विजया / कहानी / राहुल देव

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विजया ट्रिंग-ट्रिंग-ट्रिंग...घंटी बजे जा रही थी। सविता किचेन में थी। “उफ़ ! अभी तो उठाया था, अब कौन है।” यों बड़बड़ाती हुई वह दौड़कर फ़ोन तक आय...

विजया

ट्रिंग-ट्रिंग-ट्रिंग...घंटी बजे जा रही थी। सविता किचेन में थी। “उफ़ ! अभी तो उठाया था, अब कौन है।” यों बड़बड़ाती हुई वह दौड़कर फ़ोन तक आयी। सविता ने फ़ोन उठाया तो उधर रवि था, उसका पति। सविता झुंझलाहट में ही बोली, “कहो क्या बात है, कोई ख़ास बात है क्या।”

रवि उसकी बेरुखी को भांपकर बोला,”नहीं” इस संक्षिप्त उत्तर से सविता और गर्म हो गयी वह बोली, ”किचेन में सब्जी जल रही है, होल्ड करेंगे।“

“नहीं काट ही देता हूँ।“, रवि भी तल्खी से बोला।

दोनों की शादी हुए आठ साल हो गये थे। कोई संतान नहीं। पति-पत्नी कुल मिलाकर दो लोग। परिवार संयुक्त से एकल बना था। रवि के पिता अपने गाँव रामकोट में ही रहते थे। माता गुजर चुकी थी। तीन बहनें, अकेला भाई। बहनों की शादी हो चुकी थी और उसे नौकरी के चलते शहर आना पड़ा। इंदौर की एक मेडिकल कंपनी में रवि उच्च पद पर था। शानदार बंगला, अच्छी खासी आमदनी, नौकर-चाकर ज्यादा नहीं सिर्फ दो सुन्दर काका और माधवीबाई जिन्हें रवि गाँव से ही लिवा लाया था। किसी चीज़ की कमी नहीं। हाँ एक चीज सविता को बहुत सालती थी- संतान न होना। रवि के ऑफिस चले जाने पर उसे अपना अकेलापन काटने को दौड़ता। इतना बड़ा घर, शादी के बीत चुके आठ साल। एक अदद बच्चे की चाह ! क्या होगा आगे, कैसे कटेगी पहाड़ जैसी जिंदगी ? सगे-सम्बन्धी बातें बनाते थे। कोई रवि को दोष देता तो सविता में खोट निकालता। बहुतों ने अनाथालय से बच्चा गोद लेने की सलाह भी दी। न जाने कितने बड़े-बड़े डॉक्टर्स, नीम-हकीमों सभी को दिखाया मगर कुछ फायदा नहीं हुआ। समय यूँ ही बीतता जा रहा है खामोश....!

अचानक सविता की तन्द्रा भंग हुई। न जाने कहाँ खो गयी थी वह, याद आया सब्जी। वह भागकर किचन में पहुंची पर सब्ज़ी का तो राम नाम सत हो चुका था। सविता जुट गयी फिर से सब्ज़ी बनाने में।

ऑफिस से छूटने के बाद रवि घर वापस आ रहा था। सोचता हुआ, खुश नहीं था वह भी अपने जीवन से। अजीब सी उलझन बनी रहती थी। शादी के बाद वह लुट सा गया था। इतना शानदार कैरियर, मान-मर्यादित परिवार फिर भी खुशी नहीं।

शाम के 6 बजे होंगे। रवि ने सविता से पूछा,”अच्छा बाहर खुले में चलने का मूड है, चलोगी ?”

सविता रवि की आदतों से अच्छी तरह वाकिफ थी सो उसने अनमने दिल से हाँ कर दी।

दोनों की कार रॉक गार्डन के गेट पर रुकी। उसके बाद दोनों पैदल ही आगे चल दिए। दोनों ने चुप्पी साध रखी थी, सोचते हुए कि क्या कहा जाए..!

