कवि-व्यक्तित्व को देखते हुए शमशेर एक अयथार्थ नामकरण (मिसनोमर) है. शमशेर का अर्थ होता है, तलवार. बीच से झुकी हुई तलवार. मूल रूप से शम, नाखून ...
कवि-व्यक्तित्व को देखते हुए शमशेर एक अयथार्थ नामकरण (मिसनोमर) है. शमशेर का अर्थ होता है, तलवार. बीच से झुकी हुई तलवार. मूल रूप से शम, नाखून को कहते हैं और शेर, सिंह को. लेकिन शमशेर बहादुर सिंह न तो झुकी हुई तलवार सरीखे हैं और न ही सिंह के नाखून सरीखे. ये सारी की सारी वस्तुएं बेमुरव्वत हैं. हिंसक हैं. सिर्फ काटती हैं. लेकिन शमशेर केवल एक कवि ही नहीं एक ऐसा इंसान भी है जो जोड़ता है. आदमी को आदमी से जोड़ता है. शमशेर में तो हमें भाषाई स्तर पर भी सौहार्द ही सौहार्द दिखाई देता है शमशेर के यहां कोई भी भाषा वर्जित नहीं है. वह विभिन्न वर्णमालाओं का सम्मान करते हैं और लेखन की लिपियों तक से काव्य प्रेरणा ग्रहण करते हैं. उनके रचना संसार में उर्दू और हिंदी ऐसी घुल-मिल गईं हैं कि दोनों की अपनी स्वतंत्र पहचान धुंधली पड़ जाती है. यह शमशेर की ही शमशेरियत है कि उन्होंने उर्दू को हिंदी की दृष्टि से देखा और हिंदी को उर्दू की नज़र से. शमशेर हिंदी-उर्दू के दोआब हैं. वे उर्दू की ज़मीन से हिंदी कविता को सम्भव बनाने वाले कवि हैं. खुद शमशेर ने ही लिखा है –
वो अपनी ही बातें, वो अपनी ही खू-बू
हमारी ही हिंदी हमारी ही उर्दू
वो कोयल-ओ-बुलबुल के मीठे तराने
हमारे सिवा इनका रस कौन जाने
शमशेर आदमी और आदमी के बीच जब भी कोई भेद देखते हैं, तिलमिला जाते हैं. ठीक इसी तरह वह भाषाई अलगाव से भी परहेज़ करते हैं. उनके काव्य में हिंदी और उर्दू ग़ैर नहीं हैं, सगी हैं. वस्तुतः उन्हें तो हर कोई प्यारा है. न तो उन्हें अफ्रीका का रंगभेद सुहाता है, न ही कोई साम्प्रदायिक फूट. वैचारिक रूप से वे मार्क्सवादी हैं, किंतु मार्क्सवाद
का हिंसक रास्ता उन्हें कभी रास नहीं आया. उनके रचना संसार का मूलाधार मार्क्सवादी विद्रोह नहीं, प्रेम है. और यह एक ऐसा प्रेम है जो देश और काल की सीमाएं लांघ जाता है. शायद यही कारण है कि शमशेर को समझना –वैचारिक स्तर पर- कठिन हो जाता है.
शमशेर को आप किसी एक चौखटे में जड़ नहीं सकते. –
बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है
किसे पूछते हो किसे हम बताएं
प्रगतिवादी यदि उनकी कविताओं में मार्क्सवादी तत्व खोज निकालते हैं तो रूपवादी- कलावादी उनमें ऐंद्रिक सौंदर्य के तत्ब ढूंढ लेते हैं. .
शमशेर अपनी रचनाओं में मुख्य्तः अपने मानसिक परिवेश को ही चित्रित करते है.
पर मानसिक परिवेश के साथ ही आसपास का माहौल भी उनमें झलके बिना नहीं रहता. उनका अंदरूनी व्यक्तित्व, अंदरूनी कवि और चित्रकार अपने निजी अक्स को तो उतारता ही है, उस वाह्य वातावरण को भी चित्रित कर देता है जिसके प्रति कवि अपनी सम्वेदन- शीलता अनुभव करता है. लेकिन हर सम्वेदनशीलता को जब किसी भाषा में, किसी चित्र या किसी धुन में, बांधने की कोशिश की जाती है, तो वह बंधने से मानों इंकार कर देती है. वह किसी भी फ़ॉरमेट का ग़ुलाम नहीं है. अलग और स्वतंत्र है. शमशेर की कोशिश इसी स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए उसे कविता में अभिव्यक्ति प्रदान करना है.
इस प्रसंग में शमशेर का ग़ालिब को उद्धरित करना बड़ा सार्थक है. ग़ालिब का शेर है
फरियाद कोई लय नहीं है/नाला पाबंदे-नै नहीं है.
शमशेर कल्पना करते हैं कि कोई बांसुरी बजा रहा है. लेकिन यह बांसुरी (नै) कभी अंतर की कराह को बांध नहीं सकती क्योंकि नाला (आह, कराह) बांसुरी बजाने की कला के अधीन (पा बंद) नहीं है. उससे आज़ाद है, शमशेर का काव्य मानवीय चेतनाकी एक ऐसी पुकार है जिसे बांध पाना नामुमकिन है.
