1. इंस्पेक्टर मातादीन के राज में ------------------------------- ( हरिशंकर परसाई ...
1. इंस्पेक्टर मातादीन के राज में
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( हरिशंकर परसाई को समर्पित )
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--- सुशांत सुप्रिय
जिस दसवें व्यक्ति को फाँसी हुई
वह निर्दोष था
उसका नाम उस नौवें व्यक्ति से मिलता था
जिस पर मुक़दमा चला था
निर्दोष तो वह नौवाँ व्यक्ति भी था
जिसे आठवें की शिनाख़्त पर
पकड़ा गया था
उसे सातवें ने फँसाया था
जो ख़ुद छठे की गवाही की वजह से
मुसीबत में आया था
छठा भी क्या करता
उसके ऊपर उस पाँचवें का दबाव था
जो ख़ुद चौथे का मित्र था
चौथा भी निर्दोष था
तीसरा उसका रिश्तेदार था
जिसकी बात वह टाल नहीं पाया था
दूसरा तीसरे का बॉस था
लिहाज़ा वह भी उसे 'ना' नहीं कह सका था
निर्दोष तो दूसरा भी था
वह उस हत्या का चश्मदीद गवाह था
किंतु उसे पहले ने धमकाया था
पहला व्यक्ति ही असल हत्यारा था
किंतु पहले के विरुद्ध
न कोई गवाह था , न सबूत
इसलिए वह कांड करने के बाद भी
मदमस्त साँड़-सा
खुला घूम रहा था
स्वतंत्र भारत में ...
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2. कैसा समय है यह
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--- सुशांत सुप्रिय
कैसा समय है यह
जब हल कोई चला रहा है
अन्न और खेत किसी का है
ईंट-गारा कोई ढो रहा है
इमारत किसी की है
काम कोई कर रहा है
नाम किसी का है
कैसा समय है यह
जब भेड़ियों ने हथिया ली हैं
सारी मशालें
और हम
निहत्थे खड़े हैं
कैसा समय है यह
जब भरी दुपहरी में अँधेरा है
जब भीतर भरा है
एक अकुलाया शोर
जब अयोध्या से बामियान तक
ईराक़ से अफ़ग़ानिस्तान तक
बौने लोग डाल रहे हैं
लम्बी परछाइयाँ
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3. कबीर
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--- सुशांत सुप्रिय
एक दिन आप
घर से बाहर निकलेंगे
और सड़क किनारे
फुटपाथ पर
चिथडों में लिपटा
बैठा होगा कबीर
' भाईजान ,
आप इस युग में
कैसे ? ' --
यदि आप उसे
पहचान कर
पूछेंगे उससे
तो वह शायद
मध्य-काल में
पाई जाने वाली
आज-कल खो गई
उजली हँसी हँसेगा
उसके हाथों में
पड़ा होगा
किसी फटे हुए
अख़बार का टुकड़ा
जिस में बची हुई होगी
एक बासी रोटी
जिसे निगलने के बाद
वह अख़बार के
उसी टुकड़े पर छपी
दंगे-फ़सादों की
दर्दनाक ख़बरें पढ़ेगा
और बिलख-बिलख कर
रो देगा
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4. किसान का हल
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--- सुशांत सुप्रिय
उसे देखकर
मेरा दिल पसीज जाता है
कई घंटे
मिट्टी और कंकड़-पत्थर से
जूझने के बाद
इस समय वह हाँफता हुआ
ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा है
जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद
शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं
कामगार और मज़दूर
मैं उसे
प्यार से देखता हूँ
और अचानक वह निस्तेज लोहा
मुझे लगने लगता है
किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा
मुलायम और मासूम
उसके भीतर से झाँकने लगती हैं
पके हुए फ़सलों की बालियाँ
और उसके प्रति मेरा स्नेह
और भी बढ़ जाता है
मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई
उसकी धारदार देह
मुझे जीवन देती है
लेकिन उसकी पीड़ा
मुझे दोफाड़ कर देती है
उसे देखकर ही मैंने जाना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
लोहा भी रोता है
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5. कामगार औरतें
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--- सुशांत सुप्रिय
कामगार औरतों के
स्तनों में
पर्याप्त दूध नहीं उतरता
मुरझाए फूल-से
मिट्टी में लोटते रहते हैं