चुप्पी को तोड़ते हुए रवि ने पहल की, ”वो क्या है कि आज मैंने डॉ खन्ना से बात की थी। वही डॉ खन्ना जिनके बारे में मैंने तुम्हे कल बताया था। मुंबई ही नही देश-विदेश तक उनकी प्रसिद्धि है, हाँ ! देखना अपनी प्रॉब्लम वे चुटकी बजाते ही साल्व कर देंगे। हम दोनों कल ही वहां चलते हैं।”

रवि के मुख से ऐसी बातें सुनकर सविता चुप न रह सकी, ”आखिर कबतक मुझे दिलासा देते रहोगे, कब तक रवि ?”

रवि बोल न सका। आखिर पिछले आठ सालों का अनुक्रम ही तो वह दुहरा रहा था।

हमेशा की तरह जीवन निर्बाध गति से कटता जा रहा था। सविता 28 और रवि 32 वर्ष के हो चुके थे। न कोई उत्सव, न कोई त्यौहार। उल्लास का अभाव मानो उस घर का भाग्य बन गया हो और निराशा उसकी जीवनरेखा। सम्बन्धियों का आना-जाना तो शादी के 2-3 साल बाद ही थम गया था। पता नहीं अब तो गाँव से भी कोई नहीं आता, चिट्ठी तक नहीं। मनहूसियत का प्रतीक बनता जा रहा मेरा घर आखिर कब तक खिलखिलाहट के सुख से वंचित रहेगा, क्या मेरी ममता का सागर यूँ ही सूख जायेगा ? सविता विचारमग्न रहती, किसे खोजा करती पता नहीं।

आज 29 फरवरी, दोनों की शादी की वर्षगाँठ। लेकिन किसे याद है, कौन मनाये उस शादी का जश्न जो बर्बादी में तब्दील होती जा रही थी। हमेशा की तरह रवि ऑफिस जाने को तैयार हो रहा था। जाते वक़्त वह सविता से बोला,”आज जल्दी आ जाऊंगा, डोंट वरी।”

उसके जाने के बाद सविता दोनों नौकरों को आवश्यक निर्देश देकर खुद को व्यस्त करने के उपक्रम करने लगी।

सब काम निपटाने के बाद सविता थककर आराम करने के इरादे से सोफे पर निढाल होकर बैठ गयी। अचानक कॉलबेल बजी। सविता चौंकी। इस समय कौन हो सकता है। अभी तो एक ही बजा है जबकि रवि तो दो बजे तक आएगा। देखती हूँ...| दरवाज़ा खोलते ही वह भौचक्क रह गयी। बाहर कोई न था, एक शिशु के अलावा जो निःशब्द, निर्लिप्त भाव से उसे निहार रहा था। सविता को अपनी आँखों पर सहसा विश्वास न हुआ। उसकी आँखे चमक उठीं। सविता ने लपककर उसे उठाया। आश्चर्य वह रोती न थी। अलौकिक तेज था उसमे। सविता पुलकित हो उठी। इसे क्या कहा जाए, नियति पसीज गयी और ईश्वर ने उसे अपनी बेटी दे दी। वह बेटी ही थी।

आनंद के इस पर्व में शामिल होने के लिए तब तक रवि भी आ चुका था। इससे पहले की वह कुछ समझ पाता सविता जल्दी-जल्दी सब बताती चली गयी। दोनों की खुशियों का पारावार न था। हर्षातिरेक में पूरा परिवार झूम उठा। नाम रखा गया-‘विजया’। विजया बोलती/रोती न थी, शायद मूक थी जन्म से।

कौन छोड़ गया इसे ? किसने बजाई घंटी ?? आदि कई प्रश्न सविता के मन में उठ रहे थे। कुछ भी हो अब यह मेरी बेटी है। यह सोचकर सविता चहक उठी। घर में उत्सव की तैयारियां होने लगीं, 29 फरवरी को यादगार बनाने के लिए।

अब सविता बहुत खुश रहने लगी थी। वह विजया के साथ दिन भर खेला करती, नन्ही बच्ची की तरह। विजया की मुस्कुराहट से घर का सूनापन न जाने एकदम कहाँ चला गया था।

