरसात का बिम्ब बार-बार आता है. वे क्रोध से बरस पड़ते हैं और अकसर आग बबूला भी हो जाते हैं. ‘बाहर हो रही है आग / और भीतर आग’ वे जब आग-बबूला होते हैं तो बरसात का पानी ही उन्हें शांत करता है, आम-आदमी जबतक बरसता नहीं, न तो उसका गुस्सा शांत होता है और न ही शासन और राज्य के कान में जूँ रेंगती है. अत: उनका कहना है, ‘चलें, बारिश का थामें हाथ चले / तमतमाते / तमतमाता सोच चले / आज चलें, अभी चलें . ‘बारिश से बेखबर हैं लोग’ (५१). ‘बारिश में दुःख हरे हैं’ (५१) ‘निरंतर निरंतर बारिश’ (५७) ‘बरसो, बरसो’ (७८) आदि कविताओं में यही भाव उभर कर आता है. आम आदमी के गुस्से को हलके में लेना शासन को काफी भारी पड़ सकता है. कुम्भज उसे बाखबर करते हैं और साथ ही आम-आदमी को प्रेरित भी करते हैं बरसने के लिए-
बरसो बरसो
जल्दी और ज़रा जल्दी बरसो
रायसीना हिल्स पर बरसो
दस जनपथ पर बरसो....
बरसो कि बरसने का यही है सही वक्त
बरसों कि बरसने का हासिल होगा कुछ न कुछ
बरसो कि बरसने का माहौल है अभी
अभी संसद का मानसून सत्र है
गुस्सा कितना ही उबाल क्यों न खा रहा हो, बरसना कितना ही ज़रूरी क्यों न हो, दरिद्र के प्रति कुम्भज की करुणा में कोई कमी नहीं आती. वे ‘अफसर की हेकड़ी और हैट में’ तथा ‘साहूकार के बहीखातों में’ बरसने के लिए तो कहते हैं किन्तु अपनी मर्यादा का पालन करने का भी परामर्श देते हैं –
जल्दी और ज़रा जल्दी बरसो
मगर इतना ज्यादह भी मत बरसो
कि गरीब का आटा गीला को जाए....
कि गरीब का चूल्हा सुलग ही न पाए
बरसो बरसो
जल्दी जल्दी और ज़रा जल्दी बरसो
मगर इतना ज्यादह भी मत बरसो
की गरीब की लड़की ब्याह न पाए...
राजकुमार कुम्भज के पैर कवि-कल्पना के बावजूद हमेशा ज़मीन पर टिके रहते हैं. वे स्वर्ग की तलाश में कहीं और नहीं जाते. उनका स्वर्ग और नरक यहीं, इसी व्यावहारिक जगत में है. –
तुमको जाना है जाओ स्वर्ग
अथवा स्वर्ग की तलाश में कहीं भी
किन्तु नहीं मैं और कहीं.
वे पूछते हैं ,
क्या समूचा जीवन ले गया
वह जो सचमुच चला गया इस जीवन से?...
क्या सचमुच जीवन ले गया?
.....................................
किस्सा ख़त्म हुआ जानो
जिसे जाना था वह बिना पूछे, बिना बूझे
चला गया उस पार
मैं ढूँढ़ता रह गया उसे इस पार
उस पार क्या था मुझे नहीं मालूम
इस पार मैं हूँ और मेरे दुःख
..................................
मैं राख, मिट्टी, ख़ाक ....(फिर भी)
दुःख मेरा, सुख मेरा, एकांत मेरा ...
जीवन का जीवन, जीवन का बसंत मैं
राजकुमार कुम्भज जीवन से अपना मुंह कभी नहीं मोड़ते. उनकी कोशिश जीवन को भरपूर जीने की रहती है. वस्तुत: वे उसे अधिक से अधिक जीने लायक बनाने के पक्षधर हैं. पर अफसोस की आज ‘मनुष्यता खो चुका है मनुष्य’. मनुष्यता को उसने ‘दो कौड़ी की’ चीज़ बना के रख दिया गया है.
फिर भी आकुल-व्याकुल है भोला-भाला कवि
अपनी भोली-भाली कविता में.....
सच, भोला है राजकुमार.
(समावर्तन, मई,२०१५)
-डा. सुरेन्द्र वर्मा,
१,सर्कुलर रोड,/ १०,एच आई जी,
इलाहाबाद-२११००१
मो. ९५२१२२२७७८
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