समीक्षात्मक लेख ‘वह लड़की’ से ‘यह लड़की’ तक : समाज में बदलाव डॉ. कुंवर प्रेमिल कृतिः वह लड़की (कहानियां) लेखकः राकेश भ्रमर प्रकाशकः प...
समीक्षात्मक लेख
‘वह लड़की’ से ‘यह लड़की’ तक : समाज में बदलाव
डॉ. कुंवर प्रेमिल
कृतिः वह लड़की (कहानियां)
लेखकः राकेश भ्रमर
प्रकाशकः प्रज्ञा प्रकाशन, 24, जगदीशपुरम्, लखनऊ मार्ग,
रायबरेली-229001 (उ.प्र.)
वरिष्ठ कहानीकार राकेश भ्रमर जी का कहानी संग्रह ‘वह लड़की’ समीक्षार्थ प्राप्त हुआ. अच्छा लगा. कहानी के खजाने में अभिवृद्धि हुई. कहानी का कुनबा बढ़ा. और बढ़ोत्तरी के खाते में राकेश जी का नाम भी उत्तरोत्तर विकास के आंकड़े गढ़ने में कामयाब हुआ.
इस संग्रह को मिलाकर उनके छः कहानी संग्रह कहानी जगत को प्राप्त हुए हैं. कहानीकार ने कहानी के लिए ‘वह लड़की’ लिखकर अच्छा श्रम किया है और कहानी को कहानी जैसा रहने देने का उपक्रम भी उनकी ओर से हुआ है. इस हेतु उन्हें एक शानदार बधाई.
मैंने समीक्षा लिखने के लिए अपनी कलम उठाई और इसके लिए संग्रह की शीर्षक कहानी के ऊपर अपनी नजरें इनायत कर डालीं. दरअसल यह कहानी जमींदारों और जमींदारों के जुल्मो-सितम की है. यह वह समय था, जब बेरहमी ही बेरहमी थी और नेकनीयती का दूर-दूर तक अता-पता नहीं था.
कहानी में ‘वह लड़की’ की मां है जो जमींदार के यहां मजदूरी कर अपना और अपनी लड़की का पेट पालती है. वह अपनी लड़की को जमींदार की हवस से बचाने का पूरा यत्न करती है. वह अपनी लड़की को एक प्रकार से अपने घर में छिपाकर रखती है. अंततः जमीदार रूपी बाज ने लड़की रूपी चिड़िया के पंख नोंचकर उखाड़ फेंके और उसके बदन को लहू-लुहान कर दिया. जमींदार का नंगा नाच देखने के लिए विवश थी वह औरत. आखिर वह बेचारी करती क्या? यह वह समय था जब गांव में ब्याही आई औरत से सुहागरात पहले जमींदार ही मनाता था.
पाठक कहेंगे कि इस बर्बरता को इस समय बयां करने की क्या जरूरत है? न ही जमींदार बचे हैं और न ही उनके जुल्मो-सितम. न वह जालिमाना हठ, बर्बरता या असंवेदनशीलता...अश्लीलता...पर है, जरूरत है...जो घाव उस समय, समय ने दिए हैं वे अभी सूखे नहीं हैं.यह सनद रहे और यह प्रयास भी रहे कि समय ने जो रक्तरंजिता दास्तानें लिख डाली हैं उनकी अब पुनरावृत्ति न हो. भूख और भुखमरी का खेल अब न हो. पैशाचिक प्रवृत्तियां अब जाग न पाएं.
जमींदार तो चले गए पर वे अपनी कौमों के नुमाइंदे किसी न किसी रूप-स्वरूप में छोड़ गए. लड़की चाहे उस जमाने की हो या आज की, असुरक्षित थी, असुरक्षित है. जरूरत है अब लड़की की अस्मिता बचाने की, तन-मन को लहुलुहान होने से रोकने की...लड़की बचेगी तभी यह जग बचेगा. इसलिए भ्रमरजी जैसे कहानीकार लड़की की भलाई के लिए उसकी रक्षा के लिए ‘वह लड़की’ लिखें तो आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए.
