01 अर्न्तद्वन्द्व (आधुनिक नारी का) माथे पर चमकती बिंदिया़ और दमकता सिंदूर गले में मंगलसूत्र और खनखनाती चूड़ियाँ सदियों से सुहाग की...
01
अर्न्तद्वन्द्व (आधुनिक नारी का)
माथे पर चमकती बिंदिया़ और दमकता सिंदूर
गले में मंगलसूत्र और खनखनाती चूड़ियाँ
सदियों से सुहाग की ये अमिट निशानियाँ
हैं अतीत से भारतीय स्त्री की पहचान
वक्त बदला पर नहीं बदले हैं ये निशान
अपना सब कुछ इन्हें उसने माना है
कभी खुशी से तो कभी नाखुश हो इन्हें अपनाया है
मगर इस रिश्ते को अपनी साँसों की डोर तक निभाया है
आज बदलते वक्त की बयार का स्पर्श हुआ है
दिल के किसी कोने में नई सोच ने उसे छुआ है
पाना चाहती है हर स्त्री एक नयी पहचान
मगर वर्जनाओं की बेड़ियों के आज भी हैं पैरों पर निशान
फैलाना चाहती है इस खुले आसमान में अपने पंख
मगर पुरानी परंपराओं को छोड़ने का भी है उसे रंज
चाहती है वह आधुनिकता की रौ में बहना
नहीं छोड़ पाती है लाज जो आज भी है उसका गहना
भीड़ में खो न जाये कहीं पहचान उसकी
नहीं कर पाती है वह उसकी कल्पना
चाहती है अपनी धरोहर को आज भी
सदा के लिये संभालना, सँवारना और सहेजना
यही "अर्न्तद्वन्द्व"उसके मन में सदा घिरा है
इसलिये आज भी उसके मन में "सीता" कहीं ज़िन्दा है ।
02
अस्तित्व का प्रश्न
आस्थाओं पर नित नये प्रश्न उठते हैं
क्या फिर भी हम अपने को इंसान कहते हैं
आज बुद्धिजीवी न जाने क्यों परेशान हैं
"राम" थे या नहीं हैरान हैं ।
क्या एक दिन स्वयं इंसान क़ो
अपने अस्तित्व का देना होगा प्रमाण
क्यों हम भूल जाते हैं
कि इस जगत में कुछ भी स्थिर नहीं है
मगर यह उस प्रश्न का हल नहीं है
हर चीज़़ वक्त के साथ छोड़ जाती है अपने निशां
अब तक यूँ ही चलता आया है वक्त का कारवां
अगर यूँ ही आस्थाओं पर प्रश्न उठते रहे
तो क्या हमें भी देना होगा अपने अस्तित्व का प्रमाण
क्या भविष्य की पीढ़ियाँ भी करेंगी प्रश्न
" तुम" थे या नहीं, हमें भी दो इसका प्रमाण।
यदि इस तरह हम करते रहेंगे
एक दूसरे के अस्तित्व पर सवाल
इन्सान का इन्सान पर से उठ जाएगा विश्वास
क्या संस्कार दे पाएंगे हम आने वाली पीढ़ियों को
जो कभी वर्तमान था आज भूत है
आज हम वर्तमान हैं कल हो जाएंगे भूत
सिलसिला यूँ ही अनवरत चलता रहेगा
अगर चाहते हो कि आने वाली पीढ़ियाँ रखें हमें याद
तो बन्द करो आस्थाओं पर झूठे सवाल ।
क्यों कि हम जो बोते हैं वही काटना पड़ता है
अपना किया खुद भी भुगतना पड़ता है
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3
चेहरा
हर शख्स की पहचान है इक चेहरा
कितना सही कितना गलत है वो इंसान
इसकी पैमाइश है उसका चेहरा
दिल में अगर हो सुकून
तो गुनगुनाता है चेहरा
दिल के हर रंजोगम की पहचान है चेहरा
नेक अगर हो इंसान तो
मासूमियत से लबरेज़ है चेहरा
दिल में अगर खोट हो तो
शातिर है उसका चेहरा
गर अगर हो इंसान निर्मोही
हैवानियत से भरपूर है उसका चेहरा
आदमी की शै बदलती है वक्त से
