व्यंग्य - अतिक्रमण-अ-नीति / वीरेन्द्र 'सरल'

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गिरगिट को रंग बदलने की कला में पारंगत देख गिद्ध ने भी इस कला को साधने की कोशिश की पर सफल नहीं हुआ। कई बार प्रयास करने पर भी उसे असफलता हाथ ...

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गिरगिट को रंग बदलने की कला में पारंगत देख गिद्ध ने भी इस कला को साधने की कोशिश की पर सफल नहीं हुआ। कई बार प्रयास करने पर भी उसे असफलता हाथ लगी। वह एकदम उदास हो गया और जंगल के बीच एक पुराने तालाब के पास एक पेड़ के नीचे जाकर गुमसुम बैठ गया। तभी वहाँ कुछ जानवर पानी पीने के लिए पहुँचे। गिद्ध को उदास देख उनमें से एक ने उसकी उदासी का कारण पूछा। गिद्ध ने अपनी व्यथा-कथा उन्हें सुना दी। तब सियार बोला-''वत्स! यहाँ गिरगिटों की कमी तो है नहीं है, जिधर नजर डालो वहीं गिरगिट नजर आते हैं, तो फिर इस कला को साधने के लिए व्यर्थ परिश्रम करने का क्या मतलब? यदि तुम चाहो तो हम तुम्हें एक नहीं, कई कलाओं में पारंगत बना सकते है।'' गिद्ध सहमति में सिर हिलाया। तब सियार बोला-''चलो, आज से मैं तुम्हें अपनी धूर्तता प्रदान करता हूँ। कुत्ते ने कहा मैं तुम्हें दुर्बलों के सामने भौंकने और सबल के सामने दुम हिलाने की कला देता हूँ। लोमड़ी बोली मैं तुम्हें अपनी चालाकी देती हूँ। तभी तालाब के पानी से एक मगरमच्छ निकल कर बोला मैं तुम्हें अपनी आँसू बहाने की कला देता हूँ। सब लोग गिद्ध को कुछ-न-कुछ दे रहे थे तो वहीं एक बिल में घुसी बैठी स`र्पिणी को भी जोश आ गया। वह बिल से निकलकर बोली मैं तुम्हें अपनी निष्ठुरता देती हूँ। तुम्हें पता है न कि मैं इतनी निष्ठुर हूँ कि अपने बच्चों को भी खा जाती हूँ। उन सबकी बातों को सुनकर पेड़ पर बैठी कोयल डर गई और वहाँ से उड़ने लगी। उस पर सियार की नजर पड़ गई। वह अपनी धूर्तता का सफल प्रयोग करते हुए बोला-'' कोयल बहिन! क्या तुम इस बेचारे को कुछ नहीं दोगी? सभी जानवर सियार की बातों का समर्थन करते हुए कोयल से आग्रह करने लगे। मजबूर होकर कोयल बोली-''अच्छा चलो, इसे मैं अपनी मनमोहक आवाज और अंदाज देती हूँ।'' इतना कहकर कोयल फुर्र से उड़ गई। सियार के होंठों पर कुटिल मुस्कान आ गई। इसके बाद सबने समवेत स्वर में ग़िद्ध़ से कहा कि अब तुम एक नहीं कई कलाओं में प्रवीण हो गये हो। इनके बदौलत तुम्हें जो भी कमाई होगी उसका आधा हिस्सा तुम्हारा बाकी हम सबका रहेगा, ठीक है ना? गिद्ध के आँखों से खुशी के आँसू छलक पड़े। मगरमच्छ को लगा कि कहीं सबसे पहले यह मेरी कला का प्रयोग हम पर ही न कर रहा हो। वह उसे संदेह की नजर से देखने लगा। कुछ समय तक सभी जानवर यूं ही बातचीत करते हुए बैठे रहे। उसके बाद गिद्ध की सफलता की शुभकामना देते हुए अपने-अपने शिकार के लिए जंगल की ओर निकल पड़े।

गिद्ध लालच में पड़कर इन सभी दुर्गणों को आत्मसात तो कर गया पर बाद में सोचने लगा आखिर इन दुर्गणों का दुरूपयोग मैं सफलतापूर्वक किस क्षेत्र में कर पाऊँगा। तभी वहाँ आकाशवाणी हुई-''वत्स! तुम चिन्ता मत करो। तुम अपने इन दुर्गणों का प्रयोग जीवन के हर क्षेत्र में कर सकते हो। राजनीति से धर्म नीति तथा अर्थ नीति से शिक्षा नीति तक ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं हैं जहाँ तुम्हारी इन कलाओं की उपयोगिता न हो। रंग बदलने के बजाय तुम्हें भेष बदलने की कला का वरदान मिल चुका है। वैसे भी तुम्हारी तेज दृष्टि से कोई भी शिकार आसानी से बच नहीं सकता। तुम और तुम्हारे वंशज अब संसार में दलाल के नाम से जाने जायेंगे मगर पहचाने नहीं जायेंगे। अब तो खुश हो ना?