मैं इंद्रधनुष देखना बहुत पसंद करता हूं. आकाश में इंद्रधनुष का उगना हर किसी को लुभाता है. आंखों को चैन आ जाता है. पूरा दृश्य पारदर्शी हो जाता है. इंद्रधनुष आकाश की शान होता है और आकाश उससे शोभायमान भी होता है. इसलिए मैं कृति की पहली कहानी ‘आंखों में इन्द्रधनुष’ पर आता हूं. कहानीकार ने कहानी का शीर्षक भी बहुत सोच-समझकर लिखा है-इसमें कोई दो मत नहीं हैं. यहां कहानी रंगों-प्रतीकों के माध्यम से चलती-विकसित होती है.
गुलाबी रंग यानी लड़की और काला रंग यानी लड़का. काला रंग अच्छे चटक रंगों को भी मटमैला-काला बना देता है. जिन्दगी के रंग बिखर जाते हैं, बिगड़ जाते हैं. इन्द्रधनुष तब अपने स्वरूप को समेटकर नहीं रख पाता, बर्बादी को प्राप्त हो जाता है. ठीक उसी तरह लड़की अपनी ख्वाबगाह से निकलकर वीरान सड़क पर अपने आप से भी अलग-अलहदा खड़ी पाती है. उसके शोख और चटक रंग काले पड़ जाते हैं. रंगों के माध्यम से कहानी गढ़ना गैर मामूली बात है.
यह एकदम नए ट्रैक की कहानी है. ‘वह लड़की’ कहानी में लड़की के बर्बाद होने पर जमींदार का लड़का उसका हाथ थाम लेता है...पर इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं होता जिससे लड़की को कोई जगह यानी ठौर मिले. लड़की वह जगह नहीं तलाश पाती जिसमें उसके सारे रंग सुरक्षित रहें और उस काले रंग की सत्ता चल न पाए या उस काले रंग को आत्मसात कर लेने पर उसके रंग, बदरंग न हों. काला रंग यानी वह काला आदमी (वहशी) लड़की के सारे रंग सोखकर (प्रेगनेंट कर) चलता बना.
न जाने कब से ये लड़कियां अपने हसीन ख्वाबों के चलते इस बदनसीबी को प्राप्त होती हैं. कहानी ऐसी लड़कियों को चेताती है. बरबादी से बचने का नुस्खा बताती है. रंगों के माध्यम से कहानी लिखकर कहानीकार ने यह बता दिया है कि उन्हें प्रतीकों-बिंबों के जरिए भी कहानी लिखना आता है. वह ऐसे प्रयोग करने में सक्षम हैं-यह उनके फेवर में जाता है.
‘बंधनहीन रिश्ता’ दरअसल एक लिव-इन-रिलेशनशिप की कहानी है. आजकल यह चलन आम हो गया है. घर से दूर रहकर लड़के-लड़कियां अपना अकेलापन बांटकर इससे बंध जाते हैं...अपनी यौन संतुष्टि के लिए...यह बहाना अच्छा है. इसमें समाज भी आड़े नहीं आता. ‘अपना कैरियर बनाना है’-जैसे शब्दों का सहारा लेकर इन युवाओं में सेक्स प्रधान जीवन जीने की ललक ही प्रमुख होती है. कुछ ऐसी हवा चली है आजकल कि लड़कियां भी उन्मुक्त सेक्सी जीवन जीने की चाह पाले रहती हैं. वे गर्भाधान से बचने के लिए सचेत रहती हैं और समाज के बने-बनाए नियमों की अवहेलना करती रहती हैं.