उनके नंगे बच्चे
उनके पूनम का चाँद
झुलसी रोटी-सा होता है
उनकी दिशाओं में
भरा होता है
एक मूक हाहाकार
उनके सभी भगवान
पत्थर हो गए होते हैं
ख़ामोश दीये-सा जलता है
उनका प्रवासी तन-मन
फ़्लाइ-ओवरों से लेकर
गगनचुम्बी इमारतों तक के
बनने में लगा होता है
उनकी मेहनत का
हरा अंकुर
उपले-सा दमकती हैं वे
स्वयं विस्थापित हो कर
हालाँकि टी. वी. चैनलों पर
सीधा प्रसारण होता है
केवल विश्व-सुंदरियों की
कैट-वाक का
पर उस से भी
कहीं ज़्यादा सुंदर होती है
कामगार औरतों की
थकी चाल
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6. मासूमियत
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--- सुशांत सुप्रिय
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क आँखें बो दीं
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी निजता
भंग हो गई
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क हाथ बो दिए
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर के सारे सामान
चोरी होने लगे
मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
वयस्क जीभ बो दी
वहाँ कोई फूल नहीं निकला
किंतु मेरे घर की सारी शांति
खो गई
हार कर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में
एक शिशु मन बो दिया
अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी
खिला हुआ है
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7. माँ
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--- सुशांत सुप्रिय
इस धरती पर
अपने शहर में मैं
एक उपेक्षित उपन्यास के बीच में
एक छोटे-से शब्द-सा आया था
वह उपन्यास
एक ऊँचा पहाड़ था
मैं जिसकी तलहटी में बसा
एक छोटा-सा गाँव था
वह उपन्यास
एक लम्बी नदी था
मैं जिसके बीच में स्थित
एक सिमटा हुआ द्वीप था
वह उपन्यास
पूजा के समय बजता हुआ
एक ओजस्वी शंख था
मैं जिसकी गूँजती ध्वनि-तरंग का
हज़ारवाँ हिस्सा था
वह उपन्यास
एक रोशन सितारा था
मैं जिसकी कक्षा में घूमता हुआ
एक नन्हा-सा ग्रह था
हालाँकि वह उपन्यास
विधाता की लेखनी से उपजी
एक सशक्त रचना थी
आलोचकों ने उसे
कभी नहीं सराहा
जीवन के इतिहास में
उसका उल्लेख तक नहीं हुआ
आख़िर क्या वजह है कि
हम और आप
जिन उपन्यासों के
शब्द बन कर
इस धरती पर आए
उन उपन्यासों को
कभी कोई पुरस्कार नहीं मिला ?
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8. सूरज , चमको न
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--- सुशांत सुप्रिय
सूरज चमको न
अंधकार भरे दिलों में
चमको न सूरज
उदासी भरे बिलों में
सूरज चमको न
डबडबाई आँखों पर
चमको न सूरज
गीली पाँखों पर
सूरज चमको न
बीमार शहर पर
चमको न सूरज
आर्द्र पहर पर
सूरज चमको न
सीरिया की अंतहीन रात पर
चमको न सूरज
बुझे हुए ईराक़ पर
जगमगाते पल के लिए
अरुणाई भरे कल के लिए
सूरज चमको न
आज
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9. लौटना
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--- सुशांत सुप्रिय
बरसों बाद लौटा हूँ
अपने बचपन के स्कूल में
जहाँ बरसों पुराने किसी क्लास-रूम में से
झाँक रहा है
स्कूल-बैग उठाए
एक जाना-पहचाना बच्चा
ब्लैक-बोर्ड पर लिखे धुँधले अक्षर
धीरे-धीरे स्पष्ट हो रहे हैं
मैदान में क्रिकेट खेलते
बच्चों के फ़्रीज़ हो चुके चेहरे
फिर से जीवंत होने लगे हैं
सुनहरे फ़्रेम वाले चश्मे के पीछे से
ताक रही हैं दो अनुभवी आँखें
हाथों में चॉक पकड़े
अपने ज़हन के जाले झाड़कर
मैं उठ खड़ा होता हूँ
लॉन में वह शर्मीला पेड़
अब भी वहीं है
जिस की छाल पर
एक वासंती दिन
दो मासूमों ने कुरेद दिए थे
दिल की तसवीर के इर्द-गिर्द
अपने-अपने उत्सुक नाम
समय की भिंची मुट्ठियाँ
धीरे-धीरे खुल रही हैं
स्मृतियों के आईने में एक बच्चा
अपना जीवन सँवार रहा है ...
