किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना (असमिया कविताओं का हिन्दी अनुवाद) डा . दिनेश डेका अनुवाद : दिनकर कुमार धरती की समस्त सर...
किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना
(असमिया कविताओं का हिन्दी अनुवाद)
डा. दिनेश डेका
अनुवाद : दिनकर कुमार
धरती की समस्त सर्वहारा जनता को समर्पित
अनुक्रम
1. जाड़ा : तुम्हारा-मेरा और उसका
2. विलुप्ति
3. रूप कोंवर
4. विज्ञप्ति
5. मृत्यु उपत्यका में झुका हुआ चांद
6. निर्भया की रात
7. किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना
8. भूख
9. चिरविद्रोही
10. रोशन तन्हाई
11. रोशन धरती का सुकून
12. कच्चा सोना
13. फिर भी मनुष्य
14. दधीचि
15. यमदूत
16. दुःख के दिन की कविता-1
17. दुःख के दिन की कविता-2
18. दुःख के दिन की कविता-3
19. दुःख के दिन की कविता-4
20. गोबरैला कीड़े
21. रक्ताक्षरा
22. यंत्रणा
23. प्रेम : स्वाधीनता
24. विनिमय
25. जुड़वां
26. शाम के दीपक की शिखा
27. उस उष्मा के साथ चांदनी में ठिठककर
28. सहयात्री
29. तुम नहीं समझोगे
30. यंत्रणा
31. जन्मक्षत
32. पस्तहाल समय
33. अचिंत्यदा की याद में
34. हादसे का शिकार समय
35. क्रांति इसी तरह आती है
36. नरक में चार महीने
37. अजनबी हवा
38. स्वप्न भंग
39. पताका
40. सौंदर्य
41. स्मृति से वर्तमान
42. आस्फालन
43. निर्वासन
44. पवित्र ठिकाना
45. अंकुर
46. कविता की शर्म
47. घरौंदा
48. आततायी शून्यता
49. नरक की ओर
50. प्रेम का दरवाजा
52. गहराई
53. हृदय
54. इंतजार
55. वसंत
56. दुःख
57. अकाल
58. असमय की भेंट
59. विद्रोही
60. प्रलय शिखा
61. हेमंत मुखोपाध्याय की याद में
64. गोद का बच्चा
65. शोक गाथा
66. वसंत का आह्वान
67. नीलकंठ पक्षी की खोज में
68. शारदीय पृथ्वी
69. चांदनी
70. कवि की मृत्यु
71. शराबियों की दुनिया
72. इच्छा
73. शाश्वत
74. धूप का स्तवक
75. असीम का अभियात्री
76. जाड़े की रात
77. मानवता
78. गर्भवती
79. कहां रखूं
80. मन
81. छायापथ
82. किनारा
83. प्रेरणा
एक विनम्र आह्वान
अभी मेरी उम्र उनसठ वर्ष है। बचपन से ही मैं धरती और मनुष्यों के हित में अपना सर्वस्व न्यौछावर करता रहा हूं। एक खूबसूरत धरती का निर्माण करने के लिए मैं हर तरह की विषमता को खिलाफ रहा हूं। शोषण-उत्पीड़न, वंचना-दमन अत्याचार सहित हर तरह के भेदभाव के खिलाफ मैं चिर विद्रोही रहा हूं।
मेरी जन्मभूमि है पवित्र भारतवर्ष। इसकी मिट्टी-पानी-हवा में प्रतिपालित मेरे समूचे वजूद में स्वदेश परिव्याप्त है। मेरे दिल के करीब आम लोगों में से ज्यादातर हिंदीभाषी हैं। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है। इस संल्कप की कविताओं में आम लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त किया गया है। मेरी प्रतिवादी कविताएं अगर जनसाधारण के संग्राम को प्रेरित और उत्साहित करेगी, तभी मेरी कोशिश सार्थक होगी।
इसलिए मेरा विनम्र आह्वान है- मेरे देश के हिंदी भाषी इलाकों के शहरों-कस्बों-गांवों के चौक-चौराहे, चाय की दुकानों, चौपालों पर कविताओं का पाठ हो, लघु पत्रिकाओं के जरिए प्रतिवादी कविताएं जन-जन तक पहुंचे। मैं अपने प्रिय आम लोगों को इन कविताओं का कापीराइट अर्पित करता हूं।
अनुवादक दिनकर कुमार हिंदी भाषी अंचल के जाने-पहचाने हस्ताक्षर हैं। मैं अलग से उनका परिचय देना नहीं चाहता। हम दोनों के बीच वर्षों की दोस्ती है जो हमेशा बनी रहेगी।
- डा. दिनेश डेका
अनुवादक के दो शब्द
डा. दिनेश डेका असमिया के सुपरिचित कवि है। उनकी कविताओं में इंसानियत की आवाज सुनाई देती है। वे जिस तरह एक चिकित्सक के रूप में निर्धन रोगियों की निःशुल्क चिकित्सा करते हैं और जिस तरह हमेशा समाज के सर्वहारा वर्ग के हक के लिए संघर्ष करते रहे हैं, उनकी कविताओं में भी समूची मानवता के प्रति उनका समर्पण व्यक्त होता है।
इस संकलन में शामिल कविताओं में कवि अपने समय की विसंगितयों, त्रासदियों, अमानवीय परस्थितियों पर तीखा प्रहार करता हुआ नजर आता है। कवि पूंजीवादी समाज में नष्ट होती जा रही मानवीय अनुभूतियों को बचा लेना चाहता है। कवि की सहानुभूति समाज के सबसे निचले पायदान पर संघर्ष कर रही जनता के साथ है। कवि सारी विषमताओं को दूर करते हुए एक शोषणविहीन समाज का सपना देखता है, जहां किसी के जीवन में दुख का अंधेरा न हो और चारों तरफ सुख की धूप पसरी हुई हो।
मुझे विश्वास है कि डा. दिनेश डेका की संघर्ष में तपी हुई कविताएं हिंदी के पाठकों को पसंद आएंगी।
- दिनकर कुमार
जाड़ा : तुम्हारा-मेरा और उसका
तुम्हारा-मेरा जाड़ा- इतना मीठा
एसी, गीजर, स्टीम बाथ
विभिन्न डिजाइनर टोपियां, लेदर जैकेट
एपेची जीन्स और रिबोक जूते पहनकर अथवा
अरंडी चादर लपेटकर ट्रेड फेयर, एक्सपो,
पुस्तक मेले में शाम के वक्त टहलते हुए
गर्म-गर्म चाउमीन, काफी और
सिगरेट के साथ जाड़े का लुत्फ-इतना मीठा!
उस तरफ देखो :
डस्टबिन में दस साल का लड़का
जो दो दिनों से भूखा है
नंगे बदन जूठन तलाश रहा है
उसके शरीर में जाड़ा चिकोटी काट रहा है
उसे कितनी तकलीफ हो रही है?
दूसरे को चिकोटी काटने से जितना दर्द होता है
तुम अपने शरीर में चिकोटी काटोगे तो उतना ही दर्द होगा
तो आजमा कर देखें, कपड़े उतारो
नहीं नहीं उतारना है
यह देखो, मैं अपना पुराना जैकेट,
जूते-टोपी, कमीज-गंजी खोल कर
उसके करीब पहुंच गया हूं
बदन पर धुंध की फटकार, ओस का नश्तर
इस्स अत्यंत यंत्रणामय जाड़ा हमारा- इतना कड़वा!
खबरदार, तुम्हें चेता देता हूं
जाड़े के प्रहार से जर्जर हम जैसे लोगों को लेकर
तुम्हारी कविता-गीत-नाटक से
तुम्हारी जाति-भाषा-साहित्य को जातिष्कार मत बनाना।
हमारी कोई जाति-भाषा- साहित्य नहीं
साला हरामजादा!!