जब पानी सिर से ऊपर हो जाए तभी ये दंपत्ति चेतते हैं. लड़के के घरवाले उसका रिश्ता दूसरी जगह करने लगें और लड़का भी घरवालों की भाषा बोलने लगे तो फिर यह तिलिस्म टूट जाता है. प्रायः लड़की ही ठगी जाती है. मैं तो कहता हूं ऐसे लोग ही समाज को विकृत करने में लगे हैं. पर इस कहानी में उल्टा है. सुबोध ने अपने माता-पिता को गुमराह नहीं किया अैर असल बात बताकर उन लोगों को यह संकेत दिया है कि लिव-इन-रिलेशनशिप को स्थायी रिश्ता बनाया जा सकता है, यदि दिलों में ईमानदारी हो और अपने साथी के प्रति सच्चा प्रेम और विश्वास. शाबास!
‘मजलूम लोगों के खून से वह अपना पेट भरते हैं और बेसहारा लोगों के आंसुओं को पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं.’ ये चंद पंक्तियां ‘कर्फ्यू’ से ली गई हैं. मजहबी कट्टरपंथियों के बीच झगड़े/फसाद/मारपीट/आग लगाना जैसी कार्यवाहियां शासन यानी व्यवस्था को कर्फ्यू लगाने के लिए बाध्य होना पड़ता है. ऐसा न हो, इसकी जरूरत ही न पड़े, अब ऐसी कोई समझ इनके पास नहीं है.
यहां कहानीकार दोनों कौमों के बीच बेहद तटस्थ है. इस भयानक होती हुई कहानी को एक बच्चे के माध्यम से वात्सल्य जगाकर वातावरण में शांति स्थापित करने की कोशिश की गई है जो वाकई एक पसंदीदा हल है.
कहानी है-पांडेजी का बच्चा खेलने के लिए चुपचाप अपने मित्र अहमद मियां के यहां चला जाता है. बच्चे को लेकर घर के सदस्य खौफजदां हैं. अहमद बीमार है. बच्चा खेले तो किसके साथ खेले. वह अहमद के अब्बा से बातें करने लगता है. अब्बा बच्चे को लेकर फिक्रमंद हैं. किसी अनहोनी के डर से बेहद बेहद चिंतित हैं, तनावग्रस्त हैं. बच्चा बाल सुलभ बिना कोई भय के बिंदास खेलता रहता है. घरवालों के द्वारा चौक में बनाई गई अस्थायी चौकी में रिपोर्ट भी कर दी जाती है. अहमद के अब्बा से बातचीत के दौरान बच्चे को पता चलता है कि अहमद के घर के लोग भूखे हैं...अहमद बीमार है. कर्फ्यू के कारण बाजार-हाट से जिंस खरीदना नामुमकिन है. तब वह अपने घर से खाना लेने के लिए एक संकल्प के साथ अपने घर लौटता है.
वहीं अधबीच में पुलिस चौकी के पास खड़े घर के सदस्य मिल जाते हैं. बच्चे को आता देखकर सबकी जान में जान आ जाती है. उन्होंने पुलिस इंस्पेक्टर के सामने बच्चे से कई सवाल किए तो ज्ञात हुआ कि मुस्लिम परिवार के सदस्य बीमारी और भूख से ग्रस्त हैं. उनके बच्चे के साथ चाहते तो वे कुछ भी गलत कर सकते थे.
तब खाना बनाकर अहमद के घर भेजने की रजामंदी पुलिस और उनके बीच तय हुई. घर के लोगों ने मिल-जुलकर खाना बनाना शुरू भी कर दिया. इसमें सबसे ज्यादा खुश उस बच्चे चिंटू की अम्मा थी. उसे लग रहा था कि चिंटू ने इतना अच्छा कार्य किया है. उसने जैसे दोबारा उसकी कोख से जन्म लिया है.
