-डॉ. गुणशेखर महिलाओं का दिन --------------------- स्त्री विमर्श पर वह खुलकर बोलता है मर्द है तो क्या हुआ मर्दों की बोलती बंद कर देत...
-डॉ. गुणशेखर
महिलाओं का दिन
---------------------
स्त्री विमर्श पर
वह खुलकर बोलता है
मर्द है तो क्या हुआ
मर्दों की बोलती
बंद कर देता है
वह बोलता है तो
डायस ही नहीं
पुरुषों का सिहासन भी
डोलता है
स्त्रियाँ निहारती हैं निर्निमेष
रह जाती हैं अवाक्
प्रतीक्षा में खड़ी रहती हैं
पंक्ति बद्ध
मुँह मेन कल्म की ढकनी दबाए
अपनी-अपनी डायरियाँ खोले
उस महामानव के स्वर्णाक्षरी
ऑटोग्राफ के लिए
एक रात डिनर में
नशा चढ़ जाने पर
उसी मर्द के मुँह
से निकल ही गया
औरत के अंधेरे पक्ष का सच
औरत का दिन कहाँ होता है?
उसकी तो रात होती है।
-डॉ. गुणशेखर
0000000000000000
रमेश शर्मा
दोहे रमेश के महिला दिवस पर
-----------------------------------------------
पेंडिंग हों जहँ रेप के, . केस करोड़ों यार !
तहँ रमेश महिला दिवस, लगता है बेकार !!
कहने को महिला दिवस, सभी मनाएं आज।
नारी की लुटती रहे, …...मगर निरंतर लाज !!
बेटी माँ सासू पिया,....सबका रखे खयाल !
नारी के बलिदान की,क्या दूँ और मिसाल !!
नारी के सम्मान की, बात करें पुरजोर !
घर में बीवी का करें,तिरस्कार घनघोर!!
नारी की तकदीर में, ...कहाँ लिखा आराम !
पहले ऑफिस बाद में, घर के काम तमाम !!
नारी का होता नहीं, वहां कभी सम्मान !
जहां बसे इंसान की ,.. सूरत में हैवान !!
उलट पुलट धरती हुई,बदल गया इतिहास !
पृथ्वी पर जब जब हुआ, नारी का उपहास !!
नारी को ना मिल सका, उचित अगर सम्मान !
शायद ही हो पाय फिर,.... भारत का उत्थान !!
रमेश शर्मा (मुंबई)
९८२०५२५९४० .rameshsharma_123@yahoo.com
-00000000000000000000
सुशील शर्मा
अपना समझती हूँ मैं
रोपित किया तुमने मुझे पुत्र की चाह में।
फिर भी तुम्हारे अनचाहे प्यार को अपना समझती हूँ मैं।
पीला जर्द बचपन स्याह बन कर गुजर गया।
माँ के सशंकित प्यार को अपना समझती हूँ मैं।
अपने हिस्से का भी उसको छुप कर खिलाया था।
उस भाई की बेरहम मार को अपना समझती हूँ मैं।
कर दिया विदा मुझे अपने घर से अनजान के साथ।
उस अजनबी घर के बुरे व्यवहार को अपना समझती हूँ मैं।
जिसे छाती से चिपका कर अपना लहू पिलाया था।
उस पुत्र दुत्कार को अपना समझती हूँ मैं ।
कभी यशोधरा कभी सीता कभी मीरा सी ठुकराई।
सभी बुद्धों ,सभी रामों सभी गैरों को अपना समझती हूँ मैं ।
चाह कर भी न कर सकी प्रतिरोध इन सबका।
सभी अन्यायों आक्रोशों को अपना समझती हूँ मैं।
देह के रास्ते से गुजरे सभी रिश्ते।
हर रिश्ते से उभरे घाव को अपना समझती हूँ मैं।
सामाजिक दायरों में जहाँ रिश्ते सिसकते हों।
उस डरी ,सहमी ,सुबकती औरत को अपना समझती हूँ मैं।
000000000000000000000
अंश प्रतिभा
बच्चों से उनका बचपन
जाने कहाँ खो गया बच्चों से उनका बचपन।
ना खेलते वो छुपम -छुपाई न ही कोई खेल
न भींगते वर्षा में वो ना बनाते कागज के नाव।
जाने कहा दबा हुआ है बच्चों से उनका बचपन।