‘दुनिया के मजदूरों एक हो’
पूरी दुनिया में हम हीं हैं- सर्व हारा।
विलुप्ति
नदी आसमान को छूना चाहती है
तुम्हें क्यों परेशानी होती है
हवा गीतों को बहाकर ले जाना चाहती है
तुम उसे कारागार में कैद कर
क्या खुशी पाते हो
मां की गोद में हृष्ट पुष्ट शिशु की
मुस्कान देखते ही
किस आग की तपिश से तुम तड़प उठते हो
उसके मुलायम गालों पर
जोर से चिकोटी काटते हो तुम
जब वह रोने लगता है तो
तुम खुशी से झूम उठते हो
जब लोग एक दूसरे का हाथ थामते हैं
तुम किस डर से पागलों की तरह
उनको अलग-थलग करने में जुट जाते हो
तुम्हारे राज का बहुत पहले
खात्मा हो चुका है
क्षमता के नशे में
तुम्हें अहसास ही नहीं हुआ
तुम्हें सिंहासनच्युत कर
अमोघ समय ने
विलुप्ति के सुरक्षित अंधेरे में
फेंक दिया है
अब विस्मृत हो जाओ
आज
नदी आकाश को छुएगी
हवा गीत गाएगी
बच्चे की हंसी छीनने वाली
रूलाई रुकेगी
आज
धरती के नौ सौ करोड़ लोग
हर तरह के परिचय को पोछकर
सिर्फ ‘इंसान’ के रूप में परिचय देंगे
एक दूसरे का हाथ थामकर पार करेंगे
लाखों करोड़ प्रकाशवर्ष
तुम्हें चिर विदा
आज से
‘तुम’ जैसा कुछ नहीं रहेगा।
रूप कोंवर
वह जो है सफेद, उसके पार बहुत दूर
मेरे सपनों का सुनहरा महल
जानती हो सखी, वहीं रहता है मेरे नयनों की मणि रूपकोंवर
उस देश में हरियाली का मेला, जहां धूप में
दमक उठते हैं महल के रंग बिरंगे मोती
सफेद बादल के बीच हरी सुरंग की राह से
मेरी कविता पंख फैलाकर वहां जाती है
राजभंडार से चोंच में भरकर लाती है
आश्चर्यजनक शब्दों के मोती
उनमें सेल ही चुन-चुन कर गूंथता हूं कविता की माला
जीव श्रेष्ठ हे मानव संतान!
पहनाऊंगा तुम्हें ही, देवता का कंठहार।
विज्ञप्ति
मां, तुम तो जानती हो- मैंने कोई गलती नहीं की
तुम्हारे दिए हुए अमृत कुंभ के पात्र को संजोकर सिर्फ हिफाजत करता रहा हूं
उसी के लिए तो खूनी सैलाब में, हंसते-हंसते बहा दिया है
अपना जीवन। हंसाते हुए न्यौछावर किया है जीवन के
समस्त सुख-अभिलासाओं को, आत्मीय परिजन के दृढ़ बंधन को तोड़कर, अपनाया है
रास्ता। रास्ता और रास्ता। जो रास्ता नदी-तलैया ताल-धारा
ऊंचे पर्वत, नीले समुद्र को लांघकर, विशाल विश्व को समेटकर
घोषणा करता है दीप्त कंठ से- मैं अमृतमय हृदय,
इंसानियत मेरी एकमात्र पहचान।
मां, तुम तो जानती हो- मैंने कुछ नहीं चाहा था
धन-दौलत, विलास वैभव, क्षमता हैसियत
नाम-यश अथवा प्रशस्ति- कुछ भी नहीं
मैं क्या हूं भला? और कुछ नहीं हूं मैं- सिर्फ एक सुललित सुर की
अंतहीन मूर्च्छना
मैं जीवन और पृथ्वी का- वसंत संगीत।
मैं कवि, मैं शिल्पी साधक, मैं लाचारों का सेवक
अथवा सुनिपुण वक्ता अथवा जनता का दक्ष संगठक- यही है क्या
मेरा एकमात्र परिचय- मेरी आत्मा का, मेरे वजूद का?
वर्षों की अनंत साधना से हासिल मेरी प्रतिभा में निष्ठा है
स्तुति के धुएं से रहस्यमय मत बनाना सत्य से आलोकित शरीर को
मेरी प्रतिभा में स्पंदित मेरी आत्मा को चूमने दो
हे सभ्यता की श्रेष्ठ संतान, तुम्हारी पवित्र प्राण। सत्य की सुनहरी रोशनी में
बह जाए समस्त कलुषता-कूड़ा, अंधेरे की तमाम साजिशों को
छिन्न-भिन्न कर, प्रतिबिंबित हो धरती पर हर जगह, वह अनोखा हृदय
एक प्रचंड विद्रोह- चिरसुंदर, चिर ज्योतिष्मान, जो घोषणा करता है
दीप्त कंठ से
स्वर्ग का भी नहीं हूं मैं
नरक का भी नहीं हूं मैं
इस धरती की ही निरंतर साधना से अर्जित संपदा- अमृतमय।
मृत्यु उपत्यका में झुका हुआ चांद
मृत्यु उपत्यका में
झुका हुआ चांद
‘एक सुई दो’ कहकर
कोई तुम्हारे संग
आज नहीं खेलता
प्राण के मोह में दौड़ते हुए
सागर किनारे मुंह के बल पड़ा रहता है
तुम्हारे संग खेलने की चाह रखने वाला
पांच साल का किसी का कच्चा सोना
फिर भी तुम्हारी आंखों में
आंसू नहीं
होठों पर थिरकती हुई
मुस्कराहट
कितनी वीभत्स हो तुम
पूतना राक्षसी
मृत्यु उपत्यका में
झुका हुआ चांद
उजड़ी हुई झोपड़ियों में
मौत का शोर
घर-घर मां-बाप
जहर खिलाकर
सौंप देते हैं तुम्हारी गोद में
अपने कलेजे के कच्चे सोने को
कैसी वीभत्स शताब्दी!
जिंदगी की जंग में
हौसला के साथ जूझने वाले लोगों के लिए
सारे रास्ते बंद कर
तुम खोलकर रखती हो सिर्फ
एक ही रास्ता
खुदकुशी का
कितनी वीभत्स हो
तुम
ऐ
इक्कीसवीं शताब्दी
निर्भया की रात
रात में अंधेरे का नाखून उगता है
सैलाब की धारा की तरह
रफ्तार के साथ बढ़ता है नुकीला नाखून
दस नाखूनों के खरोंच से
क्रमशः स्तब्ध होती है
निर्भया की आधी रात की चीख
घुन लगे वक्त के पेंडुलम पर
हिलता रहता है उसके
सपनों का प्यारा घर
कसाई के काटने की तरह
अंधेरा काट-काट कर खाता है
हड्डी की जीवंत मिट्टी
बदन का सिंदूरी गोश्त
कहां जाओगी
कहां छिपोगी निर्भया
किसके स्नेह के आंचल से
ढककर रखोगी
अंधेरे के जख्म वाले विवर्ण मुखड़े को
तुम नहीं हो नदी के घाट पर या
पूजा के घर में
पोखर या नदी
किसके पानी से धोकर
पवित्र बनाओगी मैले शरीर
लहू और पसीने की गंध को
तुम्हारे आसमान में भी था
बादल का गर्जन
बारिश नहीं
तुम्हारा खेत था
किस कदर ऊर्वर
फसल नहीं
तुम्हारे शरीर में यौवन का दबाव
जीवन की पंखुड़ी खिली नहीं
किस राह से
किधर जाओगी
राह-घाट का कोई ठिकाना नहीं
चैत के सूखे पत्ते की तरह
टूट कर गिर रहे हैं तुम्हारे
जीवन के हरे पत्ते
कहां जाओगी
कहां छिपोगी निर्भया
छिपने पर सूखते हैं क्या
आंखों के आंसू
आओ निर्भया आओ
अंधेरे को मथकर निकालें पूर्णिमा की चांदनी
शीर्ण कलेजे की सतह चीरकर
निकालें गंगाजल
मरहम लगाएं तुम्हारे
सीने के कच्चे जख्म पर
सीने के पक्के जख्म पर
शोषित की आह के सहारे
धारदार बनाएं जीवन को
किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना
किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना
आसमान को शर्म आएगी
बरुवा देव की पसंद का जॉन लेनन का ‘इमेजिन’ गीत
मुझे बेहत पसंद है, जानता हूं- दूसरों को भी पसंद है
लेनन की तरह शायद हम लोग भी हैं स्वप्नातुर
खंडित आसमान के साथ तुम खुद ही
अपने पिंजड़े में कैद हो
सहज-सरल विश्वास के साथ लोग
सुंदरता की माला पहनकर
एक ही आसमान में
अपनी मर्जी से उड़ने वाले पंछी हैं
किसी आदमी को जंजीर मत पहनाना
तुम हो मानव रूपी दानव
मुखौटाधारी अवैध शिकारी
पाताल के आजन्म अधिवासी
भूख
(असम के सार्थेबाड़ी में गरीबी से तंग आकर मां-बाप ने दो पुत्रों को जहर खिलाने के बाद अपनी जान दे दी। उसी घटना को लेकर यह कविता।)
धरती के नौ सौ करोड़ लोगों से पूछता हूं :
क्या तुम लोग जाग रहे हो?
