मत्स्येंद्र शुक्ल का काव्य-संसार काल-गति को शब्दों में समेटता हुआ कविता को विचार की तरह बुनता है. उनकी कविताएं सम्वेदना की उस गहराई तक पहुं...
मत्स्येंद्र शुक्ल का काव्य-संसार काल-गति को शब्दों में समेटता हुआ कविता को विचार की तरह बुनता है. उनकी कविताएं सम्वेदना की उस गहराई तक पहुंचती हैं कि मनुष्य सोचने के लिए बाध्य हो जाए. मत्स्येन्द्र जी समय के प्रवाह को शब्द देने में ही कविता की सार्थकता मानते हैं. अपने सद्य प्रकाशित कविता संग्रह, <पेड़ भी कुछ कहते हैं> (किताब महल,इलाहाबाद, २००९) में वे स्पष्ट कहते हैं –
संदर्भों का यह रिश्ता टूटा नहीं आज तक
कालिदास होमर पुश्किन अज्ञेय तक
सबने बुना कविता को विचार की तरह
( पेड़ भी कुछ कहते हैं, पृ. 80, )*
शुक्ल जी की कविताएं मज़दूरों और किसानों की लाचारी, परवशता और दारिद्र्य का तो प्रमाणिक और सम्वेदनशील दस्तावेज़ हैं ही, ये मानव विरोधी उस सोच की भी खबर लेती हैं जो भारत के गांवो की इस करुण और दयनीय अवस्था के लिए ज़िम्मेदार है.
मत्स्येन्द्र शुक्ल भले ही अपने जीवकोपार्जन के लिए शहर में रहे हों लेकिन वे उपज ग्राम संस्कृति के ही हैं. न केवल आचार-विचार बल्कि उनके साहित्यिक कर्म पर भी ग्राम संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है. अपने घर का परित्याग कर जब एक ग्राम-वासी नगर की ओर पलायन करता है तो इस व्यस्थापन का दर्द उसे बराबर सालता है. शुक्ल जी की कविताओं में यह ‘नॉस्टेल्जिआ’ बड़ी शिद्दत के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज किए है. गांव के तमाम ऐसे दृश्य हैं जो कवि ने अपनी कविता में सहेज रखे हैं, ‘सहेज सको तो धर लो उस दृश्य को अपनी कविता में’ (पृ.60) पुरनियों से जुड़ी कथाएं, लोक प्रचलित मुहावरे, वीर गाथाएं, श्रम गीत, कजलियां, पेरनी के गीत, चिरौरी के छंद उनके ज़हन में रचे-बसे हैं. गावों में प्रकृति से प्राप्त जो सहज उल्लास है, वह भी स्मृति में सुरक्षित है – पल्लवों से झरता सुखद शीतल जल, नदी पार की ठंडी हवा, बड़ेर पर रोती बिल्ली, जंगल की चिरैया, कोयल, पपीहा, नीलकंठ और सोनचिरैया का समुदाय, पेड़ों से बजती बांसुरी आदि, आदि.
नदी-तट पर एक सयाने व्यक्ति की तरह कवि, ‘मुड़-मुड़ अतीत की घटनाओं को/ जेब में रखे दानों की तरह टटोलता’ है. बेशक, मस्तिष्क की गुहा में खास दृश्य स्पष्ट आकार तो नहीं ले पाते पर ‘कितना दुःख देता है अपनी ही ज़मीन का परित्याग’ यह कवि से बेहतर शायद ही कोई और जानता हो!
गांव का रिश्ता भी टूटता नहीं
स्मृतियॉ सूत के बारीक धागे ज्यों
तैरती रहतीं कहीं बहुत गहरे मस्तिष्क में.....
तकलीफों के बावजूद आदमी करता है गांव का गुण गान
(पृ.39)
कवि कहता है –
मैं उन रास्तों को कैसे भूल सकता हूं
जिन पर चलफिर बिताया है बचपन के दिन ...