नहीं करते वो मासूम प्रश्न आये जिनपे हमें हंसी
नहीं करते वो नटखट शैतानी न ही घर में उठापटक
जाने कहा खो गया बच्चों से उनका बचपन।
हर जगह खोजा हर बात को तौला
कोई और नहीं वो हम ही है
जो छीन लिया , बच्चों का बचपन।
हमने अपने बच्चों को, हर दौड़ में आगे खड़ा किया,
हम भूल गए वो बच्चा है ,नन्हा है मासूम है
फिर भी हमने उसे सदा अपने मापदंडों पे खड़ा किया
सफल नहीं जब होता वो, अंदर ही अंदर रोता वो,
जब तक उसको जाने हम, देर बहुत हो जाती तब तक।
000000000000000000
सुशील कुमार शर्मा
सोच कर लिखना कविता
सोच कर लिखना कविता।
क्योंकि कविता शब्दों का जाल नहीं है।
न ही भावनाओं की उलझन है।
कविता शब्दों के ऊन से बुनी जाने वाली स्वेटर भी नहीं है।
कविता दिलों को चीर कर निकलने को आतुर आवेग है।
कविता उनवान हैं उन चीख़ती सांसों का।
जो देह से घुस कर हृदय को छलनी कर जाती हैं।
कविता उन गिद्धों का चरित्र है।
जो नोच लेते हैं शरीर की बोटी बोटी।
कविता सिर्फ सौंदर्य का बखान नहीं है।
कविता उन आंखों की दरिंदगी है जो
कपड़ों के नीचे भी देह को भेद देतीं हैं।
कविता सिर्फ नदी की कल कल बहती धार नहीं है।
कविता उन आशंकित नदी के किनारों की व्यथा है।
जो हर दिन लुट रहे हैं किसी औरत की तरह।
कविता में घने हरे भरे वन ही नहीं हैं।
कविता चिंतातुर जंगल की व्यथा है।
जहाँ हर पेड़ पर आरी के निशान हैं।
कविता शब्दों के जाल से इतर।
तुम्हारी मुस्कराहट की चांदनी है।
कविता पेड़ से गिरते पत्तों का दर्द है।
कविता झुलसती बस्तियों की पीड़ा है।
कविता बहुमंजली इमारतों का बौनापन है।
विदेश में बसे बेटे की आस लिए बूढी आँखें हैं।
कविता दहेज़ में जली बेटी की देह है।
कविता रोजगार के लिए भटकता पढ़ा लिखा बेटा है।
कविता देशद्रोह के जलते हुए नारों में हैं।
कविता दलित शोषित के छीने अधिकारों में है।
कविता सिर्फ शब्दों का पज़लनामा नहीं है।
कविता बेबस घरों में घुटती औरत की कराहों में है।
इसलिए कहता हूँ की सोच कर लिखना कविता
क्योंकि कविता सिर्फ शब्दों का जाल नहीं है।
0000000000000000000
अंश प्रतिभा
’’ऐ पल तू मेरे प्रिय के जैसा‘‘
ऐ पल तू मेरे प्रिय के जैसा,
न रूकता है न ठहरता है,
निरंतर चलता रहता हैं।
कितनी चंचलता है जीवन में तेरे,
तू निरंतर चलता रहता हैं।
नहीं अच्छी यह चंचलता,
कुछ ठहराव हो, अब जीवन में।
ऐ समय तू रूक अब पास मेरे,
मैं समय बिताऊ संग तुम्हारे।
ऐ समय तू मेरे प्रिय के जैसा,
न सुनता जुबां औरों की कभी।
ऐ समय तू मेरे प्रिय के जैसा,
न रूकता है न ठहरता है।
ऐ वक्त तू सुन एक बात मेरी,
नहीं चंचल मैं तेरे जैसी,
तुझे परवाह नहीं होती किसी की,
तू क्षण-क्षण आगे बढ़ता है।
मैं ठहरी वहीं पें रहती हूँ,
जानती हूँ तू, पल है वों,
जो लौट कभी नहीं आता है।
फिर भी मृगतृष्णा में घिरी मैं,
इंतजार करती रहती हूँ,
ऐ बीते पल तू पास आ मेरे,
मैं तुझसे प्रेम करती हूँ।
ऐ पल तू मेरे प्रिय के जैसा,
न रूकता है न ठहरता हैं।
..................