बोलते क्यों नहीं? बोलो। खामोश। खामोश हैं सभी।
कलेजों को निकालकर आग में डालकर देखता हूं :
कोई हरकत नहीं। मृत उपत्यका।
हाथ खींचकर, आग में रखते ही
कैसी विकट चीख!
इसका मतलब तुम लोग
मनुष्य के रूप में हृदयहीन दानव हो।
तो फिर मैं हूं कौन, कहता हूं सुनो
मैं हूं महाप्रलय की अग्निशिखा। एक तरफ से
लील जाऊंगा विश्व-ब्रह्माण्ड। अंतहीन मेरी क्षुधा।
चिरविद्रोही
(हाल ही में शिक्षा क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ जूझने वाले गुवाहाटी के विद्यार्थियों की कालेज चुनाव में जीत मिलने पर)
ग्रहण करो मेरे दिल का संग्रामी अभिनंदन
विगत बीस सितंबर को उनसठवें साल में कदम रखकर
मैं आज भी तुम्हारी तरह हूं युवा
मेरे कंधे पर टिका है सदैव विद्रोह का पताका
पूछते हो पताके का रंग क्या है?
सफेद, काला, लाल, हरा?
गांधी या मार्क्स, मार्टिक लूथर किंग या लेनिन
इससे क्या फर्क पड़ता है
तरुणाई का दूसरा नाम- प्रतिवाद
तुम्हारे कंधे पर विद्रोह का पताका
स्वागत साथी! तुम्हारे सामने जिंदगी पड़ी हुई है
यह है विद्रोह का मैदान
सिर को उठाकर तुम्हें आगे बढ़ना होगा
झुके बगैर मैं तुम्हारी राह देखूंगा
ताकि उनसठवें वर्ष में
तुम आकर मुझसे कह सको
साथी! यह देखो
मेरे कंधे पर टिका है सदैव विद्रोह का पताका
रोशन तन्हाई
अंधेरी रात के सामने जागता रहता है
मेरे सीने में खिले सपनों का गुलशन
बार-बार घुप्प अंधेरे में
मैं सिर उठाता हूं- सत्य की अनिर्वाण ज्योति
असीम अंधेरे के चक्रव्यूह के अंदर महसूस हो सकती है
बेबसी-अभिमन्यु का विलाप
यह गलत अंदाजा है
महसूस हो सकती है अपने अंदर मृत्युमुखी एक वजूद की शवयात्रा
अथवा चिर रुग्ण स्वप्न का वायवीय विचरण
यह गलत अंदाजा है
अंधेरी रात के सामने जागता रहता है
मेरे सीने में खिले सपनों का गुलशन
मैं कुचलकर आया हूं मरघट की जली हुई मिट्टी, दमघोंटू धुआं
पहले से भी दोगुने आवेग के साथ बांहों में भर लेता हूं
हवा के झोंके के साथ जीवन के ऊर्वर-उन्मुक्त प्रांतर को
छोड़कर आई राह की हवा में बहकर आता है व्यूगल का करुण स्वर
हताश होकर लौट जाती है उसकी प्रत्याशा, अंध आक्रोश में
सिर पटककर मरती है उस राह की सीटी
मोड़ पार करते ही राह के अंत में है- अंधेरा
मैं मनुष्य की हंसी संजोकर रखता हूं सीने में
सुबह होने पर यही तो बनेगी मनुष्य का विजय पताका
सिर उठाकर मैं जाहिर होता हूं- प्रतिवाद के रूप में
दीपक की शिखा बनकर मैं अपना लेता हूं
तन्हाई को
अंधेरी रात के सामने
जागता रहता है मेरे सीने में
खिले सपनों का गुलशन।
रोशन धरती का सुकून
जब स्वप्नभूमि से चित्रों को गोद में भर लेता हूं तब धूप या बारिश
जब पार करता हूं कीचड़ अथवा पत्थर से भरपूर दुर्गम पथ दिन या रात
मैं बटोर लाता हूं तुमलोगों के लिए
निश्चित भरोसे के साथ-रोशन धरती का सुकून
जब सागर की गहराई में ढेर सारे मोती तब सागर के कुत्सित हिंसक
विशाल आक्टोपस की कैद में मेरा शरीर पीड़ा से जर्जर
तब भी मेरे सीने के अंदर शरत की खुली हंसी, तुमलोगों के
सीने में उसकी अनिर्वाण दीप्ति सींचने लायक कैसी अचरज भरी तृप्ति!
मैं बटोर लाता हूं तुमलोगों के लिए
निश्चित भरोसे के साथ-रोशन धरती का सुकून
जब आसमान में देवदूत की निर्मल हंसी तब मर्त्य भूमि में प्लूटो का संत्रास नरक के साथ घुप्प अंधेरे में सीने में यत्न से समेट कर रचता हूं
विरोध की चिंगारी में तुमलोगों को रोशन करता हूं
दुर्गम राह कुछ नहीं है, तुमलोगों के सीने में मैंने जो
खुशबूदार फूलों के पौधों लगाए हैं उनकी खुशबू महकाने में ही मेरी सार्थकता है, जब
स्वप्न भूमि से चित्रों को गोद में भर लेता हूं तब धूप या बारिश जब पार
करता हूं कीचड़ अथवा पत्थर से भरपूर दुर्गम पथ तब दिन या रात
मैं बटोर लाता हूं तुमलोगों के लिए
निश्चित भरोसे के साथ-रोशन धरती का सुकून।
कच्चा सोना
आधी रात
आसमान में माघ पूर्णिमा का चांद
खामोश निस्तब्ध प्रांतर
जाग उठता है
मेरे सीने में
सपने का कच्चा सोना
गोद में भरकर खेलता हूं
ऐसा एक दिन आएगा
जिस दिन धरती पर देश-जाति
धर्म-वर्ण, गोष्ठी-संप्रदाय की संकीर्ण दीवारें
गिर जाएंगी धरती बनेगी उन्मुक्त प्रांतर
उस आसमान की तरह विशाल
ऐसा एक दिन आएगा
जिस दिन धरती पर नहीं रहेगा
एक तरफ भोग विलास का प्राचुर्य
दूसरी तरफ भूख-शोषण-अकाल
समस्त विषमता को मिटा कर
धरती के मुखड़े पर खिल उठेगा मुस्कान
उस चांद की तरह निर्मल मुस्कान
यही है मेरे सपने का कच्चा सोना
उसके लिए ही
न्यौछावर करता हूं जीवन।
फिर भी मनुष्य
तुम्हारी पगथली में हाथी-घोड़े चलते हैं
मेरी पगथली में भूख
तुम्हारी पगथली में हाथी घोड़े की आहट
मेरी पगथली में भूखी जनता का आर्तनाद
तुम्हारी पगथली में रात की खुमारी उतरती है
मेरी पगथली में दिन-रात मेहनत की हवा चलती है
तुम्हारी पगथली में श्वापदी-वैभव
मेरी पगथली में फिर भी मनुष्य
घोषणा करता है जीव की श्रेष्ठता।
दधीचि
कहते हैं सूरज करीब आ रहा है
धरती पर सागर सूखते हैं, नदियां सूखती हैं
पेड़-पौधे वन-प्राणी और
हृदय की जलीय आर्द्रता सूखती है
सूख-सूख कर मेरा शरीर अस्थि चर्म-सार
वैशाख की रात आसमान में
अविराम कड़कती बिजली
वज्र का गर्जन डराता है जनपद को
दरवाजे-खिड़की खोल देता हूं
छिप-छिपकर बातें करता हूं
इसी तरह जारी रहता है रात भर
वज्र के संग मेरा गुप्त अभिसार
मेरी हड्डियों में जागता रहता है
दधीचि का उत्तराधिकार।
यमदूत
लकड़हारे भाई, लकड़हारे भाई
जंगल के बीच इस राह पर चलते हुए
कौन सा देश मिलता है?
