कहानी आखिर क्यों प्रभात दुबे र विवारीय अवकाश की खुशनुमा सुबह, गुलाबी जाड़े की कुनकुनी धूप, अपनी ही रौ में बहती हुई ठण्डी हवा का आनंद उठ...
कहानी
आखिर क्यों
प्रभात दुबे
रविवारीय अवकाश की खुशनुमा सुबह, गुलाबी जाड़े की कुनकुनी धूप, अपनी ही रौ में बहती हुई ठण्डी हवा का आनंद उठाता, मैं लॉन में बैठा हुआ था. मैंने इन फुरसती क्षणों में मोबाइल ऑन किया और मीनू के ऑप्शन में जाकर माय फोटो की बटन दबाई तो सहसा प्रथम चित्र देखते ही लगा मानो जैसे अतीत के दरवाजे की कुंडी खुल गई हो. सुगंधित शीतल पवन के झोके के मानिंद रंगीन स्क्रीन पर एक बुजुर्ग दम्पत्ति का मुस्कुराता हुआ चेहरा उभर आया. स्मृति पटल पर पल भर में ही सारा घटनाक्रम साकार हो उठा.
यह उस वक्त की बात थी, जब मैं लंबी रेल यात्रा पर था और द्वितीय श्रेणी के स्लीपर कोच में ऊपर की बर्थ पर गहरी नींद में निमग्न था. अचानक लोगों के कोलाहल से मेरी नींद खुली. मैंने धीरे से अपनी पलकें खोलीं. लेटे-लेटे ही अंगड़ाई ली. आहिस्ते से अपने चेहरे पर ढकी चादर को अलग किया. सुबह का उजाला बाहर ही नहीं कोच के अन्दर भी था. तभी तेज हवा का गर्म झोंका मेरे चेहरे से आ टकराया. तब मुझे लगा कि जैसे मैं गंदे, लंबी अवधि से जमा किसी विशाल कचरे के ढेर से निकलती तेज, असहनीय दुर्गन्ध की परधि में हूं.
‘भाई साहब यह कौन सा स्टेशन है?’ मैंने खिड़की के समीप बैठे नवयुवक से पूछा.
उसने बेरुखी से इन्कार में हल्का सा सर हिलाया और गुस्से से झुझंलाते हुए कांच की खिड़की को खोल दिया. लगता था वह भी इस असहनीय दुर्गन्ध से परेशान है. मैं सम्हल कर नीचे उतरा. जैसे ही मैंने चप्पलों को अपने पैरों में डाला, तभी उसकी आवाज मेरे कानों से आ टकराई. वह मुझे ही संबोधित कर कह रहा था-‘सर, आप कहां जा रहे हैं?’
मैंने आश्चर्य चकित होकर कहा-‘टायलेट, क्यों?’
‘कुछ नहीं सर, मैं यह कहने वाला था कि आप टायलेट न ही जाये तो बेहतर होगा?’
उसके इस प्रश्न ने मुझे हैरान कर दिया.
मैने उससे पूछा-‘ क्यों?’
उसने मेरे प्रश्न के जवाब में मुझसे ही प्रश्न पूछ लिया-‘सर, क्या आपको तेज बदबू का अहसास नहीं हो रहा है?’
‘हां, हो तो रहा है.’
उसने मेरी जानकारी में इजाफा करते हुए कहा-‘ सर, यह दुर्गन्ध इसी कोच के सभी शौचालयों से आ रही है. लगता है कई दिनों से इन शौचालयों पर रेलवे कर्मचारियों की नजर नहीं पड़ी है. इनमें इतनी गंदगी है कि मैं आपको बता भी नहीं सकता और एक दो शौचालय तो ऐसे भी है जिनकी गंदगी में मरे हुए चूहे सड़ांध मार रहे हैं.’
वह कुछ और कहता कि तभी एक तेज लंबी विसिल के साथ ही धीरे-धीरे ट्रेन ने चलना प्रारंभ किया और कुछ पलों बाद ही उसने अपनी वही पुरानी तेज रफ्तार पकड़ ली. ट्रेन की गति बढ़ते ही गर्म थकी-थकी सी हवा में दुर्गन्ध की कुछ तो कमी हुई थी लेकिन अभी भी दुर्गन्ध का अहसास हो रहा था. मैं अपनी बर्थ पर जाने ही वाला था कि उसने फिर कहा -‘सर, जब से मैं इस कोच में आया हूं, तब से इस तीखी दुर्गन्ध के कारण मेरे सर में दर्द सा होने लगा है. हमारा रेलवे विभाग रेल यात्रियों से करोड़ों रुपया किराये के रूप में वसूलता तो है लेकिन यात्रियों की
सुविधाओं की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देता. होना यह चाहिये कि जिस व्यक्ति को सरकार ने जो कार्य सौंपा है, जिसका वे वेतन पाते हैं उसे कम से कम वह कार्य तो ईमानदारी से करना ही करना चाहिये.’