0000000000000000000
मुरसलीन साकी
ऱास्ते सिम्त मुखालिफ ही में चलते क्यों हैं।
हर कदम मोड़ नये राह में मिलते क्यों हैं।
मंजिलें कैद मेरी आज भी हिसार में हैं।
फिरभी गुमराही के सेहरा में टहलते क्यों हैं।
पैकरे अम्न लिये फिरता हूं मकतल में मगर।
देख कर लोग मुझे फिर भी दहलते क्यों हैं।
ढूंढने जब भी निकलता हूं निशाने कातिल।
मुझको अहबाब मेरे अपने ही मिलते क्यों हैं
उनकी ख्वाहिश थी चरागों को बुझा देने की
अब जो तूफान की आमद है मचलते क्यों हैं
लखीमपुर खीरी उ०प्र०
9044663196
00000000000000000000000
अमित भटोरे
-----------------------------
गज़ल - 1
पथ पर आगे चलने दे
ख्वाब नया कोई पलने दे
नीरसता के तम को मिटा
दीप नया एक जलने दे
द्वेष भूलकर प्रीत निभा
पेड़ प्रेम का फलने दे
बेरंगी जीवन के पथ पर
रंग आशाओं का घुलने दे
अनिश्चितता के भेद भुला
खुद को खुद से मिलने दे
--------------------------------
गज़ल - 2
कभी भूले भटके आओ भी
कुछ पल साथ बिताओ भी
व्यस्तता से समय निकालो
दिल से रिश्ते निभाओ भी
मन निर्बल हो जब रातों में
अपने दर्द दिखाओ भी
नादानी में सब खो न देना
पाने में वक्त लगाओ भी
औरों को हँसना सिखलाते
खुद का मन बहलाओ भी
----–---------------------------
गज़ल - 3
जीवन को आकार करेंगे
सुंदर सपने साकार करेंगे
दुनियादारी की गलियों में
संबंधों का व्यापार करेंगे
दूर देश अपनों को अबके
खुशियां लिखकर तार करेंगे
विपदाओं के इस दरिया को
हम सब मिलकर पार करेंगे
विपरीत हवाओं के आगे
हौंसलों को पतवार करेंगे
---------------------------------
खरगोन (मध्य प्रदेश)
मो. 09009311211
00000000000000000
दिनेश कुमार 'डीजे'
कैसी लापरवाही? कैसे सफर में जा रहें हैं?
जिम्मेदारी और पानी दोनों गटर में जा रहें हैं।
करोड़ों गैलन पानी हमने फिजूल में बहा दिया,
हमारे वारिसों के वसाइल कीचड़ में जा रहें हैं।
आने वाली पुश्तें कहीं प्यासी ना मर जाएँ,
पानी को बहाकर किस हश्र में जा रहें हैं?
तीसरा विश्व युद्ध बस होगा पानी के लिए,
पानी को बहा हम तीसरे गदर में जा रहें हैं।
इंसान की खुदगर्जी ने कुदरत को जला दिया,
ग्लेशियर गलकर खारे समंदर में जा रहें हैं।
नदियाँ, ताल, झरने 'दिनेश' सब सूखने लगें हैं,
तरक्की के नाम हम किस डगर में जा रहें हैं?
