केदारनाथ सिंह सन् 47 को याद करते हुए तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह? गेहुँए नूर मियाँ ठिगने नूर मियाँ रामगढ़ बाज़ार...
केदारनाथ सिंह
सन् 47 को याद करते हुए
तुम्हें नूर मियाँ की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाज़ार से सुर्मा बेचकर
सबसे आख़िर में लौटने वाले नूर मियाँ
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हें याद है शुरू से अख़ीर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़-घटाकर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गये थे नूर मियाँ?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहाँ है
ढाका
या मुल्तान में?
कया तुम बता सकते हो
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं
पाकिस्तान में?
तुमचुप क्यों हो केदारनाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमज़ोर है?
धीरे धीरे हम
धीरे धीरे हम पत्ती
धीरे धीरे फूल
धीरे धीरे ईश्वर
धीरे धीरे धूल
धीरे धीरे लोग
धीरे धीरे बाग
धीरे धीरे भूसी
धीरे धीरे आग
धीरे धीरे मैं
धीरे धीरे तुम
धीरे धीरे वे
धीरे धीरे हम
धब्बा
सुबह से पड़ा था
सड़क के बीचोंबीच
लाल दमकता हुआ ख़ून का धब्बा
अब वह सूखकर
लाल से भूरा
और भूरे से धीरे धीरे काला होता जा रहा था
जो भी उधर जाता था
देखता था धब्बे को
फिर आँख बचा दाँये या बाँये से
निकल जाता था आगे
इसी तरह दिनभर
हाथ उठाये हुए
सड़क पर पड़ा रहा ख़ून का धब्बा
जब कोई नहीं आया
तो दिन भर की तपिश के बाद
घुमड़कर आ गई झमाझम बारिश
बारिश धब्बे के पास गई
उसने धीरे-से धब्बे को छुआ
उठाया
गले से लगाया
फिर उस उतनी-सी जगह को
जहाँ पड़ा था धब्बा
अपने गीले हाथों से
रगड़-रगड़ धोया
इस तरह क़िस्सा ख़त्म हुआ
ख़ून के धब्बे का
अब बारिश ख़ुश
कि उसने धो डाला धब्बे को
धब्बा ख़ुश कि जैसे वह कभी सड़क पर
था ही नहीं!
चन्द्रकान्त देवताले
ये तस्वीरें
जिनने तस्वीरें खींचीं
घायल हुए
तस्वीरों में देखों कैसे मुस्करा रहे हैं प्रमुदित
कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं
भरोसा करना मुश्किल है इन तस्वीरों पर
द्रौपदी के चीर-हरण की तस्वीर
फिर भी बरदाश्त कर सका था मैं
क्योंकि दूसरी दिशा से लगातार बरस रही थी हया
पर ये तस्वीरें
सब कुछ ही तो नंगा हो रहा है इनमें
छिपाओ इस बहशीपन को
बच्चों और गर्भवती स्त्रियों की नज़रों से
रोको इनका निर्यात
ढक दो इन तस्वीरों को बची खुची हया से।
अब उसी वक़्त
मैं जी रहा हूँ मौत की ख़बरों के भीतर
चल रहा हूँ हत्यारे हिंसक समय में
फिर मरने का अफसोस क्यों होगा मुझे
मुझे याद है दिया-बत्ती के वक़्त
माँ के साथ प्रार्थना के लिए खड़ा हो जाता था
अब उसी वक़्त घरों में भून दिया जाता े
औरतों और बच्चों को
दहशत पक्षियों के पंखों पर
बच्चों की आँखों
माँओ के दूध तक में दहशत
समय की हड्डियों में
दिन डूबने और सुबह होने की
ख़ुशियों का ख़ून जम गया है