गया नहीं
दादी के मुंह से सुना है :
इस राह पर बढ़ते रहने से
स्वर्ग मिलता है
यही राह है हमारा जीवन
लकड़ी काटता हूं, बाजार में बेचता हूं
भूख-प्यास मिटाता हूं
धूप-हवा संग खेलता
आकाश-मिट्टी चूमता रहता हूं
आह, कितना सुंदर है
सहज सरल, प्राणमय स्पंदन।
लकड़हारे भाई, लकड़हारे भाई
क्या मुझे ले चलोगे इस राह पर
मैं भी खेलूंगा तुम्हारे संग
जीवन जीवन
बंदूक की गोली से
ढेर हो जाता है
मासूम लकड़हारा।
तुमसे ही पूछता हूं
तुम भी तो जीवन से प्यार करते हो
तो फिर जीवन की राह में
क्यों करते हो मृत्यु की ऐसी वंदना
बताओगे मुझे
अंतहीन रात की इस राह पर
चलने से
कौन सा देश मिलता है
दादी के मुंह से
तुमने भी तो सुना था
वह किस्सा
इस राह पर चलने से
यमलोक मिलता है।
दुःख के दिन की कविता-1
अंतहीन दुःख की धूलभरी राह पर सोए हुए धूप विहीन
ये दिन। उसके नग्न शरीर को छूकर, विषण्ण हवा का झोंका
गुजर जाता है मौत का संदेशा लेकर।
शोक की बर्फीली आंधी में सर्द हो गया
दूर के राही का हृदय, अपराजेय स्वर्गोज्ज्वल
शिखर विजय के दुर्गम अभियान ने बांहों में भर लिया फिर एक बार
उत्ताल यह काल
चिर उन्नत सिर जिसका
जिसका मुखड़ा स्वकीय दीप्ति से उज्ज्वल।
दुःख के दिन की कविता-2
दुःख की गोद में सिर छुपाए
इन दिनों में ही हम गंवा बैठे हमारे जीवन की
अनमोल दौलत-स्वप्न की स्वाधीनता।
और जीवन का मतलब क्या है
कब्रिस्तान की वीरान शाम साथ लाती है
रात का सन्नाटा।
दुःख के दिन की कविता-3
गर्जन मुखर वर्षा की रात
भीषण सैलाब की तरह
मेरे हृदय के दोनों किनारे तोड़कर दुःख के
उतरते ही याद आता है
यंत्रणा की धारा से धुलकर स्वच्छ बना तुम्हारा
जीवंत मुखड़ा : आह कितना सुतीव्र । शब्दमय!
वज्र की तरह दुःख की जीर्ण पृथ्वी चूर्ण कर
मेरे हृदय में उतर आता है चाहा गया सुख!
दुःख के दिन की कविता-4
मेरे लहू में पाल कर रखे गए दुःख
अब संतान संभवा
गर्भमय
आलोड़ित अंधकार
पेड़-पेड़ पौधे-पौधे में सवेरे की सुनहरी हंसी बिखेरकर
मेरे लहू में उड़कर आता है- बत्तखों का एक अपरिचित झुंड
मेरे कंठ में बिखेर देता है- दमकती धूप।
गोबरैला कीड़े
लोग हैं गोबरैला कीड़े
पेरेस्ट्राइका, वीपी, दिनेश गोस्वामी, बोड़ोलैंड
डा. सैयद, तेंदुलकर, ओय-ओय, महाभारत सीरियल
विष्ठा के ढेर पर
कुलबुलाते हुए लोग
समय कितना हुआ है पूछने की भी
किसी को फुरसत नहीं
राजा की तरफ से दिए गए भोज में भूखों का हुजूम
तेजी से निगलता है भूख
एक अजीब पल्लवग्राहिता के साथ
लोग गुजारते हैं- समय
ऐसे निश्चिंत होकर गुजारते हैं वर्तमान
मानो भविष्य नाम की कोई चीज न हो
विष्ठा के ढेर पर कुलबुलाते हुए लोग
गोबरैला कीड़े हैं।
रक्ताक्षरा
मैं एक अन्य पृथ्वी का अभियात्री
जहां विश्वास और संशय के बीच
हजार भोजन की दूरी
जहां प्रत्येक मनुष्य का हृदय उद्भाषित होता है
नए सूर्य की कोमल हंसी से
आकाश-हवा में आशा का सुर उड़ेलकर
प्रत्येक मनुष्य गाता है
धरती इस कदर खूबसूरत
बलिष्ठ, उम्मीद भरे जीवन की आंखों में अंकित होती है
एक अरूप रूप की माया
नाजुक दिल की पीड़ा भी
जन्म देती है मधुर भाषा को
जीवन को बनाती है हसीन।
इसी के लिए
स्वप्नाहत जीवन का महा अभियान
उत्ताल गति से पार करता हूं
माया, बंधन, सुख-तरल सपना
मेरा जीवन एक-व्यतिक्रम।
नई धरती, माया भरी धरती रचने के लिए
चूर्ण-विचूर्ण करता हूं अपनी धरती
इसीलिए वसंत काल में कभी कवि फूल के बदले गाता है कांटे का गीत
ढेर सारा लाल खून-हजारों लोग का जीवन
अच्छी तरह देखने पर देखोगे- आहत हृदय रक्ताक्षरा।
यंत्रणा
आजकल समय नहीं, असमय नहीं
दिन की रोशनी में दोस्तों के सामने
मेरी आंखें नम होती हैं आंसू से।
अकाल का विषस्तन पान कर सर्वांग नीला हो चुके
इन तरुण दिनों में
अक्सर महसूस करता हूं
गंभीर रोग से ग्रस्त अपने सीने के अंदर
एक निर्मल शिशु का अस्तित्व।
महज चार महीने, जबकि इसी अवधि में
मैं एक उद्दाम स्रोतस्विनी पार कर गया एक ऐसे पुल से
जो, मेरे उस पार पहुंचने के साथ ही टूट गया
और शायद कभी लौट नहीं पाऊंगा।
इस पार कतार बद्ध होकर लेटे
सर्वांग नीला निश्चल शरीरों को लांघकर
मैं सिर झुकाए चल रहा हूं दूसरे लोगों की तरह
दिन में अंधेरा फैलाकर आकाश ने छीन लिया है
मेरे प्रेम-प्रीति विश्वास
जीवन की तंग गली में समा गए लोगों की यांत्रिकता से
क्षुब्ध होकर मैं समा जाता हूं- अपनी गंभीरता में
उस पार छोड़कर आए स्वच्छ दिनों के लिए बार-बार मचल रहा
शिशु रोते-रोते थक कर अब गहरी नींद में है
मैं जानता हूं उसका परिचय
और कोई नहीं
मां के स्नेह भरे आंगन में विचरण करने वाला
वह है मेरा ही हृदय।
प्रेम : स्वाधीनता
रात भर
एक सागर के किनारे जाग रहा था
चांदनी के साथ,
स्वप्न के अंतहीन ज्वार में
आच्छन्न बना हुआ था
समस्त वजूद
त्याग की आग में जलती हुई
तुम हो आज एक अनन्या नारी
सृजन मुखर
प्रेममय शीतल छाया
आज देशवासी की स्वाधीनता के नाम पर
धोखे का यादगार दिन
उसी दिन मेरे हृदय में
पूर्ण स्वाधीनता का पताका उत्तोलन।
विनिमय
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
द्रुतगति से क्षय होता है- मेरा शरीर
खून और मांस को निचोड़ कर निकाले गए पसीने से
निर्मित-आश्चर्यजनक शिल्प
विनिमय में ग्रहण करता हूं भूख की आग
और अवसाद,
अनोखा विनिमय!!