और व़क्त के साथ बदलता है उसका चेहरा
मौसम की धूप छाँव की तरह
सुबह कुछ तो शाम कुछ और है चेहरा
मगर कुछ इंसान तो होते हैं इतने अभिनेता
कि उनका चेहरा हर पल कुछ और ही कहानी कहता
न जाने कितने चेहरे पर चेहरे लगा लेते हैं वो
क्या है उनके मन में सबसे छुपा लेते हैं वो
लाख चेहरे लगा ले भी कोई
दिल का हर राज़ छुपा ले भी कोई
मन के आइने के सामने बेनकाब है हर चेहरा
4
दुआ
इक दिन ऐसा भी आयेगा
कि हो के सबके काँधे पर सवार
इस दुनिया से हम जायेंगे
सब रोयेंगे मान मनौव्वल करेंगे हमें रोकेंगे
और गुरूर हमारा भी तो देखिये
न किसी को मुड कर देखेंगे
न ही किसी की पुकार सुनेंगे
बस अपनी धुन में मगरूर चले जायेंगे
हर रिश्ता हर नाता यहीं छोड़ कर
कुछ को खुशी कुछ को गम छोड़ कर
बस सबकी यादों में ही हम फिर आयेंगे
हमारे बाद नेकियाँ हमारी मुस्कुरायेंगी
और बदनामियाँ कहकहे लगायेंगी
मगर मेरी नेकियों ने मुझसे इतनी जफा की है
कि मेरे दुश्मनों ने भी मेरी ज़िन्दगी की दुआ की है
05
गौरैया
(पंजाब नैशनल बैंक, प्रधान कार्यालय राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत)
देखती हूँ मैं सदा उसे
इधर से उधर उड़ते हुये
तिनका तिनका समेटते हुये
और कहीं किसी खोह में जमा करते हुये
एक नयी आशा पिरोते हुये
इस उम्मीद के साथ
कि कल को होगा उसका आशियाना गुलज़ार
नन्हे चूज़ों की चहचहाहट से
जिन के लिये वह फिर दाना दाना सहेजेगी
उनकी हर खुशी के लिये
अपनी भी परवाह नहीं करेगी
मगर वह यह नहीं जानती कि
कि वह जिनके लिये तिनका तिनका सहेज रही है
वह कल को अपने नन्हें परों से
आसमान की नई ऊचाँइयाँ नापेंगे
जायेंगे किसी और नई दुनिया में
हो जायेंगे उससे दूर
मगर फिर भी वह इस सब से बेपरवाह है
अपनी खुशी में मशगूल हैं
और उड़ कर तिनके जमा करती है
उसकी इस खुशी को देख
मैं सोचती हूँ अपने मन में
कि क्यों इन्सान नहीं सीख लेता इस नन्हीं गौरैया से
क्यों बाँध लेता है उम्मीदों के पहाड़
और अपनी खुशियों को मिटता देख
गमों के सागर में बह जाता है
क्यों नहीं स्वीकार कर पाता है यह सत्य
कि हर उम्मीद का पूरा होना है मुश्किल
इस लिये उसे गौरैया की तरह बनना होगा
खोलनी होंगी उसे सब राहें
देना होगा अपनों को एक नया आसमान
जहाँ वो खुल कर उड़ सकें
ले कर उम्मीदों के नये पंख
ठीक उस नन्हीं गौरैया की ही तरह
06
काश मैं इंसान न होता
काश मैं इंसान न हो कर
कोई परिंदा या अन्य कोई जीव होता
तो मन में न पालता आकांक्षाएं एवं अपेक्षाएं
जिनके पूरा न होने पर मन मेरा होता उदास
और न उपजता मेरे हृदय में विषाद एवं क्षोभ
न व्यथित होता मेरा मन अपनों की बेरूखी से
जिनके लिये कभी अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया
मुश्किल होता है उनकी प्रश्नभेदी नजरों का सामना करना
उनके मन में उपजते अविश्वास की लहरों को काट पाना
क्यों होता है गिला अपनों से
पराये हो जाते हैं अपने
और अपने हो जाते हैं पराये
शायद इसलिये कि बाँधी थी जो उम्मीद कभी अपनों से