वह कुछ और कहने वाला था कि मैंने उससे कहा-‘आपका परिचय?’
उसने बताया-‘सर, मैं मध्य प्रदेश के छोटे से जिले की सत्ताधारी पार्टी का सरपंच हूं. प्रदेश से प्रकाशित होने वाले
सांध्य अखबार का संपादक भी हूं. दिल्ली के मंत्रालय में कुछ व्यक्तिगत काम है, और कुछ राजनेताओं से भी मिलना है. इसलिये दिल्ली जा रहा हूं.’
मैं समझ चुका था कि यह नवयुवक स्वभाव से बातूनी है इसलिये मैं उसकी देश विदेश, घर गांव की बातें सुनता रहा. तभी किसी छोटे से रेलवे स्टेशन पर ट्रेन कुछ पलों के लिये ठहरी और दो तीन मिनिट पश्चात् ही वह फिर तेज गति से अपनी मन्जिल की ओर बढ़ने लगी.
कुछ क्षणों पश्चात् हमारे कोच में एक बुजुर्ग ग्रामीण दम्पत्ति भीड़ में सीट तलाशते हुए मेरे सामने आ खड़े हुए. मैं उनके हाव भाव, सलीके से, उनके स्वच्छ पहिने हुए परिधानों से मन ही मन अनुमान लगा रहा था कि ये दोनों संस्कारयुक्त, आदर्श भारतीय परम्पराओं का निर्वाह करने वाले दम्पति होना चाहिये. बुजुर्ग ने मेरी ओर देखते हुए खाली बर्थ की ओर दाहिने हाथ से संकेत करते हुए पूछा-‘क्या यह बर्थ खाली है, यदि आप कहें तो हम यहां बैठ जाये.’
मैने कहा-‘हां-हां क्यों नहीं, आप आराम से बैठिये.’
उस बुजुर्ग दम्पत्ति के बदन पर मोटी खादी के ही साफ सुंदर धुले कपड़े, पैरों में खादी आश्रम की साधारण चप्पलें और कांधे पर ही खादी का एक थैला टंगा हुआ था. मैं सोच रहा था कि बुजुर्ग व्यक्ति की आयु अस्सी-बियासी वर्ष के आसपास और महिला की आयु उनसे कुछ बरस कम होना चाहिये. वे दोनों अभी भी कद काठी से काफी मजबूत दिखलाई दे रहे थे. प्रथम दृष्टि में वे मुझे बहुत ही भले लगे. बर्थ पर बैठने के बाद महिला ने क्षण भर के लिये सभी को देखा. इसके उपरांत उस बुजुर्ग से
धीमे स्वर में कहा-‘क्या आपको दुर्गन्ध आ रही है?’
‘हां, आ तो रही है.’ बुजुर्ग ने सरलता से कहा.
‘यह दुर्गन्ध कहां से आ रही है और किस चीज की है?’ बुजुर्ग ने मुझसे मुखातिब होकर पूछा.
मैं कोई जवाब दे पाता कि तभी उस नवयुवक ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा-‘यह दुर्गन्ध कोच के सभी चारों टायलेटों से आ रही है जिसके कारण पूरे कोच के लोग जब से ट्रेन चली है तभी से परेशान हैं. मैंने टायलेट साफ न होने की शिकायत कोच के टी.सी. और रास्ते में आने वाले कुछ रेलवे स्टेशन मास्टरों से भी की थी, किन्तु अभी तक कोई सफाई कर्मचारी इन टायलेटों को साफ करने के लिये नहीं आया है. न जाने क्या होता जा रहा है हमारे देश के कर्मचारियों और अधिकारियों को, कोई किसी की सुनता ही नहीं. पूरे देश में हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक अराजकता सी फैली हुई है. हम रेल यात्रियों की पीड़ा न तो कोई सुनने वाला है, न देखने वाला. यदि आज ट्रेन में अधिक भीड़ नहीं होती तो मैं पल भर भी इस दुर्गन्ध से भरे हुए डिब्बे में बैठना पसन्द नहीं करता.’
वह युवक आक्रोशित होकर कुछ और कहता कि तभी बुजुर्ग ने धीरे से मुस्कुरा कर उसे अपने दाहिने हाथ से शांत रहने का इशारा किया और अपनी पत्नी की ओर देखा, आंखों ही आंखों में कुछ इशारा किया और तत्काल आहिस्ते से वे दोनों एक साथ उठे. बिना किसी की ओर देखे चुपचाप एक दूसरे की विपरीत दिशाओं में तेजी से चल पड़े. मैं अचंभित होकर यह सोचता रहा कि ऐसा क्या हो गया कि वे दोनों इस तरह से उठ कर चले गये.