जुड़वां
जिस रात मुझे गर्भ में लेकर
प्रसविनी मां मेरी यंत्रणा से बेचैन थी
उस दिन आकाश की तरफ
तनी हुई थी एक बंदूक की नली
उस दिन शरत की चांदनी, ओस में भीगा वन
हवा में हारसिंगार की गंध, आनंद से बौराया मन
आकाश-पृथ्वी-हवा किसी ने नहीं सोचा था
नवजात के सीने में था एक बारुद भरा हृदय
मैं और बंदूक की नली
क्षोभ जर्जर पृथ्वी की जुड़वा संतान।
शाम के दीपक की शिखा
शाम होते ही
गली में धीरे-धीरे
उतर आता है अंधेरा
अंधेरे की आड़ में
छिपता-छिपाता पाप आता है
अभिसारिका का वेष धारण कर
तुलसी के नीचे
ईश्वर जागता रहता है
एक दीपक की रोशनी में
पाप इसी तरह मरता है।
उस उष्मा के साथ चांदनी में ठिठककर
उस रात
सफेद कोहरे को चीरकर समा आई
मौनता के बाहुबंधन में निद्रामग्न, मौन था
मेरा मन, मेरा हृदय
जहां संजोकर रखी गई थी
गुलाब की पंखुड़ियों की विमुग्धता।
आज मैं नहीं चाहता वह यौवन
जो महज चांदनी रात के साथ ही बातें करता है।
निर्जन क्षण में मिलने वाले प्रेमी जोड़े की तरह
सिर्फ अकारण ही हंसता है
जिसकी उष्मा रात में बहने वाली सर्द हवा की बात भुलाकर रखती है।
मैं ठीक तभी लौट आया
जब जाड़े के सीने में नग्न होकर
मेरा समूचा शरीर कांप रहा था
तंबू में लौटकर देखा
मेरे साथी पहले की तरह
गहरी नींद में सो रहे थे।
उनके सीने में सुलगती चिनगारी
नग्न शरीरों में कुछ टटोल रही है।
तंबू के अंदर सुकून का अहसास है
मैं जानता हूं यह सुकून
नए दिन के तंग, भग्न स्वप्न के सीने से
इन लोगों को लेकर जाएगा
एक नए जगत में।
जहां अंधरे को कोई नहीं पहचानता
जहां जाड़ा मुस्कानों को नहीं निगलता।
सहयात्री
शाम ढलने से पहले
उस वीरान प्रान्तर में
अंधेरा उतर आया
विवर्ण तन्हाई के साथ।
बहुत पहले मेरे अनजाने में
किसी के सीने में उतार लाई गई
वेदना का मोल चुकाने के लिए
मैं इस वीरान शाम में
उपलब्धि की धूसर धुंध या
गोधूलि के बीच
बंदी बन गया।
जिन के बगैर घोड़े की पीठ पर सवार होकर
तेज रफ्तार से मैं लौटा हूं
अंधेरे में लिपटे घने जंगल के
उस तंग टेढ़े-मेढ़े रास्ते से
जहां एक दिन मेरी आंखों से
आंसू की दो बूंदें गिरी थी
तुम्हारे हाथ की पंखुड़ी पर।
जब सहयात्रियों के
दिए गए तोहफों को तुम
मेरे कलेजे के लहू में भिगोकर
अत्यंत प्यार से
एक अल्पना बनाने में व्यस्त थी
ठीक तभी तुम्हारे हाथ की पंखुड़ी पर
मौजूद आंसू से
सब कुछ पोछ दिया
तुम्हारी हंसी ने डूब रहे
सूरज की रक्तिम आभा से
मेरे गले का कंठहार बनाया।
मगर तुम तो वह नहीं हो
जिसके हाथ की पंखुड़ी पर
एक दिन मेरे आंसू गिरे थे।
तो फिर तुम कौन हो?
मूक दृष्टि से
दोनों गालों को लाल करने वाली।
तुम नहीं समझोगे
देश-देश में युग-युग में
कितनी बार अपनाया है फांसी के फंदे को
किस सहज दीप्त भंगिमा के साथ
अपनाया है कैदखाने का आदिम
अंधकार, अद्भुत तुम्हारा आशीर्वाद
तुम किस तरह समझोगे
हृदय में विशाल वृक्ष,
मनुष्य के प्रति चाहत के बदले अपनाता हूं
दुर्लभ दुःख।
यंत्रणा
मेरे चारों तरफ फैली
हवा के बीच
एक मुट्ठी श्वासरोधी गैस,
इसीलिए बहती है
हवा भी
तोड़ नहीं सकती
सुप्त, अतृप्ति के बंधन को।
विशाल समुद्र के
अतल गर्भ में
तन्हा रह रहा
एक आक्टोपस भी
अपने सबल
आठ पंजों से
रौंदता है
जीवित रहने की यंत्रणा,
उसकी सृष्टि है
एक अविवेचक की मंत्रणा।
जन्मक्षत
कैशोर की एक खामोश दोपहरी
गर्भवती हुआ मेरा भगोड़ा हृदय
आग में झुलसे मेरे कलेजे में
एक कच्चा घाव
जरायु के प्रत्येक कोष को चूसकर
अब गर्भमय अलाव
अविराम प्रसविनी हृदय मेरा
प्रत्येक संतान का सीना खोलकर देखता हूं
जन्मक्षत, लाल कच्चा घाव।
पस्तहाल समय
एक-एक कर ढह जाती है मेरे नए घर की दीवारें
किरानी के जीवनभर की फसल, शिल्पी का हसीन घर
खुली हवा में विषदंत लगने से ढहता है सांदों का तिलस्मी घर
अंदर लखींदर का सर्पदंश से बेजान शरीर
भविष्य के अंतिम दुर्ग का भी पतन / कहां रखूंगा आज के बाद
अनुज का यौवन, अनुज की चिंता
जीवन भर
सातरंगी सपने का इंद्रधनुष रचते हुए
नारी जीवन की पहली सुबह
क्लांत बेउला हिलती-डुलती
केले की डोंगी पर बहती जाती है
साथ में लेकर स्वामी का नीला पड़ चुका शरीर।
अचिंत्यदा की याद में
थोड़ी देर पहले तुम्हें जलाकर आया हूं
श्मशान भूमि में, हे अधिनायक
सीने पर बांध कर विशाल चट्टान
चांडाल बनकर
बांस से कुरेद-कुरेदकर जलाया है
नहीं जल रही पेट की अंतड़ियों को
तुम्हारा जीवन भी वैसा, अज्वलनशील, नहीं तो क्यों
समय के रौद्र ताप में भी नहीं सूखती
तुम्हारी स्मृति
सांस ले नहीं सकता
सीने पर है शोक की चट्टान।
जितना वक्त गुजरता है उतनी गहरी होती है याद
और मैं तुम्हारी राह का ही अनुसरण करता हूं
जितना आगे बढ़ता हूं, शोक की चट्टान पिघल कर
धूल-गंदगी को धोकर स्वच्छ बनाती है जीवन को
इस तरह तुम मरने के बाद भी
रचते हो- विप्लव की आहुति।
हादसे का शिकार समय
कौवों की कर्कश आवाज में
दांत-मुंह निपोड़कर पड़ा रहता है समय
सड़े हुए संतरे के फांक निकालकर
छिल्के से बच्चा ‘धरती धरती’ खेलता है
टीवी पर दोनों तरफ प्रायोजित युद्ध में तबाह
सर्बिया के तीन वर्षीय बच्चे की सजल करुण दृष्टि
नव वर्ष का स्वागत करती है
सचमुच, धरती पर कुछ भी नहीं है
संतरे की तरह अंदर शून्य, लट्टू की तरह घूमती रहती है वह
और दांत निपोड़कर पड़ा रहता है समय।
क्रांति इसी तरह आती है
जनस्रोत में डूबते-उतराते हुए बढ़ रहे
लोगों की आंखों-मुखड़ों पर
कठिन वक्त ने अंकित किया है
निर्विकार भावलेशहीनता
बाहर आग-धुंआ न देखकर
तुम क्यों सोच रहे हो
लोग हैं जिंदा लाश की तरह
अंदर खोलकर देखना सीखने पर ही
देख पाओगे हरेक सीने में
कपास की आग की तरह
सुलग रहा है
सदियों का क्षोभ अपमान वंचना
क्रांति इसी तरह आती है
सीने-सीने में चुपके से
अचानक एक दिन पलकें उठाते ही
देख पाओगे
सीने-सीने में
आकाश को छूती हुई
दमक उठेगी मुक्ति की अग्निशिखा।
नरक में चार महीने
सहस्त्राब्दि के अंतिम हेमंत, शीत ऋतु में
मैं स्वेच्छा से निर्वासित हुआ
नरक में!
नरक में मूर्तिमान पाप के साथ
सुतीव्र संघात से
दमक उठा
मेरा सत्य संध प्राण।
अजनबी हवा
पश्चिम की तरफ से
कैसी अजनबी हवा चल रही है
बदन में हो रही सनसनाहट
जनता, होशियार!