इसी तरह कई जगहों पर
कई बार लौटते हैं हम
उस अंतिम लौटने से पहले
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10. ग़रीब दलित का रामचरितमानस
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--- सुशांत सुप्रिय
ग़रीब दलित के रामचरितमानस में
ये कांड नहीं होते :
बाल कांड
सुंदर कांड
किष्किंधा कांड
लंका कांड
अयोध्या कांड
ग़रीब दलित के रामचरितमानस में
दरअसल ये कांड होते हैं :
अपमान कांड
भेद-भाव कांड
पीड़ा कांड
खैरलाँजी कांड
मिर्चपुर कांड ...
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11. स्पर्श
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--- सुशांत सुप्रिय
धूल भरी पुरानी किताब के
उस पन्ने में
बरसों की गहरी नींद सोया
एक नायक जाग जाता है
जब एक बच्चे की मासूम उँगलियाँ
लाइब्रेरी में खोलती हैं वह पन्ना
जहाँ एक पीला पड़ चुका
बुक-मार्क पड़ा है
उस नाज़ुक स्पर्श के मद्धिम उजाले में
बरसों से रुकी हुई एक अधूरी कहानी
फिर चल निकलती है
पूरी होने के लिए
पृष्ठों की दुनिया के सभी पात्र
फिर से जीवंत हो जाते हैं
अपनी देह पर उग आए
खर-पतवार हटा कर
जैसे किसी भोले-भाले स्पर्श से
मुक्त हो कर उड़ने के लिए
फिर से जाग जाते हैं
पत्थर बन गए सभी शापित देव-दूत
जैसे जाग जाती है
हर कथा की अहिल्या
अपने राम का स्पर्श पा कर
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12. आश्चर्य
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--- सुशांत सुप्रिय
आज दिन ने मुझे
बिना घिसे
साबुत छोड़ दिया
मैं अपनी
धुरी पर घूमते हुए
हैरान सोच रहा हूँ --
यह कैसे हुआ
यह कैसे हुआ
यह कैसे हुआ
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13. विडम्बना
--------------
--- सुशांत सुप्रिय
कितनी रोशनी है
फिर भी कितना अँधेरा है
कितनी नदियाँ हैं
फिर भी कितनी प्यास है
कितनी अदालतें हैं
फिर भी कितना अन्याय है
कितने ईश्वर हैं
फिर भी कितना अधर्म है
कितनी आज़ादी है
फिर भी कितने खूँटों से
बँधे हैं हम
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14. विनम्र अनुरोध
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--- सुशांत सुप्रिय
जो फूल तोड़ने जा रहे हैं
उनसे मेरा विनम्र अनुरोध है कि
थोड़ी देर के लिए
स्थगित कर दें आप
अपना यह कार्यक्रम
और पहले उस कली से मिल लें
खिलने से ठीक पहले
ख़ुशबू के दर्द से छटपटा रही है जो
यह मन के लिए अच्छा है
अच्छा है आदत बदलने के लिए
कि कुछ भी तोड़ने से पहले
हम उसके बनने की पीड़ा को
क़रीब से जान लें
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15. कलयुग
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--- सुशांत सुप्रिय
एक बार
एक काँटे के
शरीर में चुभ गया
एक नुकीला आदमी
काँटा दर्द से
कराह उठा
बड़ी मुश्किल से
उसने आदमी को
अपने शरीर से
बाहर निकाल फेंका
तब जा कर काँटे ने
राहत की साँस ली
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16. अंतर
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--- सुशांत सुप्रिय
महँगे विदेशी टाइल्स
और सफ़ेद संगमरमर से बना
आलीशान मकान ही
तुम्हारे लिए घर है
जबकि मैं
हवा-सा यायावर हूँ
तुम्हारे लिए
नर्म-मुलायम गद्दों पर
सो जाना ही घर आना है
जबकि मेरे लिए
नए क्षितिज की तलाश में
खो जाना ही
घर आना है
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17. नियति
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--- सुशांत सुप्रिय
मेरे भीतर
एक अंश रावण है
एक अंश राम
एक अंश दुर्योधन है
एक अंश युधिष्ठिर
जी रहा हूँ मैं निरंतर
अपने ही भीतर
अपने हिस्से की रामायण
अपने हिस्से का महाभारत
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18. इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
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--- सुशांत सुप्रिय
देह में फाँस-सा यह समय है
जब अपनी परछाईं भी संदिग्ध है
' हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ' --
घबराए हुए लोग चिल्ला रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं '
न कोई खिड़की , न दरवाज़ा , न रोशनदान है
काल-कोठरी-सा भयावह वर्तमान है
' हमें बचाओ , हम त्रस्त हैं ' --
डरे हुए लोग छटपटा रहे हैं
किंतु दूसरी ओर केवल एक
रेकॉर्डेड आवाज़ उपलब्ध है --
' इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं '
बच्चे गा रहे वयस्कों के गीत हैं
इस वनैले-तंत्र में मासूमियत अतीत है
बुद्ध बामियान की हिंसा से व्यथित हैं
राम छद्म-भक्तों से त्रस्त हैं
समकालीन अँधेरे में
प्रार्थनाएँ भी अशक्त हैं ...