लगभग बीस-पच्चीस मिनिट बाद वही बुजुर्ग दम्पत्ति आत्म-विश्वास से भरे हुए, सधे कदमों के साथ आकर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये. कुछ पलों की छोटी सी खामोशी के बाद उस बुजुर्ग ने हम सभी की ओर देखते हुए गंभीर स्वर में पूछा-
‘क्या आप सभी को ऐसा नहीं लगता कि अब दुर्गन्ध समाप्त हो चुकी है?’
सभी के साथ ही मैंने भी अन्दर की ओर सांस खींची. यह सच था कि अब हवा में बिलकुल भी दुर्गन्ध नहीं थी. यह कोच के अन्य यात्रियों के साथ मुझे भी किसी चमत्कार से कम नहीं लग रहा था.
मैंने उनसे कहा-‘आप बिलकुल सही कह रहे हैं, अब
दुर्गन्ध नहीं है, लेकिन यह दुर्गन्ध समाप्त कैसे हुई?’
उन्होंने अपनी दोनों साफ सुन्दर हथेलियों को गौर से देखते हुए कहा-‘कुछ नहीं, हम पति-पत्नी दोनों ने चारों शौचालयों को अच्छी तरह से साफ कर दिया है. मरे हुए चूहों को एक पोलीथीन में भर कर उसे अच्छी तरह से बंद कर डस्टबिन में डाल दिया है. अब आप लोग चाहें तो साफ स्वच्छ दुर्गन्धहीन शौचालयों का उपयोग कर सकते है.’
यह सुन कर कई यात्री एक साथ उठे और तेजी से शौचालयों की ओर लगभग दौड़ पड़े. लेकिन मैं अपलक पत्थर बना मंत्रमुग्ध सा उन्हें देखता रहा.
उन्होंने अपनी गहरी, गंभीर, अनुभवी आंखें मेरी आंखों में डाल कर स्नेह भरे शब्दों में कहा-
‘बेटे, सभी चाहते हैं कि काम दूसरे लोग करें और हमें सारी सुविधायें सरलता से उपलब्ध होती रहें. इसीलिये हम हमेशा असुविधायें सहते हुए भी दूसरों को कोसते रहते हैं. आखिर क्यों? आखिर क्यों नहीं हम दूसरों की समस्यायों को अपनी समस्या समझ कर हल करने के लिये स्वयं आगे बढ़ कर कोई प्रयास करते हैं. दरअसल हमारे देश में ऊंगली उठाने, आलोचना करने वाले लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है. हमारे यहां आक्षेप लगाना एक पारंपरिक आदत है. हम सबकुछ चाहते हैं, लेकिन हम में कुछ करने की इच्छा शक्ति मृतप्राय सी हो गई है. सच्चाई यही है कि जब तक हम स्वयं कुछ करने की आदत नहीं डालेंगे, तब तक स्थिति जस की तस बनी रहेगी. मैं कुछ बरसों तक गांधी जी का साथी रहा हूं, उन्हें मैंने काफी निकट से देखा है, समझा है और उनके विचारों को आत्मसात कर अपने जीवन में उतारा है. वे कहा करते थे कि कोई भी काम महत्वहीन हो सकता है पर महत्वपूर्ण यह है कुछ किया जाये.’
वे मुझसे कुछ और कहना चाह रहे थे. मैं भी उनसे बहुत सारी बातें करना चाहता था कि तभी ट्रेन धीरे-धीरे थमते हुए
‘गांधीग्राम’ नामक रेलवे स्टेशन पर रुकी ही थी कि वे दोनों उठे और उस बुजुर्ग ने हम सभी की ओर स्नेह दृष्टि से देखा, दोनों ने हाथ जोड़े और उस बुजुर्ग ने कहा-‘जयहिन्द, अच्छा अब हम लोग चलते हैं.’
यह सुनते ही मैं अपनी सीट से उठा और उनसे मैंने आतुरता से अनुरोध किया-‘यदि आप लोगों की आज्ञा हो तो मैं अपने मोबाइल में आपका एक छाया चित्र उतार लूं.’
यह सुनते ही बुजुग पुरुष ने अपनी पत्नी की ओर देखा. पत्नी ने सहमति से अपना सर हिलाया तो वे बोले-‘हां-हां क्यों नहीं.’ इतना सुनते ही मैंने तनिक भी देर नहीं की और उन दोनों का एक सुन्दर चित्र अपने मोबाइल में कैद कर लिया. उनके ट्रेन से उतरते ही मेरे मन मस्तिष्क में यह सवाल तेजी से उभरा कि वे बूढे दम्पति आम लोगों के हित में यदि इन दुर्गन्धयुक्त शौचालयों को स्वयं अपने हाथों से साफ कर सकते हैं तो मैं या कोई अन्य यात्री ऐसा क्यों नहीं कर सकता?’
तभी मोबाइल की तेज रिंग बजी और कुछ पलों बाद ही मैं अपने अतीत से बाहर निकलकर मोबाइल ऑन कर रहा था.
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