जल्द ही घर-घर में शुरू होगा
परिजनों के मांस का कारोबार।
स्वप्न भंग
सपने को लादे सातों जहाज
तूफान में घिरकर
सागर के सीने में गुम हो गए
तभी से
समूची धरती पर
सपने का अकाल
मनुष्य का सीना
स्वप्न की सुनहरी फसल कट जाने के बाद
फागुन का नग्न खेत
स्वप्नभंग जीवन का आशाहत कंठ
रात भर छटपटाता रहता है
कैसी आदिम उन्मत्तता के साथ
तोड़कर तहस-नहस करता है
देश-जाति, सीमान्त, समाज-सभ्यता
सुरुचि, अनुष्ठान-प्रतिष्ठान, सुंदर मनुष्य जीवन
ध्वंस का उन्माद उसकी एकमात्र शक्ति
सृष्टि अक्षम एक दैत्य
होश वापस लाओ, हे कालोत्तम सृष्टि
एक बार स्मृति को जगाकर देखो
सपने-जो तुम ही रचते हो।
पताका
मनुष्य को मनुष्य के शोषण से
चिरमुक्ति के सपने के साथ
मैं कभी भी समझौता नहीं कर सकता
मृत्यु तो है तुच्छ बात
अनागद्ग दिनों में मनुष्य की अविश्रान्त धारा
लेकर जाएगी मेरे उस महत्तम स्वप्न का पताका।
सौंदर्य
गिद्ध घेरकर नोचते रहते हैं
एक हसीन युवती का नग्न देह
अब सौंदर्य
ठीक इसी तरह
हर दिल में केवल बलात्कारी हवस।
स्मृति से वर्तमान
रेल की पटरी से होकर कहां से कहां तक जाती है गुवाहाटी
अनगिनत लोगों को गोद में लेकर, पांडू, नूनमाटी
सिटी बसें आदाबाड़ी-खानापाड़ा, वशिष्ठ-आजरा होकर
गुवाहाटी बढ़ती रही है बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मपुत्र की प्रबल
बाढ़ की तरह किनारे तोड़ती रहती है
कहां से कहां तक जाती है यह गुवाहाटी, गोद में लेकर
महानागरिक जीवन। जीवन की उम्र बढ़ती है, गुवाहाटी की भी।
आस्फालन
मेरे स्पर्श में
जीवन लाभ का
हंसी ठिठोली से
बोझिल जीवन की
कठिनाइयों को मिटाने की
मजबूत कोशिश।
जीवन को थाम रखे
धागे में
एक अनाम दुर्बलता
मेरी आवाज में
बज उठता है
मानव जीवन के
आदिम क्षण में
किया गया एक अनुनय
और अंत में
एक विस्फोरित कल्लोल
आतंक से कांप उठे शरीर में
डर के संचार का
पूर्ण संचालन।
मेरा यह जीवन
आशा के कुसुम में बहता हुआ
महज एक विषाक्त कीटाणु।
निर्वासन
वीरान टापू में तन्हा आदमी
उन्नत माथे के साथ सत्य का जयगान गाने के लिए ही वह आदमी-निर्वासित
जबकि हर पल उसकी सोच, चेतना में - अनगिनत लोगों का उद्दीप्त समावेश
जिन लोगों ने उसे निर्वासन दिया
वे महानगर के बीचों-बीच स्थित अट्टालिका की
भूगर्भस्थ संपत्ति का पहाड़ रखते हैं- अंधेरे में
ताकि छाया भी करीब न आ पाए
आमृत्यु सीने में असीम तन्हाई
कैसी विचित्र पृथ्वी
किसे दी जाती है निर्वासन की यंत्रणा!
पवित्र ठिकाना
दिन गुजरता है, रात आती है
कविता के कल्याणी रूपी के ठिकाने पर
कोई खत नहीं आता
नगरवधू के उद्दंड, अस्थिर समय के लिफाफे में
जेट जुग के टिकट वाले
खतों का ढेर डिब्बे में भरा हुआ
शेयर, टीवी, फ्लैट की खरीद-बिक्री, दिमाग का सफर
भोग पिपासु मन की अस्थिर चहलकदमी
अनगिनत खबरें आवाजाही करती हैं
आज
कविता के कल्याणी रूप के ठिकाने पर
एक भी खत नहीं आता
जिसमें हो मनुष्य के सीने की उष्म खबर।
अंकुर
रिक्त नहीं हूं असहाय नहीं हूं
सब कुछ है मेरा
कोई कमी नहीं
मैं सब कुछ दे सकता हूं
सिर्फ दे नहीं सकता
मोहब्बत
इसीलिए कुछ भी दे पाना
मुमकिन नहीं होता
हृदय मेरा
सोमालिया के दुर्भिक्ष पीड़ित का कंकाल।
असाध्य रोग से ग्रस्त मैं
धुंधली हो चुकी आंखों की पुतली के साथ
सब कुछ काला, धुंधला देखता हूं
मानो धरती पर महाप्रलय का क्षण उतरा है
रोशनी, कहां है रोशनी?
कौन कहां हो
दया करते हुए
मेरे हृदय में रोप दो
प्रेम का एक अंकुर
मेरे जिंदा बचे रहने के लिए
यह अत्यंत जरूरी है।
कविता की शर्म
कान लगाकर क्या सुन पाओगे
जीवन की वंदना
जब मृत्यु की जयजयकार हो
देवता की वाणी किसे सुनाओगे
अभी सबसे आसानी से सुलभ है- हिंस्रता
कहां रखोगे हृदय के पत्ते को
जब सारे लोग हो चुके हैं मशीनी
तिल-तिल कर की गई प्रतिभा की साधना के बदले
हाथों में मौजूद पिस्तौल की एक गोली ही काफी है
ऐसे में कविता ही प्यास को पानी देती है!
कहां मर जाऊं
फट जाओ वसुमती, पाताल में ही छिप जाऊं!
घरौंदा
एक स्वप्न का भ्रूण
अनजाने में
मेरे सीने में
चुपके से
धीरे-धीरे
बढ़ता है
विशाल पेड़ की तरह
ढक देता है मेरे सीने को
मां की तरह समेट कर
गुजारता है
जीवन के दुर्दिन
स्नेह से नम बनाता है शुष्क हृदय को
और अचानक
एक लम्हा
वज्र की तरह छीन लेता है
मेरा आश्रय
जिसकी कक्ष में पड़ा रहता है
मेरे जीवन का एक टुकड़ा समय।
आततायी शून्यता
अभी यहां मृत्यु की सर्द छाया- जमी हुई
कभी धूप में दमकती धरती की तरफ बढ़ने वाले
जुलूस के साथी-क्रमशः अंधकार के दैत्यों के सहचर
उनके हाथों में मौजूद लाल झंडे का रंग
अब राख की तरह काला
एक दिन
खुले आसमान के नीचे
जिस मंच के पवित्र अग्निकुंड की आग
फैल गई थी हरेक दिशाओं में
आज
वह सब मानो दक्ष अभिनेताओं के प्रेक्षागृह में
अभी भी वहां जल रही है आग
लेकिन वह है बनावटी
उससे दिलों में आग सुलगाई नहीं जा सकती
मेरे दिल में है- आततायी शून्यता।
नरक की ओर
सपनों को संजो कर रखा था तुमरी आंखों में
जानता नहीं था
आंखों की ज्योति में भी दमक नहीं उठेगा तुम्हारा हृदय
वे
इसी राह से आएंगे यह जानकर
बिछाई थी
अनुभव की नर्म घास की कालीन
जानता नहीं था
तुमने कालीन पर लिख रखा था
अश्वमेध यज्ञ का इतिहास
ईश्वर इस राह से नहीं आएंगे
अब किस राह से जाओगे, मेरे प्रियजन
किस राह से होगा युधिष्ठिर का स्वर्गारोहण?
प्रेम का दरवाजा
बंद घर की दीवार से लिपटा हुआ
कहां छिपा हुआ था इतने दिनों से यह दरवाजा
खुले दरवाजे के बाहर स्वर्णमय प्रांतर
भीतर समा जाता है
महकती धूप की पीठ पर स्वर्ग का संदेशा :
ईश्वर इसी राह से आवाजाही करता है
तुम्हारे-मेरे हृदय से होकर।
गहराई
दोनों आमने-सामने बैठकर
आंखों-आंखों में
अपलक निहारते हुए
मैं क्रमशः डूबने लगता हूं
तुम्हारी आंखों की मणियों में है
सागर की गहराई।
हृदय
इन दिनों
सपनों के जल में
मेरा हृदय तैरता रहता है
सपनों में मेरे दिन-रात
एकाकार
बेचैन होकर शहर की सड़कों पर,
गली-कूचों में ढूंढ़ता फिरता हूं
प्रिया की सूरत
एक बार देखते ही मेरे हृदय में
सुकून की हवा चलती है
रात भर बारिश के बाद
सुबह की नर्म धूप में
वैशाख के पेड़ लता के कोंपल
तरोताजा हो उठते हैं
तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय को इसी तरह गूंथता है।
इंतजार
तुम्हारे इंतजार में गुजरा
हर पल
एक चट्टान
मेरे सीने पर रख देता है।
चट्टान के टुकड़े गिर-गिरकर
सीने में इकट्ठे होते हैं
भारी बोझ के चलते
घुटने लगता है दम।
तुम्हारे आते ही
हवा का झोंका
चट्टान के ढेर को हटाकर
सीने की कोशिकाओं में भर जाता है
आह, प्रेम की कैसी है कोमल सांस!