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
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19. कठिन समय में
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--- सुशांत सुप्रिय
बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी
मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई
बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देखकर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं
इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं ...
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था
बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था
ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था
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20. जो नहीं दिखता दिल्ली से
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--- सुशांत सुप्रिय
बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से
आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से
विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से
राष्ट्रपति-भवन के प्रांगण
संसद-भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश
मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से
मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना
चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिंखते हैं दिल्ली से
दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए
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21. फ़िलिस्तीन
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--- सुशांत सुप्रिय
ऐटलस हमेशा पूरा सच
नहीं देता है
कुछ क़ौमों का जीवन
भिंची हुई मुट्ठी-सा होता है
कोई नाम साँसों में
रचा-बसा होता है
कोई नाम होठों पर
आयतों-सा होता है
इसे कहीं चेचेन्या
कहीं ईराक़
कहीं अफ़ग़ानिस्तान
कहते हैं
किंतु इसका मतलब
हर भाषा में
फ़िलिस्तीन ही होता है
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22. किसान का हल
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--- सुशांत सुप्रिय
उसे देखकर मेरा
दिल पसीज जाता है
कई घंटे मिट्टी और
कंकड़-पत्थर से
जूझने के बाद
इस समय वह हाँफता हुआ
ज़मीन पर वैसे ही पस्त पड़ा हुआ है
जैसे दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद
शाम को निढाल हो कर पसर जाते हैं
कामगार और मज़दूर
मैं उसे प्यार से देखता हूँ
और अचानक वह निस्तेज लोहा
मुझे लगने लगता है
किसी खिले हुए सुंदर फूल-सा
मुलायम और मासूम
उसके भीतर से झाँकने लगती हैं
पके हुए फ़सलों की बालियाँ
और उसके प्रति मेरा स्नेह
और भी बढ़ जाता है
मेहनत की धूल-मिट्टी से सनी हुई
उसकी धारदार देह
मुझे जीवन देती है
लेकिन उसकी पीड़ा
मुझे दोफाड़ कर देती है
उसे देखकर ही मैंने जाना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
लोहा भी रोता है
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23. नरोदा पाटिया : गुजरात , २००२
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--- सुशांत सुप्रिय
जला दिए गए मकान के खंडहर में
तनहा मैं भटक रहा हूँ
उस मकान में जो अब साबुत नहीं है
जिसे दंगाइयों ने जला दिया था
वहाँ जहाँ कभी मेरे अपनों की चहल-पहल थी
उस जले हुए मकान में अब उदास वीरानी है
जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में
तनहा मैं भटक रहा हूँ
यह बिन चिड़ियों वाला
एक मुँहझौंसा दिन है
जब सूरज जली हुई रोटी-सा लग रहा है
और शहर से संगीत नदारद है
उस जला दिए गए मकान में
एक टूटा हुआ आइना है
मैं जिसके सामने खड़ा हूँ
लेकिन जिसमें अब मेरा अक्स नहीं है
आप समझ रहे हैं न
जला दिए गए उसी मकान के खंडहर में
मैं लौटता हूँ बार-बार
वह मैं जो दरअसल अब नहीं हूँ
क्योंकि उस मकान में अपनों के साथ
मैं भी जला दिया गया था ...
