डॉ बच्चन पाठक ''सलिल'' ---रचना का जन्म---- वर्षों से सूखी पड़ी डाली में , सहसा बौर आ जाती है . अमां की कालिमावृत रजनी में...
डॉ बच्चन पाठक ''सलिल''
---रचना का जन्म----
वर्षों से सूखी पड़ी डाली में ,
सहसा बौर आ जाती है .
अमां की कालिमावृत रजनी में ,
अम्बर की छाती को चीर -
सहसा मुस्कराने लगता है चाँद ,!..
पर्वत के निभृत अंचल से ,
फूट पड़ती है चुप चुप निर्झरिणी ..!.
तब अवाक हो जाते हैं वे ..-
जो हर घटना के पीछे तलाश करते हैं --
कार्य और कारण को .
वैसे ही ..वर्षों से गम सुम
किसी भावुक के अंतर से--
फूट पड़ता है कोई गीत ! ..
और वह कह उठता है ----
''मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगम -''
ऐसे ही होती है गीत की रचना ,
बन्धु मेरे !...रचना --रचना है ,
वह नहीं है उत्पादन ...
उसका सृजन कैलेंडर देख कर
युद्ध स्तर पर नहीं किया जा सकता .
जब कोई कवि पाता है माँ का हृदय,
सहन करता है प्रसव --वेदना
--मासों ..वर्षों ..युगों तक ..
तब जन्म होता है --
किसी कालजयी रचना का , .
रचना में होते हैं --सत्यम -शिवम -सुन्दरम
रचनाकार मनीषी होता है ,
यांत्रिक उत्पादक नहीं ...
डॉ बच्चन पाठक ''सलिल''
अवकाश प्राप्त -पूर्व प्राचार्य -रांची विश्वविद्यालय
सम्प्रति --पंचमुखी हनुमान मन्दिर के सामने
आदित्यपुर- 2 ,जमशेदपुर -1 3 ---0657/2370892
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डॉ. महेन्द्र भटनागर
गौरैया
बड़ी ढीठ है,
सब अपनी मर्ज़ी का करती है,
सुनती नहीं ज़रा भी
मेरी,
बार-बार कमरे में आ
चहकती है ; फुदकती है,
इधर से भगाऊँ
तो इधर जा बैठती है,
बाहर निकलने का
नाम ही नहीं लेती !
जब चाहती है
आकाश में
फुर्र से उड़ जाती है,
जब चाहती है
कमरे में
फुर्र से घुस आती है !
खिड़कियाँ-दरवाजें बंद कर दूँ ?
रोशनदानों पर गत्ते ठोंक दूँ ?
पर, खिड़कियाँ-दरवाज़े भी
कब-तक बंद रखूँ ?
इन रोशनदानों से
कब-तक हवा न आने दूँ ?
गौरैया नहीं मानती।
वह इस बार फिर
मेरे कमरे में
घोंसला बनाएगी,
नन्हें-नन्हें खिलौनों को
जन्म देगी,
उन्हें जिलाएगी.... खिलाएगी !
मैंने बहुत कहा गौरैया से —
मैं आदमी हूँ
मुझसे डरो
और मेरे कमरे से भाग जाओ !
पर, अद्भुत है उसका विश्वास
वह मुझसे नहीं डरती,
एक-एक तिनका लाकर
ढेर लगा दिया है
रोशनदान के एक कोने में !
ढेर नहीं,
एक-एक तिनके से
उसने रचना की है प्रसूति-गृह की।
सचमुच, गौरैया !
कितनी कुशल वास्तुकार हो तुम,
अनुभवी अभियन्ता हो !
यह घोंसला
तुम्हारी महान कला-कृति है,
पंजों और चोंच के
सहयोग से विनिर्मित,
तुम्हारी साधना का प्रतिफल है !
कितना धैर्य है गौरैया, तुममें !
इस घोंसले में
लगता है —
ज़िन्दगी की
तमाम ख़ुशियाँ और बहारें
सिमट आने को आतुर हैं !