बदलाव के पक्ष में कुछ खास दृश्य घटनाएं झलकती हैं
कवि पूछता है, आखिर
ग़रीबों का पुछत्तर कौन पृथवी पर
सुरक्षा कर्मी असहाय
सदन और संसद की बहसों से घायल का क्या मतलब
(पृ.73)
भूख से परेशान लोग कठिनाई से जी रहे हैं मुल्क में
कच्चे महुए का रस ही पर्याप्त
नागरिकों को कैसा संदेश देना चाहता है देश का लोकतंत्र
(पृ.74)
कवि अनुभव करता है कि ‘मौन फरेब और धोखा’ ही आज जनतंत्र का कामयाब अस्त्र है (50), कि सत्ता का व्यास अब ‘डाकुओं के जाल में सुंदरियों का प्रायोजित नृत्य’
है (45). ऐसे में कौन, किससे क्या उम्मीद रखे! दुर्गम घाटियों की तरफ तो किसी का ध्यान जाता ही नहीं- ‘सरकारें चुप’ (33)
ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के पक्ष में आज आवाज़ उठाने वाला कोई रहा ही नहीं, सिवा एक कुत्ते, एक खच्चर और एक पागल के !
एक कुत्ता भौंकता ज़मीन खुरिहारता चल रहा साथ
भला है यह
आदमी से बेहतर, चाहता कर्तव्यों का निर्वाह करना
कितना बफादार मनुष्य के पक्ष नें सदैव उठाता आवाज़ (83)
इसी तरह खच्चर भी अपनी चीत्कारी आवाज़ बुलंद करता है, पर विडम्बना देखिए –
मालिक ने कान ऐंठ सचेत किया
पचड़े में पड़ना ठीक नहीं
भारी भरकम देश अपने से ज़्यादह दूसरों के लिए परेशान है (43)
और ज़रा इधर भी ध्यान दीजिए –
तुरही बजाता यह कौन भागा चला जा रहा है/ बाज़ार में
कहता विनम्र दुकानदार
बेहद सरल ईमानदार रहा यह व्यक्ति जीवन भर
जनता के दुःख से द्रवित जनता के पक्ष में दौड़ रहा
लोग कहते हैं पागल...
यह आदमी यदि पागल/ तो मेरी निगाह में
पूरा देश पागल हो चुका है लगभग (85)
कवि केवल श्रमिकों और मज़दूरों से ही अपनी उम्मीद बांधता है क्योंकि सम्वेदन शीलता और परिश्रम के प्रति आस्था केवल इन्हीं में दिखाई देती है. प्रकृति के खुले माहौल में पले-बढे, अपना घर-बार गांव छोड़कर आए,
नगर हे आखिरी छोर पर निर्मित आलीशान
आसमान छूती श्रंखला बद्ध इमारतों को
टुकुर-टुकुर ताक रहे राज-पथ पर चलते मज़दूर ..
(सोचते हैं)
कैसे रहते होंगे बच्चे इन कोटरों में ...
बासंती बयार के संबोध कहां से अर्जित करेंगे बच्चे! (44)
देखकर यह आश्चर्य होता है कि बासंती बयारो के सम्बोधों को तरसते शहर के बच्चों के प्रति गांव के विस्थापित मज़दूर अपनी सम्वेदनाओं को सुरक्षित रखे हैं. इसीतरह परिश्रम
के प्रति भी उनका लगाव दृष्टव्य है –
कीट केंचुल निर्विघ्न टहल रहे वर्षा जल प्रवाह में
पीपल छाया में बैठ सुस्ताता आदिवासी
दनाक से उठता है देह तोड़ता सुलगाता बीड़ी
चलो करें कुछ काम श्रम उत्सव की यह वेला है (20)
आखिर इस बंजर ज़मीन को कौन बनाएगा उर्वर! स्पष्ट ही पथर-कटों का कुशल समुदाय ही यह काम कर सकता है. ये ही भिड़ेंगे उन पत्थरों से -
दबे जो पत्थर कांख में
कुछ दिन में हुलसेंगीं सुनहरी चोटियां
चंद्ररस झरेगा खुले वक्ष पर
सुरीली चिड़ियां दिन-रात गाएंगी गीत चुनेगीं दाना (57)
और वह देखो –
कुआर कार्तिक की कठिन दुपहरी में
किसान ठेल रहा हल/ अनुकूल परिणाम की उम्मीद में
और बीन रही/ ईंट के टुकड़े...