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24. दीवार
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--- सुशांत सुप्रिय
बर्लिन की दीवार
कब की तोड़ी जा चुकी थी
लेकिन मेरा पड़ोसी फिर भी
अपने घर की चारदीवारी
डेढ़ हाथ ऊँची कर रहा था
पता चला कि वह उस ऊँची दीवार पर
काँच के टुकड़े बिछाएगा
और फिर उस दीवार पर
कँटीली तारें भी लगाएगा
मैं नहीं जानता
उसके दिमाग़ में
दीवार ऊँची करने का ख़याल
क्यों और कैसे आया
हाँ , एक बार उसने
मेरे लॉन में उगे पेड़ की
वे टहनियाँ ज़रूर काट डाली थीं
जो उसके लॉन के ऊपर फैल गई थीं
पर उस पेड़ की छाया
इस घटना के बाद भी
बराबर उसके लॉन में पड़ती रही
एक ही आकाश
इस घटना के बाद भी
दोनो घरों के ऊपर बना रहा
धूप इस घटना के बाद भी
दो फाँकों में नहीं बँटी
और हवाएँ
इस घटना के बाद भी
बिना रोक-टोक
दोनो घरों के लॉन में
आती-जाती रहीं
फिर सुनने में आया
कि मेरे पड़ोसी ने शेयर-बाज़ार में
बहुत पैसा कमाया है
कि अब वह पहले से ऊँची कुर्सी पर
बैठने लगा है
कि उसकी नाक
अब पहले से कुछ ज़्यादा खड़ी हो गयी है
मैं उसे किसी दिन
बधाई दे आने की बात
सोच ही रहा था
कि उसने अपनी चारदीवारी
डेढ़ हाथ ऊँची करनी शुरू कर दी
उन्हीं दिनों
रेडियो टी. वी. और
समाचार-पत्रों ने बताया
कि बर्लिन की दीवार
तोड़ने की बीसवीं वर्षगाँठ
मनाई जा रही है ...
याद नहीं आता
कहाँ और कब पढ़ा था
कि जब दीवार
आदमी से ऊँची हो जाए
तो समझो
आदमी बेहद बौना हो गया है
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25. दूसरे दर्ज़े का नागरिक
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--- सुशांत सुप्रिय
उस आग की झीलों वाले प्रदेश में
वह दूसरे दर्ज़े का नागरिक था
क्योंकि वह किसी ऐसे पिछड़े इलाक़े से
आकर वहाँ बसा था
जहाँ आग की झीलें नहीं थीं
क्योंकि वह ' सन-ऑफ़-द-सोएल '
नहीं माना गया था
क्योंकि उसकी नाक थोड़ी चपटी
रंग थोड़ा गहरा
और बोली थोड़ी अलग थी
क्योंकि ऐसे ' क्योंकियों ' की
एक लम्बी क़तार मौजूद थी
आग की झीलों वाले प्रदेश में चलती
काली आँधियों को नज़रंदाज़ कर
उसने वहाँ की भाषा सीखी
वहाँ के तौर-तरीके अपनाए
वह वहाँ जवानी में आया था
और बुढ़ापे तक रहा
इस बीच कई बार
उसने चीख़-चीख़ कर
सबको बता देना चाहा
कि उसे वहाँ की मिट्टी से प्यार हो गया है
कि उसे वहाँ की धूप-छाँह भाने लगी है
कि वह ' वहीं का ' होकर रहना चाहता है
पर हर बार उसकी आवाज़
बहरों की बस्ती में भटकती
चीत्कार बन जाती
वहाँ की संविधान की किताब
और क़ानून की पुस्तकों में
सब को समान अधिकार देने की बात
सुनहरे अक्षरों में दर्ज़ थी
वहाँ अदालतें थीं
जिनमें खड़ी नाक वाले
सम्मानित जज थे
वहाँ के विश्वविद्यालयों में
' मनुष्य के मौलिक अधिकार ' विषय पर
गोष्ठियाँ और सेमिनार आयोजित किए जाते थे
क्योंकि आग की झीलों वाला प्रदेश
बड़ा समृद्ध था
जहाँ सबको समान अवसर देने की बातें
अक्सर कही-सुनी जाती थीं
इसलिए उसने सोचा कि वह भी
आकाश भर फैले
समुद्र भर गहराए
फेनिल पहाड़ी नदी-सा बह निकले
पर जब उसने ऐसा करना चाहा
तो उसे हाशिए पर ढकेल दिया गया
वह अपनी परछाईं जितना भी
न फैल सका
वह अंगुल भर भी
न गहरा सका
वह आँसू भर भी
न बह सका
उसकी पीठ पर
ज़ख़्मों के जंगल उग आए
जहाँ उसे मिलीं
झुलसी तितलियाँ
तड़पते वसंत
मैली धूप
कटा-छँटा आकाश
और निर्वासित स्वप्न
दरअसल आग की
झीलों वाले उस प्रदेश में
सर्पों के सौदागर रहते थे
जिनकी आँखों में
उसे बार-बार पढ़ने को मिला
कि वह यहाँ केवल
दूसरे दर्ज़े का नागरिक है
कि उसे लौट जाना है
यहाँ से एक दिन ख़ाली हाथ
कि उसके हिस्से की धरती
उसके हिस्से का आकाश
उसके हिस्से की धूप
उसके हिस्से की हवा
उसे यहाँ नहीं मिलेगी
इस दौरान सैकड़ों बार वह
अपने ही नपुंसक क्रोध की ज्वाला में
सुलगा
जला
और बुझ गया
रोना तो इस बात का है
कि जहाँ वह उगा था
जिस जगह वह
अपने अस्तित्व का एक अंश
पीछे छोड़ आया था
जहाँ उसने सोचा था कि
उसकी जड़ें अब भी सुरक्षित होंगी
जब वह बुढ़ापे में वहाँ लौटा
तो वहाँ भी उसे
दूसरे दर्ज़े का नागरिक माना गया
क्योंकि उसने अपनी उम्र का
सबसे बड़ा हिस्सा
आग की झीलों वाले प्रदेश को
दे दिया था ...