वह गिद्ध बहुत दिनों तक अपनी कला का सफलता पूर्वक प्रयोग करता रहा। गिद्धों की जनसंख्या नियंत्रण नीति के अभाव में उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुणी बढ़ती गई। आज उसी गिद्ध के वंशज जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय हो गये हैं। स्थिति यह हो गई है कि कहाँ उन गिद्धों की घुसपैठ नहीं है यह पता करना भूसी के ढेर में सुई ढूँढने से भी ज्यादा कठिन हो गया है। आसमान पर मंडराते हुए गिद्धो की नजर बराबर जमीन पर गड़ी हुई होती है। जमीन किसी गरीब की हो तब तो और ज्यादा गड़ जाती है।

कहानी ऐसे ही एक गरीब किसान के जमीन से शुरू होती है। शहर से कुछ ही दूरी पर राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे एक गरीब किसान की लगभग दो एकड़ की कीमती जमीन पर शहर के किसी बड़े उद्योगपति की नजर पड़ गई तब सिद्ध हो गया कि सचमुच गिद्धों की दृष्टि बड़ी तेज होती है। आजकल उस जमीन के आसपास बाइक और कारें मंडराने लगी थी। गिद्ध भेष बदलकर किसान के बदन का माँस तौलने लगे थे पर पता नहीं वह किसान किस मिट्टी का बना हुआ था। जो बार-बार यही कहता था कि यह जमीन मेरी माँ है। इसमें से मुझे मेरे पूर्वजों के पसीने की महक महसूस होती है। मैं किसी भी कीमत पर अपनी यह जमीन किसी को नहीं दे सकता। सारे गिद्ध अपनी समस्त कलाओं का प्रयोग उस किसान पर कर चुके थे पर वह किसान अपने इरादे से टस-से-मस नहीं हो रहा था। गिद्धों को कुछ निराशा तो जरूर हुई पर वे भी कब हार मानने वाले थे। वे कुछ समय तक अदृश्य होकर अपनी धार तेज करने लगे। धार तेज होने के बाद एक दिन सुनसान स्थान पर उन गिद्धों की एक महत्वपूर्ण मीटिंग हुई उसमें कुछ निर्णय लिए गये। किसान से उसकी कीमती जमीन छिनने की जिम्मेदारी एक घाघ गिद्ध ने ली। अब सभी गिद्ध ़खुश थे।

एक दिन अचानक उस कीमती जमीनधारी गरीब किसान के घर कुछ साधुओं का आगमन हुआ। किसान धार्मिक स्वाभाव का था इसलिए उन्होने उनकी खूब आवभगत की। एक प्रधान साधु किसान को पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, लोक-परलोक, जीवन-मरण की बातों के साथ ही दान की महिमा समझाने लगे और खासकर जमीनदान को महादान बताया। तभी सहायक साधु ने तपाक से कहा-''हाँ वत्स! अभी-अभी करीब सप्ताह भर से मुझे रात में सपने में आकर भगवान कह रहें हैं कि सडक किनारे तुम्हारी जो जमीन है उस पर मेरा वास है। यदि तुम उसे हमारे गुरू महराज को दान करोगे तो परमात्मा तुमको स्वर्ग में अपने चरणों पर स्थान दे देंगे नहीं तो तुमको नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।'' किसान जमीन दान की महिमा इतने खतरनाक ढंग से समझ गया था कि तुरन्त पंचायत के सामने प्रभु के नाम पर जमीनदान करने की घोषणा कर डाली। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अविलंब समस्त दस्तावेज तैयार कर लिए गये और कुछ ही दिनों में प्रभु के नाम पर जमीन की रजिस्ट्री भी हो गई।

