परिवर्तन ‘अरे पंडित जी ! सुबह-सुबह कहाँ चल दिए ?’ रामधेनु ने अचानक पूछ लिया। पंडित जी बिगड़ पड़े, ‘सुबह-सुबह क्यों सूरत दिखायी अपनी। अब तो...
परिवर्तन
‘अरे पंडित जी ! सुबह-सुबह कहाँ चल दिए ?’ रामधेनु ने अचानक पूछ लिया। पंडित जी बिगड़ पड़े, ‘सुबह-सुबह क्यों सूरत दिखायी अपनी। अब तो निश्चय ही सब काम बिगड़ जायेगा।’ यों बड़बड़ाते वे आगे बढ़ गये।
यह कोई नयी बात न थी। प्रायः ऐसा होता। रामधेनु बेचारा सीधा-साधा गरीब घर का लड़का तिस पर नीची जाति का लेबल। पूरे गाँव में अशुभता का प्रतीक माना जाता था वह लेकिन निष्कलंक रामू कभी अपने कारण किसी को दुःख नहीं होने देता।
‘अरे रामू !’ बापू इसी नाम से पुकारते थे उसे, ‘कहाँ चले गे रहव। चलव घर मा बईठव, दुसरे लरिकन संग न खेलव। अवारा नहिकै, जब द्याखव घूमत रहत है। कोनो काम-धाम नाय है तोहरे पास।’
रामधेनु जानता था- बापू उसे डांटता है मगर अनिच्छा से। वह उन्हें सबसे प्रिय था। गाँव वालों के कारण उन्हें तीखा बोलना पड़ता था। बात-बात पर लोगों के उलाहने/गालियाँ उन्हें सुननी पड़ती थी। 5 बीघे खेती ही उनकी जमापूंजी थी। रामधेनु हमेशा सोच में पड़ा रहता कि कैसे मैं गाँव वालों का दिल जीतूं। कैसे सबका प्रिय/सबसे श्रेष्ठ बनूँ। आखिरकार क्या खोट है मुझमें ?
कभी-कभी वह स्वयं से या पिता रामबाबू से पूछता ऐसे प्रश्न। उत्तर मिलता- ‘बेटा ! तेरा दोष नहीं हमारी जाती ही ऐसी है। ये कोई नयी बात नहीं। सदियों से होता चला आ रहा है ये सब।’
‘मगर है तो हम आम इंसानों जैसे ही फिर ये भेदभाव-ऊँचनीच क्यूँ ? आखिर हमारे साथ ही ऐसा क्यूँ होता है ??’
जब वह ऐसी जिरह करता तो रामबाबू उसे समझाते, दुनियादारी बताते। गाँव के/समाज के रीति-रिवाज़, नियम-कानून, शुभ-अशुभ बतलाते। लेकिन उसके दृढ़ तर्कों के आगे कभी-कभी रामबाबू भी निरुत्तर हो जाते और तब वे बस उसे डांटने लगते।
उसे नदी/कुंओं पर पानी पीने, मंदिर के अन्दर तक जाने, ऊपर बैठने का अधिकार न था। जब कोई कभी टोकता तो बड़ी झुंझलाहट सी होती उसे। रामधेनु जवानी के जोश में था। युवा तरंग थी, यह सब सहने की आदत नहीं थी उसे सो स्वच्छंद घूमता। हरसंभव वह लोगों की मदद करने को भी तत्पर रहता। बस वह हर वक़्त अपनी ही धुन में मस्त रहता। सांवला रंग, मजबूत कद-काठी किशोरवय को पार करता वह ज्यादा सुन्दर न था।
यह लुट्टन है- जमींदार का लठैत। छूट है इसे रामू को मारने की किसी भी ऐसी हरकत पर जो उसे अच्छी न लगे, उसकी शान के विरुद्ध हो। बिना कारण भी सताये तो आश्चर्य नहीं और यह श्यामू- मुखिया का बिगड़ा बेटा, गोपाल पंडित के साथ सारा दिन ऐश करता फिरता है। मौका मिलने पर यह भी नहीं चूकता उसे बेवजह मारने में। गोपाल भी हाथ साफ़ करता, जैसे एक आदत सी बन गयी हो। बेचारा रामू शक्ति होने पर भी उन्हें मार नहीं सकता, बापू के कारण !