----------०----------
26. कल रात सपने में
----------------------
--- सुशांत सुप्रिय
कल रात मेरे सपने में
गाँधारी ने इंकार कर दिया
आँखों पर पट्टी बाँधने से
एकलव्य ने नहीं काटा
अपना अँगूठा द्रोण के लिए
सीता ने मना कर दिया
अग्नि-परीक्षा देने से
द्रौपदी ने नहीं लगने दिया
स्वयं को जुए में दाँव पर
पुरु ने नहीं दी
ययाति को अपनी युवावस्था
कल रात
इतिहास और ' मिथिहास ' की
कई ग़लतियाँ सुधरीं
मेरे सपने में
----------०----------
27. युग-बोध
--------------
--- सुशांत सुप्रिय
मेरे दादाजी अक्सर
अपरिचित लोगों के
सपनों में
चले जाते थे
वहाँ दादाजी
उन सबसे
घुल-मिलकर
खुश हो जाते थे
मेरे पिताजी के
सपनों में
अक्सर अजनबी लोग
खुद ही चले आते थे
पिताजी भी
उन सबसे
घुल-मिलकर
खुश हो जाते थे
मैं किसी के
सपनों में नहीं जाता हूँ
न ही कोई मेरे
सपनों में आता है
मैंने अपने सपनों के द्वार पर
' यह आम रास्ता नहीं है ' का
बोर्ड लगा रखा है
मेरे समकालीनों के
सपनों के दरवाज़े पर
' कुत्तों से सावधान ' का
बोर्ड लगा हुआ है
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28. कैसा युग है यह
---------------------
--- सुशांत सुप्रिय
कैसा युग है यह
जब कुत्तों के नाम
जॉनी और जैकी हैं
जबकि इंसान
कुत्ते की तरह
दुम हिला रहा है
जब खुद पिंजरे में बैठा तोता
आपके बारे में
भविष्यवाणी कर रहा है
जब सूखे हाथ
मोटे लोगों की
मालिश कर रहे हैं
जब आपके ऑफ़िस में
कूड़ेदान हैं
जबकि कुछ ग़रीब बच्चों के लिए
कूड़ेदान ही ऑफ़िस हैं
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परिचय
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नाम : सुशांत सुप्रिय
जन्म : 28 मार्च , 1968
शिक्षा : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।
प्रकाशित कृतियाँ :# हत्यारे , हे राम , दलदल ( तीन कथा - संग्रह ) ।
# अयोध्या से गुजरात तक , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं
( दो काव्य-संग्रह ) ।
सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ
पुरस्कृत । कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो
वर्ष प्रथम पुरस्कार ।
अन्य प्राप्तियाँ :# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी, उड़िया, मराठी,
असमिया , कन्नड़ व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित व
प्रकाशित । कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी
पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय
वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. ,
कुरुक्षेत्र वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर के हिंदी
विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।
# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह
' इन गाँधीज़ कंट्री ' प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ
डायरेक्शन ' और अनुवाद की पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ'
प्रकाशनाधीन ।
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
मोबाइल : 8512070086
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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014
( उ. प्र . )
मो: 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
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