लेकिन ; यह
सजावट-सफ़ाई पसन्द आदमी
सभ्य और सुसंस्कृत आदमी
कैसे सहन करेगा, गौरैया
तुम्हारा दिन-दिन उठता-बढ़ता नीड़ ?
वह एक दिन
फेंक देगा इसे कूडे़दान में !
गौरैया ! यह आदमी है
कला का बड़ा प्रेमी है, पारखी है !
इसके कमरे की दीवारों पर
तुम्हारे चित्र टँगे हैं !
चित्र —
जिनमें तुम हो,
तुम्हारा नीड़ है,
तुम्हारे खिलौने हैं !
गौरैया ! भाग जाओ,
इस कमरे से भाग जाओ !
अन्यथा ; यह आदमी
उजाड़ देगा तुम्हारी कोख !
एक पल में ख़त्म कर देगा
तुम्हारे सपनों का संसार !
और तुम
यह सब देखकर
रो भी नहीं पाओगी।
सिर्फ़ चहकोगी,
बाहर-भीतर भागोगी,
बेतहाशा
बावली-सी / भूखी-प्यासी !
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DR. MAHENDRA BHATNAGAR
Retd. Professor
110, BalwantNagar, Gandhi Road,
GWALIOR — 474 002 [M.P.] INDIA
M - 81 097 30048
*Ph. 0751- 4092908
E-Mail : drmahendra02@gmail.com
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अनुवाद - देवी नागरानी
खलील जिब्रान के विचार – कविताओं में
1.
कल आज और कल
मैंने अपने दोस्तों से कहा
उसे देखो, वह उसकी बाहों में झूल रही है
कल वह मेरी बाहों में झूल रही थी।
और उसने कहा: कल वह मेरी बाहों में झूलेगी
और मैंने कहा: उसे देखो, वह उसके बाजू में बैठी है
कल वह मेरे बाजू में बैठी थी।
और उसने कहा: कल वह मेरे बाजू में बैठेगी
और मैंने कहा: क्या तुम उसे उसके प्याले से पीते देख रहे हो?
और कल उसने मेरे पियाले से पिया था।
और उसने कहा: कल वह मेरे पियाले में से पिएगी
*
और मैंने कहा: देखो, वह किस तरह प्यार की निगाहों से उसे देख रही है।
और ऐसे ही प्यार से कल उसने मुझे देखा था।
और उसने कहा: कल वह मेरे ओर ऐसे ही देखेगी।
*
और मैंने कहा: उसे सुनो वह प्यार के गीत उसके कानों में गुनगुना रही है
कल उसने मेरे कान में गुनगुनाया था।
और उसने कहा: कल वह मेरे कानों में गुनगुनाएगी।
*
और मैंने कहा: देखो वह उसे गले लगा रही है
और कल उसने मुझे गले लगाया था।
और उसने कहा: कल वह मुझे गले लगाएगी
और मैंने कहा: वह कैसी अजीब औरत है?
और उसने कहा: वह ज़िंदगी है!!