कृषक हर मौसम में संवारता है एक नई दुनिया
इसी तरह,
लंगड़ी आंधी चलने अकस्मात प्रचंड होने से
नहीं घबराता श्रमरत गांव का मनई
बिगड़े समय को/ बार-बार मोड़ता अपने पक्ष में (88)
इन्हीं मज़दूरों कृषकों आदिवासियों और गांव के मनई से कवि सामाजिक परिवर्तन
की उम्मीद बांधता है अन्यथा सरकार और शहर का आदमी तो इतना असम्वेदनशील और श्रम असाध्य हो गया है कि उससे कोई भी आशा रखना बेकार है. फिर भी जहां-जहां संवेदनाएं शेष हैं वहां-वहां कवि दृष्टि पहुंचे बिना नहीं रहती.
जड़ दिया पिता ने चांटा..... मां नहीं रही....
पिता मौन सन्न मारकर लेट गए खाट पर
अतिरिक्त आवेश में हुई यह चूक –
पुचकारा दुलारा सिसका कंठ की आड़ में
नहीं होगी अब ऐसी भूल
स्नेह सृष्टि का यह प्रथम अंकुर शेष! (18)
मत्स्येंद्र शुक्ल मानव जीवन के ऐसे अंतरंग पलों की सम्वेदना को बड़ी गहराई से अभिव्यक्ति देते हैं और इसीलिए उनकी कविताएं, यदि महादेवी वर्मा का मुहावरा इस्तेमाल करे, ‘तिमिर में स्वर्ण वेला’ की तरह उभरती हैं.
शुक्ल जी के काव्य में प्रकृति के सौंदर्य के भी तमाम चित्र छिटके पड़े हैं. उन्होंने इन दृश्यों का काव्यमय चित्रण बड़ी कुशलता से किया है. दो ऐसे ही चित्र देखें –
पहाड़ से उतर/ जाने कब से बह रही एक क्षीण नदी स्रोत
पयस्विनी के च्तुष्कोणीय अंक में मछलियां निहार
देह फुलाता हंसता चपल ऊदबिलाव/ चूमता जल
दौड़ता झुके पत्थर के शीर्ष तक... (53)
ऊंचे पहाड़ों झूलतीं घाटियों के प्रांगण में/ लहरा रहे
गेहूं के खेत धूप में पक रहीं बालियां
खूब सजा चतुर्दिक पहाड़ बासंती परिवेश
बातूनी चिड़ियां छल-कूद/ फूलों से कर रहीं वार्ता
मौसम के साक्षी- गेहूं की बाल तोड़, हवा में उड़ रहा तोता (65)
मत्स्येंद्र शुक्ल ने अपनी कविताओं में न केवल ग्राम संस्कृति और प्रकृति को सुरक्षित रखा है, उन्होंने भाषा के स्तर पर भी अनेक देशज शब्दों को अपनी काव्य शैली (डिक्शन) में स्थान दिया है. आपको लगभग हर कविता में किसी न किसी देशज शब्द का काव्यात्मक प्रयोग देखने को मिल जाएगा. ज़रा इन शब्द/शब्द-समूहों पर ध्यान दें-
कलुहर दुशाला/दुर्बल पौला/बंद ओसार/ कंझा गई कौड़े की आग/नेउर चाल
रहे जल/सनई टाटरी/पिछौरी का ओढाव/थान के मसान/ सगर पतारी और
घौध, इत्यादि.
हिंदी के अनेक शब्द-कोशों में ये शब्द सामान्यतः मिलेंगे ही नहीं और यदि ये कभी सम्मिलित कर लिए जाते हैं तो इसका श्रेय मत्स्येंद्र शुक्ल को ही जाएगा.
और अंत में उन कथनों की ओर भी पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा जो अनायास ही हमारे सामने आ खड़े होते हैं. इनमें से एक है, नीद में -
‘तत्सम से तद्भव तक सांसों की यात्रा’
क्या बात है! सोते समय हमारे स्वप्न किस तरह जाग्रत अवस्था की मूल घटनाओं को विरूपित कर एक संसार रचते हैं – इस कथन में यह कितना सटीक व्याख्यायित हो जाता है, देखते ही बनता है. हिंदी कविता यदि मत्स्येंद्र शुक्ल से उम्मीदें पालती है तो यह बेजा तो क़त्तई नहीं है.
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* संदर्भित पृष्ठ संख्याएं मत्स्येंद्र शुक्ल के कविता संग्रह, <पेड़ भी कुछ कहते हैं> से हैं.
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