पुत्र का मानसिक स्तर शारीरिक विकास की अपेक्षा प्रभावित न हो यह सोच बड़ी हिम्मतकर रामबाबू ने उसका एडमिशन गाँव के ही एक स्कूल में कराया मगर शीघ्र ही उसकी पढाई छूट गयी। रामधेनु के मन में पढ़ने की लालसा दिखाई पड़ती थी। जिजीविषा मरी न थी, वह बढ़ना चाहता था, सबसे आगे।
रामधेनु कुछ कामधाम ही करे, कुछ सीखे, कमाए-धमाये, निठल्ला कब तक बैठा रहता। गाँव में तो उसकी प्रगति होने से रही इसलिए रामबाबू ने उसे शहर भेजने का निर्णय लिया।
3 बीघे खेत बेचना पड़ा था उन्हें। शायद पढ़-लिख ही जाए या कुछ काम करे- ‘बेटा, तेरी जिंदगी तेरे हाथ में है।’ रामबाबू ने अंतिम बार कहा। पिताजी की हर एक बात वेदवाक्य थी उसके लिए। मौन रूप से उसने सिर हिलाया। गाँव के लोग कहते, ‘अफसर बनिके लौटी तोर लरिका, मनहूस नइकै। हियाँ सेने टरै तबहै अच्छा, पिंडु छूटै ईसे।’
रामधेनु की आँखों में चमक थी। जज्बा था कुछ करने का। ठान लिया था उसने करना है उसे परिवर्तन। वह चल पड़ा अपने गंतव्य- गाँव से दूर, बहुत दूर......
आज 24 साल हो गए। रामधेनु का कोई अता-पता नहीं। लोग हंसी उड़ाते, ज्यादातर तो उसे भूल ही चुके थे। कुछ भी विशेष न था। पिता आशा लगाये थे। उन्हें अब भी विश्वास था उसके आने का, इंतज़ार कर सकते थे वे अपने मरने तक भी।
आज हमेशा की तरह दिनचर्या चल रही थी कि पता नहीं कहाँ से एक धुवाँ उड़ाती चमचमाती कार रामबाबू के घर के सामने आकर रुकी। लोग कुतूहलवश देखने लगे। कार को छूते छोटे-छोटे लड़के, बड़े-बूढ़े मानो किसी विमान का दर्शन कर रहें हों। ये रामबाबू के घर कौन आया है ? गाँव भर में खबर फ़ैल गयी।
‘कोनो अफसर, अधिकारी लगत है।’
‘लेकिन हियाँ काहे ?’
‘का पता..!’
सभी तरह-तरह की बातें किये जा रहे थे। बड़े-बडौवा भी कार देखने का मोह छोड़ न सके। रामबाबू के घर मानो मेला लग गया था। कार का शीशा नीचे उतरा। 36-37 साल का एक युवक, प्रभावशाली व्यक्तित्व, मजबूत कदकाठी, सांवला रंग। रामबाबू उसे पहचान न सके। वे आँख के धुंधलके को हटाते हुए बोले, ‘बेटवा का कुसूर हुई गवा जो पकरय आये हव। अब तो रमुवव नाय है जीका उलहना तुम द्याहव। खैर बइठव, कौन बात है ज़रा साफ़-साफ़ बताव। ई बुढ़ापा मईहाँ हमका जादा नाय सुझात है।’
वह रामधेनु था, ‘बाबा ....मैं राम...आपका रामू ! मैं..मैं...आ गया हूँ....!!’ उसने कहा।
‘क्या रामधेनु !’ बूढ़े रामबाबू को तो सहसा विश्वास ही न हुआ। वे अपनी बूढ़ी आँखों को मलते हुए बोले- ‘अरे रामू कितना बदल गया है रे तू ! आखिर इत्ते दिन कहाँ रहेव ? अगर हम जिंदा न होतेन तो....,बहुत शहर केरी हवा लग गय तुमका। अब हम तुमका कहूं जाय न द्याबय। कान खोलिक सुनी लेव।’
ऐसी भावुक बातें सुन रामधेनु विह्वल हो उठा। गले लग गया वह अपने पिता के।
‘बापू मैं सेना में हूँ। अब चिंता की कोई बात नहीं, देश की सेवा कर रहा हूँ, बस पूछिए न क्या हुआ।’
और उसने अपनी सफलता की पूरी कहानी उन्हें बता डाली।
उसकी चमक-दमक देख मुखिया देवीप्रसाद, जमींदार विश्राम सिंह, पंडित आशाराम तिवारी सहित तमाम लोग उसकी सेवा/आगवानी में आ पहुंचे और लगे करने मान-मनौव्वल।
पता नहीं वर्दी की धौंस जमी या कि हृदय परिवर्तन, जो भी हो आज उनकी यह दशा देख 75 साल की विमला तक की हंसी छूट गयी जो गवाह थी उस पूरे युग का।
‘का बात है !’, वह बोल उठी, ‘हम कहित रहन लरिकक ज्यादा न सताव। आखिर अदमिन आही, टेम पलटा खावा, अब का हुइगा तुम सबका !’