अनुवाद: देवी नागरानी
देवी नागरानी
पता: ९-डी॰ कॉर्नर व्यू सोसाइटी, १५/ ३३ रोड, बांद्रा , मुंबई ४०००५० फ़ोन: 9987938358
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सुशील शर्मा
1.नारी तुम मुक्त हो।
नारी तुम मुक्त हो।
बिखरा हुआ अस्तित्व हो।
सिमटा हुआ व्यक्तित्व हो।
सर्वथा अव्यक्त हो।
नारी तुम मुक्त हो।
शब्द कोषों से छलित
देवी होकर भी दलित।
शेष से संयुक्त हो।
नारी तुम मुक्त हो।
ईश्वर का संकल्प हो।
प्रेम का तुम विकल्प हो।
त्याग से संतृप्त हो।
नारी तुम मुक्त हो।
2. किसान चिंतित है
किसान चिंतित है फसल की प्यास से ।
किसान चिंतित है टूटते दरकते विश्वास से।
किसान चिंतित है पसीने से तर बतर शरीरों से।
किसान चिंतित है जहर बुझी तकरीरों से।
किसान चिंतित है खाट पर कराहती माँ की खांसी से ।
किसान चिंतित है पेड़ पर लटकती अपनी फांसी से।
किसान चिंतित है मंडी में लूटते लुटेरों से।
किसान चिंतित है बेटी के दहेज़ भरे फेरों से ।
किसान चिंतित है पटवारियों की जरीबों से।
किसान चिंतित है भूख से मरते गरीबों से।
किसान चिंतित है कर्ज के बोझ से दबे कांधों से।
किसान चिंतित है अपनी जमीन को डुबोते हुए बांधों से।
किसान चिंतित है भूंखे अधनंगे पैबंदों से।
किसानचिंतित है फसल को लूटते दरिंदोंसे ।
किसान चिंतित है खेत की सूखी पड़ी दरारों से ।
किसान चिंतित है रिश्तों को चीरते संस्कारों से।
किसान चिंतित है जंगलों को नौचती हुई आरियों से।
किसान चिंतित है बोझिल मुरझाई हुई क्यारियों से।
किसान चिंतित है साहूकारों के बढ़े हुए ब्याजों से।
किसान चिंतित है देश के अंदर के दगाबाजोंसे ।
किसान चिंतित है एक बैल के साथ खुद खींचते हुए हल से।
किसान चिंतित है डूबते वर्तमान और स्याह आने वाले कल से।
3.हाँ मैं एक स्त्री हूँ
हाँ मैं एक स्त्री हूँ ,एक देह हूँ।
क्या तुमने देखा है मुझे देह से अलग?
पिता को दिखाई देती है मेरी देह एक सामाजिक बोझ।
जो उन्हें उठाना है अपना सर झुका कर।
माँ को दिखाई देती है मेरी देह में अपना डर अपनी चिंता।
भाई मेरी देह को जोड़ लेता हेै अपने अपमान से।
रिश्ते मेरी देह में ढूंढते हैं अपना स्वार्थ।
बाज़ार में मेरी देह को बेचा जाता है सामानों के साथ।
घर के बाहर मेरी देह को भोगा जाता है।
स्पर्श से ,आँखों से ,तानों और फब्तियों से।
संतान उगती है मेरी देह में।
पलती है मेरी देह से और छोड़ देती है मुझे।
मेरी देह से इतर मेरा अस्तित्व
क्या कोई बता सकता है ?
4.उसको तो जाना ही है।
उसको तो जाना ही है।
आज जब वह तैयार हो रही थी।
आज जब वह अपना बैग सजा रही थी।
कुछ यादें लुढ़क रही थी आँखों में।
बचपन की सारी शरारतें ,तुतलाती बातें।
एकटक उससे नजर बचा कर देख रहा था।
उसका लुभावना शरारती चेहरा।
और रोक रहा था चश्मे के अंदर लरजते आंसुओं को।
उसकी माँ रसोई के धुएँ में छुपा रही थी लुढ़कते जज्बातों को।
दादी उसकी देख रही थी उसे निर्विकार भावों से।
दे रही थी सीख छुपाकर अपनी सिसकियाँ।
दादाजी उसके चुप थे क्योंकि वो जानते थे।
कि उसको तो जाना ही है।
इन सबसे बेखबर बिट्टो बैग सजा रही थी।
उसे बाहर जाना था पढ़ने ऊँचे आकाश में उड़ने।
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वीणा भाटिया
पुरुष समाज में
ढेरों कविताएँ पढ़ती हूँ
पुरुष लिखता है
स्त्रियों पर कविताएँ
कविताओं में उड़ेलता है
वह कैसे-कैसे शब्द
शब्दों को
फूलों की तरह चुनता है
ख़्यालों में गुनता है
कविताओं में
स्त्री की छवि देख
हो जाते हैं
हम गदगद्
लेकिन...