कवि परिचय
नाम-दिनेश कुमार 'डीजे'
जन्म तिथि - 10.07.1987
सम्प्रति- भारतीय वायु सेना में वायु योद्धा के रूप में कार्यरत
शिक्षा- १. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति
एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण २. समाज कार्य में
स्नातकोत्तर एवं स्नातक उपाधि
३. योग में स्नातकोत्तर उपाधिपत्र
प्रकाशित पुस्तकें - दास्तान ए ताऊ, कवि की कीर्ति एवं प्रेम की पोथी
पता- हिसार (हरियाणा)- 125001
फेसबुक पेज- facebook.com/kaviyogidjblog
फेसबुक प्रोफाइल- facebook.com/kaviyogidj
पुस्तक प्राप्ति हेतु लिंक्स-
www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/272/प्रेम-की-पोथी.html
www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/272/प्रेम-की-पोथी.html
http://www.flipkart.com/prem-ki-pothi/p/itmedhsamgpggy7p?pid=9789352126057
00000000000000000000
डूंगर सिंह
पहचान
अपना नाम ना छुपा, अपने नाम की पहचान बना।
अपने पिता का नाम ना छुपा, अपने पिता का मान बढ़ा।
अपनी जाति ना छुपा, अपनी जाति को आगे बढ़ा।
अपना काम ना छुपा, अपने काम से अपना नाम कमा।
अपना गांव ना बदल, अपने गांव की तस्वीर बदल।
अपनी सभ्यता संस्कृति ना बदल, उसे चारों ओर फैला।
अपना देश ना बदल, अपने देश की छवि बदल।
संघर्ष
छोटी सी एक गुड़िया थी,
पढ़ने में वो बचपन से अच्छी थी,
संघर्ष उसकी जिन्दगी थी।
परिवार की उसे बहुत चिंता थी,
दिया बलिदान उसने बहुत बडा था,
जीवन में आयी बहुत सारी दिक्कतें थी,
संघर्ष उसकी जिन्दगी थी।
पापा को ना करती परेशान कभी, उसकी इतनी अच्छी सोच थी।
संघर्ष उसकी जिन्दगी थी।
नन्ही गुड़िया ने सपने देखे ऊंचे थे,
हासिल किया उन्हें अच्छे से।
हार ना मानी कभी मुसीबतों से।
संघर्ष उसकी जिन्दगी थी।
मेरी जिन्दगी
मेरी जिन्दगी में घनघोर घटाऐं छायी थी, घनघोर घटाऐं छायी थी।
जब तू आयी मेरी जिन्दगी में, तब मेरी जिन्दगी ने खुला आसमां देखा था।
आज तू दूर चली गयी हैं मेरी जिन्दगी से,
पहले से कहीं ज्यादा काले बादल मंडरा रहे हैं मेरी जिन्दगी में।
हिम्मत ना हारी मैंने कभी इन घनघोर घटाओ को देख के,
अब इन काले बादलों को देख के जिन्दगी डरावनी लगती हैं।
हर रोज तेरी यादें मुझे सताती हैं,
हर रोज आंखों में आंसू भर आते हैं,
जब याद मुझे तेरी आती हैं।
क्या गुनाह किया था मैंने,
जो तूने मुझे इतनी बडी सजा दी।
क्या कसूर था मेरा,
जो तूने मेरे साथ ऐसा सलूक किया।
क्या गलती थी मेरी,
जो तूने मुझे तन्नहा छोड़ दिया।
ना तू समझ पायी मुझे ना मैं समझ पाया तुझे,
तुझे ना समझ कर भी सच्चा प्यार किया,
तेरी खुशी में मुझे मेरी खुशी नजर आती थी,
तेरी तकलीफ मुझे झकझोर दिया करती थी
तभी तेरी ना में ना और हां में हां हुआ करती थी मेरी।
लेखक :- डूंगर सिंह पुत्र श्री खींव सिंह
पद कनिष्ठ लिपिक पंचायत समिति लाडनूं
ग्राम श्यामपुरा तहसील लाडनूं जिला नागौर मो. 9672340357
000000000000000
सुनील सिंह
एक लड़का और लड़की
एक लड़का था सीधा साधा सा,
उसे लड़की मिली एक तेज तर्राट जी।
होती हैं शादी दोनों की, बड़ी धूम धाम से,
लड़का खुश होता हैं अपरम पार सा।
लेकिन लड़की के दिल में था कुछ ओर जी,
एक दिन वो कहती हैं .....