ऐसी पहल/ऐसा भाईचारा/ऐसा विश्वास दो कौमों के बीच कुछ कम ही मिलता है. ऐसी शुरुआत हर एक को करनी चाहिए. काट-छांट, मार-पीट ये सब जिन्दगी बिगाड़ने के सूत्र है. अब तक इन कौमी झगड़ों ने बहुत बार खून बहाया है और बहुत-बहुत नुकसान पहुंचाया है जिसकी भरपाई होना मुश्किल न भी हो तो भी कठिनाई बहुत है. आज दोनों के बीच स्थायित्व तो आना ही चाहिए. और जब यह ठान लिया जाता है तो परिणाम भी सुखद ही होता है.
‘गाय और स्त्री’ शीर्षक मुझे भा गया. यह भी एक आदर्शवादी कहानी है. कहानी में पति अपनी भागी हुई पत्नी को फिर से अपने घर में पनाह देता है. तिस पर वह औरत किसी दूसरे मर्द के बच्चे की मां बनने वाली है. यहां गाय और स्त्री की लगभग एक सी तुलना कर संवेदना का बीज बोने का प्रयास किया गया है. पहले तो बीवी के भाग जाने से वह दुखी-पीड़ित था ही. उसे पता चला कि बांव के बाहर एक स्त्री बैठी, और वह उसकी पत्नी कांता है.
लोग आते और उससे पूछते कि क्या वह उसे अपनाएगा. ऐसी बातों से वह भड़क उठता है. उसके दिल में अब उसकी पत्नी के लिए कोई जगह शेष नहीं रह गयी थी. यहां गौर करनेवाली बात यह है कि उसकी गाय बच्चा देनेवाली थी.
उधर उसकी पत्नी कांता भी बच्चा जननेवाली है. उसने गाय का प्रसव देखा. उसका तड़पना देखा. ऐसी ही वेदना पत्नी को भी होगी जब बच्चा जनेगी. उसके पास तो कोई भी नहीं होगा सेवा-संभाल के लिए. ‘आदमी ही आदमी के काम आता है.’- सोचता हुआ सूरजपाल उस स्त्री को अपने घर ले आता है. इस वाकयात पर गांव के प्रधान ने उसे धमकाया भी और दंडात्मक कार्यवाही करने की धौंस भी दी.
सूरजपाल बोला- ‘‘कांता मेरी बीवी थी...मैं ही उसे ब्याहकर लाया था. मैंने उसे नहीं छोड़ा था. वह भटक गई थी.’’ भटके हुए को राह दिखाना भी तो एक आवश्यकता है. जरूरत है. भरोसा है. आज वह रास्ते पर आ ही गई है तो उसे सहारा दिया जाना चाहिए. आजकल एक ट्रेन्ड चल रहा है, कहानी को बीच में छोड़ देने का...उसे अकारण आदर्शवाद की तरफ न खींचा जाए. मेरा मानना है कि आदमीयत की नींव हमेशा दूसरों की भलाई से ही भरी जानी चाहिए, ताकि वह समय की पहचान बने. वरना जिन्दगियां तमाशा बनती रहेंगी. शैतानियत उसके आसपास घूमती रहेगी.’ चाहे जो हो, यह एक अच्छी कहानी के बीज हो सकते हैं.
‘नौकरानी’ एक सम-सामयिक कहानी है. खाते-पीते घर में जरूर एक नौकरानी चाहिए होती है. घर का रुतबा बढ़े, अगल-बगल वालों के सामने उसका कद बढ़े और उनकी समझ में आ भी जाए कि हम ऐसे-वैसे नहीं हैं. हम भी नौकर-नौकरानी वाले हैं. मजे की बात यह है कि घर की बहू प्राइवेट स्कूल में काम करती है. उससे ज्यादा नौकरानी की पगार होती है. कहानी में पति अपनी धर्मपत्नी को घर के कार्य स्वयं करने की सीख देता है. मोटी-मुटल्ली होने का भय भी दिखाया जाता है. पर कहते हैं कि ‘सिर में जूं भी नहीं रेंगी’ उल्टे पति के सुझावों पर गौर न करते हुए वह आलस्यपूर्ण जीवन जीने लगी.