थाम लेते हैं उसकी डोर गैर और बन जाते हैं अपने से
हैरान होता है मन कि क्यों भूल जाते हैं लोग
कि किसने उसके लिये क्या किया
मन बिसरा देता है क्यूं उन अहसानों को
जो कभी उसके अपनों ने उस पर किये
क्या त्याग और तपस्या सब बेमानी हैं
क्या इन शब्दों का कोई अर्थ नहीं है
क्या जिंदगी में सिर्फ " अर्थ " प्रधान है
क्या अपना "स्वार्थ " पूरा होते ही
रिश्ते हो जाते हैं बेमानी और निरर्थक
जिनका सहारा ले कर कभी अपना मतलब हल किया था
काश मैं परिंदा होता
तो पाल कर अपने बच्चों को उड़ा देता
न करता ये उम्मीद कि वे मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेंगे
न पालता ये उम्मीद कि वे मेरे अधूरे सपनों को पूरा करेंगे
न मन में होता क्षोभ अपनों को दिये हुये दर्द का
क्यों कि ईश्वर ने मुझे क्षमता ही न दी होती सोचने और विचारने की
मात्र अपना कर्म करता और फल की इच्छा न करता
मगर क्या इच्छाएं पालना गुनाह है ़
हर व्यक्ति का कर्म किसी न किसी इच्छा से जुड़ा है
इच्छाएं न होतीं तो जीना मुश्किल हो जाता
हर व्यक्ति निरूत्साही एवं अकर्मण्य हो जाता
मगर जब इस कर्म्र में अर्थ का स्वार्थ जुड़ जाता है
तो हर रिश्ता छोटा पड़ जाता है
जहॉ पर भी स्वार्थ रिश्तों पर हावी हुआ है
वहाँ पर ही अनगिनत सपनों ने दम तोड़ दिया है
उठ जाता है खुद पर से विश्वास
कि ऐसा क्यों कर हुआ है
इंसान करने लगता है खुद से सवाल
कि क्या है उसके जीवन का उद्देश्य
जिस के लिये परम पिता ने उसे जीवन दिया है
दुनिया की इस भीड़ में हर इंसां तन्हा और अकेला है
अपना कहने को उसके साथ रिश्तों का रेला है
काश मैं इंसान न होता …………
7
कलयुग के रावण
(पंजाब नैशनल बैंक , प्रधान कार्यालय राजभाषा विभाग द्वारा पुरस्कृत)
मानव के भेस में कितने रावण छुपे
इनकी पहचान कहाँ से लाओगे
त्रेता युग में था बस इक रावण
जिसे मारने इक "राम"ने अवतार लिया
कलयुग के छिपे रावणों को मारने
इतने "राम" कहाँ से लाओगे ऋ
युग बदला दुनिया बदली बदल गया इंसान
प्रेम सदभावना इंसानियत कमतर हुई
इंसान बना फिर से हैवान
मासूमियत को कुचला जिसने
ऐसे "मोनिंदरों की पहचान कहाँ से लाओगे
छिनता रहा अगर यूँ ही बचपन
और सहमा सा होगा हर मन
घटती रही इंसानियत यूँ ही
वीरान हो जाएगी ये धरती
इस पर बसने के लिये
इंसान कहाँ से लाओगे।
08
माँ
जग में किसने देखा ईश्वर को
आखें खोलीं तो पहले पाया तुझको
मुझको लाकर इस संसार में
"माँ" मुझपर तुमने उपकार किया
मुझे अपने रक्त से सींचा तुमने
मुझे सांसों का उपहार दिया
मेरे इस माटी के तन को
माँ तुमने ही आकार दिया
कैसे यह कर्ज़ चुकाऊं मैं
इतना तो बता दे "राम" मेरे
पहले "माँ " का कर्ज़ चुका लूं
फिर आऊं मैं द्वारे तेरे ।
मेरी हर इच्छा को तुमने
बिन बोले ही पहचान लिया
सुख की नींद मैं सो पाऊं
अपनी रातों को भुला दिया
मेरे गीले बिस्तर को माँ तुमने
अपने आंचल से सुखा दिया
गर डिगा कहीं विश्वास मेरा
