लोग इन्हें भले ही होशियार, चतुर, शातिर और धीर-गंभीर कहें, कहते रहें, पर असल में उस इंसान कहे जाने वाले जिस्म का क्या अर्थ है जो जमाने या आस...
लोग इन्हें भले ही होशियार, चतुर, शातिर और धीर-गंभीर कहें, कहते रहें, पर असल में उस इंसान कहे जाने वाले जिस्म का क्या अर्थ है जो जमाने या आस-पास की हलचलों पर किंचित मात्र भी प्रतिक्रिया व्यक्त न करे।
अच्छे को अच्छा न कहे, बुरे को बुरा कहने में शर्म आए। या फिर राम की भी जय और रावण की भी जय करता रहे। तेरी भी जय-मेरी भी जय में विश्वास करे। उस हाड़-माँस से भरे बोरे का क्या अर्थ है जो उदासीनता या तटस्थता ओढ़े रखे।
एक जमाना था जब इंसान संसार और परिवेश से कुछ समय के लिए अथवा सदा-सदा के लिए वैराग्य धारण कर लिया करता था और उस अवस्था में उसे संसार को जानने, समझने या ध्यान रखने की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी, वह अपने ही हाल में मस्त था।
लेकिन आज का इंसान इतना भोला नहीं रहा। उसे सब सूझ पड़ती है। अच्छी तरह पता होता है कि उसके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा। पूरी दुनिया की पल-पल की खबर रखता है। वह दोहरे-तिहरे चरित्र को लेकर जीता है, ढेर सारे मुखौटों की पूरी की पूरी दुकान साथ लेकर चलता है। जैसा माहौल, जैसा इंसान देखा वैसा मुखौटा लगा लिया, काम निकलवा लिया और चलता बना।
कुछ लोग चरित्रहीनता को अपना चुके हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या सत्य है, क्या असत्य, कौन सा धर्म है और कौन सा अधर्म। उन्हें सिर्फ अपने काम की पड़ी है, अपने नम्बर बढ़वाने के लिए ही वह जिन्दा है और उसका यही लक्ष्य है कि उसके स्वार्थ और काम पूरे होते रहें, उसकी कुर्सियों के पाये हिल नहीं पाएं, कोई हिला नहीं पाए, हिलाए तो वर्तमान से उच्चावस्था प्राप्त हो। अपने आपको ऊपर उठाने के लिए हम कितना भी नीचे गिरने को तैयार रहते हैं, लुच्चावस्था का खुला प्रदर्शन करने को उतारू हो जाते हैं।
इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा में हम किसी को बख्शते नहीं, कोई लिहाज या लाज-शरम नहीं करते। अपने आस-पास वालों को भी कभी भी घुट्टी पिला सकते हैं या दौड़ से बाहर करा देने के तमाम हथकण्डे अपनाते रहते हैं।
अपने स्वार्थ पूरे करने की गरज से हम किसी भी स्तर तक जा सकते हैं यह विश्वास अब उन सभी लोगों को हो चुका है जो इंसान को अब तक सिद्धान्तवादी और नैतिक चरित्र सम्पन्न मानते रहे हैं।
इंसानी सोच में बदलाव को दर्शाती विभिन्न इंसानी प्रजातियों में अब उन लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो कृत्रिम बनकर जीने को ही जिन्दगी मानते हैं और ऎसे व्यवहार करते हैं कि जैसे इनके मुकाबले कोई और संजीदा व्यक्तित्व धरा पर न हो। बात करने से लेकर चलने-फिरने, उठने-बैठने और खाने-पीने तक में अपने आपको आदर्श मनवाने के लिए आदमी कितना बहुरुपिया और स्वाँगिया होता जा रहा है, यह देखना हो तो इस प्रजाति को देख लें।