ऐसी स्थिति से निपटने के लिए पति ने नौकरानी से मिलकर प्यार का नकली खेल खेला. रश्मि को यह नाटक सच्चा जान पड़ा. पति हाथ से न निकल जाए इस डर से उसने नौकरानी को नौकरी से निकाल दिया.
पत्नी रश्मि अब खुद काम करने लगी थी. नौकरी बीच में छूट जाने से परेशान हुई नौकरानी को पति ने कुछ रुपए-पैसे की अलग से मदद कर दी थी. इस तरह ‘नौकरानी’ कहानी समाप्त हुई.
‘नीली आंखों का आसमान’ ने मुझे कुछ ज्यादा ही प्रभावित किया है-यह मैं मानने लगा हूं. इस कहानी में एक उपन्यास की सी छवि रची-बसी है. कहानी लगभग दो हीरो और एक हीरोइन के बीच चलती है. हीरोइन नंबर एक हीरो से यह जानना चाहती है कि उसकी आंखें ‘नीले आसमान’ जैसी हैं या नीले पानी जैसी. नायक कहता है इसके लिए मुझे आपसे दूसरी मुलाकात करनी होगी. मुलाकातों के दौर चलते हैं, मुलाकातें बढ़ती हैं. जब हीरो को पता चलता है कि नायिका उसकी कहानियां पढ़ते-पढ़ते उनकी ही जिंदगी की हीरोइन बनना चाहती है तो उसने बिना किसी ऊहापोह के उसे दूसरे हीरो के पास पहुंचा दिया, ताकि उसे सही जगह मिले...जिसकी हीरोइन को हरसंभव तलाश है. यह अच्छा फैसला था नंबर वन हीरो का, क्योंकि वह शादीशुदा था और एक बच्ची का पिता भी.
इसे हम नंबर वन हीरो की हृदय विशालता ही कहेंगे. इस कलियुगी आदमी का किसी भी रंभा-उर्वशी को छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता. घर की जोरू से पराई नारि प्रिय लगती है...इसलिए न समाज में व्यभिचार बढ़ा है. समझदार से समझदार आदमी इस प्रेम गली में पटखनी खा ही जाता है. सुरा-सुदरी उसे कहीं का नहीं छोड़ती. वह उसे पाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देता है.
कहानीकार ने नीली आंखों वाली लड़की को साहित्य-सुधा के सह संपादक नीरज की ओर मोड़ दिया. मकसद यही था कि नीरज युवा है और लड़की भी समवयस्का है तो यह सब प्रकार से उपयुक्त होगा. इससे एक फायदा यह भी होगा कि शादी-शुदा व्यक्ति किसी संदुरी के मोहजाल में फंसने से बचेगा और समाज भी प्रदूषित नहीं होगा. शादी-शुदा आदमी के किरदार को बचाने का यह सबसे अच्छा उदाहरण है. नीरज ने लड़की की कहानी ‘साहित्य सुधा’ पत्रिका में छापकर एक जादू ही कर दिया मानो. कहानी अच्छी होने के कारण नीलाक्षी के पास ढेरों पत्र-फोन आने लगे. प्रारंभ से ही उसके हृदय में कहानी-उपन्यास के बीच पल्लवित होना चाहते थे...वे बीज अब अंकुरित होने लगे थे. अब उसके तार झंकृत होने लगे थे.
नीलाक्षी बोली-‘अब मेरी आंखों का आसमान एक जगह सिमट आया है और वह जगह है आप. क्या आप मुझे स्थायित्व देंगे. मैं आपको जीवन का संबल बनाना चाहती हूं.’ नीरज लरज गया. उसकी आंखें बंद होने लगीं. नीलाक्षी के रूप की
चकाचौंध में वह अपने का बचा नहीं सका. उसने धीरे से अपने हाथों को आगे बढ़ाया और नीलू को अपने ऊपर खींच लिया. वह एक मासूम खरगोश की तरह उसकी आंखों में सिमट गई. मेरे ख्याल से यदि कहानीकार खरगोश की जगह हिरणी प्रयुक्त करते तो ज्यादा उचित होता.