असल ज़िन्दगी में
पुरुष को क्या हो जाता है
शायद पुरुषवाद
उसके सिर चढ़ बोलता है।
--
स्टेनगनें
लड़ाई बहुत लम्बी है
विरोध किया तो
स्टेनगनें तनती हैं
पुलिस सिखाती है
कपड़े पहनने के तरीके
चाल-ढाल बदलने के
सलीक़े
माना...
क़ानूनी प्रक्रिया में
सज़ा से बच सकता है
चोर दरवाज़े से
निकल सकता है
विरोध करने पर
और अधिक हिंसा दमन
कर सकता है
औरत होने की सज़ा
उस दिन हो जाएगी ख़त्म
जिस दिन महिलाएं जान जाएंगी
दमन के विरुद्ध
लावा बनना है तो ख़ुद।
ईमेल- vinabhatia4@gmail.com
मोबाइल - 9013510023
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सुरेन्द्र बोथरा ’मनु’
जल-दिवस पर कुछ दोहे
गंगा यमुना रो रहीं, धोकर जग का मैल,
शरमाएंगे नग्न हो, कल ऊंचे हिम शैल।
सागर में जल बढ़ रहा, भू पर मनुज जमात,
जीवन सांसत में फंसा, धरती सिकुडी जात।
खाने को दाने नहीं, पीने को जल नाहिं,
भवन बचेंगे भुवन में, सून बसे जिन माहिं।
नगर, डगर, घर, दर हुआ, कृत्रिम का शृंगार,
धरती तरसे साँस को, भटक रही जलधार।
नदियों में विष घुल गया, मेघ झरे तेज़ाब,
‘बिन पानी सब सून’ की, गई आबरू, आब।
एक निवाला मिल गया, चुल्लू में जल नाहिं,
अटक गया जो कंठ में, प्रभु मिलन पल माहिं।
बंधे तो जीवन जन्म ले, बिखरे व्यापे पीर,
बूँद-बूँद संचित करो, अमृतसम यह नीर।
मनुआ व्यर्थ न जानिए, मुफ्त मिले जो माल,
वर्षा-जल संचित किए, जन-जन होय निहाल।
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Surendra Bothra
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अंश प्रतिभा
अन्याय से लड़ते लड़ते
अन्याय से लड़ते लड़ते मैं
खूद से अन्याय कर बैठी
खुश हो मेरा सारा जहां
मैं दुःख के अंधेरे में खो गई
मैं खोई अंधेरों में इस कदर की
सही .गलत को भूल गई
न्याय के लिए लड़ते लड़ते मैं
अन्याय की साथी बन गई
कौन अपना कौन पराया
सब की लाठी मैं बन गई
ऐसी मैंने लड़ी लड़ाई
कि खुद से लड़ना भूल गई
हूं अशांत मैं फिर भी देखो
शांत स्वभाव दिखती हूं
कैसी विडंबना मेरी ये
मैं खुद से नहीं लड़ पाती हूं
न्याय के लिए लड़ते लड़ते मैं
खुद से अन्याय कर बैठी
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‘‘मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी’’
मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी व्याकुल और अशांत है।
कैसे छोड़ जांउ इस काया को,
जिसे संभाला वर्षों तक। वहीं काया आतुर है,
आज मिट्टी में मिल जाने को।
मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी व्याकुल और अशांत है।
जब-जब देखा करती थी मैं, खुद को एक दर्पण में,
घण्टों निहारा करती थी मैं, अपनी सुन्दर काया को।
आज वहीं व्याकुल है काया, अग्नि मैं जल जाने को।
मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी व्याकुल और अशांत है।
नहीं भरोसा था मुझे, कभी अपनी किस्मत पे,
अपनी किस्मत को मैंने,
लिखा खुद की स्याही से।
क्या पता था लिखते-लिखते, स्याही खत्म हो जाऐगीं,
जीवन रूपी सांसे मेरी, अचानक ही थम जायेगी।
फिर भी मेरी जिद है कि, मैं यही पर ठहरी रह जाउँगी,
मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी व्याकुल और अशांत है।