आह ! वर्षों की साध पूरी हुई। प्रकृति का उपहार, मेरा श्रृंगार है विजया। यों न जाने कैसा विचित्र, मीठा रिश्ता बन गया था माँ-बेटी का। और क्या चाहिए था, समय बीतता गया।

विजया चार वर्ष की हो चुकी थी। मुस्काती, इठलाती विजया बरबस सभी को आकर्षित कर जाती। पता नहीं क्या शक्ति थी उसमें। पैरों में पंख बांधकर उड़ने की इच्छुक विजया विवश थी स्वयं से। यह कैसा वरदान, जीवन शुरू हुआ अंत से। पैरों से भी बोझिल विजया जानती थी सबकुछ, समझती थी हर एक बात मूक तो थी ही जन्म से।

आग और बात फैलते देर नहीं लगती। सभी सम्बंधित/परिचित/पिताजी कहने लगे- ‘हम तो पहले ही कहते थे किसी अच्छे से बच्चे/लड़के को गोद ले लो। अब आखिर लिया भी तो एक लंगड़ी गूंगी लड़की को। पता नहीं रवि को क्या हो गया है, और सविता भी न बस्स....बहुत हो गया, अब आधी जिंदगी तो नर्क हो ही चुकी है बाकी आधी भी यूँ ही बितानी हो तो ले लो इसे, पाल लो। हमारी कोई सुने तब न, खैर हमें क्या कोई गलत सलाह थोड़े ही देंगे।’

एक पक्षीय मानवीय संवेदनाओं से अलह-थलग उनकी उथली बातों को सविता एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देती। उसे अपनी विजया में गुण ही गुण नज़र आते थे।

उजाले की एक किरण तो उनके जीवन में हो ही गयी थी। व्यस्तताए बढ़ गयीं थी। मित्रों/परिचितों का आना-जाना चालू हो गया था। जीवन में गति आ गयी थी।

विजया बड़ी हो रही थी। उसे स्कूल न भेजकर घर पर ही सविता इशारे से पढने-लिखने का अभ्यास कराती, सिखाती सबकुछ अपनी पुत्री की तरह। विजया समझती थी। दर्द उठता था कभी-कभी लेकिन विश्वास जीने का। अलग अद्भुत सी क्षमता लिए वह इतर थी अन्य बच्चों से। कभी-कभी वह सविता से कहना चाहती कुछ। मानो बताना चाहती हो अपनी विवशता, करना चाहती हो उसे संतुष्ट स्वयं से या जीवन से। वह किसे दे उलाहना, किसे कोसे नहीं जानती ! पर निराशा का लेश नही उसके मुख पर। हरदम धवल कांति से दमकता रहता उसका चेहरा। उन्मुक्त रूप से दिन बीत जाता। प्रकृति, विजया और सविता परस्पर सहचरी के रूप में इधर-उधर खेला करते। सुन्दर काका से उसकी अच्छी पहचान बन गयी थी और माधवी की गोद में तो वह बगैर हिचक चली जाती थी। स्पष्ट रूप से मानसिक नहीं शारीरिक विकलांग थी वह। शाम को जब रवि वापस आता तो सोचता- काश वह दौड़कर उसके गले लग जाती और वह उसे अपनी बाहों में उठा लेता। विजया रवि को देखती एक पिता के रूप में, खोजती अपना प्रतिबिम्ब उसमे। कभी-कभी रवि को उससे ईर्ष्या सी होने लगती वह सोचता, सविता मुझमे कम उसमे ज्यादा दिलचस्पी लेती है। यह घातक मानवीय प्रवृत्ति कभी-कभी उस पर हावी होने का प्रयास करती परन्तु वह संभाल लेता अपने आप को।

ऑफिस में रोज की तरह रवि अपना काम देख रहा था कि तभी उसके स्टाफ के कुछ दोस्त उसके पास आये और लगे समझाने-“यार क्यूँ दे रहा है अपने और भाभी जी को झूठी सांत्वना। कब तक देगा ये अधूरा प्यार?