वसंत
तुमसे मिलने के बाद से ही
मेरे कलेजे में वसंत की खुशबू
कैसी लगी है आग, रात भर झुलसता है मेरा हृदय
सुर से बौराए सीने में भरी रहती है सपने की हरियाली
गजब है वसंत की सोच का रंग!
दुःख
दुःख की गोद में सिर झुकाए
इन दिनों में ही खो बैठे हमारे जीवन की
अनमोल दौलत-स्वप्न की स्वाधीनता
और भला जीवन का मतलब क्या है
कब्र के नीचे वीरानी
रात का सन्नाटा।
अकाल
दूर बर्फ से ढके हुए पहाड़ की चोटी पर अभी भी सूरज का
सुनहरा चुंबन
और हमारी पीढ़ी के सबसे हसीन फूल
अब झरने लगे हैं
कैसा है अनाहुत समय
अकाल।
असमय की भेंट
हृदय का सर्वस्व न्यौछावर कर खाली हो गया
जिसके प्रेम के प्रतिदान में,
उसने मुझे क्रीतदास के रूप में बेच दिया
तन्हाई के हाट में।
परित्यक्त प्रांतर में भूख-थकान से पस्तहाल पड़ा रहा
तुमने आकर प्यार से समेट लिया।
तुम्हारे हृदय के प्रेम का नैवेद्य लेकर
धन्य हुए देवता।
विद्रोही
दिनों-दिन बढ़ रहे अकाल की लालित संतान,
मैं उत्तरोत्तर विजय का धारक-फागुन की शुष्क धरती पर पांव
जमाने वाला मैं- हरे वसंत का अरिन्दम भ्रूण।
मेरे समूचे बदन में झुलसे पत्थर जैसी कठोरता
आंखों में-मुखड़े पर- फागुन का रुखापन।
प्रलय शिखा
सड़क के किनारे
भूखे बच्चे की आंखों में
आग की लपटें
कितनी भयंकर भूख!!
पल भर में ही वह निकल सकता है
विशाल वसुधा।
हेमंत मुखोपाध्याय की याद में
यह क्या गाया तुमने
ओ गहन वन में पंछी
इस खामोश रात के अंधेरे में
लेकर आए
किस देश से
हंसी से भरपूर प्रकाश संदेश
आज तुम चले गए
किस सरहद को लांघकर
हमारे हृदय में
सुर की कोई सरहद नहीं है।
गोद का बच्चा
विध्वंसक कामना की आग में
जलकर खाक हो गया
धान का हरा खेत
एक विपुल संभावना की
अकाल मृत्यु पर
मेरी अंतरात्मा सिसक उठती है :
कौन छीन कर ले गया
मेरी गोद का बच्चा
मेरे सीने के अंदर
कुरुक्षेत्र की तैयारी।
शोक गाथा
(कामरेड प्रमोद दासगुप्ता की याद में)
बिजली से भी अधिक तीव्रता के साथ लहर पैदा कर चली गई वह खबर
एक मौत की खबर
कारखाने में सुलगती आंखों वाले मजदूरों के
हथौड़ा मारने के लिए तत्पर हाथ ठिठक गए
एक सपने का विश्वस्त भागीदार
आज चला गया।
वसंत का आह्वान
वह भला कौन है?
मेरे स्वप्न विभोर कंठ से
छीन लेना चाहता है
चिर वसंत का पूर्ण भंडार, मैं हरियाली के उल्लास में लालित
संतान, शीत की विभत्स नग्नता में मैं मारा जाता हूं बार-बार
हड्डी की मज्जा तक किस कदर ठंडक-तुमलोग अपने दिल में
एक अंजलि धूप लपेटकर, मेरे कंठ में लाकर दोगे क्या
उस लुंठित स्वप्न का गान
मैं हूं तुमलोगों के दिलों में- अमृत संतान।
नीलकंठ पक्षी की खोज में
तेजी से उल्टियां करता रहता है
सभ्यता का हलाहल पान कर
दर्द से बेहाल आदमी
उल्टी से नष्ट होता है बिछौने का तकिया, चादर
पहने हुए वस्त्र खोलकर
आदिम नग्नता में, जिसकी चिता सजाई जाती है
उसकी भी तो आदि नहीं थी, न ही था अंत
नीलकंठी पक्षी वह, नाम उसका काल।
शारदीय पृथ्वी
बचपन से ही तुमसे मोहब्बत रही है
चाहते हुए
कब सीने में अंकुरित हुआ
वह बीज
अब तेजी से बढ़ता जा रहा है
और
चाहत के दौरान ही
मन ही मन नफरत करने
लगा हूं तुम्हार स्निग्ध शरीर, तुम्हारे सुंदर मुखड़े
तुम्हारी प्यारी हंसी, तुम्हारी हर चीज से
प्रेम के प्रतिदान में
मेरे सीने में तुमने उकेर दिया
पृथ्वीमय उन्मत्त महिषासुर का चित्र
अब सबसे ज्यादा नरफत करता हूं
तुमसे हे सुंदरी शारदीय पृथ्वी!
चांदनी
चांदनी के साथ बातें की थी
कान लगाकर सुन रही थी नीचे
एक नदी
सुनते-सुनती वह झुक गई थी
नींद की गोद में
रात भर जागता रहा था
मैं और चांदनी
कवि की मृत्यु
मुझे बहाकर ले चलो, बहाकर ले चलो
ओ मेरी स्वप्नमयी सुनहरी संध्या
धूप के तीखे स्पर्श से सूखते हैं हृदय
आजकल
हृदय सपने नहीं देखते
चित्र बनाना नहीं जानते
रिश्तों में अपनापन नहीं लाते
आदिम हिंस्र उन्मत्त पाशविकता में डूबती-उतरती मनुष्य की पृथ्वी
जनप्रिय अभिनय करने वाले डायनासोर अब उनके पूज्य देवता हैं
स्वप्नहीन, प्रेमहीन इस पृथ्वी पर
मैं एक पल भी जिंदा रहना नहीं चाहता
हे बंध्या समय, मुझे निर्वासित करो
विनती करता हूं, निर्वासित करो मुझे
स्वप्नहीन पृथ्वी पर क्या कोई कवि
जीवित रह सकता है
मुझे बहाकर ले चलो, बहाकर ले चलो
ओ मेरी स्वप्नमयी सुनहरी संध्या
मैं ही नहीं,
इस मृत्यु उपत्यका में
कोई भी स्वप्न विभोर शिशु जीवित नहीं रह सकता।
शराबियों की दुनिया
घर-घर में आग जल रही है
फिर भी लोग
कोई प्रतिवाद नहीं कर रहे
लोग अशांति को पसंद नहीं करते
घर-घर में आग जल रही है
अनाहार अर्द्धाहार अकाल की आग
बच्चे भी आजकल
अनाज के लिए नहीं चिल्लाते
टीवी के सामने शांत शिष्ट की तरह
बैठे रहते हैह्ल
इस तरह घर-परिवार दिन-रात
उड़नेवाले सपने की शराब के नशे में
धुत रहता है
घर-घर में आग जल रही है
उस आग में अगर खाक हो सब कुछ तो हो जाए
शराबियों की दुनिया।
इच्छा
बीच-बीच में एक तीव्र इच्छा डंसती है
एसिड से भरपूर पात्र में
अगर चेहरे को डुबोया जा सकता..