मुझे हौसला तुमने दिया
मुझे हर कठिनाइयों से
टकराने का साहस तुमने दिया
मेरी छोटी बड़ी सभी नादानियों को
तुमने हंसते हंसते बिसरा दिया
मेरे लड़खड़ाते कदमों को माँ तुमने
अपनी उंगली से थाम लिया
तेरे इस बुढापे में माँ तेरी
लाठी मैं बन जाऊं
मुझको सहारा दिया था कभी तूने
तेरा सहारा मैं बन जाऊं हर दम
फिर भी न अहसान चुका पाऊं
चाहे ले लूं मैं कितने जनम
इस धरती पर "माँ "
ईश्वर का ही रूप है
कितने बदनसीब होते हैं वे
जो ढूँढते हैं ईश्वर तुझको
मंदिर मस्जिद़़्र गुरूद्वारों में
अपने घर में झांक तो लें
वह मिलेगा तुझे माँ की छांव में
ना जानूं मैं काबा तीरथ
ना जानूं हरिद्वारे
ना जानूं मैं काश़ी मथुरा
ना ही तीरथ सारे
मैं तो जानूं "माँ" बस तुझको
सारे तीरथ बस तेरे ही द्वारे।
09
नारी के रूप
जग जननी वह प्राण दायिनी वह
है वह सत्य स्वरूपा सी
जीवन का आनंद वही है
है आदि शक्ति वह दुर्गा सी
है अर्द्धागिनी वह सीता सी
है भगिनी वह यमुना सी
यम से प्राण छुड़ा लाई जो
है अनुगामिनी वह सावित्री सी
है पवित्र वह अहिल्या सी
मोक्ष दायिनी वह गंगा सी
है संगिनी वह राधा सी
है भक्तिन वह मीरा सी
है विद्या वह सरस्वती सी
है कुल की लाज वह लक्ष्मी सी
है त्याग की मूर्ति वह उर्मिला सी
नारी के किस रूप को बखार्नॅू
है वो देवी " नवरूपा" सी ।
10
पुकार (अजन्मी कन्या की )
जगजननी हो प्राणदायिनी हो
फिर भी क्यों तुम निष्ठुर बन गईं माँ
बंद कली हूँ नहीं खिली हूँ
मुझ को भी तुम खिलने दो माँ ।
गोद में तुम्हारी मैं खेलूँ
तुम्हारे आँचल की छाँव मिल मुझे
ऐसा भी है मेरा अरमाँ ।
थाम के तम्हारी उंगलियों को
मैं भी छू लूँ ये आसमाँ ।
हूँ तो मैं तुम्हारी प्रतिछाया ही
फिर क्यों चाहती हो करना दूर मुझे
अपना लो मुझ़े न करो तिरस्कृत
हूँ तो मैं तुम्हारा ही इक अंश माँ
सृष्टि का अनमोल वरदान मिला तुम्हें
नये सृजन का अधिकार मिला तुम्हें
मिली परमपिता की अनुकम्पा
माँ बनने का गौरव मिला तुम्हें
अपने इस गौरव का मान रखो तुम
मुझे जो जीवन दिया ईश्वर ने
उसका भी सम्मान करो तुम
मुझको भी सृजन का अधिकार मिले
कृपा मुझे जो मिली ईश्वर की
उससे मत करो वंचित तुम मुझको माँ
आ कर इस संसार को निहारूँ मैं
सुन लो मेरी इस पुकार को माँ
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स्वयं का परिचय : वर्तमान में पंजाब नैशनल बैंक, शाखा वार्ष्णेय डिग्री कॉलेज, अलीगढ़ में कार्यरत हूँ ।
लेखन मेरी आत्मा है, पूर्व में मेरी कई रचनायें समय समय पर कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुयी हैं ।
बालहंस, चम्पक में भी कई बाल कहानियाँ पूर्व में प्रकाशित हुयी हैं।
वर्तमान में रचनायें पंजाब नैशनल बैंक की आंतरिक राजभाषा पत्रिका "पीएनबी प्रतिभा" में समय समय पर प्रकाशित होती रहती है।
श्रीमती शालिनी मुखरैया
पंजाब नैशनल बैंक
वार्ष्णेय डिग्री कॉलेज अलीगढ।
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