ब्हुत जल्दी ही समस्त ग्रामवासियों के सहयोग से उस गरीब किसान के उस कीमती जमीन पर एक छोटा सा मंदिर बनवा दिया गया और साथ ही उस साधु के रहने के लिए एक बड़ा सा आश्रम भी। पहले-पहले तो उस आश्रम में वही सहायक साधु अकेले ही रहा करता था पर पिछले कुछ दिनों से उसके साथ एक महिला भी रहने लगी थी। गाँव के भक्तगण भी कभी-कभी उस आश्रम में जाया करते थे। उनमें से एक भक्त ने एक दिन उस महिला की ओर इशारा करते हुए उस साधु से पूछा-''ये मैडम कौन है महराज! और आपके साथ यहाँ कैसे रहने लगी है? साधु ने आसमान की हाथ उठाकर और उस महिला की ओर मुस्करा कर देखते हुए जवाब दिया-''ये प्रभु की लीला है वत्स! बात आई गई हो गई। पर चार-पाँच माह बीतते ही वहाँ एक और महिला आकर रहने लगी। मौका देखकर उसी भक्त ने फिर उस साधु से प्रश्न किया-''ये दूसरी मैडम कौन है और कहाँ से टपक पड़ी?'' साधु उस दूसरी महिला की ओर अपनी बांयी आँख दबाकर उस भक्त से कहा-''ये प्रभु की माया है बच्चा।'' भक्त 'माया महाठगनी हम जानि' ये भजन रोज गाया करता था पर उसका अर्थ नहीं समझता था। माया ही समस्त कष्टों का मूल है यह बात ध्यान में आते ही उस भक्त के कान खड़े हो गये थे पर अभी किसी निष्कर्ष पर पहुँचकर किसी को इस बारे में कुछ बताना उसे उचित नहीं लगा। पर हद तो तब हो गई जब उस कथित साधु के आश्रम में पाँच-सात बच्चे भी उनके ही परिवार की तरह रहने लगे। जब उस भक्त से रहा नहीं गया तो उन्होंने उस साधु से बच्चों के बारे में पूछा। साधु फिर मुस्कुराते हुए और प्यार से बच्चों की ओर देखते हुए जवाब दिया कि ये सब प्रभु की संतान हैं। यह सुनकर प्रभु की लीला और माया खिलखिला कर हँस पड़ी।

धीरे-धीरे उस गरीब किसान की दान की हुई उस जमीन पर हृदयशूल की तरह व्यवसायिक परिसर बनने लगे और वह व्यवसायिक केन्द्र की तरह विकसित होने लगा। अब बात गाँव वालों के बर्दाश्त से बाहर होने लगी थी। एक दिन सब लोग उस गरीब किसान के साथ ही उस आश्रम पर पहुँचकर समवेत स्वर में बोले कि जमीन प्रभु के नाम पर दी गई फिर यहाँ पर ये सब क्या हो रहा है? यहाँ तो आपकी गृहस्थी जैसा वातावरण हो गया है। पूछने पर आप किसी को प्रभु की लीला, किसी को प्रभु की माया और बच्चों के प्रभु की संतान बताते हैं। आज तो आपको बताना ही पड़ेगा कि आखिर ये प्रभु कौन है? वह कथित साधु मुस्कुराते हुए बोला -'' अरे! इसमें इतना क्रोधित होने की क्या बात है भाई! मेरा ही नाम तो प्रभुदयाल है। यह जमीन मेरे नाम पर है। अब मैं इसमें मकान बनाऊँ, दुकान लगाऊँ या परिवार बसाऊँ इसमें आपत्ति करने वाले आप कौन होते हैं? जाइये आपको जो करना है कर लीजिए, मैं अपनी जमीन का उपयोग अपने ढंग से करने के लिए स्वतंत्र हूँ।

वह गरीब किसान गाँव वालों के साथ उस जमीन को वापस पाने के लिए बहुत दिनों तक हाथ-पाँव मारता रहा पर कुछ नहीं हुआ। सबको समझ आ गया था कि जमीन पर प्रभु की जड़े काफी गहरी और मजबूत हो गई है अब इसे उखाड़ना किसी गरीब किसान के बस की बात नहीं रह गई है।

उस गरीब के किसान के पास अब बेबसी में आँसू बहाने और लाचारी में जीवन बिताने के सिवा कुछ भी नहीं रह गया था।

वीरेन्द्र 'सरल', धमतरी (छत्तीसगढ़)

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रचनाकार: व्यंग्य - अतिक्रमण-अ-नीति / वीरेन्द्र 'सरल'
व्यंग्य - अतिक्रमण-अ-नीति / वीरेन्द्र 'सरल'
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