सभी गोरी चमड़ी ही देखते हैं
अपमानित काली चमड़ी के लिए
बंद रखते हैं अंदर का दरवाजा
सभी चेहरे की हंसी ही देखते हैं
अंदर रहता है हजारों शिशुओं का क्रंदन
सभी मितभाषिता, मौन ही देखते हैं
अंदर रहता है हजारों शेरों का गर्जन
अपमानित, वंचित, ठुकराई आत्मा...।
शाश्वत
घने जंगल के
पेड़ों की झुरमुट की आड़ से आने वाला
हिरण्यमयी ज्योति का तीर
मेरे सीने पर निर्मम प्रहार करता है।
साजिश से भरपूर, आलोक अवाक मैं- सम्मोहित
मेरे चारों तरफ
अब वही स्वर्णोज्ज्वल परिचित सुबह
जो पृथ्वी के समान ही प्राचीन।
धूप का स्तवक
मैंने कभी कबूल नहीं की
अंधेरे की मेजबानी
अंधेरे का आमंत्रण मानो शुपर्णखा
अंधेरा यानी- छोटी कोठरी की काई वाली फर्श
बेघर बच्चों की जाड़े की रात, मरणासन्न यक्ष्मारोगी का रक्त वमन,
घातक का धारदार चाकू, किशोरी का कौमार्य हरण
अंधेरा है- नरक के हजारों दूत
मैं हूं जीवन
पृथ्वीमय धूप।
असीम का अभियात्री
आज नव वर्ष की नई सुबह
तुमलोगों के हाथों में थमा रहा हूं
फूलों के गुच्छे
हृदय-हृदय में- प्रेम की भाषा
साल भर हर पल हृदय में
स्पंदित होता रहे- मानवता का जयगान
जाग्रत रहे फूल की तरह कोमल
बच्चों की मुस्कान को कायम रखने का संकल्प
यह है मनुष्य का महत्ततम सपना
तुमलोग ही हो उस स्वप्न के पिटारे की चाबी
असीम विश्व-ब्रह्मांड के एक अत्यंत क्षुद्रांश में रहते हुए
अनंत समय के क्षुद्र भग्नांश में जीते हुए
तुम्हारे हाथों में लहराता रहे- मानवता का जयध्वज
जाड़े की रात
ठिठुरती हुई जाड़े की हरेक रात
बरामदे में, फुटपाथ पर, प्लेटफार्म पर, खुले में
फटे थैलों के बीच सिकुड़कर सोए हुए
लोगों के साथ
मैं एकांत आग्रह के साथ सो जाता हूं
हे प्रभु, रात जल्दी गुजार दो
शरीर पर फैल जाए- धूप का टुकड़ा
हे प्रभु, जाड़े की रात में घड़ियां गिन रहे
हमलोगों के लिए, एक नए दिन का सूरज लाओ।
मानवता
तुम्हारी आत्मीयता से टूटते हैं
हृदय के सारे बंधन
और तो और रक्त का भी अमोघ आकर्षण
तुम्हारे लिए, सिर्फ तुम्हारे लिए
आज धरती पर घर-घर में
घर टूटता है, समाज टूटता है
टूटती है मनुष्यत्व की साधना।
तुम्हारा ही नाम है रुपया।
आज हृदय किसी चीज को पसंद नहीं करता
निर्जीव, मृतप्राय सीने के साथ
लोग एक अजीब भूख और लालसा के
गहरे समुद्र में डूबते-उतराते हैं
हे इक्कीसवीं सदी की पृथ्वी
क्या तुम ही प्रमाणित नहीं करोगी
धन्य तंत्र की पण्यरति में बौराए लोगों
को सर्वश्रेष्ठ दोपाया।
गर्भवती
लहू मांस के शरीर से पत्ते जब झरते हैं
शरीर बनता है फागुन का शीर्णकाय पेड़, दीवार की छेद से
अंदर झांककर देखता हूं, तभी हृदय में वर्षा
गर्भवती नारी की तरह धीर, परिपूर्ण
मादल की आवाज में रातें, दीर्ण-विदीर्ण
जिधर देखता हूं उधर रोशनी
बिखरी हुई।
कहां रखूं
हृदय में उमड़ती हुई
इतनी मोहब्बत को कहां रखूं
आकाश
पृथ्वी
मनुष्य
सब कुछ स्फटिक स्वच्छ, उज्ज्वल
कहां रखूं इतनी सारी मोहब्बत।
मन
मेरा चुंबन आलोड़ित कर देता है
इस विशाल पृथ्वी
नदी, जलाशय, सागर
धूलभरी राह, हरे खेतों को।
छोटी-छोटी लहरें नाच उठती हैं
पत्ते-हिलते-डुलते हैं
धूल उछलकर आती है मेरी गोद में
वे मुझसे लिपटना चाहकर
गुम हो जाती है मेरी विशालता में
असीम की कहां होती है सीमा?
हाथों से क्या छुआ जा सकता आकाश के नीलेपन को?
मैं हूं चिरचंचल, चिरगतिशील
लहरें पैदाकर खेलता फिरता हूं, मां के खुले आंचल में।
छायापथ
मैंने बदल ली है
अपनी आवाजाही की राह
अब राह के दोनों तरफ खामोश वैशाख
राह पर झूमते हुए आता है
सपनों का हुजूम
मैंने बदल ली है
अपनी आवाजाही की राह
राहों में अभी वासंती चांदनी
हृदय में अभी कोमल साज
मैंने बदल ली है
अपनी आवाजाही की राह।
किनारा
आते हुए अचानक गुम हुई राह
सामने देखता हूं- जीवन का किनारा
इस पार क्या छोड़कर आया
आज देखने की फुरसत नहीं
उस पार मेरे लिए रुका हुआ है
दीप्त सूर्य का उष्ण आलिंगन
खामोश किनारा
मेरे समूचे वजूद में
उस पार की मधुर पुकार।
प्रेरणा
गर्जन मुखर वर्षा की रात
किनारे तोड़ने वाली बाढ़ की तरह
मेरे हृदय नदी के दोनों किनारे तोड़कर दुःख के
उतरने पर याद आता है
निरवधि यंत्रणा की धारा में धुलकर स्वच्छ बना तुम्हारा
तेजस्वी मुखड़ा आह कितना सुतीव्र, शब्दमय!
वज्र की तरह दुःख की जीर्ण पृथ्वी को चूर्ण कर
मेरे हृदय में उतर आता है चाहा गया सुख !
डॉ. दिनेश डेका
जन्म : २० सितंबर, १९५६, जागीरोड (असम)
शिक्षा : एमबीबीएस
प्रकाशित कविता संकलन : असीमर अभियात्री, युद्धक्षेत्रर परा, काव्यांजलि, स्थिर नक्षत्रर संधानत, एमूठी शेहतीया कविता, मेरे प्रेम और विद्रोह की कविताएं (हिंदी में अनुदित), ईश्वर का घर (हिन्दी में अनुदित)।
बचपन से ही रचनाएं ‘दैनिक असम’ में प्रकाशित होने लगी। छात्र राजनीति में सक्रिय रूप से योगदान किया। पहले अखिल असम छात्र संघ से जुड़े और फिर वामपंथी छात्र संगठन भारतीय छात्र फेडरेशन के प्रादेशिक नेता बने। भारतीय गणतांत्रिक युवा संगठन के प्रथम प्रादेशिक कोषाध्यक्ष और प्रभारी सचिव रहे। अखिल असम युवा मंच नामक स्वयंसेवी संगठन के संस्थापक सचिव। सत्तर के दशक से ही असम के साहित्य, संस्कृति, राजनीति और सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभाते रहे हैं। फिलहाल चिकित्सक के रूप में गरीब मरीजों का निःशुल्क इलाज कर रहे हैं।
संपर्क : पवित्र भवन, गांधी बस्ती, ंगुवाहाटी- ७८१००३ (असम)
दिनकर कुमार
जन्म : 5 अक्टूबर, 1967, बिहार के दरभंगा जिले के एक छोटे से गांव ब्रह्मपुरा में।
कार्यक्षेत्र : असम
कृतियां : आठ कविता संग्रह, दो उपन्यास, दो जीवनियां और असमिया से पचास पुस्तकों का अनुवाद।
सम्मान : सोमदत्त सम्मान, जस्टिस शारदाचरण मित्र भाषा सेतु सम्मान, जयप्रकाश भारती स्मृति पत्रकारिता सम्मान, शब्दभारती का अनुवादश्री सम्मान एवं अंतर्राष्ट्रीय पुश्किन सम्मान।
संप्रति : संपादक, दैनिक सेंटिनल (गुवाहाटी)
संपर्क : 4-बी-1, ग्लोरी अपार्टमेंट, तरुण नगर, मेन रोड, गुवाहाटी-781005
मो. : 9435103755 EMAIL : dinkar.mail@gmail.com
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