और इसे भी पूजा कहा जा रहा है
यह युद्ध से भी बदतर युद्ध है
और करोड़ों आंखें इस सबको
सिर्फ ख़बरों की तरह पढ़ने को अभिशप्त हैं।
उन्नीस सौ बानवे
अपने असंख्य वर्षों के बारे में
चुप ही रहेगी पृथ्वी
पर मेरे छप्पन वर्षों के बाद
उगा यह तबाही से ख़तरनाक हुआ वर्ष
मनहूस दस्तावेज़ की तरह
फड़फड़ाता ही रहेगा
बची-खुची ज़िन्दगी की छाती पर
इतनी बर्वरता और इतनी जल्दी और इतनी फुरती से
कौन थे उन्मत घोड़ो पर सवार
जिनकी दहलाती टापों ने रौंद दिये
बच्चों के भविष्य के घरौंदे
भूकम्प के बाद
खड़े होने लगते हैं घर
तूफ़ान के बाद
जाल और डोंगियाँ सुधारने लगते हैं
मछुए और मल्लाह
पर इस मलबे में दबकर
क्षत-विक्षत हुए ईश्वर को
शायद ही जोड़ पाऊँगा मैं
विजयबहादुर सिंह
शहर रोता रहा रात भर
पहले भय आया नंग धड़ंग
ढेरों कपड़े पहन
फिर आयी आशंका
अविश्वास भी आया तब चुस्त दुरुस्त
सजी धजी आई चलकर नफ़रत
दियासलाइयों की तीलियों की तरह
जेबों से निकाले गए चाकू
पटाख़ों की तरह फोड़े गए बम
होली की तरह जलाई गई बस्तियाँ
सड़कों पर बहा निर्दोष ख़ून
दरवाज़े बन्द कर
पूरा शहर रोता रहा रात भर
अच्छे नागरिक
अच्छे नागरिक
चुप रहते और बर्दाश्त करते हैं
अच्छे नागरिक
अपने मतलब से मतलब रखते हैं
अच्छे नागरिक
गवाह नहीं होते बुरी बात के
अच्छे नागरिक
कभी भी नहीं करते प्रतिरोध
विनय दुबे
जो अयोध्या में नहीं है
तब आदि में उसने आकाश और
सारी पृथ्वी की सृष्टि की
पृथ्वी बेड़ौल और सुनसान पड़ी थी
और गहरे जल के ऊपर अँधियारा था
तब परमेश्वर ने कहा उजियाला हो
तो उजियाला हो गया
फिर उसने हमें आजीविका के लिए
अध्यापकी दी साँस ले सकें इसलिए
हवा दी और नहा सकें इसलिए साबुन दिया
एक लाल स्कूटर और किराये का एक घर दिया
तब उसने हमें एक छोटा सा
लेकिन खिड़की से दीखता आकाश दिया
वंश चलाने के लिए एक बेटा और एक बेटी दी
सारा शहर मातम मना रहा था
तब मुहर्रम का दिन था
और सम्पूर्ण पृथ्वी बेड़ौल और सुनसान पड़ी थी
फिर उसने यह भी कहा कि जो नहीं है
ईश्वर है वह सब और सब में है
फिर उसने कहा सब में नहीं है सब कुछ
कुछ न कुछ एकाध नहीं है
और जो नहीं है एकाध
ईश्वर है वह सब जैसे हरापन
जो अयोध्या में नहीं है
फिर उसने हमें देशव्यापी दंगे दिये
और बम्बई बमकांड दिया और
ए. के. सैंतालीस रायफल दी और
प्रतिभूति घोटाला कांड दिया और कनेर के फूलों पर
उड़ती तितलियाँ दीं और इमली के पेड़ की
घनी छाँव दीं और धारा तीन सौ सत्तर दी
और फूली मधुमालती की कामोद्दीपक गंध दी
बरसात में बाढ़ गरमी में सूखा और सबमें भूख दी
सारा शहर मातम मना रहा था
तब मुहर्रम का दिन था
और सम्पूर्ण पृथ्वी बेडौल ओर सुनसान पड़ी थी
धन्य हैं वे सब जो जानते हैं
और वे भी जो नहीं जानते हैं
कि हरापन अयोध्या में नहीं है
और दंगे के दौरान भोपाल मृत नहीं हुआ
और ग्वालियर में गरमी इस साल भी पड़ी
और दिल्ली किसी अनहोनी की प्रतीक्षा में अब भी है