बेचारे क्या कहते, सब एक स्वर में रामधेनु से ही बोले- ‘बेटा तुम न गये मानो हियाँ केरा सुखय उजड़ी गवा। चैन, शांती सब लुटि गय हम लोगन केरी। तुम न सही भगवान हम सबका सबक दई दीन्हे हैं कि ज़माना बदलि गवा है। अब बहुत कष्ट सहे हमहू लोग। तुमार सरकार है तो तुमार पहुँच बढ़ी गय है। तनिक हमरे लरिकनऊ कईहाँ कोनो चपरासी, अरदली केरी नौकरी-वौकरी दिलवाय देव। आव तो आपन गाँवय केरे। ई गोपाल, लुट्टन केरे लरिका, श्यामू, कमलेश तुमार भाई सामान हैं। अब पुरानी बातय भूलिव जाव। अरे उई समय तो हमार मती मारी गय रहय। अब तो तुम समझदार हुईगे हव, मोर भइय्या !!’
रामबाबू से रहा नहीं गया। वे चिल्ला उठे, ‘भागि जाव तुम सब हियाँ सेने। बहुत ऊपर बैठिक आडर जमावत रहव, अउरी हंसी लेव। अब हमरा लरिका तुम सबका बतइहै। कलंक हव तुम लोग।’ उनका स्वास्थ्य ठीक न था। रामधेनु ने उन्हें संभाला।
लगभग पूरे गाँव के उच्च घरों के लोग उसकी ऐसी आवभगत, स्वागत, चिरौरी में लगे थे मानो वे सब खुद ही सबसे निचली जाति के हों। रामधेनु सबसे उच्च पद पर आसीन सभी को देखता था। संवेदना करवट लेती प्रतीत हुई , याद था उसे अपना कड़वा बचपन। किस तरह वह संघर्ष करता हुआ इस मुकाम तक पहुंचा, स्वयं जानता था। खैर, मानव वही है जो मानवीयता के लिए जीता है। रामधेनु एक आदर्श था। पूरे गाँव का बेटा/गौरव था।
उसने सबको दिलासा दी। श्रेय दिया उन सबको अपनी सफलता का। दया आती उसे गाँव पर, यहाँ के लोगों पर। क्या कर सकता था वह, जो ऋण था जन्मभूमि का, उतार दिया। अब शेष नहीं बची इच्छा कोई। कोई कामना नहीं है। निकाल दो अपने दिलों का मैल, जातिवाद की गंदगी। मिट जाएँ रूढ़ियाँ सभी, बेकार ग्रामीण परम्पराएँ, हों उर में परिवर्तन, संकीर्ण मानसिकता का मर्दन। करें सब ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एक सरिता में नर्तन।
आह ! सपना हुआ साकार, मिली मुक्ति मेरी रूह को। हे मातृभूमि तुझे मेरा शत-शत नमन !
इक्कीसवीं सदी आ चुकी है। गाँव अब शहर हो गया है। रामधेनु अब नहीं है, हैं तो केवल उसकी स्मृतियाँ, उसकी कहानियां जो आज भी लोगों के मुख से सुनने को मिलतीं हैं। उसका चबूतरा स्मारक बन चुका है। गौरव ग्राम परमवीर प्राप्त कर चुका है। समय चलता जा रहा है, चलता जा रहा है, चलता जा रहा है।
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संक्षिप्त परिचय
राहुल देव
जन्म – 20/03/1988
शिक्षा - एम.ए. (अर्थशास्त्र), बी.एड.
साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ के दो अंकों का संपादन | त्रैमासिक पत्रिका ‘इंदु संचेतना’ का सहसंपादन | ई-पत्रिका ‘स्पर्श’ (samvedan-sparsh.blogspot.in) का संचालन | ‘जलेस’ से जुड़ाव |
सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन एवं अध्यापन |
संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो.– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
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