अपने आपको सकारात्मक चिन्तन से परिपूर्ण और महान बताने की इच्छा पाले हर क्षण डुप्लीकेट रहने वाले इन झूठे और मक्कार लोगों की सबसे बड़ी खासियत यही होती है कि ये सब कुछ जानते हुए भी जताएंगे ऎसे कि इन बेचारे भोले और इन्नोसेंट लोगों को कुछ भी पता नहीं है।
यह प्रजाति आजकल सोशल साईट््स पर बहुतायत में फब रही है। रहेंगे सभी जगह लेकिन हलचल कुछ नहीं करेंगे जैसे कि साँप की बजाय अजगर सूंघ गया हो। इनमें से अधिकांश लोग तमाशबीन होते हैं जो तमाशा देख-देख कर खुश होते हैं और मदारी तथा जमाने से डरते भी हैं, कहीं कोई पोल न खोल दे।
अधिकांश जानबूझकर तटस्थ बने रहते हैं ताकि उनके दोहरे चरित्र और मुखौटों भरे असंख्य किरदारों की थाह कोई पा न सके। उनकी कलई न खुल सके। बहुत सारे शातिर और चतुर होते हैं जो नकारात्मक चिन्तन से इतने अधिक भरे रहते हैं कि वे किसी और को स्वीकार ही नहीं करते।
ये लोग अपनी वैचारिक मलीनताओं भरी छुरी साथ लेकर बिल्लौरी काँच लगा कर एक-एक अक्षर को अच्छी तरह पढ़ते हैं, एक-एक फोटो को आँखें फाड़-फाड़ कर देखते हैं और बगुलों या गिद्धों की तरह इसी फिराक में लगे रहते हैं कि कब किसे उसकी गलती पकड़ कर कैसे विवादित कर दिया जाए या शिकायत का मौका मिल जाए। हर हरकत को देखने और उसका पोस्टमार्टम करने वाले ये लोग किसी डिटेक्टर एजेंसी के चीफ या जासूसी सीरियलों के पात्र की तरह काम करते रहते हैं।
इन तटस्थ और मूकद्रष्टा भाव को जीवन का आधार मान चुके लोगों की वजह से ही समाज पिछड़ा हुआ है। एक तो इनकी मौजूदगी के कारण पृथ्वी पर भार बढ़ रहा है, दूसरा ऎसे लोगों की वजह से सत्यासत्य और धर्म-अधर्म के पैमाने और कसौटियां ध्वस्त हो रही हैं।
फिर जो लोग इनके बारे में भ्रमों में जीते हैं वे इनके श्वेत-श्याम इतिहास से बेखबर होने के कारण इन्हें महानता दे डालते हैं। इस कारण से भी अपात्रों के गुब्बारे फूल-फूल कर आसमान छूने लगे हैं।
बीती सदियों में हमारी गुलामी के लिए ऎसे ही लोग जिम्मेदार रहे हैं जो शो केस में सजाकर रखी मूर्तियों की तरह बिना बोले पड़े रहे और देश लुटता चला गया। इनके मौन को आक्रान्ताओं और नालायक साम्राज्यवादियों ने मूक समर्थन माना और हमें रौंदते चले गए।
आज भी वही स्थिति है। सारे के सारे तटस्थता ओढ़े हुए बैठे मूकद्रष्टा राष्ट्रद्रोही ही हैं जो चुप्पी साधे हुए अपने आपको सुरक्षित माँद में बिठाए हरसंभव ऎशो आराम फरमा रहे हैं।
इसी को कहते हैं गुलामी मानसिकता, जिसकी वजह से ये स्वनामधन्य लोग हर तरह से आजाद होने के बावजूद नज़रबन्दियों की तरह जी रहे हैं। यों भी मुखर अभिव्यक्ति से वही इंसान जी चुराते हैं जो किसी न किसी अपराध बोध से ग्रस्त, आत्महीन या मलीन कर्मों में लगे हुए हैं अथवा उनकी जिन्दगी खुदगर्जी और स्वार्थ का पर्याय हो चुकी है।
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- डॉ. दीपक आचार्य
9413300477
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