भला हो इस्राइल का उद्धार सिय्योन से प्रगट होता
जब यहोवा अपनी प्रजा को दासत्व से
लौटा ले आएगा और तब याक़ूब मगन
और इस्राइल आनंदित होगा
हे परमपिता परमेश्वर हमारे प्रभु तेरा नाम
सारी पृथ्वी पर क्या ही प्रतापमय है
तू हमें शक्ति दे कि नहीं है जो हममें
हम उसकी रक्षा कर सकें
क्योंकि वह सबके लिए ईश्वर है
और जो अयोध्या में नहीं है
सारा शहर मातम मना रहा था
और सम्पूर्ण पृथ्वी बेडौल और सुनसान पड़ी थी
अपने गोरैया देखी है
अपने गोरैया देखी है
आप किसी पेड़ के नीचे से गुज़रे हैं
तब ज़रूर
आपके सिर पर
या कन्धों पर
गोरैया ने बीट की होगी
आप पर गोरैया ने बीट की होगी ज़रूर
ओर आपने सहज ही पोंछ भी लिया होगा उसे
अगर आपके साथ
नहीं हुआ है यह
तो न आपने गोरैया देखी है
और न आप किसी पेड़ के नीचे से गुज़रे हैं
सवाल
सवाल यह नहीं है
कि भूख ने
कैसे मारा लोगों को
सवाल यह भी नहीं है
कि सूखे की चपेट में
कैसे मरे लोग
और सवाल यह भी नहीं है
कि दुर्घटनाओं के शिकार
कहाँ हुए लोग
लोगों के मरने पर
सवाल पैदा ही नहीं होता है
फिर वहीदा रहमान ने कहा
फिर वहीदा रहमान ने कहा
बादल आयें
बादल आए
फिर वहीदा रहमान ने कहा
पानी बरसे
पानी बरसा
फिर वहीदा रहमान ने कहा
सब मरें
सब मरें
फिर वहीद रहमान ने कहा
अब सो जाओ
हम सो गए
इस हादसे को
बरसों हो गए
अब न वहीदा रहमान है न हम हैं
अब वहीदा रहमान कुछ नहीं कहती है
अब दुनिया में कहीं कुछ नहीं होता है
विनोद कुमार शुक्ल
उस अधूरे बने मकान...
उस अधूरे बने मकान के पीछे एक प्राचीन बड़ा
मंदिर है
पान की दुकान से सटा हुआ एक मंदिर है
झोपड़ियों के बीच लाइन से तीन मंदिर हैं
वैसे ही टूटे फूटे दो मंदिर
आधा धँसा हुआ है
उसके बाद एक बावड़ी है
जहाँ मूँगफली वाला बैठा हुआ है
वहाँ दीवाल से टिकाई हुई विष्णु की मूर्ति है
जहाँ अब बेचने वाली बुढ़िया बैठी हुई है
उसके पास की चट्टान में ब्राह्मी लिपि खुदी हुई है
हिलते डुलते पेड़ की झुरमुटे की आड़ से
कोई टूटा फूटा मंदिर इस तरह दिख जाता है
कि पहले किसी को नहीं दिखा है
जगह जगह इतना प्राचीन है
कि घूमते घूमते थक चुका हूँ
अँधेरा हो गया जैसे दसवीं शताब्दी का अँधेरा हुआ है
मुझे लगता है वही चाय की दुकान होगी
उसके पुराने जर्जर दरवाज़े को खटखटाता हूँ
दरवाज़ा भी मंदिर का है
एक ग़रीब छोटी सी लड़की
ढिबरी लिए खड़ी है
यह एक छोटा सा बहुत बहुत ग़रीब
शिव का घर है
ईश्वर अब अधिक है
ईश्वर अब अधिक है
सर्वत्र अधिक है
निराकार साकार अधिक है
हरेक आदमी के पास बहुत अधिक है।
बहुत बँटने के बाद
बचा हुआ बहुत है।
अलग अलग लोगों के पास
अलग अलग अधिक बाक़ी है।
इस अधिकता में
मैं अपने ख़ाली झोले को
और ख़ाली करने के लिए
भय से झटकारता हूँ
जैसे कुछ निराकार झर जाता है।
जंगल के दिन भर के सन्नाटे में
जंगल के दिन भर के सन्नाटे में
महुवा टपकने की आवाज़ आती है
और शाम को हर टप ! के साथ
एक तारा अधिक दिखने लगता है
जैसे आकाश में तारा टपका है