कैसे तुम मेरे अपने हो, जो जीते जी कभी समझे नहीं,
और मृत्यु पर अश्क बहाते हों।
फिर भी मेरी इच्छा है कि, कंधा दो मेरी अर्थी को,
मृत्यु पश्चात आत्मा मेरी व्याकुल और अशांत है।
....................... अंश प्रतिभा
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
नारी की महिमा
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नारी दुर्गा नारी अंबे , नारी ही है काली
जब भी बढ़े पाप तो, नारी हो जाती लाली
नारी से संसार चले, नारी से ही विस्तार
जगत का पालन करने वाली, नारी है आधार
अबला न समझो उसे, सब पर है वह भारी
हर काम सहज वो करती, न हो कोई लाचारी
ममता की मूरत है नारी, महिमा उनकी भारी
स्नेह सदा बरसाते रहती, है दुनिया में प्यारी
*******************
महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला - कबीरधाम (छ. ग)
पिन- 491559
मो.- 8602407353
Email -mahendradewanganmati@gmail.com
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संदीप शर्मा ‘नीरव’
मैं व्योम मिलन को चला
..................................................................
मैं व्योम मिलन को चला ,
हवा के थपेडों से बचते - बचते |
झोंकों से शिकायत नहीं मुझे , पर
हवा का रुख ही बदल गया,
तूफां उठा , भावों का |
फिर भी मैंने थपेड़े सहे ,
गिरा और उठकर फिर चला |
मन का छंद पूरा करने को ,
मैं व्योम मिलन को चला || १ ||
मूक, विमुख नीरव सा रहा |
हृदय ने आत्माग्नि को सहा ||
है कैसा आक्रोश इस मन का ?
है कैसा लक्ष्य इस जन का ?
अनंत में मंथन करने का
अब स्वप्न मन में है पला ,
मैं व्योम मिलन को चला ||२||
ख शांत शून्य सा जो है ,
असीम सा फैलाकर भुजाएं,
भरकर अंक में इस भव को |
पर है इसका भी छोर कहीं |
होगी फिर से एक भोर कहीं ||
सोचकर इसे पाने की कला |
मैं व्योम मिलन को चला || ३ ||
संदीप शर्मा ‘नीरव’
प्र. स्ना. शिक्षक - संस्कृत
केन्द्रीय विद्यालय, टोंक |
इ मैल - educatordeea@yahoo.co.in
मोब- 8384905353
पता -86/137 SECTOR-08 TONK ROAD SANGANER JAIPUR
PIN - 302033
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जयचन्द प्रजापति
(1)
श्रृंगार रस की कविता की ताकत
मेरी श्रृंगार रस की
कविता सुनकर
एक युवती पिघल गई
घर बार छोड़कर
मेरे घर आ गई
आपकी कविता मुझको भा गई
मन समर्पित,तन समर्पित
आप सादर स्वीकार करें
मैं कई कवियों को
ठुकरा के आई हूँ
मेरे नयन
मेरे होठों की नरमी से
आपकी श्रृंगार रस की कविता
परिपक्व होगी
कहाँ से आई मुसीबत
मैं तो काका की कविता
चुरा के सुनाई थी
बड़ी ढीठ थी
वह मेरे करीब बैठ गई थी
नयनों से घूर रही थी
श्रृंगार रस मुझे पिला रही थी
अब समझा
श्रृंगार रस की कविता की ताकत
मेरा घर बार उजाड़ रह थी
(2)
बन गया कवि
घर बार बेंचकर
पत्नी मायके भेजकर
बन गया कवि
विरह वेदना में लगा जलने
वियोग का बना कवि
किसी कविता पर
एक फूटी कौड़ी न मिली
जूता फटा है
मोजा फटा है
तीन दिन से भूखा सो रहा हूँ
सारा नशा गया उतर
कवि नहीं बनूँगा
यह धंधा बहुत खोटा है
कवि खुद मरा है
दूसरों को क्या उबारेगा
जयचन्द प्रजापति
जैतापुर,हंडिया, इलाहाबाद
मो.07880438226
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सागर यादव'जख्मी'
(तुम्हारा प्यार)