शमशेर सही अर्थों में एक रचनाकार हैं. रचनाकार वह होता है जो सृजन करता है और किसी भी सृजन में दो तत्व अनिवार्य हैं. एक, कुछ न कुछ नयापन और दूसरे सौंदर्य. आपको शमशेर की कविता में ये दोनो ही तत्व बिलाशक मिलते हैं बल्कि उनके अंदाज़े बयां में भी देखे जा सकते हैं. यही कारण है कि शमशेर अपने समकालीनों में बिल्कुल अलग खड़े हुए दिखाई देते हैं. काव्य भाषा, काव्य विषय और काव्य शैली, सभी में उनकी एक स्वतंत्र छाप है. शायद ही ऐसा कोई कवि हो जिसमें विषय और शैलीगत इतनी विविधता पाई जाती हो. शमशेर नए-नए रूपों और विषयों में सौंदर्य का निर्माण करते हैं. वस्तुतः शमशेर के यहां, जैसा कि अशोक वाजपेयी ने कहा है, सत्य और सौंदर्य में भेद तो बेशक है, किंतु दूरी नहीं है. सत्य अंततः यहां सुंदर है और सुंदर, सत्य. शमशेर सुंदर और सत्य के एक अद्भुत चितेरे हैं. शमशेर को यूं ही कवियों का कवि नहीं कहा गया है. न जाने कितने कवियों ने शमशेर को पढ़कर अपने कविता-कर्म में कविता की तमीज़ सीखी होगी.
शमशेर जब भी किसी विषय को कविता में उठा रहे होते हैं तो वह विषय वस्तुगत नहीं रहता. वह उनका अपना निजी बन जाता है. वह उसे अपने पास, इतने अपने पास, खींच लेते हैं कि कवि के अंतरूनी व्यक्तित्व का अक्स उसमें उतरे बिना बाज़ नहीं आता और कविता का मूल बीज बड़ी कठिनाई से ही पकड़ में आ पाता है. अन्यथा वह वस्तु जिसकी वे बात करना चाहते हैं, ध्यान से हट जाती है. काव्य रचना की समझ में एक व्यवधान सा पड़ता है. इसी लिए हम कविता को प्रायः अन्यथा अर्थों में जोड़ने लगते हैं और उसके मूल भाव से भटक जाते हैं.
शमशेर को पढ़ते समय उनकी कविताओं में प्रायः प्रवाह की कमी दिखाई देती है, लेकिन यह कमी, कमी के रूप में, केवल इसलिए लगती है कि हम सामान्य प्रवाह के आदी हो चुके हैं. शमशेर की कविताएं इसीलिए ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ हैं. लेकिन कविताओं की यह टूट और उनका यह बिखराव शायद इसलिए है कि उनकी कविता की पंक्ति-पंक्ति में एक एक स्वतंत्र कविता- सम्पूर्ण कविता- होती है. शमशेर ने एक पंक्ति की कविताएं अलग से बेशक नहीं लिखीं, पर उनकी कोई भी कविता पढ़ते समय हम किसी भी पंक्ति पर कभी भी अटक सकते हैं. यह पंक्ति कविता से बाहर आकर हमारे सामने एक साक्षात् बड़ी कविता बनकर खड़ी हो जाती है. तब शेष पंक्तियां कहीं खो जाती हैं. हम एक पंक्ति की उस कविता की गहन दार्शनिकता में अनायास ही विचरने लग जाते हैं. शमशेर में एक पंक्ति की ऐसी अनेक कविताएं हम सहज ही बिना पाए नहीं रहते.
<बात बोलेगी हम नहीं> एक ऐसी बात है जिसपर आप जितना ही ग़ौर करें अपने भेद खोलने चली आती है. यह जहां एक ओर नई कविता का घोषणा पत्र बन जाती है, वहीं वह अपने हक़ के लिए बोलने हेतु प्रेरित करती है. यह सत्य का मुख और रुख़ तो दर्शाती ही है, एक तरह से अभय दान भी देती है कि कह दो जो कहना है. सत्य के कितने रंग एक संग यहां हैं. यह कोई इकहरी पंक्ति नहीं है. अपने में सम्पूर्ण कविता है.
मनुष्य की जिजीविषा का डंका बजाती <काल तुमसे होड़ है मेरी> एक ऐसी उद्घोषणा है जो समय को चुनौती देती है. माना कि काल किसी का नहीं होता लेकिन मैं शमशेर हूं और तुम्हें मेरी बात मानना पड़ेगी, सुनना पड़ेगी –भले ही इसके लिए, ओ समय! तुम्हें रुकना ही क्यों न पड़े.
पानी सिर तक गया है. वे कौन से व्यवधान हैं जो समय को उसकी वांछित दिशा में बढने नहीं देते. सोचो और सोचो. <घिर गया है समय का रथ>,पर कोई तो मार्ग होगा. निकल पाने का. निबटने का.
इतना हल्का भी नहीं कि सूख जाए और ऐसा भी नहीं कि तुरंत गिर पड़े. गिरते गिरते ही गिरेगा. <अब गिरा अब गिरा वो अटका हुआ आंसू>. अटका भी कबतक रहे. पर इससे पहले कि वह वहीं सूख जाए, उसे गिर जाने दो. रोना है कोई हंसी नहीं है.
कौन कहता है कि एक पंक्ति में कविता नहीं कही जा सकती. यह शऊर कोई शमशेर से सीखे.
(अक्षरा, भोपाल, जुलाई-अगस्त, 2011)
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