फिर आकाश भर जाता है
जैसे जंगल भर जाता है।
आदिवासी लड़की, लड़के, स्त्री जन
अपनी टोकनी लेकर महुवा बीनने
दिन निकलते ही उजाले के साथ-साथ
जंगल में फैल जाते हैं।
एक आदिवासी लड़की
महुवा बीनते बीनते
एक बाघ देखती है।
जैसे जंगल में
एक बाघ दिखता है।
आदिवासी लड़की को बाघ
उसी तरह देखता है
जैसे जंगल में ए आदिवासी लड़की दिख जाती है
जंगल के पक्षी दिख जाते हैं
तितली दिख जाती है।
और बाघ पहले की तरह
सूखी पत्तियों पर
जँभाई लेकर पसर जाता है।
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घले जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ-शेर से डर नहीं लगता
घर महुवा लेकर गीदम के बाज़ार जाने से
डर लगता है।
बाज़ार का दिन है
महुवा की टोकनी सिर पर बोहे
या काँवर पर
इधर उधर जंगल से
पहाड़ी के ऊपर से उतर कर
सीधे सादे वनवासी लोग
पेड़ के नीचे इकट्ठे होते हैं
और इकट्ठे बाज़ार जाते हैं।
कविता
कितना बहुत है
परन्तु अतिरिक्त एक भी नहीं
एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं
एक कोंपल नहीं अतिरिक्त
एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद।
अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद
न उसका एक कलश गंगाजल
बाढ़ से भरी ब्रह्मपुत्र
न उसका एक अंजुलि जल
और इतना सारा एक आकाश।
न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक
कितनी कमी है
तुम ही नहीं हो केवल बंधु
सब ही
परन्तु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।
विनोद दास
अयोध्या
अयोध्या
अभी भी उदार है
सरयू
उसी तरह हर लेती है थकान
यात्रियों के
दस्तक देने पर
दरवाज़े थोड़ा ठहरकर नहीं
लेकिन खुलते
लोग अब भी मिलते हैं
और दुश्मनों की तरह
हाथ नहीं मिलाते
रोककर
बच्चों का परीक्षाफल पूछते हैं
पान खिलाते हैं
चाय गुमटियों के सामने
बेंचों पर बैठकर
बतकही करते हैं
औरतें पड़ोसियों से
आटा माँग लेती हें
और आटा चक्की
गेहूँ पीस देती है
और धर्म नहीं पूछती
अयोध्यावासी अब भी
मिलनसार है
सिर्फ़ जब वे
पंकज सिंह
सूरत
9
लपटों में घिरी मेरी प्रार्थना
तिलमिलाहट में भूलती अपने होने का
जीने का शिल्प मेरी कविता
आत्मा में भरे वात्याचक्र
हमारी जागती रातें ओर विकल दिन
क्या कर पाये उस स्त्री के लिए
जिसके साथ भीड़ ने किया पैशाविक बलात्कार
आख़िरकार पहुँचा जिसका कटा हुआ सिर महज़
सूरत अस्पताल में
दौड़ती थीं निर्वस्त्र बदहवास स्त्रियाँ
दौड़ती थीं बच्चों को छाती से लगाये
वे दौड़ीं पूरब वे दौड़ीं पश्चिम
दौड़ीं वे उत्तर और दक्षिण
किसी दिशा में नहीं थी कोई शरण
आग और धुएँ और ख़ुन से लथपथ चीख़ों
से भरी थीं सारी दिशाएँ
जिनमें रह रहकर उभरता था
अपराधियों का निर्लज्ज अट्टाहस
क्या कर पायेगी पृथ्वी की सारी संचित करुणा
क्या कर पायेगी किसी कोने में दुबकी प्रेम की निर्मलता
क्या करेंगे मेरे आँसू मेरे शब्द
क्या कर सकती है मेरी शिल्पहीन प्रार्थना
कविता?