मन के सूने आँगन मेँ
खुशियोँ की सौगात
तुम्हारा प्यार
सहारा -थार मरुस्थल मेँ
जल का स्रोत
तुम्हारा प्यार
आत्मविश्वास की धरती पर
भरोसे की नीँव
तुम्हारा प्यार
निराशाओँ के अधियाँरे मेँ
आशा का दीप
तुम्हारा प्यार
जीवन के अन्तिम क्षण मेँ
अमृत की बूँद
तुम्हारा प्यार
टिम-टिम करते तारोँ के मध्य
पूनम का चाँद
तुम्हारा प्यार
मई-जून की दोपहरी मेँ
तरुवर की छाया
तुम्हारा प्यार
घने कोहरे ,हाड़ कँपा देने वाली ठंड मेँ
सूरज की किरण
तुम्हारा प्यार
- - - - - -
वे लम्हेँ
जो गुजरे तुम्हारे साथ
बड़े प्यारे लगते हैँ
सुबह के वक्त
मैं और तुम
आ मिलते कालेज मेँ
मुस्काते हुए
कुछ प्यार भरी बातेँ होती
कुछ व्यंग भरी बातेँ होती
कई बार तो तुम्हेँ निहारते
गुजर जाता पूरा दिन
कालेज की छुट्टी के दौरान
एक दूजे को
प्यासी निगाहोँ से देखकर
दोनोँ चले जाते
अपने-अपने घर |
(सागर यादव'जख्मी' नरायनपुर,बदलापुर,जौनपुर,उत्तर प्रदेश-222125)
0000000000000000000
धर्मेंद्र निर्मल
सुन रे ! मानव वन क्या बोले ?
मेरी जडें बाँधती मिट्टी
पाली हिल साँसे देती है।
धूप में करते श्रम, थकान
शीतल छाँव मिटा देती है।
महुए से बसंत मदमाता है
छाती पर कोयल गाती है।
मेरे एक आमंत्रण पर
वर्षा भू-पर इठलाती है।
मैं जीवों का आश्रयदाता
आँचल औषधियों की थाती।
पूछो दादी से कहाँ कैसे
हैं बन्दर भालू चीते हाथी।
धरती की शोभा मुझमें
झरनों के जीवन संगीत।
क्यों करते सैर बना उपवन
सजाते हो चित्रों से भीत।
मीठे फल पाओगे कहाँ
होगी जब वसुधा वीरान।
जीवन चूल्हा बुझ जायेगा
जायेगा कौन साथ श्मशान।
किसकी गोदी में पली बढ़ी
पायी है सभ्यता जवानी।
कंदमूल खा छिलके ओढ़े
भूल गये आदम की कहानी।
00
आह्वान
आओ रे हम मिलकर चीरें
फैला घुप्प अंधेरा।
होगा हाथ आते ही कुनकुना
स्वर्ण सरीख सबेरा।।
ख्वाब सजाना बहुत दूर है
नींद हुई आँखों से ओझल
पुरखों की इस ऋण रात में
वर्तमान के कंबल बोझल।
भरेंगे श्रम से रंग चाँदनी
कल, बन प्रकृति-चितेरा।।
मैं दधीचि बन अस्थि देता हूँ
वज्र बना तुम करो प्रहार,
गीता की सौगंध है तुमको
अर्जुन सा करो संहार ।
संभव है जग में परिवर्तन
जब कटे शकुनि का फेरा।।
नहीं समझते गिद्ध काग की
मूक प्रेम की भाषा,
इनको अपनी जेबें प्यारी
अपने हिस्से की झूठी दिलासा।
खा जायेंगे देश नोचकर
रहते अपना बसेरा।।
कब तक ताके सोन-चिरैया
परमुख भूखी प्यासी,
बरसे दूध उगले सोना
गंगा कल-कल कोकिला-सी।
हिमालय के सख्त पहर में
घुस आया है लुटेरा।।
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संतोष भावरकर नीर
अध्यात्म की ज्योत
अध्यात्म की ज्योत मन में जल जाये तो अच्छा है।
मुश्किलों के क्षण जल्द ही टल जाये तो अच्छा है।।
कष्टों में एकाएक घबरा जाता हैं मेरा नाजुक ये मन।
बीत जाएँ मेरे ईश्वर,हे कष्टों भरे पल तो अच्छा है।।
जिंदगी के सफ़र में न जाने कौन फरिश्ता मिल जाये।
सबकी की दुआओं से मिल जाए मुझे बल तो अच्छा है।।
समस्या से घिरा, उलझा और उलझता ही गया उलझनों में।
उम्र का यह पड़ाव भी सरलता से ढल जाए तो अच्छा है।।
कदम कदम पे ठोंकरे मिली,गिरता गया और संभला भी।
मेरी दुआओं का सिक्का हर शु चल जाए तो अच्छा है।।
हर शख्स को हर दिल की चाही ख़ुशी दे दे या मेरे रब!