अरे लेना ही था तो क्या दुनिया के बाकी सारे बच्चे मर गये थे। परेशानियाँ अभी कम हैं, जैसे जैसे वह बड़ी होगी जिम्मेदारियां बढ़ जाएँगी, कौन शादी करेगा उससे ? अब तू ही सोच, भविष्य की ओर देख। हम तो बस यही दुआ करेंगे कि तू और तेरा परिवार खुश रहे बस।”

रवि की ईर्ष्या की लौ में इन बातों ने घी का काम किया तिस पर पिता की चिट्ठी- उपदेशों का पिटारा वही लिखा बच्ची के बारे में। रवि पुनः सोचने पर विवश हो गया। सविता का ख्याल आया। चुप रहा, मगर कितने दिन रहता। एक दिन उसने सविता से बात की। सविता को रवि से ऐसी उम्मीद न थी वह चुपचाप बगैर कुछ कहे उठकर चल दी। रवि झुंझला सा गया, रात बीत गयी।

सुबह रवि ऑफिस जाने की तैयारी में लगा था कि कालबेल बजी। इतनी सुबह कौन हो सकता है ? यह सोचकर उसने दरवाज़ा खोला- दरवाज़े के बाहर एक स्त्री खड़ी थी। उसने अपना नाम बताया सुजाता और बगैर किसी भूमिका के सीधे अपने विषय पर आते हुए उसने कहा, “ देखिये भाई साहब ! आज से लगभग 5-6 साल पहले मैं अपनी बेटी को यहाँ आपके घर छोड़ गयी थी। मेरे पति को ऐसी बेटी नहीं चाहिए थी। अब इसे कुदरत का खेल कहिये या हमारा दुर्भाग्य 5 साल तक इंतज़ार करने के बाद भी हमें कोई संतान नहीं हुई। निराश होकर अंततः आज मैं अपनी बेटी को लेने आई हूँ, कहाँ है वह ?”

तब तक सविता भी आ चुकी थी। यह सब सुनते ही वह सन्न रह गयी। अब क्या होगा ? रवि यह सोचकर मन ही मन खुश था कि चलो समस्या अपने आप हल हो गयी। रवि के कुछ कह पाने से पहले ही सविता ने स्पष्ट मना कर दिया। रवि ने उसे बहुत समझाया, “सुजाता उसकी जन्मदात्री माँ है वह कौन होती है उसे उसकी बेटी से जुदा करने वाली।”

रवि के बहुत जोर डालने पर सविता रोने लगी। माधवी ने उसे संभाला। तब तक विजया भी जग चुकी थी। वह सविता से लिपट गयी। रवि उसे सुजाता को देने के लिए आगे बढ़ा तो उसने रवि को झिड़क दिया और प्रश्नवाचक दृष्टि से सविता की ओर देखने लगी। सविता के कुछ कह पाने से पहले ही रवि सुजाता की ओर इंगित कर बोल उठा, “ बेटा ! ये तुम्हारी असली माँ हैं सविता नहीं...समझीं ! चलो उतरो सविता की गोद से और अपने घर जाओ।”

विजया अन्जान न थी। वह सब समझ रही थी। उसने इशारे से जाने से मना किया इस पर रवि क्रोधित हो गया और उसने विजया को जोर से डांटा-“ जाती है कि नहीं, नालायक ! बहुत जिद्दी हो गयी है।”

विजया सविता की गोद में सिर रखकर सुबकने लगी। हद हो गयी जब रवि ने पुनः उसे सविता से अलग करना चाहा। सविता उग्र हो उठी, “ ये क्या बात हुई कि जब चाहा छोड़ गये और जब चाहा ले गये ! आप.....आप कृपया चली जाइये यहाँ से। विजया मेरी अपनी बेटी है। वह नहीं जाना चाहती किसी के साथ। आपको जहाँ जाना हो जा सकती हैं, लेकिन मैं अपनी विजया किसी को नहीं दूंगी।”