शादी की हैं मेरे परिवार वालों ने,
आपके साथ जबरदस्ती जी।
यह सुनकर लड़का होता हैं बडा हैरान जी,
फिर वो लड़का कहता हैं ....................
जबरदस्ती की है शादी आपके परिवार वालों ने,
इसमें मेरी क्या गलती हैं जी।
फिर लड़का वादा करता हैं .......
दूंगा तुम्हें खुशियां हजार,
जो सपने तूने देखे हैं दिल से पूरा करुंगा उन्हें जी।
कुछ समय बाद वो लड़की कहती हैं .....
खुश हूं मैं आपके संग,
जो आप आये मेरी जिन्दगी में।
फिर दोनों करते हैं एक दूसरे से प्यार बेशुमार जी।
काली
हां मां मैं काली हूं, पर तेरे आंगन की लाली हूं।
क्या हुआ काली हूं तो, पापा की लाड़ली बाली हूं।
काली होने की बड़ी सजा बचपन में पायी, साथियों ने कभी साथ ना खिलाई।
जब गई विद्यालय ये काली, गुरुजी के मुख से गुडी ये कहलायी।
सहपाठियों ने कभी साथ नहीं बिठाया,
इस बात को काली ने कभी दिल पर नहीं लगाया।
अब काली बड़ी हो रही थी, शादी की चिन्ता मां बाप को घणी (बहुत) हो रही थी।
आये दो तीन रिश्ते, रंग देख कर ठुकरा गये।
जब काली ने आई.ए.एस. पास किया, सब ठुमका गये।
अब वो ही रिश्ते वापिस आये, रंग छोड़ गुणों का रोना साथ लाये।
जो चाची काली होने का ताना मारती,
वो आज काली से अपने बच्चों के लिये राय मांगती।
काली की शादी हुयी बडे धूम धाम से,
दूल्हा आया काजल लगा कर बारात के साथ में।
काली ने अपने गुणों से ससुराल में खुब वाह वाह पायी।
दो घरों की रोशनी बन कर जन्नत से वो आयी।
कवि के मन के भाव
लिखने को तो कुछ लिखा भी नहीं था,
लेकिन पढने वालों ने कहा हिम्मत तो देखो नादानों की।
इसी डर से मन के भावों को दबा कर बैठे थे,
जो लिखने की सलाह देते थे वो ही बस कहने लगे थे।
मन में बैठा हैं अजीब डर कलम उगल ना दे वो सच,
जो सलाह देने वालों को सोने ना दे।
जो क्षमता उजागर करवाया करते थे,
वो ही क्षमता पर धुल जमाया करते थे।
कल तक कलम खरीद कर देने वाले,
आज कलम की नोंक तोड़ा करते थे ।
उन नादानों को कहा पता था एक बार
कवि का मन तूफानों से भर जाये
तो फिर चाहे नोक तोड़ो या तोड़ो कलम पूरी की पूरी,
कवि तो अब रक्त से भी कविता लिखा करते हैं पूरी की पूरी।
लेखक :- सुनिल सिंह पुत्र श्री खींव सिंह
बी.एस.सी. द्वितीय वर्ष में अध्यनरत
ग्राम श्यामपुरा तहसील लाडनूं जिला नागौर मो. 9672340357
00000000000000000
सुशील कुमार शर्मा
क्या मैं लिख सकूँगा
कल एक पेड़ से मुलाकात हो गई।
चलते चलते आँखों में कुछ बात हो गई।
बोला पेड़ लिखते हो संवेदनाओं को।
उकेरते हो रंग भरी भावनाओं को।
क्या मेरी सूनी संवेदनाओं को छू सकोगे ?
क्या मेरी कोरी भावनाओं को जी सकोगे ?
मैंने कहा कोशिश करूँगा कि मैं तुम्हें पढ़ सकूँ।
तुम्हारी भावनाओं को शब्दों में गढ़ सकूँ।
बोला वो अगर लिखना जरूरी है तो मेरी संवेदनायें लिखो तुम |
अगर लिखना जरूरी है तो मेरी भावनायें लिखो तुम |
क्यों नहीं रुक कर मेरे सूखे गले को तर करते हो ?