शायद गये हुओं की तरफ़ से कुछ सवाल
कुछ सवाल उन लोगों से जो चुप रहते हैं
उन लोगों से दो-चार बातें जो कर रहे हैं
टूटी उंगलियों कुहनियों वाले हाथ जेबों में पड़े हुए
खंडित वादय्यंत्र, निरापद घरौंदों में घूमते हुए पाँव
धुन्ध भरे दिमाग़ों में ठूँठ पेड़ों के जंगल
कामयाबी की बेग़ैरत कीमियागरी
आत्मा में पैठती चालाक निस्तब्धता
क्या यही है हमारी महान सदी का हासिल
9
स्मृति के सारे दुःस्वप्न छोटे पड़ गये यक ब यक
जब ख़बरें पहुँचने लगीं
रूदन और रक़्त में डूब गया सकल सचराचर
बहुत सारे बच्चे स्कूल से नहीं लौटे
बहु से पुरुष न काम पर पहुँचे न घर
बहुत सी लड़कियाँ न जाने कहाँ गुम हो गयी
कुछ बूढ़ी औरतों की समझ में नहीं आया
भागना है, रोना है
या कालिख भरी दीवारों के पास बेसाया
चुपचाप इन्तज़ार करना है
अस्पताल के ठंडे लाशघर में अपनों की शिनाख़्त के लिए
भी कोई नहीं पहुँचा
आहिस्ता आहिस्ता पिघलते रहे दृश्य
आहिस्ता आहिस्ता उतर आयी किरचों भरी रात
9
दोपहर सड़क पर जाते साँवले दुबले लड़के से
किसी ने न पूछी उसकी अन्तिम इच्छा
दिन का उजाला था खुला था आसमान
खिले थे मौसमी फूल
सौदा सुलुफ़ लेने को निकले उस लड़के जैसे
और भी कई थे आवाजाही में
अंदेशे थे
ख़बरों के आसपास थीं हज़ारहा अफ़वाहें
चौकसी थी
गश्त थी
लौटते हुए नुक्कड़ से घूम दाख़िल हुआ लड़का
जिस गली में उतना ही था दिन वहाँ भी
जितना बाक़ी सब तरफ
ख़रीदारी का झोला काँपा उसके हाथ में पल भर
जब देखा उसने हमलावरों को
बन्द दरवाज़ों के बाहर खुली आँखों पड़े
उस लड़के ने किसे किया होगा याद
मारे जाने से पहले किसे मालूम
क्या सुन्न हो गयी होगी उसकी स्मृति
की होगी उसने भागने की कोशिश
या गड्डमड्ड हो गयी होंगी उसकी यादें, शरारतें
इच्छाएँ ओर अपनों के चेहरे बारह साल पुराने
संसार में
किसे मालूम
न तो चुप रहने वाला आसमानी बाप
न वक्तव्य देने वाला प्रधानमंत्री
कुछ बता पयाया उसके माँ-बाप को
यों भी क्या फ़र्क़ पड़ता है
उसी हफ़्ते मारे गये वे भी बाक़ी बच्चों समेत
9
बचा है जो बेजान मलबा वह किसी को नहीं करता याद
वक़्त की नीम रोशन सुरंग में
गुम हो जाते हैं मृतक सुख दुख माल मता समेटे
सुना था कभी-कभी लौटते है वे चौखट किवाड़ों बक्सों
गुलदानों की तरफ़ इच्छाहीन छायाओं सरीखे
मलबों की तरफ़ लौटना कहाँ है मुमकिन
टूटे काँच, जले अधजले बिस्तरों, टूटी स्लेटों और
बिखरे काग़ज़ पत्तर के नीचे घुटी चीख़ों ख़ून
में क्या दिलचस्पी हो सकती है रूहों की
9
गूँज रही है एक चुप में फ़िलहाल
पिछले आखेट की हिंसा
बाँझ गर्भाशय हैं क़स्बे ओर शहर
सर्द रातों में लटका रहता है चाँद
एक मनहूस क़िन्दील सा
वंशी माहेश्वरी
इतना सब होने के बाद
इतना सब होने के बाद
मनुष्यता में फिर
बर्बरता लौटती है
सरयू में अपना चेहरा धोने
पाशविक मुस्कानों में निमग्न
रथ यात्राओं के
धूल-धूसित योद्धाओं के विजयगान
पताकाओं से झरते हैं
इसी निर्मम समय में
उन्माद के गर्भ से आतंक का जन्म होता है!