कहानी की आखिरी पंक्ति कभी-कभी कहानी की जान होती है. कहानी का पूरा फलसफा होती है. यहां भी ऐसा ही कुछ है-नीलाक्षी की आंखों का आसमान नीरज की आंखों में डूब गया था.
‘रेगिस्तान में बारिश’ कहानी के पायदान पर खड़ा होकर मैं सुस्ताना चाहता था पर कहानी के आकर्षण से बंधा लिखने के लिए प्रेरित होता चला गया. कलम रखने का नाम ही नहीं ले रही थी. रेगिस्तान तो वैसे ही कम बारिश के लिए बदनाम है...और यहां कहानी में झमाझम बारिश हो रही थी. है न ताज्जुब की बात. यहां कोई खाली-पीली बारिश ही नहीं. यह जवां दिलों को मकाम तक पहुचाने वाली है. राधिका...मोहन को इस झमाझम बरसात में खींच लेती है. दोनों भीगते हैं. यह बादलों की नहीं बल्कि प्यार की बारिश है.
राधिका का दिल भी रेगिस्तान की तरह है. उसकी शादी की उम्र है. पिता वृद्ध हैं-दमा के मरीज हैं. वह चाहते हैं कि किसी प्रकार लड़की की शादी हो जाए तो उसका जीवन उद्धार हो जाए. पर मां ऐसा नहीं चाहती है. राधिका कमाऊ है. शिक्षिका है. हर माह रोकड़ा लाकर देती है जिससे घर चलता है...एवं बेरोजगार शराबी भाई के पीने का भी इंतजाम करने वाली घर की एकमात्र दुधारू गाय है.
यहां एक बात तो तय है कि लड़कियां अपने घर के लिए कितना भी बलिदान चाहे करें पर उनकी नियति राधिका से कभी अच्छी नहीं होती-क्या किया जाए. एक करेला तिस पर नीम पर चढ़ा. पिता के विरोध के बावजूद भाई एक विधवा से घर बसा लेता है. पिता तो नकारते हैं पर मां स्वीकृति प्रदान कर देती है. वह खुद क्या खाएगा और अपनी पत्नी को क्या खिलाएगा यह प्रश्न उसे तनिक भी दिग्भ्रमित नहीं करता है. उस घर में मोहन का आना-जाना है. राधिका उससे प्रेमासिक्त थी पर कभी उससे बोलने का अवसर ही नहीं मिला. मां उस पर पूरा शिकंजा कसे रहती है.
वह एक दिन पिता को मोहन से यह कहते सुनती है कि तुम राधिका को लेकर भाग जाओ. इसमें मेरी पूरी स्वीकृति रहेगी. राधा इस बात को सुनकर गेट पर खड़ी हो जाती है. वह बारिश में भीगने लगती है. बारिश में भीगना जवान दिलों को रास आता है और सुकून भी देता है. मोहन घर से निकलकर बाहर बारिश में भीगती राधिका से कहता है-बारिश में भीगिए मत. मेरे छाते के नीचे आ जाइए. वह हंसकर कहती है-आपका छाता छोटा है. हम दोनों के लिए कम पड़ जाएगा. आज मुझे भीगना है आपके साथ.
‘तो फिर ठीक है जैसी आपकी इच्छा.’
दोनों बारिश में भीगने लगते हैं. कहानीकार इसे प्यार की बारिश कहते हैं. मैं तो कहता हूं कि यदि वह कहानी का शीर्षक भी ‘प्यार की बारिश’ रख लेते तो युक्तिसंगत होता.