सविता भागकर अन्दर चली गयी। वह महिला भी अचंभित थी अपने रक्त के व्यवहार से। उदास मन से लौट आई वह, बगैर कुछ कहे। रवि ऑफिस चला गया उखड़े मन से।

शाम को रवि ऑफिस से वापस आया तो देखा दोनों माँ-बेटी एक दुसरे में मग्न हैं, दोनों ही बहुत खुश हैं। रवि ने सोचा अजीब है विजया ! अपनी असली माँ से तो ऐसा व्यवहार करती है जैसे उसे जानती तक नहीं और सविता से ऐसे जैसे जन्मों से जानती हो। बड़ी ढीठ है, क्या पता सुजाता फिर आये न आये। कितना अच्छा अवसर था। रवि यह सोचता हुआ विजया के पास गया। सविता किसी काम से अन्दर चली गयी थी। रवि ने विजया को पुनः समझाने की चेष्टा की तो आश्चर्य उसने अपने कान बंद कर लिए। रवि अपने पर नियंत्रण न रख सका। मानवीयता से परे वह पता नहीं क्यों ऐसा कर बैठा, उसने कसकर एक-दो तमाचे उस निरपराध बालिका को मार दिए और बड़बड़ाता हुआ अन्दर दूसरे कमरे में चला गया। पूर्णतया संवेदनहीन हो गया था वह या यों कहें परिस्थितियों और समय की मार ने उसे निष्ठुर बना दिया था। सविता दौड़कर आयी। सविता को देखते ही विजया सारा दर्द पी गयी, चूं तक न की उसने। उसने सविता को इशारे से बताया कि उसे कुछ नहीं हुआ था। वह फिर मग्न हो गयी सविता के साथ। विजया को यह सब करते माधवी ने देखा था। कैसी परिपक्वता ! सचमुच बड़ी सहनशील है तू ! माधवी ने सोचा।

अगले दिन सुबह रवि ऑफिस जाने को तैयार हो रहा था। रह-रहकर उसे शाम की बातें याद आ रहीं थीं। अचानक उसकी दृष्टि निश्चल सोती विजया पर पड़ी। रवि रुक गया। नींद में भी मुस्कान बिखेरती विजया साक्षात लियोनार्दो द विंची की दूसरी कृति थी, मोनालिसा से ज्यादा रहस्यों को स्वयं में समेटे। रवि एकटक देखता रहा।

सविता भी माधवी और सुन्दर काका के साथ यह दृश्य देखती थी। रवि को स्वयं पर बड़ा क्रोध आया। भावों का निहितार्थ समेटे स्वाभाविक मुस्कान से खिली, कृत्रिमता से दूर विजया ! तुम्हारी सुन्दरता, व्यवहार में तुम्हारे जादू है, है सहज अपनापन ! प्रिय विजया तुम विजया नहीं प्रेरणा हो !! रवि ने सोचा।

विजया उठ चुकी थी मानो स्वप्न की नायिका धरातल पर उतर आयी हो। वह कभी रवि को देखती, कभी सविता को तो कभी माधवी या सुन्दर काका को। आँख मींजकर वह फिर सो गयी। रवि की आँखें गीलीं थीं वह सविता से लिपट गया। माधवी और सुन्दर काका खुश थे। चलो सवेरा हुआ, धुंधलका छट गया। विजया किसी का जीवन संबल बन चुकी थी, प्रेरणा बन चुकी थी।

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संक्षिप्त परिचय

राहुल देव

जन्म – 20/03/1988

शिक्षा - एम.ए. (अर्थशास्त्र), बी.एड.

साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | एक कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ के दो अंकों का संपादन | त्रैमासिक पत्रिका ‘इंदु संचेतना’ का सहसंपादन | ई-पत्रिका ‘स्पर्श’ (samvedan-sparsh.blogspot.in) का संचालन | ‘जलेस’ से जुड़ाव |

सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन एवं अध्यापन |

संपर्क सूत्र- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203

मो.– 09454112975

ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

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रचनाकार: विजया / कहानी / राहुल देव
विजया / कहानी / राहुल देव
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