इतना सब होने के बाद
शब्दों के अर्थ बदल जायेंगे
दहशत के हाथों में
विवेक की नकेल होगी
वहशत की आँखों में
फूलों की हत्याओं के रंग होंगे
धर्मग्रंथों की जिल्दों पर लिखा जायेगा
मणिकर्णिका घाट
जो सिर्फ़ काशी में ही नहीं होगा!
इतना सब होने के बाद
सुनसान आँखों में तारे टूटते चले जायेंगे
टूटते गिरते तारों को देखना
अपशकुन नहीं माना जायेगा
सारे साक्ष्य मिटा दिए जायेंगे साक्षी गोपाल
साक्षी राम नहीं राम भक्त होंगे
जिनकी आँखों में आक्रामक मुद्राएँ
बाबा गिरी के साथ थिरकती रहेंगी!
इतना सब होने के बाद
घृणा के ताने बाने से
बुना जायेगा संसार
संसार में होगा
अयोध्या पर्व
पर्व में होगा प्रलाप
प्रलाप में होगा संताप
संताप में होगी क़तरा क़तरा मर्यादा
मर्यादा नये सिरे से
उन्मत्त चेहरों का सौन्दर्यशास्त्र रचेगी
इतना सब होने के बाद
बच्चों का बच्चापन
उनके साथ नहीं होगा
उनके खेलों में अस्त्र शस्त्र होंगे
पतंग की जगह धर्म ध्वजा होगी
कोमल हँसी में फँसी होगी करुणा
निर्मल आँखों में होगा विषाद
धीरे-धीरे बढ़ते शरीर में
उदासीनता डूब जायेगी!
इतना सब होने के बाद
प्रेम करते युगल
प्रेम के बीचो बीच खड़ी
काली दीवार से टिककर
जीवन के मर्म में खोजेंगे
प्रेमातीत गाथा
प्रेम के क्षणों में
बाघ के टहलने की पदचाप सुनायी देगी
प्रेम के विषय ओर विधियाँ
वही रहेंगे
सिर्फ प्रेम नहीं होगा
इतना सब होने के बाद
अनंत दिशाओं में
अमंगल हँसी गूँजेगी...!
‘ऐसी है ट्रैजिडी नीच!!’
विजय कुमार
कुछ पंक्तियाँ लिखी नहीं गयीं इस शहर में
मैं जनवरी के दंगों पर लिखना चाहता था एक कविता
कि जुमे के दिन उजाड़ दिये गये लोगों के दुःख
बयान हों
पर एक क़िस्सा न हो
हया बेपर्दा न हो
इस तरह एक कविता लिखना चाहता था मैं
मैं उस आदमी के कंधे पर हाथ रख सकता था
जो एक जले हुए मकान का मुआवज़ा पाने
नगर पालिका के दफ़्तर में
सही आदमी का पता पूछ रहा था
मुझे एक पंक्ति में जानना था
जुटाना था साहस
मुझे देखना थारक्त-रंजित नन्हें शरीरों को
घड़ी भर बात करता मैं
मैं बात करता उन सनक गयी बेसहारा औरतों से
जिन्होंने ख़ैरात के कपड़े
दानवीरों के मुँह पर दे मारे थे
चारों तरफ़ जलते हुए मकान थे
जैसे कि चुपचाप जलते हुए दिखाई देते हैं चित्रों में
इस राख और धुएँ के बारे में
मुझे सबसे सादा
सबसे कठिन पंक्ति लिखनी थी
मुझे केवल एक शब्द लिखना था-मृत्यु।
केवल एक शब्द-स्मृति।
केवल एक शब्द-अँधेरा।
मैं ठहरकर
उस बच्चे के बारे में सोच सकता था
जो कर्फ़्य लगने से पहले
बदहवास दौड़ता चला जाता था अकेले
हमने बर्बरों को देखा
पर सहमकर। वे गलियों से निकले
और अंधकार की तरह हर जगह फैल गये
अपने पराक्रम पर हँसे वे
उन्होंने बस्तियाँ जलायीं और मिठाइयाँ बाँटीं
ख़ंजर भोंकें ओर मंदिरों में घंटियाँ बजायीं