क्यों नोच कर मेरी सांसे ईश्वर को प्रसन्न करते हो ?
क्यों मेरे बच्चों के शवों पर धर्म जगाते हो ?
क्यों हम पेड़ों के शरीरों पर धर्मयज्ञ करवाते हो ?
क्यों तुम्हारे सामने विद्यालय के बच्चे तोड़ कर मेरी टहनियां फेंक देते हैं ?
क्यों तुम्हारे सामने मेरे बच्चे दम तोड़ देते हैं ?
हज़ारों लीटर पानी नालियों में तुम क्यों बहाते हो ?
मेरे बच्चों को बूंद बूंद के लिए तुम क्यों तरसाते हो ?
क्या मैं तुम्हारे सामाजिक सरोकारों से इतर हूँ ?
क्या मैं तुम्हारी भावनाओं के सागर से बाहर हूँ ?
क्या तुम्हारी कलम सिर्फ हत्याओं एवं बलात्कारों पर चलती है ?
क्या तुम्हारी लेखनी क्षणिक रोमांच पर ही खिलती है ?
अगर तुम सचमुच सामाजिक सरोकारों से आबद्ध हो।
अगर तुम सचमुच पर्यावरण के लिए प्रतिबद्ध हो।
लेखनी को चरितार्थ करने की कोशिश करो।
पर्यावरण संरक्षण को अपने आचरण में लाने की कोशिश करो।
कोशिश करो कि कोई पौधा न मर पाये।
कोशिश करो कि कोई पेड़ न कट पाये।
कोशिश करो कि नदियां शुद्ध हों।
कोशिश करो कि अब न कोई युद्ध हो।
कोशिश करो कि कोई भूखा न सो पाये।
कोशिश करो कि कोई न अबला लुट पाये।
हो सके तो लिखना की नदियाँ रो रहीं हैं।
हो सके तो लिखना की सदियाँ सो रही हैं।
हो सके तो लिखना की जंगल कट रहे हैं।
हो सके तो लिखना की रिश्ते बंट रहें हैं।
लिख सको तो लिखना हवा जहरीली हो रही है।
लिख सको तो लिखना कि मौत पानी में बह रही है।
हिम्मत से लिखना की नर्मदा के आंसू भरे हुए हैं।
हिम्मत से लिखना की अपने सब डरे हुए हैं।
लिख सको तो लिखना की शहर की नदी मर रही है।
लिख सको तो लिखना की वो तुम्हें याद कर रही है।
क्या लिख सकोगे तुम गोरैया की गाथा को?
क्या लिख सकोगे तुम मरती गाय की भाषा को ?
लिख सको तो लिखना की तुम्हारी थाली में कितना जहर है |
लिख सको तो लिखना की ये अजनबी होता शहर है |
शिक्षक हो इसलिए लिखना की शिक्षा सड़ रही है |
नौकरियों की जगह बेरोजगारी बढ़ रही है |
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि नैतिक मूल्य खो चुके हैं।
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि शिक्षक सब सो चुके हैं।
मैं अवाक था उस पेड़ की बातों को सुनकर।
मैं हैरान था उस पेड़ के इल्जामों को गुन कर।
क्या वास्तव में उसकी भावनाओं को लिख पाऊंगा?
या यूँ ही संवेदना हीन गूंगा रह जाऊँगा।
सुशील कुमार शर्मा
( वरिष्ठ अध्यापक)
गाडरवारा
0000000000000000000000
अंजली अग्रवाल
“ दीपक ”
रोशनी लेकर मैं आता हूँ‚
तभी तो दीपक कहलाता हूँ‚
खुद जलता हूँ तभी तो अंधकार से जीत जाता हूँ।
रखो चाहे भवन में या झोपड़ी में‚ रोशनी समान फैलाता हूँ‚
तभी तो दीपक कहलाता हूँ।
मिट्टी‚ चाँदी‚ सोना बदला अलग अलग वेश मेरा‚
पर दिल तो बाती का ही रहा।
जीवन की अंधी डगर में‚
खुशियों की लौ संग आता हूँ‚
उँचाई की चाह नहीं मुझे मैं तो धरती में भी जल जाता हूँ।
तभी तो दीपक कहलाता हूँ।
तभी तो दीपक कहलाता हूँ।
0000000000000
©दिनेश कुमार डीजे
भाई को भाई से लड़वा देती है सियासत,
गाँव क्या शहर भी जला देती है सियासत।
धर्म, जात, कौम, नस्ल ये किसने बनाये हैं?