आई हर मुसीबत सर से सबकी टल जाए तो अच्छा है।।
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नाम:-संतोष भावरकर "नीर"
माता-श्रीमती चंद्रकांता भावरकर
पिता- स्व.श्री जे. एल.भावरकर
पत्नी-श्रीमती रजनी भावरकर
जन्म- 23/03/1975 (छिंदवाड़ा म. प्र.)
शिक्षा- एम. ए.(संस्कृत साहित्य, हिंदी साहित्य) बी.एड,
विश्वविद्यालय- डॉ हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय सागर
पी.जी.डी.सी.ए.(माखनलाल चतुर्वेदी राष्टीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल)
प्रकाशन/प्रसारण:-देश की राष्ट्र स्तरीय पत्र-पत्रिकाओँ में सन् 1992 से सतत प्रकाशन
(लगभग 200 कविता, आलेख,ग़ज़ल गीत,कहानी,मुक्तक,का प्रकाशन)
प्रसारण:-आकाशवाणी छिंदवाड़ा अनेकों बार कविता,ग़ज़ल, मुक्तक का प्रसारण
सम्मान:- अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
कार्यक्षेत्र:- शिक्षा विभाग (अध्यापक)
संपर्क-सालीचौका रोड,गाडरवारा जिला-नरसिंहपुर (म. प्र.)
000000000000000
अंजली अग्रवाल
कविता – “आज”
झूठ ताज पहने घूम रहा हैं आज॰॰॰॰
सच तो दाने — दाने को हैं मोहताज॰॰॰॰
टेबल के नीचे से होता हैं भ्रष्टाचार का सत्कार॰॰॰॰
चेहरे पर मुखौटा पहनने का बन गया हैं रिवाज॰॰॰॰
ईमानदारी के फूल कहाँ खिलते हैं आज॰॰॰॰
तभी तो काँटों से भर गया हैं संसार॰॰॰॰
अधर्म पाँव पसारे बैठा है॰॰॰॰
विश्वास का दीपक बुझ रहा हैं आज॰॰॰॰
संवेदना खो रहा हैं समाज॰॰॰॰
आज इंसान ही इंसान के लिये बन गया हैं अभिशाप॰॰॰॰
झूठ ताज पहने घूम रहा हैं आज॰॰॰॰
सच तो दाने — दाने को हैं मोहताज॰॰॰॰
सबसे पहले तो मैं रचनाकार के संपादक महोदय एवं सभी सहयोगियों को धन्यवाद देता हूँ जिसके अथक प्रयास से यहाँ सभी प्रकार के लेख कहानी कविता आदि का प्रकाशन हो रहा है
जवाब देंहटाएंइसमें प्रकाशित सभी रचनाएँ एवं लेख बहुत ही बढ़िया है
सभी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
महेन्द्र देवांगन माटी