प्रेम अमर है और शाश्वत प्रेम उसका सहोदर है. ऐसा प्रेम कभी राधा ने कृष्ण से किया था. गोपियों का यही प्रेम कृष्ण के साथ था. हीर-रांझा, लैला-मजनू, शीरी-फरहाद इसी शाश्वत प्रेम के नुमाइंदे थे. शायद यही शुद्ध और सात्विक प्रेम था कृष्ण के हिस्से में जिसने कृष्ण को ‘महाभारत’ जैसे गृहयुद्ध का महानायक बना दिया था.
‘शाश्वत प्रेम’ ने एक अमर प्रेम गाथा को जन्म दिया. उसने बचपन में ब्याही नीलिमा से मिलकर प्रेम के गूढ़ रहस्य को जाना. उन्हें यह पता चला कि प्रेमाकर्षण से शारीरिक संबंध बनाए जा सकते हैं, परन्तु शाश्वत प्रेम की रचना नहीं की जा सकती. जवानी की उम्र में तो यह और मुश्किल होता है.
श्रीमान आनंद जी अपनी उम्र के चौथेपन में पहुंच जाते हैं. कुंवारे रहे आते हैं. बढ़ती उम्र में उन्हें अपने बचपन की लड़की नीलिमा याद आती है जो उनके पास मंडराया करती थी. उनको देख-देख खुश होती थी. अब तक उसकी शादी भी हो चुकी थी. वह किसी तरह उसका पता लगाकर उसके घर पहुंच जाते हैं. वह नीलिमा से पूछते हैं-क्या प्रेम शाश्वत है? ऐसा संभव है क्या? नीलिमा कहती है-हां, ऐसा संभव है. प्यार अमिट होता है.
‘तो क्या तुम अपने पति से प्रेम नहीं करती?’-आनंद फिर पूछते हैं. नीलिमा प्रेम का विराट स्वरूप दिखाती है. आनंद जी को मानना पड़ा कि जरूर प्यार में स्थायित्व है. प्यार के बिना जीवन जिया ही नहीं जा सकता.
प्यार में शंका का कोई स्थान नहीं है. वासनात्मक रिश्ते में वह प्रक्रिया हो ही नहीं सकती. जिसमें वह स्त्री आनंदजी को अपने पति और अपनी बेटी से मुलाकात कराने के लिए तैयार हो जाती है. यही प्यार का मूल्यांकन है. मीरा ने कृष्ण से यही शाश्वत प्रेम किया था जिसके कारण वह हर दिलों में वास करती है.
मैंने ‘वह लड़की’ से समीक्षा प्रारंभ कर ‘शाश्वत प्रेम’ पर समाप्त की है. अब समय बदल गया है. लड़कियां जो कभी शहर के बस स्टैंड तक जाने में घबराती थीं. अब वे विदेशों में नौकरियां कर रही हैं. मेरा भी यह मानना है कि ‘वह लड़की’ से ‘यह लड़की’ तक पहंचने में लड़की ने बहुत बड़ा सफर तय किया है. उसकी यह यात्रा इतिहास की धरोहर है. पर उसके साथ की ज्यादतियां आज भी कमोबेश वही हैं. उसे आज भी न जाने कैसे-कैसे अपने को बचाने का प्रयत्न करना पड़ता है. हरियाणा, पंजाब और न जाने कहां-कहां अपने साथ होने वाले छल को झेलना पड़ता है. कम से कम उस जमाने की लड़की को संसार में आने की इजाजत तो थी. इस लड़की को संसार में आने से पहले कड़ी परिस्थितियों से सामना करना पड़ता है. कई तो बेचारी इस दुनिया में अपनी आंखें ही नहीं खोल पातीं और काल के गाल में समा जाती हैं. जब तक ‘यह लड़की’ पूरी तरह सुरक्षित नहीं होगी...तब तक वह बात नहीं बनेगी. कहानीकार, कहानी के माध्यम से अपनी बात तो कह देता है, पर हम पाठकों को भी कहानी के किरदार से अभी भी बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है.
सम्पर्कः एम.आई.जी-8, विजय नगर,
जबलपुर-482002 (म.प्र.)
मोः 09301822702
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