हर जगह ये
कविता की पंक्तियों के लिए छोड़ जाते थे
कुछ लुटे हुए मकान
टूटे दरवाज़े
स्याह चौखटे
वे घरेलू सिलाई की मशीनों को
सड़कों पर फेंककर चले जाते थे
मुझे केवल एक शब्द लिखना था-वर्तमान।
मुझे लिखना था कविता में बार बार
बेहरामपाड़ा, पठानवाडी, धरावी, असल्फा।
इस तरह मुझे लिखनी थी उन्नीस सौ तिरानवे की
कठिन दरिन्दगी पर
एक मुकम्मल कविता।
मैं हर बार चालीस के दशक की
आसान करुणा की ओर चला जाता था
कि रहमान भाई की दुकानआधी रात फुँकी ठीक हमारे सामने
कि तीन बच्चों को बाप अगले दिन वीटी पर
केवल तन के कपड़े
कि पचास साल का एक आजाद नागरिक फूट फूटकर
रोता है सरेआम
कि आँखों ओर नाक से बहता जाता है पानी
कि रुलाई थमती है। गोरखपुर की गाड़ी आती है
प्लेटफ़ॉर्म के कोलाहल में डूब जाता है दुःख
ज़रूरी नहीं है
आप इस मंज़र को देखें और शर्मसार हों ज़रूरी नहीं है
बहुत सी बातें हैं। मन का संताप हरता है। भरती है खाली जगहें
जहाँ था दुर्भाग्य, वहाँ अब बजता है कैसेट
तीन महीने बाद एक डरा हुआ आदमी लौटता है
पाकिस्तान से नहीं बाराबंकी से
सुनिये भाईजान अब आप बाबा सहगल को सुनिये
आप टहल आइये। फिर से खुल गये हैं बीयर बार रात भर
लड़कियाँ जो सौंदर्य प्रतियोगिता में चुनी जाती हैं दंगों के बाद
स्वीमिंग पूल में किल्लोल करती हैं फ़रवरी और मार्च के
महीनों में।
कुछ पंक्तियाँ लिखी नहीं गयीं इस शहर में कि अब तो हँसने लगे हैं
कुछ बदनसीब लोग भी
अंतिम रेलगाड़ी
वह आदमी
जो कल कट कर मर गया
आज फिर दिन की अंतिम रेलगाड़ी में है
वह देखो
घर लौटता उनींदा
ईश्वर यह अर्धरात्रि है
बिना तारों वाली तुम्हारी अर्धरात्रि
समन्दर के स्याह वक्ष पर
ज़ंजीरें खनक रही हैं
दिन की अंतिम रेलगाड़ी
कब पहुँचेगी उपनगर?
बताओ ईश्वर
अभी और कितने मिलेंगे
कारख़ाने
शापिंग सेन्टर
और टेलिफ़ोन बूथ
देखें उस आदमी का थका मस्तक
रह रह कर उसके कंधों पर झूल रहा है।
तुम्हारी कामकाजी दुनिया में
यह कैसी वापसी यात्रा है?
पिशाच की तरह
घर लौट रहा है एक आदमी
मटियाली रोशनी में खिड़की के पास बैठा
कुहनियों पर सिर टिकाये बेदम आदमी।
कुत्ते तक भैंक नहीं रहे
कोई दुख उसे छू नहीं रहा
कोई ग्लानि कोई दहशत
उस पर उतर नहीं रही
चपाट मुहँ खोले
वह किस क़दर नींद में ग़ाफ़िल है
अधेड़ उम्र का अबोध आदमी
दोस्तों-दुश्मनों प्रियजनों से बेख़बर
आधीरात
उपनगरीय रेल में
पस्त आदमी की नींद में
यह पूरा समय एक प्रार्थना है प्रभु
कल फिर तुम
इस गरजते बरसते शहर के ट्रैफ़िक में
जाने कब अदृश्य हो जाओगे
नींद में उसकी बुदबुदाहट
एक रात्रि मंत्र है
तुम्हें संबोधित
सब कुछ कह देने के बाद।
--
(शब्द संगत जनवरी 2011 से अनुमति से साभार प्रकाशित)
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