परिवार को टुकड़ों में बंटा देती है सियासत।
खुशहाल शहर को बर्बाद किसने कर दिया?
दंगे करने वालों को छिपा देती है सियासत।
ये आरक्षण की मांग किस महल से उठी है?
महलवालों को सड़क पर ला देती है सियासत।
ये हरियाणा हमारा मिसाल था भाईचारे की,
जाति में भाईचारे को मरवा देती है सियासत।
विधवा का ढाबा जला, गरीबों के घर क्यूँ जले?
चूल्हे की आग से कई घर जला देती है सियासत।
बे-लुत्फ जिंदगी में 'दिनेश' मैं इसलिए जिंदा हूँ,
लाश की जाति पूछ दंगे भड़का देती है सियासत।
000000000000000000000
ठाकुर दास 'सिद्ध',
-: परिंदों के नाम :-
(ग़ज़ल)
आसमाँ पर सिर्फ़ वो ही वो नज़र अब आएँगे।
धीरे-धीरे वो सभी के पर कतरते जाएँगे।।
जोर पंजों का नहीं तुमने दिखाया गर परिंदो।
डाल पिंजरों में तुम्हें वो बेरहम तड़पाएँगे।।
मिल गया तो मिल गया उनके करम से आबो-दाना।
माँगने की भूल की तो आँख वो दिखलाएँगे।।
सख्त पाबंदी रहेगी और कुछ भी बोलने पर।
रात-दिन वो सिर्फ़ अपना नाम ही रटवाएँगे।।
उनकी हाँ में हाँ मिलाने का रहेगा कायदा।
गर न सुर से सुर मिले तो भून डाले जाएँगे।।
वक़्त रहते बात गर समझी तो समझो ठीक है।
'सिद्ध' कर दी देर तो फिर रोएँगे-पछताएँगे।।
सिद्धालय, 672/41,सुभाष नगर,
दुर्ग-491001,(छत्तीसगढ़)
भारत
मो-919406375695
0000000000000000000
-निखिल'नादान'
कुछ ऐसा हो जाये जीवन में,
कि,
सब थमा हुआ भागने लगे,
सब भागता हुआ थम जाये,
इतनी बुरी आंधी आये,
कि,
सब पिंजड़े टूट जाएँ,
बड़े - बड़े पेड़ ढहने लगें,
हजारों पंछी पेड़ में दब कर मर जाएं,
बचे हुए पंछी,
डर के मारे,
फड़फड़ा के उड़ने लगे,
और इतनी तेज़ उड़े कि,
एक -एक करके,
उनके सारे पंख जमीन पर झड़ कर गिरने लगें |
टूटे पिंजड़ों से छूटे हुए शेर,
झपटने को दौड़े उन पर,
शेरों के आतंक को थामने के लिए,
खूब शिकारी आएं,
अपनी बंदूकें लेकर,
और गोली दागने लगें शेरों पर,
उनमें से कुछ गोलियां,
लग जाएँ किसी कवि को,
उसके बदन में खूब चोटें हों,
जगह-जगह घाव हो और,
हर घाव से बह पड़े कविता, फूट पड़े कविता,
पेड़ की टूटी टहनियों की चीत्कार से निकले कविता,
इस घमासान की आवाज़ से ऊँची आवाज़ बने कविता,
तुम सरे वहशियों, दंगाइयों के ऊपर हावी हो जाये कविता,
तुम सबको अपने बड़े नाखूनों में,
दबोच ले एक बार में,
और पूरे गुस्से में तुम्हें आस्मां तक उठा करके भी,
न पटके जमीन पर,
और तुम्हें सहूलियत से,
जमीन में लाकर छोड़ दे हंसने-खेलने के लिए,
बक्श दे तुम्हारी जिन्दगी....
000000000000000
COMMENTS